लंका दहन | The Burning of Lanka in Hindi!
लंकापति रावण के दरबार में ले जाकर मेघनाद ने हनुमान जी को खड़ा कर दिया और कहा, ”पिताश्री ! अशोक वाटिका को तहस-नहस और अनेक महाबली राक्षसों को मारने वाला यही वानर है । यह बड़ा उत्पाती और बलशाली है ।
मैं बडी मुश्किल से इस पर नियंत्रण कर पाया हूँ । यह अपने आपको राम का दूत कहता है ।” ”राम का दूत ? हूं…।” रावण ने क्रोध में भरकर अपने हाथ को सिंहासन के हत्थे पर पटका औरउठ खड़ा हुआ और जोर से चीखा, ”प्रहस्त ! इस वानर से पूछो कि यह इतने विशाल सागर को पार करके यहां कैसे आ गया ?
यह वास्तव में कौन है और मेरी अशोक वाटिका में यह किस तरह पहुँच गया ? इसके यहां आने का उद्देश्य क्या है इसने अशोक वाटिका को ध्वस्त कर दिया और मेरे अनेक योद्धाओं को मार डाला है । इसका उद्देश्य क्या है ?” इस बीच हनुमान जी बड़े गौर से रावण की सभा को देख रहे थे ।
रावण के चीखने पर उनकी दृष्टि रावण पर गई । रावण के शरीर का सा काला था । उसका मस्तक बड़ा था । आखें अंगार बरसा रही थीं । उसका वक्ष विशाल था और शरीर के अंग-प्रत्यंग बलिष्ठ थे । उसकी आवाज में मेघ सी गर्जना थी । हनुमान जी ने सुना था कि वह शिव का बड़ा भक्त और प्रकाण्ड विद्वान है ।
संपूर्ण शास्त्रों और वेद का उसे पूर्ण ज्ञान है । वह रत्नजडित स्फटिक के एक विशाल और भव्य सिंहासन के सामने खड़ा था । उसकी धकुटि तनी हुई थी । वह अपने मंत्रियों और अनेकानेक महाबली राक्षसों से घिरा हुआ था । तभी उसकी दृष्टि विभीषण पर पड़ी, जो उसी की ओर देख रहे थे ।
उसी समय रावण के मंत्री प्रहस्त ने हनुमान जी की ओर देखकर पूछा, ”हे वानर ! तुम कौन हो और किस उद्देश्य से यहां आए हो ? तुमने लंका में जो उत्पात मचाया है, उसका कारण क्या है ?” हनुमान जी ने भगवान श्रीराम का मन में स्मरण किया और निर्भयता के साथ कहा, ”हे लंकापति रावण ! मैं उन श्रीराम का दूत हूं जिनकी धर्मपत्नी को तू छलपूर्वक हर लाया है ।
क्या तुझे अपनी मृत्यु का भय नहीं है ? जिस बालि ने तुझे अपनी बगल में दबाकर रखा हुआ था, उसी बालि को श्रीराम ने पल भर में मार डाला है । तू उन्हें नहीं जानता । वे साक्षात विष्णु के अवतार हैं और इस धरती से राक्षसों का भार कम करने के लिए अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में जन्मे हैं ।
मिथिला नगरी में सीता स्वयंवर में तू उनकी वीरता देख चुका है । जिस शिव धनुष को तू हिला तक नहीं सका, उसे उन्होंने पलक झपकते ही तोड़ डाला था । ताड़का, खर-दूषण आदि राक्षसों का विनाश करने वाले उन्हीं महाबली श्रीराम का संदेश देने मैं यहाँ आया हू ।
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मैं पवनपुत्र हनुमान हू और तुझसे कहता हूं कि अभी भी समय है । तू अपने अपराध की क्षमा प्रभु श्रीराम से माग ले और उनकी भार्या को विनम्रतापूर्वक लौटा दे । अन्यथा तेरा और तेरी इस लका का विनाश निश्चित है ।”
हनुमान जी की बात सुनकर रावण क्रोध में भर गया और प्रहस्त से बोला, ”प्रहस्त! इस दुर्विनीत वानर का सिर धड़ से अलग कर दो ।” विभीषण ने तभी आगे आकर कहा, ”नहीं भ्राताश्री ऐसी कठोर आज्ञा मत दीजिए । राजनीति में दूत को अवध्य माना गया है । आप इसका वध कराके पाप के भागीदार बन जाएंगे ।
