हनुमान और सुग्रीव की मित्रता | Friendship Between Hanuman and Sugrib!
ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव ने वानरराज केसरी और उनके पुत्र हनुमान का हार्दिक स्वागत किया । केसरी ने अपने पुत्र हनुमान को उसकी सेवा में छोड़ने के लिए कहा तो सुग्रीव हर्षित हो उठा और उसने सहर्ष हनुमान को अपने साथ मित्र रूप में रखने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । बल्कि उसे अपना मंत्री बना दिया ।
वानरराज केसरी ने सुग्रीव से पूछा, ”सुग्रीव! तुमने तो सदैव अपने भाई बाली का बड़ा सम्मान किया है । फिर क्या कारण है कि बाली ने तुम्हें अपने राज्य से निकाल दिया ?” सुग्रीव ने कहा, ”वानरराज! मेरे भाई ने मुझे ही घर से नहीं निकाला है, मेरी पत्नी को भी यलपूर्वक मुझसे छीन लिया है ।”
”क्या ?” वानरराज केसरी ने चौंककर सुग्रीव की ओर देखा । उसके चेहरे पर अवसाद के बादल छाए थे । वह बहुत दुखी दिखाई दे रहा था । वानरराज केसरी ने उससे पूछा, ”ऐसा कैसे हुआ ? मुझे पूरी बात बताओ सुग्रीव ?”
तब सुग्रीव ने उन्हें बताया, ”वानरराज! एक दिन मय दानव का पुत्र मायावी अपने बल के अहंकार में भरकर किष्किंधा नगरी में आया और बाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा । बाली से यह सहन नहीं हुआ । वह क्रोध में भरकर उससे युद्ध करने के लिए महल से बाहर आया ।
लेकिन बाली के क्रोध से भरे भयानक चेहरे को देखकर वह दुष्ट मायावी वहां से उल्टे पैरों भाग खड़ा हुआ । बाली का क्रोध कम नहीं हुआ था । वह उसे दण्ड देने उसके पीछे भागा । मैं भी अपने भाई के साथ हो लिया ।
वह मायावी भागकर पर्वत की एक दुर्गम गुफा में जाकर छिप गया । बाली जब उस गुफा में प्रवेश करने लगा तो मैंने उसे रोका । पर वह नहीं रुका और मुझसे बोला कि अगर वह एक वर्ष तक गुफा के भीतर से बाहर न आए तो वह उसे मरा समझकर वापस लौट जाए ।”
”फिर क्या हुआ ?” वानरराज ने पूछा ।
”वानरराज! फिर मैं एक वर्ष तक उस गुफा के बाहर खड़े रहकर बाली की प्रतीक्षा करता रहा । लेकिन बाली बाहर नहीं आया । मैं सोच में पड़ा था कि अब क्या करूं ? तभी गुफा के भीतर से रक्त की एक धार बहती हुई आई ।
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मैंने समझा कि मायावी राक्षस ने बाली को मार दिया है और अब वह वाहर आकर मुझे भी मार डालेगा । मैंने भयभीत होकर एक बड़ी शिला को गुफा के द्वार पर लगा दिया और वहां से वापस लौट आया । मंत्रियों और परिवार वालों ने सुना तो उन्हें बहुत दुख हुआ । फिर कुछ दिन बाद उन्होंने मेरा राजतिलक करके मुझे राजगद्दी पर बैठा दिया ।”
लेकिन एक दिन बाली वापस लौट आया । उसने मुझे राजगद्दी पर बैठे देखा तो वह क्रोध में भर गया और मुझे भला-बुरा कहने लगा । मैंने उसकी बहुत अनुनय-विनय की और उसे राजगद्दी वापस देनी चाही, पर उसने मेरी एक नहीं सुनी ।
उसने मुझे धक्के मारकर घर से निकाल दिया और मेरी पत्नी को भी मेरे साथ नहीं आने दिया । तभी से मैं यहां अपने कुछ खास मित्रों के साथ रहता हूं । इस पर्वत पर बाली पैर नहीं रख सकता । क्योंकि उसे मतंग ऋषि का शाप मिला हुआ है । इसलिए मैं यहां सुरक्षित हूं । परंतु मुझे अपनी पत्नी के छीने जाने का बहुत दुख है ।
