अशोक वाटिका में हनुमान | Shree Hanuman in Ashok Vatika in Hindi!

विभीषण द्वारा दिए संकेत के अनुसार हनुमान जी अशोक वाटिका की चारदीवारी के पास जा पहुंचे । वहाँ भयानक और सशस्त्र राक्षसों का पहरा था । उन से बचने के लिए हनुमान जी ने एक छोटे वानर का रूप बनाया और कूदकर चारदीवारी पर चढ़ गए ।

किसी ने भी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया । वे चारदीवारी से नीचे उतर आए और अशोक वाटिका में घूमने लगे । कभी वे पेड़ पर चढ़ जाते तो कभी किसी झाड़ी के पीछे छिप जाते । इस प्रकार अपने आपको राक्षसों की नजरों से बचाकर वे सीता जी की खोज में लगे रहे ।

अशोक वाटिका एक अति सुंदर उद्यान था, जो कि लंकेश्वर रावण के राजमहल के साथ लगा हुआ था । उसमें तरह-तरह के सुंदर फूलों और स्वादिष्ट फलों की बहुतायत थी । उन फलों को देखकर हनुमान जी को भूख सताने लगी । परंतु उन्होंने अपनी भूख पर अंकुश लगाया और वे आगे बड़े ।

थोड़ा आगे जाने पर उन्होंने एक वट वृक्ष के नीचे बहुत-सी सशस्त्र कुरूप राक्षसियों को एक दुबली-पतली गौरवर्ण युवती को घेरकर बैठे देखा । उस युवती के चेहरे पर अपूर्व तेज था । अलंकार विहीन होने पर भी वह दीपशिखा की भांति प्रदीप्त थी । उसके चेहरे पर उदासी की छाया पड़ी हुई थी ।

जैसे रोते-रोते उसके अश्रु गालों पर सूख गए हों । हनुमान जी तत्काल समझ गए कि हो न हो ये ही सीता माता हैं । उनके हृदय में मातृत्व के प्रति आदरभाव जाग्रत हो गया । वे एक पेड़ पर चढ़कर दूसरे पर और दूसरे से तीसरे पर कूदते हुए उस वट वृक्ष पर जा कूदे और उन्होंने अपने आपको अच्छी तरह से पत्तों के बीच छिपा लिया । वहां बैठकर वे नीचे का दृश्य देखने लगे ।

जगदम्बा सीता को देखकर हनुमान जी के हृदय में रोमांच-सा हो आया । वे उन्हें साक्षात वात्सल्य, शोक और पवित्रता की साकार मूर्ति प्रतीत हो रही थीं । राक्षसियां, जो उन्हें घेरे बैठी थीं, उन्हें तरह- तरह से डरा-धमका रही थीं ।

उन सबकी बातों का एक ही अर्थ था कि वे रावण की भार्या बनना स्वीकार कर लें । रावण उन्हें राजरानी बनाकर रखेगा । हनुमान जी के जी में आया कि वे नीचे कूदकर इन सभी राक्षसियों को मुष्टिका प्रहार से मार डालें । परंतु अभी वे श्रीराम का संदेश उन्हें नहीं दे पाए थे । इसीलिए वे चुप बैठकर उस अवसर की प्रतीक्षा करते रहे कि कब ये राक्षसियां यहां से हटे तो वे उन्हें श्रीराम का संदेशा दें ।

रावण द्वारा सीता को धमकाना:

अभी वे सोच ही रहे थे कि सीता जी के पास बैठी राक्षसियां सहसा उठीं और सतर्क होकर खड़ी हो गईं । सीता जी के चेहरे पर भय छा गया । तभी हनुमान जी ने महल की ओर से आते हुए रावण को देखा । वह अनेक दासियों से घिरा हुआ मदमस्त हाथी के समान चला आ रहा था । उसके साथ रात्रि में शथ्या पर अंकशायनी बनी वह सुंदर स्त्री भी राजसी वेशभूषा में सजी-धजी चली आ रही थी ।