इसने आपकी अशोक वाटिका का विनाश किया है और अनेकानेक महाबली राक्षसों को मारा है, उसके लिए आप इसे कोई और दण्ड दें, तो दे सकते हैं ।” प्रहस्थ बोला, ”महाराज ! विभीषण जी ठीक कह रहे हैं । दूत को कदापि नहीं मारना चाहिए ।”
उनकी बात सुनकर रावण सोच में पड़ गया । तभी हनुमान जी ने कहा, ”हे लंकापति रावण ! जहां तक अशोक वाटिका के विध्वंस का प्रश्न है, उसके लिए भी मेरा कोई अपराध नहीं है । मैं तो श्रीराम की आज्ञा से जनकनन्दिनी माता सीता की खोज में वहां गया था । तभी मुझे जोर की भूख लग आई । इसी कारण अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मैं वृक्षों पर चढ़कर फल खाने लगा ।
अब तुम्हारे वे वृक्ष मेरे भार को सहन नहीं कर सके और टूट-टूटकर गिरने लगे तो इसमें मेरा क्या दोष है ? दूसरे, तुम्हारी वाटिका के रक्षक जब मुझे मारने दौड़े तो अपनी जान बचाने के लिए ही मैंने वृक्षों की डालियों को अपना अस्त्र बनाकर अपना बचाव किया ।
वे मुझ पर शस्त्रों से प्रहार कर रहे थे और मैं उन पर वृक्षों को उखाड़-उखाड़कर फेंक रहा था । इस मारा-मारी में तुम्हारे रक्षक मारे गए । इसमें मेरा दोष कैसे हो गया ? अपने जीवन की रक्षा करना क्या पाप है ? अपराध तो तुम्हारे पुत्र ने किया है, जो मुझे अन्यायपूर्वक यहां बांध लाया है । दण्ड देना है तो आप अपने पुत्र को दीजिए ।”
हनुमान जी की तर्क भरी और मासूमियत से कही गई बातों को सुनकर रावण के दरबार में उपस्थित सभी मंत्री और विभीषण मन ही मन मुस्कराने लगे । उनकी आखों में आई चमक को देखकर रावण बौखला गया । वह क्रोध से कांपता हुआ उच्च स्वर में बोला, ”मूर्ख वानर ! तू इतना निडर होकर मेरे सामने अनर्गल प्रलाप कर रहा है ।
तेरे दुस्साहस का मैं तुझे अभी मजा चखाता हूं । जिसे अयोग्य समझकर उसके पिता ने अपने राज्य से बाहर निकाल दिया, तू उसकी मेरे सामने प्रशंसा करता है और जिस बालि का उसने छिपकर धोखे से वध किया, उसे तू वीर कहता है ।
सीता को तो मैं बाद में देखूंगा, पहले मैं तुझे दण्ड दूंगा और तेरे उस प्रभु राम को दिखा दूंगा कि लंकापति रावण, जिसकी प्रशस्ति समस्त देवगण करते हैं और उसके सामने शीश झुकाए खड़े रहते हैं, वह कितना बली है और उससे वैर मोल लेने का क्या परिणाम होता है । तू एक तुच्छ वानर है । मैं तुझे तेरे स्वभाव के अनुसार ही सजा दूंगा ।”
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ऐसा कहकर रावण ने अपने पुत्र मेघनाद की ओर देखा और कहा, ”इंद्रजीत ! इस दुष्ट वानर की पूछ में कपड़ा बांधकर तेल से भिगो दो और उसमें आग लगा दो, ताकि यह उछलकूद मचाकर अपनी आग को बुझाने के चक्कर में खुद ही जलकर मर जाएगा ।
फिर कोई हम पर दोष नहीं लगाएगा कि हमने दूत का वध किया है । इसकी प्रिय पूछ ही इसके वध का कारण बन जाएगी ।” ”जी पिताश्री!” मेघनाद बोला, ”एक वानर को अपनी पूँछ सर्वाधिक प्रिय होती है । हम इसकी पूछ में कपड़ा बांधकर और तेल से भिगोकर पहले इसे पूरी लंका में घुमाएंगे, ताकि लंकावासी देख लें कि हमारे साथियों को मारने वाले का दुष्परिणाम क्या होता है ।
