श्रीराम-रावण युद्ध में हनुमान | The Role of Hanuman in the Battle between Shree Ram and Ravan!
प्रातःकाल होने पर श्रीराम ने जाम्यवान के कहने पर रावण को समझाने के लिए अपने दूत युवराज अंगद को रावण की राजसभा में भेजा । परंतु रावण ने अंगद की बात पर ध्यान नहीं दिया । वह युद्ध के लिए तैयार था ।
उसने स्पष्ट रूप से कहला भेजा कि बिना युद्ध किए वे सीता को उससे छीन नहीं सकते । रावण के सिर पर तो मृत्यु नाच रही थी । इसलिए उसे किसी का भी सत् परामर्श पसंद नहीं था । अत: युद्ध प्रारंभ हो गया । दोनों ओर के वीर योद्धा विभिन्न शस्त्रों को लेकर एक-दूसरे से भिड् गए ।
खड़ग, भाले, त्रिशूल, फरसे, तोमर, धनुष-बाण, गदा और शक्ति आदि अस्त्रों से युद्ध किया जाने लगा । देखते ही देखते युद्धभूमि में रक्त की नदियां बहने लगीं और जगह-जगह शवों के ढेर लग गए । घायल युद्धभूमि में गिरकर कराहने लगे ।
सांध्यकाल होते ही युद्ध रुका तो कुते, गीदड़, कौवे, गिद्ध उन लाशों पर भूख शांत करने के लिए झपट पड़े । युद्धभूमि में वानर-भालुओं के पास कोई अस्त्र-शस्त्र तो थे नहीं । वे ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं पर चढ़ जाते और उनके कंगूरों को तोड़कर उन राक्षसों पर प्रहार करते या फिर बड़ी-बड़ी चट्टानों और वृक्षों को उखाड़कर उन पर फेंकते ।
उन पर अपनी मुष्टिका से प्रहार करते । केवल हनुमानजी, अंगद और सुग्रीव के पास ही वजतुल्य गदाएं थीं, जिनके प्रहार की काट उन राक्षसों के पास नहीं थी । हनुमान तो उन राक्षसों के लिए साक्षात् काल ही बन गए थे ।
दूसरी ओर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण के बाणों के सम्मुख वह राक्षस समूह गाजर-मूली की भांति कट-कटकर भूमि को रक्त-रंजित कर जाते थे । हनुमान जी श्रीराम और लक्ष्मण के आस-पास ही रहकर राक्षसों से युद्ध करते थे ।
जब कभी वे वानरों को राक्षसों के सामने कमजोर पड़ते देखते तो ‘जय श्रीराम’ का गगनभेदी नारा लगाते और वानर सेना में फिर से उत्साह भर देते । हनुमान को सामने देखकर ही उन राक्षसों के प्राण सूख जाते थे । उनके द्वारा किए गए लंका विनाश को वे पहले ही देख चुके थे । इसलिए भयभीत थे ।
रावण के कितने ही प्रख्यात योद्धा सास, अवनि, अकंपन, अतिकाय, देवांतक और त्रिशरा आदि हनुमान जी के हाथों रसातल को पहुंच चुके थे । हनुमान जी की वीरता को देखकर इंद्रजीत मेघनाद मन ही मन भयभीत हो जाता था ।
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परंतु एक दिन मेघनाद ने भीषण संहार किया । उसने कितने ही वानरों और भालुओं के भूपतियों को मार डाला । यहां तक कि उसने अपने अभिमंत्रित शक्तिबाण से एक दिन श्रीराम के अनुज लक्ष्मण को भी मूर्च्छित कर दिया । लक्ष्मण के मूर्च्छित होते ही वानर सेना में हा-हाकार मच गया ।