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राक्षसियां मशाल लिए साथ-साथ चल रही थीं । रावण पास आया । उसकी आखों में लाल डोरे खिंचे हुए थे । लगता था कि जैसे वह कच्ची नींद से उठकर आया है या फिर उसकी आखों में मदिरा का सरूर था । उसके शीश पर स्वर्णमुकुट सुशोभित था और कमर में लंबी तलवार लटकी हुई थी ।

रावण ने सीता के पास आकर अपने साथ आई गौरवर्ण स्त्री से कहा, ”मंदोदरी ! तुम इस जनकनन्दिनी सीता को समझा दो कि इसे अब राम को भूल जाना चाहिए और मेरी रानी बनना स्वीकार कर लेना चाहिए । मैं इसे वे सारे सुख दूंगा, जिसकी इसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी ।

मैं चाहता तो इसे इसके स्वयंवर के समय ही धनुष भंग करके उठा लाता । परंतु वह धनुष मेरे इष्ट भगवान शिव का था । इसीलिए मैंने उसका स्पर्श करके छोड़ दिया था । जब मैं कैलास पर्वत को उठा सकता हूं तो वह धनुष क्या चीज थी ।”

इतना कहने के बाद उसने स्वयं सीता की ओर देखकर कहा, “हे सुमुखि ! एक बार मेरी ओर देखो तो संपूर्ण लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला यह रावण, आज तुम्हारे सामने नतमस्तक है । मैं तुम्हें अपना हृदय दे चुका हूँ । तुम इसे एक बार स्वीकार करके तो देखो ।

मैं तुम्हें इस लंका की क्या, तीनों लोकों की महारानी बना दूंगा । मेरी यह रानी मंदोदरी तुम्हारी दासी बनकर रहेगी । संपूर्ण देवगण तुम्हारे सामने शीश झुकाएंगे । तीनों लोकों की सुख-संपदा तुम्हारे चरणों में होगी । मैं स्वयं तुम्हारा दास बनकर रहूंगा ।”

सीता जी एक तिनके को रावण और अपने बीच में खड़ा करके उसके प्रलाप को सुन रही थी । । उसकी बातें सुनकर सीता जी को क्रोध आ गया । वे बोलीं, ”अरे दुष्ट निकृष्ट राक्षस ! तू छल से अपनी मृत्यु को यहां उठा लाया है ।

यदि मेरे स्वामी और देवर वहाँ उपस्थित होते, तो उसी पल वे तेरा वध कर डालते । मुझ असहाय अबला को देखकर ही तू दर्प भरी बोली बोल रहा है । जिस सुख की तू बात कर रहा है, वह समस्त सुख-समृद्धि मेरे स्वामी के चरणों से प्रकट होती है ।

सभी देवगण उनका नमन करते हैं । तू उन्हें पहचान नहीं रहा है । वे साक्षात तेरी मौत हैं । नीच ! यदि तू अपना भला चाहता है, तो अभी भी स्वामी के चरणों में गिरकर अपने इस अपराध के लिए क्षमा मांग ले । वे दीनदयाल हैं । वे तुझे अवश्य क्षमा कर देंगे । अन्यथा, शीघ्र ही वे तेरी लंका और तुझे नष्ट कर डालेंगे ।”

सीता जी की बातों को सुनकर हनुमान जी की आखों में अश्रु छलक आए । वे मन ही मन उन्हें ‘धन्य’ कह उठे । परंतु लंकापति रावण क्रोध में भर गया । उसने एक झटके से अपनी तलवार म्यान से खींच ली और चीखा, “सीता ! तू यदि मरना ही चाहती है तो कोई तुझे यहा बचाने नहीं आएगा । ले मर …।”