जब नगरवासी इस पर पत्थर फेंकेंगे और इसका अपमान करेंगे, तब यह अपने राम को भूल जाएगा ।” रावण और मेघनाद की बातें सुनकर विभीषण ने भयभीत होकर हनुमान जी की ओर देखा । हनुमान जी ने आखों के संकेत से उन्हें चुप रहने के लिए कहा । प्रहस्थ और मेघनाद हनुमान जी को रावण के दरबार से खींचकर बाहर निकाल लाए ।
दरबार के बाहर सैकड़ों राक्षस कोलाहल मचा रहे थे । वे सभी उस वानर का तमाशा देखने के लिए वहा एकत्र हुए थे, जिनके परिजनों को हनुमान जी ने मार डाला था । मेघनाद के कहने पर राक्षस लोग वस्त्र ला-लाकर हनुमान जी की पूछ में बांधने लगे ।
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हनुमान जी धीरे-धीरे अपनो पूँछ को बढ़ाने लगे । जब तक उनकी पूछ में बहुत सारे कपड़े नहीं लपेट दिए गए और उन्हें तेल से अच्छी तरह भिगो नहीं दिया गया, तब तक हनुमान जी उनके साथ शांत चित्त लंका में घूमते रहे । लेकिन जब राक्षसों ने उनकी पूछ में आग लगा दी तो वे ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष करके उछलकर एक महल की अटारी पर चढ गए ।
उनकी पूछ धू-धू करके जलने लगी थी । उन्हें उछलता देख सभी राक्षस खुशी से पागल होकर चीखने-चिल्लाने लगे और तालियां बजा-बजाकर खुश होने लगे । राक्षसगण उनकी स्त्रियां और बच्चे ठट्ट के ठट्ट अपने घरों से निकलकर हनुमान की उछल-कूद देखने लगे ।
अब हनुमान जी ने देर करना उचित नहीं समझा । वे एक अटारी से कूदकर दूसरी पर और दूसरी से तीसरी पर कूद-कूदकर जाने लगे और वहाँ के भवनों में लटके परदों में अपनी पूँछ की अग्नि से आग लगाने लगे । इस बीच वे पूरे नगर को ही अपनी आखों में बसाते चल रहे थे और देखते जाते थे कि कहाँ पर क्या है । सैनिक छावनी कहां पर है ।
हनुमान जी द्वारा भवनों में आग लगाने से वे भवन धू-धू करके जलने लगे । धीरे-धीरे आग चारों ओर फैलने लगी । इस बीच हवा भी तेज चलने लगी, जिससे आग और भी फैल गई । अब तो जो राक्षस खुशी मना रहे थे और हनुमान जी को अपशब्द कहकर उनका अपमान कर रहे थे, घबरा गए ।
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उन्हें संभलने का मौका ही नहीं मिला । चारों ओर हा-हाकार मच गया । राक्षस लोग अपनी जान-माल की रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे । वे जितना पानी फेंकते, आग उतनी ही तेजी से बढ़ती जाती । हनुमान जी की दृष्टि प्रमुख रूप से लंका के प्रमुख द्वारों पर लगे यंत्रों और रावण के शस्त्रागारों पर थी ।
हनुमान जी ने उन्हें ढूंढ-ढूंढकर जलाना शुरू कर दिया । सामने पड़ने वाले राक्षसों को अपनी मुष्टिका प्रहार से मारना प्रारंभ कर दिया । अग्नि की भीषण ज्वालाओं ने पूरी लंका को अपनी लपेट में ले लिया । राक्षस लोग अपनी-अपनी जान बचाने के लिए भूगर्भ की शरण लेने लगे ।
रावण भी अपने परिवार को लेकर भूगर्भ के सुरक्षित स्थल पर चला गया । लंका में चारों ओर आग लगी थी । स्वर्ण पिघलकर सड़कों पर बहने लगा था । हनुमान जी ने इतनी सतर्कता अवश्य बरती थी कि अशोक वाटिका और विभीषण के महल तक अग्नि न पहुंचे ।
