सामाजिक न्याय की अवधारणा पर निबन्ध | Essay on Social Justice in Hindi!

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सामाजिक न्याय की संकल्पना बहुत व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत ‘सामान्य हित’ के मानक से सम्बन्धित सब कुछ आ जाता है जो अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा से लेकर निर्धनता और निरक्षरता के अन्मूलन तक सब कुछ पहलुओं को द्वंगित करता है ।

यह न केवल विधि के समक्ष समानता के सिद्धान्त का पालन करने और न्यायपालिका की स्वतंत्रता से सम्बन्धित है, जैसा हम पश्चिमी देशों में देखते हैं, बल्कि इसका सम्बन्ध उन कुत्सित सामाजिक कुरीतियों जैसे द्ररिद्रता, बीमारी, बेकारी और भुखमरी आदि के दूर करने से भी है जिसकी तीसरी दुनिया के विकासशील देशों पर गहरी चोट पड़ी है ।

इसके साथ, इसका सम्बन्ध उन निहित स्वार्थो को समाप्त करने से है जो लोकहित को सिद्ध करने के मार्ग में और यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है । इस दृष्टि से दुनिया के पिछड़े और विकासशील देशों में सामाजिक न्याय का आदर्श राज्य के लिए यह आवश्यक बना देता है कि वह पिछड़े और समाज के कमजोर वर्गो की हालत सुधारने के लिए ईमानदारी से प्रयास करें ।

सामाजिक न्याय अवधारणा का अभिप्राय यह है कि नागरिक, नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए और प्रत्येक व्यक्ति को अन्य विकास के पूर्ण अवसर सुलभ हों । सामाजिक न्याय की धारणा में एक निष्कर्ष यह निहित है कि व्यक्ति का किसी भी रुप में शोषण न हो और उसके व्यक्तित्व को एक पवित्र सामाजिक न्याय की सिद्धि के लिए माना जाए मात्र साधन के लिए नहीं ।

सामाजिक न्याय की व्यवस्था में सुधारु और सुसंस्कृत जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियों का भाव निहित है और इस संदर्भ में समाज की राजनीतिक सत्ता से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विद्यार्थी तथा कार्यकारी कार्यक्रमों द्वारा क्षमतायुक्त समाज की स्थापना करें ।

सामाजिक न्याय की मांग है कि समाज के सुविधाहीन वर्गो को अपनी सामाजिक- आर्थिक असमर्थताओं पर काबू पाने और अपने जीवन स्तर में सुधार करने के योग्य बनाया जाए, समाज के गरीबी के स्तर से नीचे के सर्वाधिक सुविधावंचित वर्गो विशेषरूप से निर्धनों के बच्चों, महिलाओं ओर सशक्त व्यक्तियों की सहायता की जाए और इस प्रकार शोषणविहीन समाज की स्थापना की जाए ।

समाज के दूर्लभ वर्गो को ऊंचा उठाए बिना, हरिजनों पर अत्याचार को रोके बिना, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गो का विकास किए बिना सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं हो सकती । सामाजिक न्याय का अभिप्राय है कि मनुष्य मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए, प्रत्येक व्यक्तियों को अपनी शक्तियों के समुचित विकास के समान अवसर उपलब्ध हों, किसी भी व्यक्ति का किसी भी रुप मे शोषण न हो, समाज के प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हों, आर्थिक सत्ता चन्द हाथों में केन्द्रित न हो, समाज का कमजोर वर्ग अपने को असहाय महसूस न करे ।

मार्क्सवादियों के अनुसार, न्याय का यह सिद्धान्त कार्ल मार्क्स के चिन्तन में मन्त्र-तन्त्र विखरा पड़ा है । मार्क्स द्वारा प्रतिपादित समाजवादी समाज में बुर्जुआ स्वामित्व और शोषण को समाप्त कर दिया गया है, उसमें यह माना जाता है कि वह वितरण न्यायपूर्ण है जिसमें हरेक को सामाजिक उत्पाद में दिए गए श्रम के योगदान के अनुसार अपना हिस्सा प्राप्त हो ।

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इस प्रकार सामाजिक न्याय का आदर्श एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित और विकसित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने की परिकल्पना करता है । इस नाते ”कानून समाज विज्ञान बन जाता है और वकीलों को अपने लिए समाज वैज्ञानिक समझना चाहिए” ।

इस कारण, कानून के शासन के आधार वाक्य व्यापक हो जाते हैं । लोगों की समानता और स्वतंत्रता को सुनिचित करने के साथ-साथ यहां ऐसी सामाजिक व्यवस्था लाने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की संस्थाओं को अनुप्राणित करें ।

सामाजिक न्याय की अवधारणा ने आधुनिक युग में लोगों में जागृति उत्पन्न करने में प्रभावक भूमिका उत्पन्न की है । भारत में महात्मा गांधी और भीमराव अम्बेडकर के विचारों में सामाजिक न्याय की मांग पर जोर दिया गया थ । महात्मा गांधी तो सामाजिक न्याय की स्थापना कै लिए आजीवन संघर्ष करते रहे ।

उनके संरक्षता सिद्धांत में समाज सुधार कार्यो में हमें सामाजिक न्याय के प्रति उनकी जागरुकता स्पष्ट परिलक्षित होती है । जवाहर लाल नेहरु का मानवतावाद सामाजिक न्याय के विचार में ओत प्रोत था । उनका समाजवादी दर्शन सामाजिक-आर्थिक न्याय का ही प्रतिबिम्ब था उन्होंने सदैव इस बात पर बल दिया कि सामाजिक न्याय की प्रस्तावना के लिए आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण न हो और विकास कार्यो का लाभ समाज के सभी वर्गों के लोगों को मिले।

भारतीय संविधान में मंत्र तंत्र सामाजिक न्याय के सिद्धान्त बिखरे पड़े हैं । द्वितीय महायुद्ध के बाद विकासशील देशों में बढ़ती हुई आर्थिक विषमता की खाई में आर्थिक विकास बनाम समाजिक न्याय के सवाल को ओर भी तेज कर दिया । सामाजिक न्याय सुलभ करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की राजसत्ता विद्यार्थी और कार्यकारी कृत्यों द्वारा समतायुक्त समाज की स्थापना का प्रयत्न करें ।

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