युद्ध दिन-प्रतिदिन उग्र और भयावह होता जा रहा था । मेघनाद ने लक्ष्मण को अचेत होकर पृथ्वी पर गिरते देखा तो वह उन्हें उठाने के लिए दौड़ा । परंतु वह और अनेक राक्षस भी अपनी संपूर्ण शक्ति लगाने के उपरांत भी उन्हें टस से मस नहीं कर सके । वे मुंह लटकाकर वापस लौट गार ।
उसी समय सूचना मिलते ही हनुमान तीव्र गति से वहा पहुंचे । लक्ष्मण जी को मूर्च्छित देखकर हनुमान जी का क्रोध उग्र हो उठा । उनके नेत्रों से आग निकलने लगी । हनुमान जी ने लक्ष्मण के शरीर को अपनी बांहों में उठा लिया और श्रीराम के पास शिविर में ले आए ।
लक्ष्मण की मूर्च्छा और हनुमान का संजीवनी बूटी लाना:
हनुमान जी ने मूर्च्छित लक्ष्मण जी को प्रभु श्रीराम के सामने लिटा दिया । उन्हें मूर्च्छित देखकर प्रभु श्रीराम अधीर हो उठे और सारे वानर और भालू विलाप करने लगे । हनुमान जी ने सभी को शांत करते हुए प्रभु श्रीराम से पूछा, “प्रभो ! आप मुझे आज्ञा दें कि मैं क्या करूं ? आपकी आज्ञा हो तो मैं अमृत कुण्ड को पाताल से यहां ले आऊं । देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों को बलपूर्वक यहां उठा लाऊं ।”
हनुमान जी का रुद्र रूप प्रकट होता जा रहा था । वे अत्यधिक क्रोध में थे । तभी विभीषण ने हनुमान जी से कहा, ”हे पवनसुत ! यह समय क्रोध करने का नहीं है, उपाय सोचने का है, जिससे प्रिय लक्ष्मण के प्राण बचाए जा सकें । मेघनाद ने लक्ष्मण जी को जो शक्तिबाण मारा है, उससे बचना अत्यंत कठिन है ।
परंतु प्रभु श्रीराम के रहते असंभव भी कुछ नहीं है । तुम इसी समय लंका नगरी में जाओ । रात्रि का समय है । सारे राक्षस इस समय विश्राम कर रहे होंगे । वहां सुषेण नाम का एक योग्य वैद्य है । तुम उसे ले आओ । उस के बताए उपचार से लक्ष्मण जी के घाव तत्काल भर जाएंगे और इनकी मूर्च्छा भी टूट जाएगी ।
ये पूर्ववत फिर से शक्ति संपन्न हो जाएंगे ।” हनुमान जी तत्काल विभीषण द्वारा बताए सुषेण के घर पर पहुंचे । उस समय वहँ गहरी नींद में सोया पड़ा था । हनुमान ने उसके घर को जड़ से उखाड़ लिया और उसे उठाकर आकाशमार्ग से प्रभु श्रीराम के शिविर में ले आए ।
वहां आकर हनुमान जी ने सुषेण को जगाया और उसे लेकर प्रभु श्रीराम के पास पहुंचे । प्रभु श्रीराम और मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर वे तत्काल समझ गए कि उन्हें वहां किसलिए लाया गया है । विभीषण ने उन्हें सारी स्थिति से अवगत करा दिया । प्रभु श्रीराम के दर्शन पाकर उसे असीम हर्ष हुआ ।
सुषेण ने तुरंत लक्ष्मण की नाड़ी देखी, हृदय की धड़कनें सुनीं और घाव को देखा । उसके बाद वे बोले, ”घाव बेहद गंभीर है । किंतु यदि सूर्योदय से पहले संजीवनी बूटी आ जाए तो ये बच सकते हैं और इनकी शक्ति भी पुन: लौट सकती है ।”