वे इधर से उधर कूदते रहे और आग लगाते रहे । अंत में जब उन्होंने देखा कि लंका में सभी ओर आग भड़क गई है तो वे अशोक वाटिका पहुंचे और माता सीता को प्रणाम कर और उनका आशीर्वाद लेकर तत्काल समुद्र के किनारे जा पहुंचे ।
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वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपनी पूछ को पानी में डुबो दिया और अग्नि को शांत किया तथा पूंछ पर बंधे अधजले कपड़ों को उतारकर फेंक दिया । उसके बाद वे उछलकर अरिष्ट गिरि पर चढ़ गए और मन ही मन प्रभु श्रीराम का स्मरण किया और अपने शरीर को विशाल बना लिया ।
तब वे उत्तर दिशा की ओर मुख करके पैरों पर दबाव बनाकर तीव्र गति से उछले और आकाश में गमन करने लगे । उनके उछलते ही सारी दिशाएं कांप उठीं । समुद्र गर्जन करने लगा । अरिष्ट गिरि की चट्टानें टूट-टूटकर नीचे गिरने लगीं । ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे धरती पर भूकंप आ गया हो ।
समुद्र पार करके हनुमान जी महेन्द्र पर्वत के निकट नीचे उतरने लगे, जहां जाम्यवान, अंगद और अन्य वानर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे । हनुमान जी को सकुशल वापस लौटते देखकर सभी वानर और भालू प्रसन्नता से उछलने-कूदने लगे और किलकारियां भरने लगे । एक-दूसरे का हर्षातिरेक में आलिंगन करने लगे और हर्षनाद करने लगे ।
हनुमान जी के नीचे उतरते ही सारे वानर समूह ने उन्हें घेर लिया और पूछने लगे कि क्या उन्होंने सीता जी को खोज निकाला ? हनुमान जी ने अंगद और जाम्यवान का आलिंगन किया और कहा, “मैंने माता सीता के चरणों का दर्शन और स्पर्श प्राप्त कर लिया है और रावण की लंका को अग्नि की भेंट देकर वापस लौट आया हूं ।”
सभी वानर हर्षातिरेक में चीखने-चिल्लाने लगे और नाचने-कूदने लगे । जाम्बवान ने उन्हें वक्ष से लगाकर अंगद से कहा, ”प्रिय अंगद ! अब हमें यथाशीघ्र वापस लौटकर महाराज सुग्रीव और प्रभु श्रीराम को यह शुभ समाचार देना चाहिए ।”
सभी ने जाम्बवान जी की बात का समर्थन किया । अंगद ने हनुमान जी से कहा, ”हे पवनपुत्र! आज तुमने हमारे प्राणों की रक्षा कर ली ।” अंगद की आखों से प्रेमाश्रु बहने लगे । वे बोले, ”हे वानर श्रेष्ठ ! बल और पराक्रम में तुम्हारे समान कोई दूसरा नहीं है । इस विशाल समुद्र को लांघकर तुम सकुशल वापस लौट आए हो ।
अब हम शीघ्र ही प्रभु श्रीराम और महाराज सुग्रीव को यह संदेश देंगे । प्रभु श्रीराम के प्रति तुम्हारी भक्ति अद्भुत है । तुम्हारा यह परम सौभाग्य है कि तुमने जानकी जी के दर्शन प्राप्त किए और उस दुष्ट रावण को कपि-शक्ति का एक नमूना दिखा आए । मुझे अब विश्वास है कि श्रीराम का वियोग इस संदेश को सुनने के उपरांत नष्ट हो जाएगा ।”
उसके बाद सारा वानर समूह जाम्बवान और अंगद के आदेश पर वापस ऋष्यमूक पर्वत की ओर लौट पड़ा । हनुमान जी उन सबके आगे-आगे चल रहे थे और सारे वानर उनके पीछे-पीछे उत्साहित होकर चल रहे थे । वे परस्पर महा बलशाली, बुद्धिमान, वेगशाली पवनपुत्र हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए चल रहे थे ।
मधुवन में वानरों का प्रवेश:
