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समाजवाद की सार्थकता पर निबंध | Essay on Significance of Socialism in Hindi!

हमारे देश के जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 ए को चुनौती देने वाली एक याचिका में मांग की गई थी कि उस कानून के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों से समाजवाद के प्रति निष्ठा रखने की बाध्यता हटाई जाए । इसे खारिज करते हुए न्यायमूर्ति आर.वी. रवीन्द्रन ने कहा कि समाजवाद का व्यापक अर्थ है, जिसे वामपंथ की परिभाषा से जोड़कर नही देखना चाहिए ।

साथ ही तब के प्रधान न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन ने कहा था कि समाजवाद का कोई निश्चित अर्थ नहीं है । दरअसल यह बहस का विषय है । राजनीति शास्त्र की पुस्तकों तथा मानक शब्द कोषों के अनुसार समाजवाद एक वामपंथी विचारधारा ही है तथा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य का एक मात्र अधिकार होता है ।

यह भी विचारणीय है कि यदि किसी शब्द का कोई निश्चित अर्थ ही नहीं तो उसे किसी कानून की उक्त धारा के प्रति किसी व्यक्ति या दल के वैध-अवैध कार्य का निर्णय तो तभी हो सकता है जब समाजवाद का अर्थ निश्चित हो । अपेक्षा है कि सर्वोच्च न्यायालय की एक बड़ी पीठ इस विषय पर पुनर्विचार करेगी । इस संबंध में सबसे अधिक गंभीर गड़बड़ी स्वयं संविधान की प्रस्तावना में की गई है ।

आज कम ही लोग जानते हैं कि 1976 में 42 वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना को भी बदला गया था । उसी के द्वारा ‘सोशलिस्ट’ तथा सेकुलर नामक विवादास्पद अवधारणाओं को संविधान में जोड़ दिया गया था । जबकि उससे पद्रह वर्ष पहले 1960 में ही स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल प्रस्तावना को वह दिशा-निर्देशक बताया था जिसके सहारे संविधान की अन्य धाराओं में दुविधा होने पर ठीक-ठीक समझा जा सकता है ।

1973 में केशवानंद भारती मामले मे न्यायालय ने उसी मूल प्रस्तावना को संविधान का बुनियादी ढांचा भी घोषित किया था, किंतु उसी प्रस्तावना में 1976 में संशोधन करके यह दो गूढ़ शब्द जोड़े गए ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ ।

मूल संविधान में भारत को ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ कहा गया था, लेकिन इस संशोधन के बाद वह ‘लोकतांत्रिक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष गणराज्य’ में बदल दिया गया । यह 42वां संशोधन अत्यंत बदनाम हुआ था, जिसे तत्कालीन कांग्रेस-कम्युनिस्ट गठजोड़ द्वारा लगाई इमरजेंसी के दौरान संपन्न किया गया । यह संशोधन उस समय किया गया जब केन्द्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय स्वयं केन्द्रीय मंत्रियों को भी रेडियो से मालूम होते थे अर्थात् यह संशोधन बिना किसी विचार विमर्श के और दो-चार व्यक्तियों की मनमानी से किया गया था ।

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उसके पीछे निहित स्वार्थ थे, यह इससे भी स्पष्ट है कि इमरजेंसी खत्म होने पर नई सरकार द्वारा उस संशोधन की कई बातों को निरस्त कर दिया गया । अत: संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद जोडने से न केवल संविधान का मूल ढांचा बिगड़ा बल्कि यह कार्य अनुचित तरीके से भी किया गया था ।

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‘सोशलिस्ट और सेकुलर’ ऐसी अवधारणाएं नहीं थी जिनके बारे में हमारे संविधान निर्माताओं को ज्ञान न था । सोशलिज्म तब पूरे यूरोप में सबसे अधिक फैशनेबल राजनीतिक विचारधारा थी । वैसे भी चाहे जितने व्यापक रूप में देखें, यह दोनों धारणाएं ऐसी सुंदर या अहिंसक नहीं हैं जितनी समझी जाती हैं ।

इसका प्रमाण तो इससे भी मिलता है कि 1976 में संविधान में इसे जोड़ने वाले निर्णयकर्ता सत्ताधारी एक प्रकार की तानाशाही में लिप्त थे । फिर समाजवाद के सिद्धांत और व्यवहार के बारे में तमाम समाजवादी शासनों के अनुभवों का भी आकलन करना चाहिए । सभी से यह प्रमाणित होता है कि सोशलिज्म एक विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा है जो कमोबेश लोकतंत्र के विपरीत पड़ती है ।

यदि यह लोकतंत्र का ही एक पहलू है तब प्रश्न उठता है कि भारत समेत सभी लोकतांत्रिक देशों में अलग से समाजवादी पार्टियाँ क्यों बनती रही हैं? दूसरी ओर एशिया, यूरोप, अफ्रीका-अरब दुनिया के सभी हिस्सों में जहाँ-जहाँ भी समाजवादी सत्ता बनती है तो दूसरी पार्टियों को बलपूर्वक खत्म कर दिया जाता रहा । इसे सार्वभौमिक इतिहास के उस तथ्य से जोड़ कर देखें कि जब भारत में सारे विपक्ष को जेल में ठूस दिया गया था तभी सत्ताधारियों ने संविधान में ‘समाजवाद’ का लक्ष्य जोड़ा था, वह भी बिना उसे परिभाषित किए ।

किसलिए? यह मानना ही होगा कि भारतीय संविधान में समाजवाद को दिशा-निर्देशक स्थान दिए जाने से यहां कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियों को अनुचित वरिष्ठता शक्ति मिल रही है । यह परिवर्तन संविधान की लोकतांत्रिक आत्मा के विरूद्ध है, क्योंकि इसने एक विशेष राजनीतिक विचारधारा का संवैधानिक दबदबा कायम कर दिया है ।

यह भी विचारणीय है कि संविधान किसी देश का मूलभूत कानून होता है । उसी के आधार पर दूसरे कानून बना करते हैं, किंतु वह कैसा मूल कानून होगा जो स्वयं अपरिभाषित हो? जिस तरह पिछले तीन दशक से सोशलिज्म (और सेकुलरिज्म भी) संविधान का कथित बुनियादी ढांचा होते हुए भी स्वयं अपरिभाषित है वह स्वयमेव अनेक रोगों का कारण है । हमारे सत्ताधारी अपने जिस किसी कदम को चाहें सेकुलरिज्म या सोशलिज्म ठहरा सकते हैं, क्योंकि संविधान या कानून में कहीं कोई पक्की कसौटी बनी ही नहीं है ।

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