”तुम चिंता मत करो सुग्रीव!” वानरराज केसरी ने कहा, ”जो व्यक्ति अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी दृष्टि रखता है, उसका शीघ्र ही सर्वनाश हो जाता है । परमात्मा उसे जरूर दण्ड देंगे ।” इस प्रकार वानरराज केसरी सुग्रीव को आश्वासन देकर और अपने पुत्र हनुमान को उसकी सेवा में छोड़कर वापस लौट गए ।
श्रीराम और लक्ष्मण से हनुमान की भेंट:
जिस समय हनुमान जी सुग्रीव के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रह रहे थे, उस समय सुग्रीव प्राय: बाली के भय से मन ही मन बड़ा चिंतित और त्रस्त रहता था । हनुमान जी उसके मन से भय निकालने का प्रयत्न करते, पर उसके हृदय से बाली का भय जाता ही नहीं था ।
ऋष्यमूक पर्वत की ओर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को वह शक की दृष्टि से देखता था । उसे लगता कि बाली ही तो शापवश ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं आता है किंतु उसके द्वारा भेजा गया कोई अन्य छद्मवेश में यहां आकर उसका वध कर सकता है । इसी भय से वह हर समय डरा-डरा-सा रहता था ।
एक दिन उसने ऋष्यमूक पर्वत शिखर से उसकी तलहटी में दो सुदर्शन युवकों को घूमते देखा । उन्हें देखकर सुग्रीव भयभीत हो गया । उसने तत्काल अपने मंत्री हनुमान सें कहा, ”हनुमान! देखो वन में विचरने वाले वे दो सुदर्शन युवक कौन हैं ?
वे तपस्वियों जैसा वेश बनाए हुए हैं । उनके हाथों में बड़े-बड़े धनुष हैं और कमर पर तरकस बंधे हैं । दोनों अत्यंत वीर जान पड़ते हैं । मुझे लगता है कि भ्राता बाली ने इन दोनों को यहां भेजा है और ये मुझे ही खोज रहे हैं । चलो, हम जल्दी से छिप जाते हैं ।”
हनुमान जी ने सुग्रीव को आश्वासन देते हुए कहा, ”महाराज सुग्रीव! आप भयभीत न हों । बाली और बाली के ये दूत इस मलय पर्वत पर आपको जरा भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते । यहां आप पूरी तरह सुरक्षित हैं । आपको इस प्रकार भयभीत होता देखकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है ।
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एक राजा को अपनी बुद्धि का समुचित उपयोग करके ही कोई निर्णय लेना चाहिए । जो राजा ऐसा नहीं करता, वह अपनी प्रजा का कभी भला नहीं कर सकता ।” हनुमान की बात सुनकर सुग्रीव ने कहा, ”हे कपिश्रेष्ठ तुम इन दोनों के शरीर सौष्ठव को तो देखो । दोनों की भुजाएं कितनी लंबी हैं ।
दोनों के नेत्र कितने विशाल हैं । इनमें एक श्याम वर्ण और दूसरा गौर वर्ण है । लेकिन इनके चेहरों पर यह उदासी कैसी छाई है ? क्या यह इनका कोई छलावा है ? मुझे तो इन्हें देखकर बड़ा डर लग रहा है ।” हनुमान ने कहा, ”महाराज! आप कदापि न डरे । मैं छद्म वेश में इनके पास जाता हूं और पता लगाता हूं कि ये दोनों कौन हैं और किस उद्देश्य से यहां वन में घूम रहे हैं ।
यदि मुझे कोई खतरा दिखाई दिया तो मैं आपको संकेत करके सचेत कर दूगा और यदि कोई खतरा दिखाई नहीं दिया तो इन्हें अपने साथ यहां ले आऊंगा । संभवत: ये हमारी कुछ सहायता कर सकें ।” सुग्रीव बोला, ”ठीक है, फिर तुम ऐसा ही करो । लेकिन अच्छी तरह छानबीन कर लेना । उनकी बातों में आकर धोखा मत खा जाना ।”
”आप निश्चित रहे महाराज!” हनुमान जी ने कहा और तत्काल एक ब्राह्मण का वेश धारण करके उन दोनों युवाओं की ओर चल दिए । उनके पास पहुँचकर हनुमान जी ने दोनों को विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया और पूछा, ”हे श्रेष्ठ धनुर्धर वीरो आप दोनों देवताओं के समान सुदर हैं और तपस्वी जान पड़ते हैं । आपके शरीरों की कांति अत्यंत सुंदर है ।