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रावण तेजी से सीता की ओर बढ़ा तो मंदोदरी ने तत्काल रावण को आगे आकर रोका, ”अरे रे ! आप यह क्या अनर्थ करने जा रहे हैं स्वामी मे एक स्त्री पर हाथ उठाकर आप अपने शौर्य को कलंकित करेंगे ?  हटिए पीछे हटिए और इस तलवार को म्यान में रख लीजिए ।

बलपूर्वक आप देवी सीता को कभी अपनी न बना पाएंगे । आपको नम्रता का व्यवहार करना चाहिए । देवी सीता हमारी अतिथि हैं और आप क्या उस शाप को भूल गए कि किसी स्त्री पर आप बल प्रयोग करेंगे तो आपकी तत्काल मृत्यु हो जाएगी ।”

मंदोदरी की चेतावनी ने रावण के उठे हुए हाथ को नीचे गिरा दिया । उसने तलवार म्यान में डाल ली और पीछे हटते हुए बोला, ”मंदोदरी ! इसे बता दे कि मैं अब एक माह तक ही प्रतीक्षा करूंगा । यदि इसने मेरी बात नहीं मानी तो मैं फिर इसे राक्षस बनकर ही दिखाऊंगा । यह यदि मेरी नहीं बनी तो मैं इसे मांस समझकर खा जाऊंगा ।”

रावण ने राक्षसियों की सरदार त्रिजटा नामक राक्षसी की ओर देखा और कहा, ”त्रिजटा! समझा देना इसे । अब तुम इस पर कृपा करना बंद करो । जब सीधे उंगली घी न निकले तो उसे टेढ़ी करना पड़ता है । इस बात का ध्यान रखो और इसे अच्छी तरह समझा दो ।”

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यह कहकर रावण क्रोध में पैर पटकता हुआ वहाँ से वापस लौट पड़ा । हनुमान जी के जी में एक बार आया कि वे कूदकर नीचे जाए और अभी इस राक्षस को मारकर सीता जी को यहां से ले जाएं । लेकिन भगवान श्रीराम का स्मरण कर किसी तरह उन्होंने अपने आपको रोका और राक्षसियों के वहां से हटने की प्रतीक्षा करने लगे ।

त्रिजटा राक्षसी का वह स्वप्न:

रावण के जाने के उपरात वहा बैठी राक्षसियां तरह-तरह से सीता जी को डराने लगीं । सीता जी ने अपनी औखें बद कर लीं और चुपचाप उनकी बातें सुनती रहीं । तब उनमें सबसे श्रेष्ठ और सौम्य आकृति वाली त्रिजटा ने उन्हें झिड़कते हुए कहा,  ”ऐसा लगता है कि तुम सब आज ही मर जाना चाहती हो ।

तुम्हें मालूम है कि राक्षसराज रावण के यहाँ आने से पहले मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है । प्रात: काल का वह स्वप्न असत्य नहीं हो सकता । मैंने देखा कि लंका में एक विशालकाय वानर आया है । राक्षसों ने उसकी पूँछ में आग लगा दी है और वह लंका के भवनों पर कूद-कूदकर आग लगा रहा है ।

सारी लंका धू-धू करके जल रही है । यही नहीं, मैंने यह भी देखा कि लंकापति रावण काले वस्त्र पहने एक गदहे पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जा रहे हैं । उनका सिर मुंडा हुआ है और चील-कौवे उन पर मंडरा रहे हैं । साथ ही लंकापति के भाई विभीषण श्वेत वस्त्र पहने सिंहासन पर विराजमान हैं और वे सीता जी को आदरपूर्वक श्रीराम की शरण में भेज रहे हैं ।”

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त्रिजटा की बात सुनकर सारी राक्षसियां घबरा गईं और एक-दूसरे का मुह देखने लगीं । उनके चेहरों पर भय उतर आया । तब उन राक्षसियों ने त्रिजटा से पूछा,  ”त्रिजटे! आप हमारी सरदार हैं । अब आप हमें बताएँ कि हम क्या करें ?”

