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बेबस बचपन पर निबंध | Essay on Unassisted Childhood in Hindi!
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अलग-अलग राज्यों ने बाड़ अधिनियम-1960 को आधार बना कर अनेक कानून बनाए । शीला बरसे प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह पूरे देश के लिए एक बाल अधिनियम बनाए, जिसे देश भर के बच्चों के लिए समान रूप से लागू किया जा सके ।
इन निर्देशों के बाद 1986 में फिर से बाल न्याय अधिनियम बनाया गया, जिसमें बाल अपराधियों के लिए अलग से न्याय-व्यवस्था का प्रावधान किया गया था । इस कानून के मुताबिक बाल अपराधियों को जेलों में न भेजकर अलग से स्थापित किये गये आब्जर्वेशन होम और विशेष गृहों में रखा जायेगा । किसी भी जुर्म में बाल अपराधी को जमानत का अधिकार है । बालपन में किये गये अपराध की सजा के वैकल्पिक तरीके दिये गये हैं ।
अगर किन्हीं विशेष या अपवाद की स्थितियों में किसी बाल अपराधी को कैद की सजा दी जाती है तो वह सजा अठारह साल की आयु पूरी होने के साथ ही समाप्त हो जानी चाहिए । किसी भी हाल में बाल अपराधी को हथकडी नहीं लगाई जा सकती ।
सभी थानों में बाल अपराधियों से पूछताछ और अनुसंधान करने के लिए एक बाल-कल्याण अधिकारी नियुक्त होना चाहिए जो पुलिस विभाग का उपनिरीक्षक या उससे ऊपर के ओहदे का हो सकता है । गिरफ्तार करने के बाद वर्दीधारी पुलिस को बाल-अपराधी के संपर्क में नहीं आनी चाहिए ।
लेकिन अगर पुलिस को लगता है कि किसी खास बाल-अपराधी को जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता है तो भी उसे थाने में नहीं रखा जा सकता । ऐसे बाल अपराधी को जल्दी से जल्दी बाल न्याय बोर्ड के सामने पेश किया जाना चाहिए और यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसे रिमांड पर नहीं लिया जा सकता ।
इस तरह के बच्चों की पहचान प्रकाशित करना या फोटो छापना एक घोषित अपराध है । कानून के तहत यह व्यवस्था की गयी है कि बचपन में किये गये अपराध की वजह से किसी बच्चे के भविष्य या कॅरियर को बाधित नहीं किया जा सकता ।
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लेकिन बाल न्याय अधिनियम-1986 में उन बच्चों के लिए विस्तार से प्रावधान नहीं किये जा सके, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है और अपने माता-पिता या समाज की उपेक्षा के शिकार होते हैं । आज भी ऐसे बहुत से बच्चे उपेक्षित हैं जिन्हें सरकारी संरक्षण की दरकार है ।
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इसी मकसद से सन् 2000 में नया बाल न्याय अधिनियम बनाया गया, जिसमें बच्चों को दो अलग-अलग वर्गो में बांट कर उनके कल्याण के उपाय किये गये । पहला वर्ग उन बच्चों से संबंधित है जिन्होंने कोई अपराध किया है । नए कानून में उनके लिए कमोबेश वही प्रावधान रखे गये हैं जो 1986 के कानून में थे । दूसरा वर्ग उन बच्चों का बनाया गया, जो उपेक्षित थे और जिन्हें सरकारी संरक्षण की दरकार थी ।
इस प्रकार के बच्चों के लिए सभी जिलों में बाल कल्याण समिति के गठन का प्रावधान किया गया, जिसके संरक्षण में उपेक्षित बच्चों के पुनर्वास और कल्याण की योजना बनाई गयी । इस कानून के तहत सरकार को बाल गृहों की स्थापना करने के निर्देश दिए गए हैं । किन्हीं परिस्थितियों में बेघरबार हुए बच्चों के लालन-पालन से लेकर शिक्षा, गोद देने और आर्थिक एवं सामाजिक पुनर्वास की रूपरेखा भी इस कानून में साफ तौर पर उल्लिखित है ।
जाहिर है, बच्चों के संरक्षण के लिए कानूनों की कमी नहीं है । असली समस्या उन पर अमल की है । आजादी के 63 साल बाद भी अगर इन प्रयासों की समीक्षा की जाये तो यह सवाल अब भी सामने मुंह फाड़े खड़ा दिखता है कि क्या उपेक्षित बच्चों के पुनर्वास की परियोजनाएं सार्थक हैं ।
अगर हां, तो क्या वजह है कि आज भी चौक- चौराहों पर कितने ही बच्चे भीख मांगते दिखाई देते है? बाल श्रमिकों का शोषण क्यों हो रहा है? सभी बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा पा रहे हैं? बाल अपराधी जेलों में बंद क्यों है? बाल न्याय अधिनियम-2000 के प्रावधानों को क्यों पूरी तरह लागू नहीं किया जा रहा है? इस कानून के प्रावधानों को पूर्णरूप से लागू करने में आपराधिक मामलों में न्याय-व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था नाकाम रही है ।
बचपन देश की धरोहर है । उसे संवारना हम सबका कर्त्तव्य है । क्या यह संकल्प लिया जा सकता है कि बाल न्याय अधिनियम के प्रावधानों को पूरी तरह लागू किया जा सकेगा? क्या आपराधिक मामलों की न्याय-व्यवस्था के तहत बच्चों को यह गारंटी दी जा सकती है कि इस प्रणाली में बच्चों के साथ अन्याय नहीं होगा? शीला बरसे बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के नतीजे में बाल न्याय अधिनियम अस्तित्व में आया था । लेकिन आज इसकी दिशा देखकर लगता है कि इस कानून पर भी सही तरीके से अमल के लिए शायद न्यायिक सक्रियता की दरकार है ।