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आप इस घनघोर वन-प्रदेश में किसलिए भ्रमण कर रहे हैं ? क्या मैं आपका परिचय प्राप्त कर सकता हूं ? मैं महाराज सुग्रीव का मंत्री पवनपुत्र हनुमान हूँ । उन्हें उनके भाई बाली ने राज्य से निकाल दिया है और वे यहां निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं । वे अत्यंत धर्मात्मा हैं और सदैव मित्रों के सहायक हैं ।”
हनुमान जी की बातें सुनकर श्रीरामचंद्र जी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभरे और उनके होंठों पर मुस्कान उतर आई । उन्होंने लक्ष्मण से कहा, ”प्रिय लक्ष्मण! कपिवर हनुमान जी सुग्रीव के मंत्री हैं । तुम इन्हें अपना परिचय दो ।
हनुमान जी ने जिस प्रकार हमसे बातें की हैं, ऐसी बातें तो कोई ज्ञानी व्यक्ति ही कर सकता है । जिस राजा के पास ऐसे दूत हों, उसके कार्यों की सिद्धि में कदापि संदेह नहीं करना चाहिए । राजा के मनोरथ उसके दूतों से ही ज्ञात हो जाते हैं ।”
श्रीराम के कहने पर लक्ष्मण जी ने हनुमान जी से कहा, ”हे विप्रवर! हम दोनों भाई अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र हैं । ये मेरे बड़े भ्राता श्रीरामचंद्र जी हैं और मैं इनका अनुज लक्ष्मण हूं । हम यहां पिता की आज्ञा से चौदह वर्ष का वनवास भोगने आए हैं ।
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परंतु कुछ समय पूर्व पंचवटी में निवास करते हुए किसी छली राक्षस ने मेरी भाभी मां सीता जी का अपहरण कर लिया है । हम उन्हीं की खोज में इधर आए हैं । हमें पता चला है कि महाराज सुग्रीव हमारी सहायता कर सकते हैं । इसीलिए हम उनकी खोज में ही इधर आए हैं ।
मार्ग में घायल जटायु ने हमें बताया कि वह छली दुष्ट राक्षस रावण हे, जो लंका का अधिपति है ।” हनुमान जी ने प्रेम से बढ्कर श्रीरामचंद्र जी के चरणस्पर्श किए और आखों में अश्रु भरकर कहा, ”प्रभो मैं तो कब से आपके दर्शनों का इच्छुक था । आज आपके दर्शन पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया ।
वानरराज सुग्रीव आप जैसे जितेंद्रिय, बुद्धिमान और वीर शिरोमणि राजकुमारों से मित्रता करके अत्या धक प्रसन्न हो जाएंगे । क्योंकि वे भी इन दिनों अपनी पत्नी के वियोग से अत्यंत दुखी हैं । उनके भाई बाली ने उनकी पत्नी को बलपूर्वक छीन लिया है और वह उनका शत्रु हो रहा है ।
मेरे स्वामी वानरराज सुग्रीव माता सीता का पता लगाने में आपके निश्चय ही सहायक होंगे । आप मेरे साथ चलें । मैं आपकी उनसे भेंट कराता हूं ।” हनुमान जी की बात से प्रसन्न होकर दोनों भाई उनके साथ सुग्रीव से भेंट करने चल दिए । उधर जब उन दोनों को हनुमान जी के साथ आते हुए सुग्रीव ने देखा तो उसके मन का भय दूर हो गया ।
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इतना तो वह समझ ही गया कि उनके साथ आने वाले ये दोनों सुदर्शन युवक शत्रु नहीं हैं । हनुमान जी भी मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि श्रीराम ही उनके इष्टदेव हैं । ये ब्रह्म के पूर्ण अवतार है । सर्वांतरयामी और सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु के अवतार हैं । मुझे इनकी सेवा में जीवनपर्यंत रहने का अवसर प्राप्त होगा ।
इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिए और क्या होगा ? यही बात सूर्यदेव ने स्वप्न में मुझसे कही थी जो सच ही थी । उधर जब भगवान श्री रामचंद्र जी ने हनुमान को विचारमग्न और भावावेश में आगे बढ़ते हुए देखा तो उनका हृदय द्रवीभूत हो गया । उन्होंने आगे बढ्कर हनुमान जी के कंधे पर अपना हाथ रख दिया और उनका सहारा लेकर वे आगे बढ़ने लगे ।
हनुमान जी बार-बार आदरपूर्वक श्रीराम और लक्ष्मण जी को अपने हाथों का सहारा देकर पर्वत की दुर्गम चढ़ाई पर चढ़ने लगे । कई बार तो हनुमान जी ने उनसे कहा भी कि वे उसके कंधों पर बैठ जाए, पर श्रीराम ने मुस्कराकर मना कर दिया ।
हनुमान जी का स्नेह भाव देखकर वे मन ही मन पुलकित हो रहे थे । बार-बार उनकी आखों में अश्रु छलकने लगते, जिन्हें वे सबकी दृष्टि बचाकर आखों में ही मसल देते थे । श्रीराम और लक्ष्मण जी को लेकर हनुमान जी वानरराज सुग्रीव के पास पहुंचे और उनका परिचय दिया । वानरराज सुग्रीव ने सम्मानपूर्वक उन्हें आसन ग्रहण कराया ।
सुग्रीव से श्रीराम की मैत्री होना:
हनुमान जी ने सुग्रीव से कहा, ”राजन! श्रीराम अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा का पालन करने के लिए दण्डकारण्य में पधारे हैं और मुनियों की भांति समय व्यतीत कर रहे हैं । इनके प्रिय भाई लक्ष्मण भी भातृ प्रेम से बंधे हुए इनके साथ वन में आए हैं । इन दोनों भाइयों के सम्मुख, जब मैं आपके सगे भाई बाली का व्यवहार देखता हूं तो मुझे रोना आ जाता है ।
यहां जिस प्रकार बाली ने आपकी पत्नी को बलपूर्वक अपने पास रखा हुआ है उसी प्रकार श्रीराम की भार्या सीता जी का अपहरण एक दुष्ट निशाचर ने कर लिया है । वह निशाचर कोई और नहीं लंकापति रावण है । मार्ग में जटायु ने इन्हें यही बताया है । उसने रावण को युद्ध में ललकारा था, पर रावण ने उसको घायल कर दिया ।
अब ये आपके पास सीता जी की खोज में सहायता लेने के लिए आए हैं । ये आपसे मित्रता चाहते हैं ।” हनुमान जी की बात सुनकर वानरराज सुग्रीव ने कहा, ”प्रभो! आपके दर्शनों का सौभाग्य पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया । पवनपुत्र हनुमान ने आपका जो परिचय मुझे दिया है, वह आपके श्रेष्ठतम गुणों को ही अभिव्यक्त करता है ।
हम तो आपके सम्मुख तुच्छ वानर हैं । फिर भी आप हमारे साथ मैत्री करना चाहते हैं, इसे मैं अपना अहोभाग्य ही समझता हूं । आपका मैत्री प्रस्ताव मेरे तनावयुक्त जीवन में आशा का संचार कर रहा है । मुझे अब आशा बंध गई है कि शीघ्र ही मेरे निराश्रित जीवन का अंत हो जाएगा और मुझे फिर से मेरी प्रिय पत्नी का साहचर्य प्राप्त होगा । लीजिए मेरा हाथ आपके सामने फैला है । इसे अपने हाथों में लेकर मुझे मैत्री बंधन में बांध लीजिए ।”
वानरराज सुग्रीव के मधुर वचन सुनकर श्रीराम ने उसके हाथ को अपने दोनों हाथों में ले लिया और उठकर उसे हृदय से लगा लिया । श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “वानरराज! आज से हम दोनों भाई आपके परम मित्र और हितैषी हैं । जो दुष्ट अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी दृष्टि रखता है, उसका सर्वनाश अतिशीघ्र होगा । तुम निश्चित रहो । आज के बाद हमारा और तुम्हारा दुख-सुख एक ही है ।”
तदुपरांत सुग्रीव ने खोह में से मंगाकर सीता जी के वस्त्राभूषण श्री रामचंद्र जी को दिखाते हुए कहा, ”हे रघुवीर! जिस समय वह दुष्ट रावण सीता जी को पुष्पक विमान से लंका की ओर ले जा रहा था, तब आकाश मार्ग से जाते हुए उन्होंने अत्यंत करुण-क्रंदन करते हुए अपने ये वस्त्रालंकार नीचे गिराए थे ।