त्रिजटा ने कहा, ”राक्षसियों ! अब तो हमारा हित इसी में है कि हम सीता जी की सेवा में अपने आपको लगा दें । हम कोई भी ऐसा कार्य न करें, जिससे इन्हें दुख पहुंचे ।” त्रिजटा की बात सुनकर सभी राक्षसियां अपने-अपने हथियार नीचे रखकर सीता जी के चरणों में झुक गईं और बोलीं, ”हे जनकदुलारी ! हम सभी आपकी दासियां हैं ।

आप हमें क्षमा करें । हमें जोर की निद्रा आ रही है । हम अपने घर जाती हैं । आप भी थोड़ा विश्राम कर लो ।” ऐसा कहकर सभी राक्षसियां वहाँ से चली गईं । तब सीता ने त्रिजटा से कहा, ”हे सखि त्रिजटे अब मुझसे और सहन नहीं होता । एक दुष्ट राक्षस की नीच दृष्टि को सहन करने से अच्छा तो यही है कि मैं चिता में जलकर मर जाऊ ।

तू मुझे थोड़ी लकड़ियां और आग कहीं से ला दे, ताकि मैं इस जीवन का अंत कर लूं ।” सीता जी की बात सुनकर त्रिजटा ने दुखी स्वर में कहा, ”हे सीते अभी प्रात: होने में समय है । हम निशाचर लोग रात्रि में किसी को अग्नि नहीं देते । इसे हम अपशकुन मानते हैं ।  आप मुझे क्षमा करें । आपका हृदय इस समय दुखी है । आप थोड़ा आराम कर लें । प्रात: होने पर मैं फिर आऊंगी ।”

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यह कहकर त्रिजटा भी वहाँ से चली गई । भोर का झुटपुटा होने लगा था । तभी सीता ने चारों ओर सुनसान वाटिका में खड़े वृक्षों की ओर देखकर कहा, ”मैं कैसी अभागी हूं कि मुझे कोई अग्नि देने वाला भी नहीं है । लगता है कि मेरा यह शरीर राक्षसों का आहार बन जाएगा ।”

सीता जी को विलाप करते देख हनुमान जी ने अब और अधिक विलंब करना उचित नहीं समझा । परंतु वे इस सोच में पड़ गए कि उन्हें देखकर कहीं सीता जी उन्हें रावण का ही कोई बहुरूपिया राक्षस न समझ लें । इसलिए मुझे यहीं बैठे-बैठे राम जी की अब तक की कथा का वर्णन करना चाहिए ।

हनुमान द्वारा सीता जी का दर्शन करना:

वृक्ष के पत्तों की आड़ में छिपे हनुमान जी ने ‘जय श्रीराम’ का घोष किया और अयोध्या नरेश दशरथ के चार पुत्रों के जन्म, विश्वामित्र का आगमन, सीता-स्वयंवर, कैकेयी का प्रकोप, राम-लक्ष्मण और सीता का वन गमन, सीता का हरण, राम की सुग्रीव से मैत्री, हनुमान का सीता जी की खोज में लंका आना और अशोक वाटिका में वृक्ष पर बैठकर रावण की धमकी को सुनना तथा त्रिजटा के स्वप्न आदि का पूरा वर्णन संक्षेप में किया ।

उस वर्णन को सुनकर सीता जी ने ऊपर की ओर देखा और कहा, ”हे श्रीराम के दूत हनुमान यदि तुम अभी भी छिपकर यहा बैठे हो तो मेरे सामने आओ ।” सीता जी के वचन सुनकर हनुमान जी वृक्ष से कूदकर नीचे आ गए और सीता जी के सम्मुख अपने सामान्य रूप में आकर हाथ जोड़कर खडे हो गए ।