मार्ग में किष्किंधापति महाराज सुग्रीव का मधुवन नामक एक क्षेत्र पड़ता था । उस मधुवन की रक्षा सुग्रीव के मामा महाबली दधिमुख नामक वानर किया करते थे । उस मनोरम वन को देखकर वानर समूह की भूख-प्यास बढ़ गई ।
वे उस वन के फल खाने के लिए लालायित हो उठे । हर्षोन्मत्त वानरों ने युवराज अंगद से आज्ञा मांगी । उन्होंने वृद्ध जाम्यवान से पूछकर उन्हें आज्ञा दे दी । आज्ञा पाकर वे सभी वानर प्रसन्न होकर उस वन में प्रवेश कर गए और फल खाने लगे ।
फल खाकर और वन में लगे मधुमक्खियों के छत्तों से मधु पीकर वे इतने आनंद विभोर और मदमस्त हो गए कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि वे क्या कर रहे हैं । उनके उछलने-कूदने से वन के फलदार वृक्षों की डालियां टूट-टूटकर गिरने लगीं ।
इसे देखकर वन के रक्षक दधिमुख की आज्ञा से वहां पहुंचे और वानरों को रोकने लगे । इस पर युवराज अंगद उल्टे उन्हें ही डांटने-फटाकरने लगे । रक्षकों ने जाकर दधिमुख से कहा तो वह भागा-भागा सुग्रीव के पास पहुंचा और सारी बात बताई ।
सुग्रीव दधिमुख की बात सुनकर प्रसन्न हो उठा और बोला, ”लगता है अंगद के साथ गया वानरदल सीता जी की खोज-खबर ले आए हैं । तभी तो वे इतने प्रसन्न हो रहे हैं । तुम जाओ और उन्हें जल्द से जल्द यहां आने के लिए कहो । यह उपवन युवराज अंगद का ही है ।
उन्हें कुछ मत कहना । उनसे तो बस इतना ही कहना कि भगवान श्रीराम और सुग्रीव उनकी यहा बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे हैं । वे जल्द पहुंचे ।” दधिमुख तत्काल वापस लौट गया और जाकर महाराज सुग्रीव का संदेश युवराज अंगद को दिया । तब पवनसुत हनुमान ने अंगद से कहा, ”युवराज ! अपना पेट भरने के लालच में हम भूल गए कि हमें प्रभु श्रीराम को माता सीता का संदेश भी देना है ।
हमें अब और अधिक विलंब नहीं करना चाहिए और शीघ्र से शीघ्र वहां पहुंचना चाहिए ।” हनुमान जी की बात मानकर वानर समूह तत्काल वहां से चल पड़ा ।
प्रभु श्रीराम को हनुमान द्वारा सीता-संदेश देना:
उस समय प्रसवणगिरि के शिखर पर प्रभु श्रीराम की पर्णकुटि थी । श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण जी के साथ हनुमान, अंगद, जाम्यवान आदि के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे । उनके साथ वानरराज सुग्रीव भी विराजमान थे ।
जब से उन्हें दधिमुश्व्र के द्वारा पता चला था कि वानरों का समूह मधुवन में आनंदमग्न होकर उत्पात मचा रहा है तभी से उन्हें उनके लौटकर आने की अत्यधिक बेचैनी से प्रतीक्षा थी । वे सीता के विषय में जानने को बेहद उत्सुक थे । उनकी दृष्टि निरंतर उस पथ पर लगी हुई थी, जिधर से उनके आने की सभावना थी ।
ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, उनकी बेचैनी और जिज्ञासा बढ़ती चली जा रही थी । सुग्रीव उन्हें बार-बार धैर्य बंधाते थे कि वे शीघ्र ही यहां पहुंचने वाले हैं । निश्चय ही उन्होंने सीता जी का पता लगा लिया है, अन्यथा वे इतने उल्लास के साथ वापस नहीं लौटते ।
जब सुग्रीव जी इस प्रकार प्रभु श्रीराम को धैर्य बंधा रहे थे, उन्हें अंगद और हनुमान को अले करके सिंहनाद करते हुए वानरों का समूह आता हुआ दिखाई दिया । भावावेश में प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव उठ खड़े हुए और उसी ओर देखने लगे ।