वे बार-बार सहायता की याचना कर रही थीं । परंतु तब हम उनकी कोई सहायता नहीं कर पाए थे तब हम यह भी नहीं जानते थे कि वे आपकी भार्या सती सीता जी हैं । वह दुष्ट रावण तो नित्य ही इस प्रकार अबला नारियों का अपहरण करके ले जाता रहा है ।
कोई भी उसे रोकने का साहस नहीं कर पाता है । मेरा भाई बाली उसका सामना करने की शक्ति रखता है, पर इस समय वह भी उसी के मार्ग पर चल पड़ा है, जिस पर वह दुष्ट रावण चल रहा है ।” ”वानरराज सुग्रीव! ऐसे दुष्टों का विनाश करने के लिए ही मैं यहां वन में आया हूं ।”
श्रीरामचंद्र जी ने उसे आश्वासन दिया और सीता जी के आभूषणों को देखकर वे दुखी हो उठे । उनकी आखों से बरबस अश्रुकण टपकने लगे । सुग्रीव ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, ”हे शत्रुविनाशक श्रीराम! आप दुखी न हों । आपकी भार्या सीता जी को मैं पाताल में से भी खोज लाऊंगा । मेरी सारी वानर सेना आपके साथ हर प्रकार से सहयोग करेगी, यह मेरा वचन है ।”
”सुग्रीव! मैं भी तुम्हें वचन देता हूं कि मैं अतिशीघ्र बाली का वध करके तुम्हारी भार्या को उसके बंधनों से मुक्त कराऊंगा और तुम्हें किष्किंधा का अधिपति बनाऊंगा ।” ”प्रभो आप वीर हैं । मैं जान गया हूं कि ब्रह्मांड का कोई भी दुष्ट आपके बाणों के सामने टिक नहीं पाएगा । फिर भी मैं अपने भाई बाली की शक्ति के बारे में आपको सचेत कर देना चाहता हूं ।
बाली को यह वरदान प्राप्त है कि वह अपने सामने आने वाले शत्रु की आधी शक्ति तत्काल खींच लेता है । एक बार महाकाय और दुर्दांत राक्षस दुंदुभि से उसका सामना हो गया तो उसने दुंदुभि राक्षस को मारकर उसके शव को मतंग ऋषि के आश्रम में फेंक दिया ।
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इससे कुपित होकर मतंग ऋषि ने बाली को उस स्थान पर पैर न रखने का शाप दे दिया और कहा कि यदि भूल से भी वह यहा आया तो उसके सिर के टुकड़े हो जाएंगे । यह वही क्षेत्र है । इसलिए बाली यहां नहीं आता । लेकिन उस दुंदुभि दैत्य का कंकाल अभी तक इस पर्वत पर पड़ा है ।”
सुग्रीव ने उस दैत्य का कंकाल श्रीराम को दिखाया, जो अत्यंत विशाल था । श्रीराम ने अपने पैर के अंगूठे से उसे उठाकर दस योजन दूर फेंक दिया । उस चमत्कार को देखकर सुग्रीव को विश्वास हो गया कि श्रीराम उसके भाई बाली का वध अवश्य कर देंगे ।
फिर भी उसके मन में शंका बनी रही । तब हनुमान जी ने कहा, ”प्रभो आप दुष्टों का संहार करने में पूरी तरह समर्थ हैं । परंतु वानरराज सुग्रीव के मन में अभी भी यह संदेह शेष है कि आप इसके भाई बाली को किस प्रकार मारेंगे, जबकि वह अपने सामने वाले का आधा बल खींच लेता है ।”
श्रीराम ने मुस्कराकर हनुमान जी की ओर देखा और कहा, “हे पवनपुत्र! सुग्रीव का संदेह अनुचित नहीं है । मैं इनके संदेह को दूर करने के लिए अपने बाण की मारक शक्ति का परिचय देता हूं ।” ऐसा कहकर श्रीरामचंद्र जी ने अपने तरकश से एक बाण निकाला और धनुष पर चढ़ाकर सामने की ओर एक सीध में खड़े सात ताड़ वृक्षों की ओर संधान किया और प्रत्यचा खींचकर बाण छोड़ दिया ।
पलक झपकते ही उस बाण ने सातों ताड़ वृक्षों को काट डाला और वह बाण फिर से उनके तरकश में आ समाया । उस अद्भुत दृश्य को देखकर सुग्रीव और वहा उपस्थित सभी वानर और भालुओं के यूथपति जामवंत खुशी से उछल पड़े । उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीराम बाली का वध करने में पूरी तरह से समर्थ हैं ।