उस वानर को देखकर सीता जी ने पूछा, ”मैं यह कैसे मानुं कि तुम श्रीराम के दूत हो ? तुम तो वानर हो ।” हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा, ”हे माते ! मैं श्रीरामचंद्र जी का दूत हूं और आपके लिए उनका संदेश लाया हूं । श्रीराम जी अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ सकुशल हैं ।”

यह कहकर हनुमान जी ने श्रीराम की मुद्रिका सीता जी को दी और कहा, ”इस अंगूठी से आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं । यह श्रीराम ने ही मुझे दी है और कहा है कि वे यथाशीघ्र आपको संकट से मुक्त कराने के लिए यहां आएंगे ।”

सीता जी ने अंगूठी को देखकर पहचाना तो उनकी औखें भर आईं और उनके टप-टप औसू टपकने लगे । वे रुंधे स्वर में बोली, ”हे वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ! तुम सचमुच में मेरे स्वामी के दूत हो । तुम्हारा कल्याण हो । परंतु मैं सोचती हूं कि तुम वनचारी वानरों की सहायता से वे मेरी किस प्रकार रक्षा कर पाएंगे ? यहां तो बड़े विकट राक्षस हैं ।

उनके लिए कोई कार्य कठिन नहीं है । तुम बुद्धिमान लगते हो, पर क्या इतने शक्तिशाली भी हो, जो इन राक्षसों का सामना कर सको ?” सिताजी के वचन सुनकर हनुमान जी ने अपना विशाल स्वरूप दिखाया और कहा, ”माते आप मुझे साधारण वानर न समझो । मेरे जैसे सैकड़ों वानर श्रीराम के साथ हैं ।

उनकी आप जाने दें, यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अकेला ही इस लका का विध्वंस कर सकता हूं और लंकापति रावण को उसके समस्त बंधु-बांधवों सहित रसातल में पहूंचा सकता हूं । ”हनुमान जी के विशाल स्वरूप को देखकर सीता जी ने आश्वस्त होकर कहा, ”वत्स! तुम बड़े पराक्रमी हो ।

तुम्हारी शक्ति अपार है । तुम सौ योजन समुद्र को लाघकर यहाँ आए मैं तभी समझ गई थी कि तुम कोई साधारण वानर नहीं हो । अब तुम फिर से अपने सामान्य रूप में आ जाओ और मुझे स्वामी के विषय में बताओ । क्या वे मुझे याद करते हैं ? प्रिय लक्ष्मण का कहना न मानकर मैं उसकी खींची रेखा से बाहर आकर उस छलिया रावण को भिक्षा देने लगी, तभी उसने बलपूर्वक मेरा अपहरण कर लिया ।

आज मैं उसी का फल भोग रही हू । वह मुझसे अवश्य रुष्ट होगा ।” हनुमान जी ने कहा, ”माते आपने मुझे अपना पुत्र कहकर पुकारा है । मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे आप जैसी माता का वरदहस्त प्राप्त हुआ है और श्रीराम जी जैसे स्वामी की चरण वंदना का अवसर मिला है ।

मैं आपको शपथपूर्वक यह बता रहा हूं कि आपके विरह में श्रीराम और लक्ष्मण जी भारी संताप के मध्य जी रहे हैं । वे रात-रात भर जागकर आपके बारे में ही सोचते रहते हैं । श्रीराम तो यह भी नहीं जानते कि आप यहां लंका में हैं । मैं जब यहा से लौटकर जाऊंगा, तभी उन्हें पता चलेगा कि आप यहां कितने संकट में जीवन-यापन कर रही हैं ।

उन्हें जैसे ही पता चलेगा, वे वानर और भालुओं की विशाल सेना लेकर वहां से चल पड़ेंगे और इस समुद्र पर सेतु का निर्माण करके लंका पहुँच जाएंगे । श्रीराम के बाण इस लंका पुरी का विध्वंश कर देंगे और रावण को उसके किए का उचित दण्ड देंगे ।