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सुषेण ने दृष्टि उठाकर हनुमान जी की ओर देखा और कहा, ”हे पवनपुत्र ! मैं आपकी शक्ति देख चुका हूं । यह कार्य आप ही कर सकते हैं । हिमालय पर्वत पर कैलास और ऋषभ पर्वतों के मध्य ‘द्रोणगिरि’ है । उस पर्वत पर अत्यंत दीप्तिमान औषधियां संजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी आदि रात्रि में प्रकाशित होती रहती हैं ।
आप उनमें से सूर्योदय से पहले संजीवनी बूटी लेकर आएं । तभी लक्ष्मण जी के प्राण बच सकते हैं ।” पवनपुत्र हनुमान ने तत्काल प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श करके आज्ञा प्राप्त की और ‘जय श्रीराम’ का जय घोष करके वायुवेग से आकाश में उड़ चले । उन्हें हिमालय पर पहुंचने में कुछ भी समय नहीं लगा । उन्होंने वहां द्रोणगिरि पर्वत पर रात्रि में प्रकाशित होने वाली जड़ी-बूटियों को देखा । परंतु उनमें संजीवनी कौन-सी है, वे नहीं जान सके ।
कालनेमि राक्षस का वध:
तभी उनकी दृष्टि हिमालय की तराई में एक विशाल तपोवन पर पड़ी । वहां एक मुनि भगवान शंकर की उपासना कर रहे थे । हनुमान जी को प्यास लगी थी । वे उस मुनि के पास जा पहुंचे और पानी मांगा ।
मुनि ने उनसे कहा, ”तुम मेरे कमण्डल में से जल पी सकते हो ।”
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हनुमान जी को लगा कि यह साधु के वेश में कोई राक्षस है, जो उसके मार्ग में व्यवधान डालना चाहता है । उन्होंने कहा, ”हे मुनिराज ! इस कमण्डल के जल से मेरी तृप्ति नहीं होगी । मुझे कोई जलाशय बताइए ।” मुनि ने क्रोध में भरकर कहा, ”अरे वानर ! मुझसे कुछ छिपा नहीं है । राम-रावण के युद्ध में राम का अनुज लक्ष्मण इंद्रजीत की शक्ति से अचेत हुआ पड़ा है ।
परंतु प्रातःकाल तक तुम्हारा वहां पहुंचना आवश्यक है । जाओ, सामने जलाशय है । वहां जल पीकर विश्राम कर लो । तभी तुम वापस लौट पाओगे ।” हनुमान जी ताड़ गए थे कि साधु के कमण्डल के जल में विष मिला हुआ है । इसीलिए उन्होंने कमण्डल का जल नहीं पिया था । वे यह भी समझ गए थे कि जलाशय में भी उनकी जान को खतरा हो सकता है ।
इसलिए वे पूरी तरह सतर्क थे । फिर भी वे वहां जाने के लिए तैयार हो गए । हनुमान जी जाने लगे तो मुनि ने फिर कहा, ”अरे वानर ! यहां की पहाड़ियां अत्यंत विचित्र हैं । सर्वसाधारण को यहां की औषधियां दिखाई नहीं देतीं । तुम जल पीकर मेरे पास आना ।
मैं तुम्हें एक मंत्र दूंगा । उस मंत्र की शक्ति से तुम उन औषधियों को देख पाओगे और पहचान भी लोगे ।” ”जी अच्छा!” हनुमान जी ने कहा और जलाशय पर जाकर पानी में उतर गए और जल पीने लगे । उसी समय एक अति मायावी मगरी ने उनका पैर पकड़ लिया ।
