समाजवाद और भारत पर निबन्ध | Essay on Socialism and India in Hindi!

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समाजवाद अंग्रेजी शब्द ‘सोसिलिया’ का हिंदी पर्याय है । इसके अनुसार उत्पादन और विनिमय के सिद्धांतों पर समाज का नियंत्रण होता है । यह एक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था है, जिसके द्वारा गरीब और अमीर के भेद को मिटाकर सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं ।

सन् १९१७ की रूसी क्रांति के बाद संसार में समाजवाद का महत्त्व प्रतिष्ठित हुआ । इससे सिद्ध हुआ कि क्रांति द्वारा किसी राष्ट्र अथवा समाज में गरीबी तथा अमीरी को मिटाकर समाजवाद की स्थापना की जा सकती है । रूसी क्रांति की सफलता के बाद विविध राजनीतिक विचारधाराओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाजवाद को भी सम्मानजनक प्रतिष्ठा मिली ।

कालांतर में इसके विचारकों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की, जिसमें सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक भेद को मिटाकर समता और स्वतंत्रता के आधार पर एक वर्णविहीन समाज की स्थापना संभव हो सकती है । कुछ लोग समाजवाद को साम्यवाद का पर्याय मानते हैं, मगर समाजवाद के मूल चिंतक कार्ल मार्क्स ने समाजवाद को साम्यवाद की पहली सीढ़ी माना है ।

समाजवाद एक अंतरिम स्थिति है, इसका लक्ष्य साम्यवाद है, जिसके अनुसार संपूर्ण संपन्न स्थिति में समाज को फिर किसी राजनीतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं होती, समाज स्वयं स्वशासित बन जाता है । राजशक्ति के लोप के बाद राज्य सर्वहारा वर्ग के हित में सारे साधनों का उपयोग करता है । यही साम्यवाद की मंजिल है । नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क आदि यूरोपीय देशों में जनतांत्रिक पद्धति द्वारा सामाजिक समाजवाद स्थापित हुआ है ।

भारतीय समाजवाद इसी भारत की ही देन है, जिसके जनक आचार्य नरेंद्रदेव माने जाते हैं । सन् १९३१ में कांग्रेस के अंदर समाजवादी दल का निर्माण किया गया था । इसके पश्चात् एक समय ऐसा आया जब समाजवादियों को कांग्रेस छोड्‌कर अपनी स्वतंत्र संस्था बनानी पड़ी ।

इसका कांग्रेस पर बुरा प्रभाव पड़ा । कांग्रेस में समाजवाद के पक्षधर वामपंथी सदस्यों के रहते हुए भी उक्त संगठन पर दक्षिणपंथी विचारधारा का आधिपत्य रहा । स्वतंत्र भारत के संविधान में भी समाजवाद का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है ।

यदापि वर्णित परिकल्पना समाजवादी समाज की है । भारत में समाजवादी विचारधारा को व म्मन स्वरूप देनेवाले नेताओं में आचार्य नरेंद्रदेव, पं.जवाहरलाल नेहरू जयप्रकाश नारायण, डी. राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, अच्छत पटवर्धन, कमला देवी चट्‌टोपाध्याय आदि उल्लेखनीय हैं ।

अकसर चर्चा की जाती है कि समाजवाद भारतीय धर्म-संस्कृति और मान्यताओं के अनुकूल नहीं है । यह गलत धारणा है । भारतीय ऋषियों के चिंतन में ही ऐसे प्रमाण भरे पड़े हैं, जिनके आधार पर संपत्ति तथा सभी राष्ट्रीय साधनों का समान बँटवारा संभव है ।

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भारतीय संस्कृति में प्रतिपादित समता, विश्वबंधुत्व, दानशीलता आदि तत्त्व समाजवादी संरचना के प्रतिकूल कदापि नहीं हैं । इस देश के राष्ट्रीय साधनों पर अगर व्यक्तिगत स्वामित्व रहेगा तो इस देश की गरीबी कैसे दूर की जा सकती है ? भारत में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मतलब है उस व्यवस्था के हितानुकूल पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को कायम रखना ।

यह प्रजातांत्रिक दृष्टि नहीं है । राष्ट्र में उत्पादन की वृद्धि की घोषणा भी व्यर्थ है, जबकि उत्पादन के समान वितरण का तत्त्व उसमें निहित न हो । समाज में दीर्घकालीन सामंतवादी तथा पूँजीवादी व्यवस्था के कारण ही आज व्यक्ति स्वार्थी बन गया है ।

अगर व्यक्ति को समाजवादी संस्कारों में ढाला जाएगा तो वह व्यष्टि-समष्टि के लिए बलिदानी भी बन सकता है । समाजवादी व्यवस्था की दोष-दृष्टि भी विचारणीय है । समाजवाद व्यक्ति की महत्ता का विरोधी है । दूसरी आशंका यह है कि समाजवाद की स्थापना से धर्म समाप्त हो जाएगा ।

तीसरा आरोप है कि समाजवाद खूनी क्रांति का समर्थक है । कुछ लोगों को इस नाम से ही चिढ़ है । इन आरोपों अथवा गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास किया जाए तो ‘समाजवाद’ इसके अनेक रोगों का उपचार सिद्ध हो सकता है ।

समाजवाद व्यक्ति की महत्ता का विरोधी नहीं, बल्कि उस महत्ता के दुरुपयोग का विरोधी है । समाजवाद कर्म को व्यक्तिगत निष्ठा मात्र मानता है । राष्ट्रनीति में उसका दखल अवांछित है । जनतांत्रिक पद्धति से समाजवाद की स्थापना में अनावश्यक विलंब की आशंका तो है ही ।

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