स्वयं यमराज और देवगण भी उसे नहीं बचा पाएंगे । आप धैर्य धारण करें । मैं यहाँ से जाकर यथाशीघ्र श्रीराम को आपके विषय में बताऊंगा । आप चिंता त्याग दें । बस अपनी निशानी के तौर पर अपनी कोई चीज मुझे दे दें, ताकि मैं उन्हें विश्वास दिला सकू कि मैं आपसे मिला हूं ।”

सीता ने हनुमान की बात सुनी तो अपने केशों से उतारकर अपनी चूड़ामणि हनुमान को देते हुए कहा, ”वत्स! मेरी यह चूड़ामणि वे देखते ही पहचान जाएंगे । जाओ, यथाशीघ्र यहां से जाओ और जल्द से जल्द उन्हें लेकर यहां आओ । उस दुष्ट रावण ने मुझे एक माह का समय दिया है । उसके बाद वह मुझे खा जाएगा । कहीं ऐसा न हो कि उन्हें आने में विलंब हो जाए ।”

”विलंब नहीं होगा मातें!” हनुमान जी बोले, ”मैं पलक झपकते ही इस सागर को पार कर जाऊंगा । आप जरा भी चिंता न करें । परंतु यहां से जाने से पहले मैं आपसे यह विनती करना चाहता हूं कि मुझे बडे जोर की भूख लगी है । यदि आप आज्ञा दें तो मैं इस वाटिका में लगे फलों से अपनी भूख मिटा लूँ ।”

अशोक वाटिका का विध्वंस:

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”हां-हां!” सीता जी जल्दी से बोली, ”मैं यहां परवश हूं । तुम्हें कुछ खिला भी नहीं सकी । मेरे पास कुछ है भी नहीं, सिवाय इन फलों के । तुम बेझिझक इन फलों का सेवन करो । परंतु ध्यान रखना कि इस वाटिका की सुरक्षा में अत्यंत विकट राक्षस लगे हुए हैं । उनसे तुम्हें स्वयं ही निपटना होगा ।”

”माते! आप उनकी बिलकुल चिंता न करें ।” हनुमान जी बोले, ”मैं यहाँ से जाने से पहले उस दुष्ट रावण को प्रभु श्रीराम के एक अदने से दूत की शक्ति का परिचय भी देना चाहता हूँ । ताकि वह जान जाए कि आपका अपहरण करके उसने कितना भारी पाप किया है ।”

इतना कहकर हनुमान जी उछलकर एक पेड से दूसरे पर और दूसरे से तीसरे पर कूद कर चढ़ने लगे । उनके पैरों के बोझ से वृक्षों की डालियां टूट-टूटकर नीचे गिरने लगीं । हनुमान जी फलों को खाते जाते और पेड़ों को उखाड़-उखाड़कर नीचे गिराते जाते । कुछ ही देर में उन्होंने वाटिका को तहस- नहस कर दिया ।

उस वाटिका की रक्षा में जो राक्षस लगे हुए थे वे उस वानर को पकड़ने का प्रयत्न करने लगे और उस पर भाले-छुरियां फेंकने लगे । पर हनुमान जी ने उन हथियारों को लपककर तोड़ डाला और वृक्षों को उखाड़कर उन राक्षसों पर फेंकना प्रारंभ कर दिया । जिससे अधिकांश राक्षस मारे गए । सर्वत्र उनके शव धरती पर पड़े दिखाई देने लगे ।

वे डर गए और जान बचाने के लिए भागने लगे । हनुमान जी जानते थे कि बिना उत्पात मचाए वे न तो लंका को अच्छी प्रकार से देख पाएंगे और न रावण की सैन्य-शक्ति का पता लगा पाएंगे । इसीलिए वे इस तरह का उत्पात मचा रहे थे ।