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हनुमान जी ने कुद्ध होकर उस मगरी के मस्तक पर मुष्टिका का प्रहार किया । तत्काल वह मगरी मर गई । उसी पल हनुमान जी ने एक अति सुंदर स्त्री को मगरी के शरीर से निकलकर ऊपर आकाश में उड़ते हुए देखा । वह सुंदरी हनुमान जी से बोली, ”हे पवनपुत्र ! मैं शापग्रस्त धान्यमाली नामक अप्सरा हूं ।
आज मैं आपकी कृपा से शापमुक्त हो गई हूं । यह सारा आश्रम मायावी है । यहां जो मुनि बैठा है, वह रावण द्वारा भेजा गया कालनेमि नाम का राक्षस है । आप इस दुष्ट को मारकर तत्काल द्रोणगिरि जाओ । वहां संजीवनी बूटी आपको मिल जाएगी । अब मैं ब्रह्मलोक जाती हूँ ।”
इतना कहकर वह अप्सरा आकाश में लुप्त हो गई । हनुमान जी कालनेमि के पास पहुंचे । हनुमान जी ने उसके बोलने से पहले ही उसे अपनी पूंछ में लपेट लिया और उसे कसकर मार डाला । मृत्यु होते ही वह मुनि राक्षस के रूप में प्रकट हो गया और ‘राम राम’ कहते हुए परमगति को प्राप्त हो गया ।
हनुमान जी तत्काल ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष करके द्रोणगिरि पहुंचे । वहां वे संजीवनी बूटी को पहचान नहीं पाए तो उन्होंने वृक्षों और औषधियों सहित पूरे द्रोणगिरि को ही जड़ से उखाड़ लिया और उसे अपने हाथ पर उठाकर अत्यंत तीव्र गति से दक्षिण दिशा की ओर उड़ चले ।
हनुमान व भरत मिलन:
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हनुमान जी जब अयोध्या के ऊपर से उड़े चले जा रहे थे, तब नंदीग्राम में भरत जी ने आकाश मार्ग से जाते हुए हनुमान जी को देखा । उन्होंने समझा कि यह कोई मायावी राक्षस है, जो इतने विशाल पर्वत को उठाए हुए उड़ा जा रहा है ।
ऐसा सोचकर उन्होंने धनुष उठाया और उस पर एक बिना नोक का बाण चढ़ाकर हनुमान जी की ओर छोड़ दिया । हनुमान जी बाण के लगने से नीचे गिरने लगे । उनके मुख से ‘जय श्रीराम, जय श्री सीता राम’ निकला और वे धरती पर गिरकर मूर्च्छित हो गए । गिरने से पहले उन्होंने द्रोणगिरि को नीचे रख दिया था । इसी वजह से उसके टुकड़े नहीं हुए ।
प्रभु श्रीराम का नाम सुनकर जटाजूटधारी भरत जी की आखों से अश्रुधारा बहने लगी । उन्होंने दौड़कर हनुमान जी का सिर उठाकर अपने घुटने पर रख लिया और बोले, ”यह मेरे से कैसा अनर्थ हो गया ? यह तो कोई राम भक्त है । हे प्रभो यदि भ्राताश्री राम के चरणकमलों में मेरी प्रीति निश्छल है, तो ये अभी सचेत हो जाएं ।”
भरत के इतना कहते ही हनुमान जी सचेत हो गए । उन्होंने श्रीराम के सदृश एक अन्य मनोहर रूपधारी व्यक्ति को देखा तो वे उठ बैठे और बोले, ”प्रभो ! मैं इस समय कहां हूं ? आप कौन हैं ?” भरत जी ने कहा, ”हे वानर श्रेष्ठ ! यह अयोध्या नगरी है । यह श्रीराम की जन्मभूमि है ।
मैं उनका छोटा भाई भरत हूं और उनके राज्य की रक्षा कर रहा हूं । आप कौन हैं ? मैंने आपके मुख से भ्राताश्री का नाम सुना । इन दिनों वे वन में हैं । आप उन्हें कैसे जानते हैं ?” हनुमान जी ने भरत जी को प्रणाम किया और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया ।