श्रीराम के आग्रह पर सुग्रीव ने किष्किंधा नगरी में पहुचकर बाली को युद्ध के लिए ललकारा । सुग्रीव की ललकार सुनकर बाली भयानक गर्जना करते हुए राजमहल से बाहर आया और उससे लड़ने लगा । उस दिन बाली ने उसे खूब मारा । सुग्रीव किसी प्रकार अपनी जान बचाकर भाग आया और श्रीरामचंद्र को उलाहना देने लगा कि उन्होंने सामने आकर बाली को क्यों नहीं मारा ।
इस पर श्रीराम ने उससे कहा, ”तुम दोनों भाई एक जैसे लगते हो । मैं समझ ही नहीं पाया कि तुम दोनों में सुग्रीव कौन है और बाली कौन है । यदि भूल से मेरा बाण तुम्हें लग जाता तो मैं मित्र का वध करने का अपराधी बन जाता ।”
दूसरे दिन श्रीराम ने एक पुष्पों की माला सुग्रीव के गले में पहचान के लिए डाल दी और उसे पुन: युद्ध के लिए भेजा । इस बार जब बाली उससे लड़ने के लिए आया तो श्रीराम ने एक वृक्ष की ओट से बाली पर बाण चला दिया ।
बाली बाण लगते ही नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा । तब श्रीराम के पास आने पर उसने उन्हें उलाहना दिया कि उन्होंने यहां पर अनैतिक कर्म करके अपने नाम पर कलंक लगाया है । परंतु श्रीराम ने अपने कर्म के औचित्य को सिद्ध करते हुए उसे ही शर्मिंदा किया कि उसने अपने छोटे भाई की पत्नी को छीनकर जो अपराध किया है उनके लिए यह दण्ड तो बहुत थोड़ा है ।
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उनकी बात सुनकर बाली ने अपनी भूल स्वीकार की और प्राण त्याग दिए । श्रीराम ने लक्ष्मण को भेजकर सुग्रीव का राज्याभिषेक करा दिया और बाली के पुत्र अंगद को युवराज घोषित करा दिया । श्रीराम नगर में नहीं गए । वे पुन: ऋष्यमूक पर्वत पर वापस आ गए । सुग्रीव का राज्याभिषेक कराके लक्ष्मण भी श्रीराम के पास वापस लौट आए । हनुमान जी भी उनके साथ वापस आ गए ।
श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, ”पवनपुत्र, तुम क्यों वापस लौट आए ? तुम्हें तो वहीं रहना चाहिए था । तुम तो सुग्रीव के मंत्री हो ।” हनुमान जी ने कहा, ”प्रभो ! बाली का राज्योचित अंतिम-संस्कार करने के उपरांत मेरा वहां क्या काम था । मैंने तो अपना शेष जीवन आपके श्रीचरणों में व्यतीत करने का संकल्प लिया हुआ है ।
यद्यपि महाराज सुग्रीव का भी मैं सेवक हूं । उनकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है । परंतु मैं उनकी आज्ञा लेकर ही आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं । उन्होंने मुझे आज्ञा दी है कि मैं वानर सेना का गठन करूं और आपकी हर प्रकार से सहायता करूं ।”
श्रीराम ने मुस्कराकर हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया । हनुमान जी ने उनके आराम की हर व्यवस्था वहीं गुफा में कर दी । क्योंकि वर्षा ऋतु प्रारंभ हो चुकी थी और खुले में रहना संभव नहीं था । हनुमान जी दिन-रात उनकी सेवा करते और अपने यूथपतियों को भेजकर वानर सेना का गठन भी करते ।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा । वर्षा ऋतु भी बीत गई और वानर सेना का गठन भी हो गया, पर सुग्रीव ने श्रीराम की सुध नहीं ली । वह अपनी पत्नी और अन्य दास-दासियों के साथ राजकीय वैभव और राग-रंग में व्यस्त हो गया । मानो वह अपने मैत्री धर्म को भूलकर श्रीराम को भी भुला बैठा ।