उपवन के रक्षक राक्षसों ने हनुमान जी को घेरने की बहुत कोशिश की, पर वे असफल रहे । हारकर वे भागे-भागे रावण के पास पहुंचे और उस वानर के उत्पात के बारे में उसे बताया । रावण उनकी बातें सुनकर क्रोध में भर गया । उसने राक्षसों की एक टुकड़ी को अशोक वाटिका में भेजा कि जाओ उस वानर को पकड़कर लाओ ।

वे सभी राक्षस महाबली और साहसी थे । वे जब अशोक वाटिका में पहुंचे और उन्होंने रावण की प्रिय वाटिका को तहस-नहस हुआ देखा तो वे क्रोध में भर गए । उन्होंने हनुमान जी को ललकारा । उनका नेतृत्व प्रहस्तपुत्र जत्सुमाली नामक राक्षस कर रहा था ।

हनुमान जी ने उसे देखा तो एक भारी पेड उखाड़कर उसकी ओर फेंका । उन्होंने हनुमानजी पर तीखे बाण चलाए पर हनुमान ने उन बाणों की कोई परवाह नहीं की और जोर से सिंहनाद करते हुए ‘जय श्रीराम’ कहा । उन्होंने चुन-चुनकर उन राक्षसों को मार डाला । जम्मुमाली भी मारा गया ।

शेष बचे राक्षस आतंकित होकर वहा से भाग गए । उन्होंने जाकर रावण से उस वानर की करतूत का जिक्र किया तो रावण क्रोध में भर गया । उसने अपनी सेना के अनेकानेक महाबली राक्षसों को उस वानर को पकड़कर लाने के लिए भेजा । लेकिन हनुमान जी ने सभी को मार डाला ।

मेघनाद द्वारा हनुमान जी को बांधना:

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अंत में, रावण का पुत्र इंद्रजीत, जिसे मेघनाद के नाम से जाना जाता था, राक्षसों की एक बड़ी टुकड़ी लेकर अशोक वाटिका पहुचा । उसने उस महाबली वानर को और उसके कारनामों को देखा तो सोचा कि यह कोई साधारण वानर नहीं है ।

इसलिए उसने उसे पकड़ने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया । हनुमान जी ने जब ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आते देखा तो उन्होंने उसका प्रतिकार नहीं किया । वह एक नागपाश के रूप में उनकी ओर आ रहा था । उस बाण ने हनुमान जी के शरीर का स्पर्श किया और आकाश में चला गया ।

उस बाण के स्पर्श से हनुमान जी मूर्च्छित होकर गिर पड़े । मेघनाद के संकेत पर राक्षसों ने मूर्च्छित हनुमान को रस्सियों से बांध लिया । वे मूर्ख ये नहीं जानते थे कि दूसरी रस्सियों का स्पर्श होते ही ब्रह्मास्त्र के स्पर्श का प्रभाव समाप्त हो गया था ।

मेघनाद इस बात को समझता था । परंतु उस समय उसने कुछ बोलना उचित नहीं समझा । हनुमान जी को होश आ गया था । वे चाहते तो उन राक्षसों को मार सकते थे । परंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया । उन्होंने अपने आपको बंध जने दिया । वे रावण और उसकी राजसभा को देखना चाहते थे ।

इसलिए जब राक्षस उन्हें बांधकर ले जाने लगे तो वे चुपचाप कुछ बोले बिना चलने लगे । मार्ग में वे सावधानीपूर्वक मार्गों को देखते चल रहे थे । राजपथ पर जो भवन खड़े थे और उनके मध्य जो गलियां थीं, उनसे निकल-निकलकर असंख्य राक्षस नर-नारियां उस वानर को देखने आ रहे थे और शोर मचा रहे थे । हनुमान जी चुपचाप चलते रहे और इंद्रजीत घमण्ड से भरकर अपनी गरदन अकड़ाकर लोगों को विजयी मुस्कान से भरकर देखता रहा ।

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