उसे सुनकर भरत जी चिंतित और दुखी हो उठे । वे रोते हुए बोले, ”हे हनुमान जी ! मैं ही वो अधम भरत हूँ जिसकी वजह से भ्राताश्री को ये दुख झेलने पड़ रहे हैं । मेरे कारण ही पिताश्री को स्वर्गलोक जाना पड़ा और आज मेरे कारण ही प्रिय लक्ष्मण को युद्धभूमि में शक्ति सहकर मूर्च्छित होना पड़ा और अब उसके प्राणों पर बन आई है ।
उसे कुछ हो गया तो मैं भी जीवित नहीं बचूंगा । मैं अब और तुम्हें विलंब नहीं करूंगा । मैंने तुम्हारे कार्य में व्यवधान डाला है । भाई हनुमान ! तुम मेरे इस बाण पर बैठ जाओ । मेरा यह बाण तुम्हें सूर्योदय से पहले ही प्रभु के पास पहुंचा देगा ।”
हनुमान जी ने पल भर के लिए सोचा कि यह बाण मेरा भार कैसे वहन करेगा । परंतु तत्काल उन्होंने सोचा कि बिना नोक के इस बाण ने जब मुझे मूइrच्छत कर दिया तो अवश्य इसमें कोई अद्भुत शक्ति होगी । फिर उन्होंने कहा, ”प्रभो ! स्वामी श्रीराम के प्रताप से मुझे वहां पहुंचने में विलंब नहीं होगा । आप मुझे आज्ञा दें ।”
यह कहकर हनुमान जी ने भरत जी को नमन किया और उनकी आज्ञा पाकर तत्काल द्रोणगिरि को उठाकर वायुवेग से दक्षिण दिशा की ओर उड़ गए और पलक झपकते ही वे आखों से ओझल हो गए । उधर हनुमान जी के न आने से सभी चिंतित थे । परंतु प्रभु श्रीराम शांत चित्त लक्ष्मण के सिर को अपनी गोद में लिए बैठे थे ।
भोर होने में अभी समय था । तभी वानर सेना ने तीव्र गति से आते हुए हनुमान जी को देखा तो सभी तुमुल स्वर में जयघोष कर उठे, ”जय श्री राम…। जय बजरंग बली…। ” हनुमान जी ने नीचे उतरकर द्रोणगिरि को नीचे रखा और ‘जय श्रीराम’ का जय घोष किया । हनुमान जी के इस अलौकिक कार्य को देखकर सभी हर्षित हो उठे ।
वैद्यराज सुषेण ने तत्काल द्रोणगिरि से संजीवनी बूटी उखाड़ी और उसे अपने हाथों पर मलकर लक्ष्मण जी को सुंघाया तो वे एकदम से उठकर बैठ गए । सुषेण ने संजीवनी बूटी की लुगदी उनके जख्म पर रखी तो जख्म एकदम से सूख गया और वे पहले जैसे स्वस्थ हो गए ।
स्वस्थ होते ही लक्ष्मण उठ खड़े हुए और बोले, ”कहां है वह दुष्ट मायावी मेघनाद !” लेकिन तभी उन्हें परिस्थितियों का बोध हुआ तो वे शांत होकर प्रभु श्रीराम की ओर देखने लगे । श्रीराम ने हनुमान जी को प्रसन्न होकर हृदय से लगा लिया और बोले, ”वत्स हनुमान ! आज तुम्हारे कारण ही मैं अपने भाई लक्ष्मण को फिर से स्वस्थ देख रहा हूं ।”
उधर लक्ष्मण जी के स्वस्थ हो जाने पर सुषेण ने प्रभु श्रीराम से कहा, ”प्रभो मेरी दक्षिणा क्या नहीं देंगे ?” सुषेण को अपने सामने हाथ जोड़कर खड़े देखकर प्रभु श्रीराम ने हर्षित होकर सुषेण के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया और कहा, ”हे महाभाग । मैं आपकी क्या सेवा करूं ?