वानरों का समूह निकट आया तो सबसे पहले हनुमान जी और अँगद ने आगे बढ़कर प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श किए । उसके बाद सुग्रीव और लक्ष्मण के चरण स्पर्श किए । प्रभु के दर्शन करके वे अत्यधिक आनंदातिरेक हो रहे थे ।
हनुमान जी ने हाथ जोड़कर प्रभु श्रीराम से कहा, ”प्रभु ! माता सीता पातिव्रत धर्म का कड़ाई से पालन करती हुई सशरीर सकुशल हैं । मैं उनके दर्शन पाकर कृतार्थ हो गया । वे लंकापति रावण की अशोक वाटिका में अनेकानेक विकट राक्षसियों से घिरी सदैव आपका ही स्मरण कर अश्रु बहाती रहती हैं और आपके आने की प्रतीक्षा में ही जी रही हैं ।
रावण ने उन्हें एक माह का समय दिया है । यदि इस बीच उन्होंने रावण की बात नहीं मानी तो वह उन्हें खा जाएगा ।” इतना कहकर हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से निकालकर सीता जी की चूड़ामणि उन्हें दी और कहा ”प्रभु ! अब माता सीता को आपका ही भरोसा है ।”
प्रभु श्रीराम ने चूड़ामणि को देखते ही पहचान लिया और उनकी आखों से बरबस अश्रु प्रवाहित होने लगे । चूड़ामणि को उन्होंने अपने हृदय से लगा लिया और लंबी-लंबी सांसें लेने लगे । हनुमान जी ने पुन: हाथ जोड़कर कहा, ”प्रभु ! धैर्य रखिए ।
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मैं तो स्वयं माता सीता को ला सकता था और उस राक्षस को मार सकता था, परंतु न तो आप ऐसा चाहते और न माता सीता ने ऐसा चाहा । वे तो एक-एक पल आपके आने की ही प्रतीक्षा कर रही है ताकि आप आकर उस दुष्ट राक्षस को दण्ड दें ।”
श्रीराम ने अपने अश्रु पोंछे और हनुमान को हृदय से लगा लिया । काफी देर तक वे उन्हें हृदय से लगाए खड़े रहे । हनुमान जी को ऐसा लगा कि जैसे ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियां उनके शरीर में प्रवेश कर गई हों । उनका हृदय गद्गद हो उठा ।
प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने हृदय से अलग करके उनके कंधों पर हाथ रखकर पूछा, ”हे पवनसुत हनुमान जी! देवी सीता इस समय कहां हैं ? उस दुष्ट रावण की लंका कहां है ? वे अपने प्राणों की रक्षा किस प्रकार कर रही हैं ? मेरे प्रति उनका क्या भाव है ? तुम मुझे पूरा समाचार विस्तार से सुनाओ ।”
पवन कुमार हनुमान जी ने दक्षिण की ओर मुख कर माता सीता का स्मरण किया और कहा, ”प्रभु ! समुद्र में सौ योजन पर उस दुरात्मा दुष्ट रावण की लंका एक द्वीप पर बसी हुई है । वह पूरी लंका सोने की है और उसमें अत्यंत भव्य भवन बने हुए हैं ।
नगरी के चारों ओर गहरी खाई है और ऊंचे-ऊंचे परकोटों से वह घिरी हुई है । उस नगरी में असंख्य राक्षस रहते हैं, जो एक से एक बलवान हैं । उसी नगरी में रावण का भव्य महल है । उस महल से सटी हुई अशोक वाटिका है । उस वाटिका में ही एक वटवृक्ष के नीचे अत्यंत दीन-हीन दशा में माता सीता अपना समय काट रही हैं ।
वे रात दिन आपकी स्मृति में ही अश्रु बहाती रहती हैं । दुष्ट रावण अक्सर उन्हें धमकाने वहां आता है । परंतु वह वहां अकेला कभी नहीं आता । वह अपनी पत्नी मंदोदरी के साथ ही वहां आता है और उन पर दबाव और प्रलोभन, दोनों का प्रयोग करके उन्हें अपनी पटरानी बनाने के लिए कहता है ।