आपने मुझे जो दिया है, मैं अकिंचन उसके बदले में आपको अपने प्राण भी देना चाहू तो वे भी कम हैं ।” सुषेण मुस्कराकर बोले, “प्रभो ! प्राणों के बदले प्राण लेकर मैं क्या पाप का भागी बनूंगा ? यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपने चरणों की भक्ति दीजिए ।”
प्रभु श्रीराम ने सुषेण को अपने हृदय से लगा लिया और कहा, “आप सदैव मेरे हृदय में रहेंगे वैद्यराज !” उसके बाद हनुमान जी वैद्यराज सुषेण को उनके घर सहित लका में उसी स्थान पर पहुंचा आए जहां से वे उन्हें लाए थे ।
उसके बाद वे द्रोणगिरि को भी यथास्थान रखकर सूर्योदय होते-होते वापस श्रीराम के पास लौट आए । वापस आकर उन्होंने अयोध्या में भरत से हुई भेंट के विषय में प्रभु श्रीराम को बताया तो प्रभु श्रीराम की आखें एक बार फिर प्रेमाश्रुओं से भर आई ।
हनुमान-रावण युद्ध:
प्रात: काल होने पर दोनों और की सेनाएं फिर से आमने-सामने आ खड़ी हुईं । आज राक्षसराज रावण स्वयं युद्ध करने के लिए समरभूमि में आया था । श्रीराम ने पैदल ही रावण का सामना किया और रावण को ललकारकर उस पर बाण वर्षा प्रारभ कर दी ।
उसी समय हनुमान जी वहां पहुंच गए । उन्होंने भगवान श्रीराम को आग्रह पूर्वक अपने कंधे पर बैठा लिया । श्रीराम और रावण का युद्ध होता रहा । रावण श्रीराम के बाणों का सामना नहीं कर सका तो उसने अपना रथ उस दिन वानर सेनापति नील की ओर घुमा दिया ।
श्रीराम ने हनुमान के कंधे से उतरते हुए कहा, ”वत्स हनुमान ! मैं पीठ दिखाकर भागने वाले शत्रु पर वार नहीं करता । तुम नील की सहायता के लिए जाओ ।” प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमान हुत गति से रावण की ओर लपके और सामने पड़ने वाले राक्षसों का अपनी गदा से संहार करते हुए रावण के सामने जा पहुंचे । वहां पहुचकर हनुमान ने रावण को युद्ध के लिए ललकारा ।
हनुमान की ललकार सुनकर रावण गदा लेकर हनुमान के सामने आ गया । दोनों के बीच भयंकर गदा युद्ध प्रारभ हो गया । उनकी गदाए आपस में टकरातीं तो चिंगारियां निकलतीं । वानर और राक्षस सेनाएं अपना-अपना युद्ध भूलकर हनुमान और रावण का युद्ध देखने लगीं ।
रावण ने एक भारी मुक्का हनुमान जी की छाती पर मारा तो हनुमान कई कदम पीछे हट गए । परंतु तभी संभलकर हनुमान जी ने अपना वज्र सरीखा एक पूसा रावण की छाती पर मारा तो रावण अपने मुख से रक्त उगलता हुआ नीचे गिर पड़ा । हनुमान ने उसे ललकारा, ”उठ खड़ा हो लंकेश ! अभी तो मैंने यह हल्का फंसा ही तेरे को मारा है ।
अगर मैंने अपनी पूरी शक्ति से तुझे घूंसा मार दिया तो तेरे प्राण-पखेरू ही उड़ जाएंगे । जो कि मैं नहीं चाहता । तुझे दण्ड देने का अधिकार प्रभु श्रीराम का है । वे ही तेरे प्राणों को इस निकृष्ट देह से अलग करेंगे, मैं नहीं ।” हनुमान की बात सुनकर रावण एक बार फिर खड़ा हो गया और गदा उठाकर हनुमान पर झपटा । लेकिन हनुमान जी की एक गदा प्रहार से ही रावण के कस बल ढीले पड़ गए ।
वह तेजी से पीछे हटकर अपने रथ के पिछले हिस्से में जा बैठा और दूसरे ही क्षण मूर्च्छित होकर गिर पड़ा । रावण का सारथी रावण को मूर्च्छित होते देख रथ को घुमाकर युद्धभूमि से परे हटा ले गया । वानर सेना और विकराल राक्षस सेना के मध्य फिर से युद्ध छिड़ गया ।
प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण अलग-अलग मोर्चों पर युद्धरत थे । सैकड़ों वानर और हजारों राक्षस घायल होकर युद्धभूमि में गिर गए थे । संध्या होते ही युद्ध रुक गया और दोनों ओर की सेना अपने-अपने घायल सैनिकों को लेकर वापस अपने-अपने शिवरों में लौट गई और उनका उपचार करने में जुट गई ।
श्रीराम और लक्ष्मण का अहिरावण द्वारा अपहरण करना:
प्रतिदिन रावण के सहस्रों वीरों का संहार हो रहा था । लक्ष्मण जी ने रावण के प्रिय पुत्र मेघनाद का वध कर दिया था । उसके अनेकानेक वीर योद्धा मौत की नींद सो चुके थे । यहां तक कि रावण का भाई कुम्भकरण भी प्रभु श्रीराम के हाथों मारा जा चुका था ।
रावण का धैर्य छूटता जा रहा था । तब उसे अपने मित्र अहिरावण की याद आई । अहिरावण पाताल नगरी का राजा था और अत्यंत मायावी था । वह देवी का भक्त था । उसके पास संदेश भेजना सर्वथा कठिन ही नहीं असंभव था । क्योंकि वानरों और भालुओं की पूरी सेना ने लंका नगरी को चारों ओर से घेर रखा था । द्वार से निकलकर और वानर भालुओं की सेना से बचकर जाना असंभव था ।
तब रावण ने स्नान करके वस्त्र बदले और देवी मंदिर में जाकर देवी की आराधना की । देवी द्वारा संदेश पाकर अहिरावण पाताल लोक से गुप्त रूप में लका आया और रावण के सामने पहुंचकर बोला, ”मित्र ! आपने मुझे कैसे याद किया ?”