किंतु माता सीता कभी उससे सीधे बात नहीं करतीं । वे तिनके को बीच में खड़ा करके उससे बात करती हैं और उसे धमकाती रहती हैं कि उसने उन्हें यहां लाकर अपनी मृत्यु का आह्वान किया है ।” इसके बाद हनुमान जी ने सीता जी के साथ हुई सारी बातों का खुलासा किया और अशोक वाटिका विध्वंस, रावण के दरबार में रावण से हुई बातों का अंश, लंका दहन और रावण के भाई रामभक्त विभीषण के विषय में खुलकर बताया ।
हनुमान जी की बातें सुनकर प्रभु श्रीराम अधीर हो उठे । उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे । वहां उपस्थित सभी वानर और भालू भी रोने लगे । प्रभु श्रीराम द्रवित हृदय से बोले, ”हनुमान ! तुमने जो कार्य किया है, वह देवताओं के लिए भी दुष्कर है ।
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं इसके लिए तुम्हारा क्या उपकार करूं ? वत्स ! मैं कभी तुम्हारे इस उपकार से उऋण नहीं हो सकता । मैं आज अपना सर्वस्व तुम्हें सौंपता हूं ।” इतना कहकर प्रभु श्रीराम ने एक बार फिर हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया और कहा, ”आज से तुम मेरे पुत्र समान ही रहोगे और कभी भी मुझसे विलग नहीं होगे ।”
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श्रीराम की बात सुनकर हनुमान जी की औखें भर आईं । वे बोले, ”प्रभु ! आपने मुझे अपना पुत्र स्वीकार करके मुझ पर बड़ा भारी उपकार किया है । मेरा जीवन सफल हो गया । अब मुझे जीवन में किसी भी वस्तु की कामना नहीं रही । बस, आपकी भक्ति और कृपा मुझ पर बनी रहे, यही मुझे वरदान दीजिए ।”
”तथास्तु वत्स!” श्रीराम ने हनुमान जी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और उन्हें अपने निकट ही चट्टान पर बैठा लिया । उसके बाद अंगद और जाम्यवान ने प्रभु श्रीराम को बताया कि किस प्रकार हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराया गया और किस प्रकार उन्होंने उस सौ योजन फैले सागर को एक ही छलांग में पार किया ।
उसके बाद काफी देर तक हनुमान जी ने लंका पहुंचने पर, उन्होंने किस प्रकार सीता जी की खोज की और वहां लंकापति रावण के सैन्यबल का किस प्रकार पता लगाया, उसका वर्णन किया । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि लंका के नागरिकों पर वे उनका आतंक व्याप्त करने में सफल हो गए हैं ।
स्वयं रावण भी भयभीत हो गया है । परंतु उसका अहंकार उसे कदापि झुकने नहीं देगा । यही समय है कि अविलंब उस पर आक्रमण किया जाए और उस दुर्बुद्धि राक्षस का अंत किया जाए । इसके बाद श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव से कहा, ”सुग्रीव ! मित्र, अब तुम तत्काल अपनी वानर सेना को आज्ञा प्रदान करो और लंका की ओर प्रस्थान करो ।
हम यह शुभ मुहूर्त निकलने नहीं देंगे । मैं उस दुष्ट राक्षस का अंत करके देवी सीता को उसके चंगुल से मुक्त करा लूंगा ।” ”मित्र! आपकी आज्ञा का पालन किया जाएगा ।” वानरराज सुग्रीव ने खड़े होते हुए कहा, ”हमारे सैनिक तैयार हैं । हम आज ही दक्षिण दिशा में स्थित लंका की ओर कूच करेंगे ।”