रावण ने अहिरावण से कहा, ”मित्र ! मैं भारी विपत्ति में फंस गया हूं । मेरे सारे योद्धा मारे गए हैं । अब तुम्हीं मुझे इस विपत्ति से बचा सकते हो ?” अहिरावण ने रावण को चिंतित देखकर पूछा, ”मित्र ! क्या हुआ ? यह वानर और भालू सेना कैसी है और लंका को किसलिए घेरे हुए है ? तुम मुझसे कैसी सहायता चाहते हो ?”
रावण ने अहिरावण को पूरा वृत्तांत सुनाया कि किस प्रकार लक्ष्मण ने उसकी बहन सूर्पणखा की नाक काट डाली और उसके अपमान का बदला लेने के लिए किस प्रकार उसने छल से सीता का हरण किया है । इसी बात को लेकर अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण के साथ हमारा युद्ध छिड़ गया है ।
उसकी सहायता किष्किंधा की वानर सेना और ऋक्षराज जाम्बवान की भालुओं की सेना कर रही है । उसने यहां भारी उत्पात मचाया हुआ हें । मेरे पुत्रों अक्षय कुमार और मेघनाद तथा भाई कुम्भकरण को भी इन्होंने मार डाला है ।
अब मैं पूरी तरह असहाय हो गया हूं । इसीलिए मैंने तुम्हें याद किया है । रावण की बात सुनकर अहिरावण ने कहा, ”मित्र ! तुमने सीता का अपहरण करके ठीक नहीं किया । आपको वीरतापूर्वक राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करना चाहिए था ।
यह अत्यंत नीचता का कर्म तुमने किया है । तुम्हें यह कदापि शोभा नहीं देता । जिन मानवों ने खर, दूषण, त्रिशरा, मेघनाद, कुम्भकरण और तुम्हारे अनेकानेक वीर योद्धाओं को मार डाला है, वे कोई साधारण मानव नहीं होंगे । फिर भी आप मुझे आज्ञा दें कि मैं आपका क्या प्रिय करूं ?”
रावण ने कहा, ”मित्र ! तुम किसी तरह अपनी मायावी शक्ति से राम और लक्ष्मण का अपहरण करके यहा से ले जाओ और उन्हें मार डालो । बाकी इस वानर और भालू सेना को मैं यहां से भगा दूंगा । अब तो इसी प्रकार मेरी रक्षा हो सकती है ।”
अहिरावण ने रावण को आश्वस्त करते हुए कहा, ”आप जैसा कहते हैं, मैं वैसा ही करूंगा । जिससे आपको संतोष हो और आपकी चिंता दूर हो । अभी रात्रि का समय है । जैसे ही आकाश में उजाला भर जाए वैसे ही आप समझ लेना कि आपका काम हो गया है ।”
रावण ने प्रसन्न होकर अहिरावण के दोनों हाथों को अपने हाथों में लेकर दबाया ओर कहा, ”मित्र ! यदि ऐसा हो गया तो तुम्हारा मुझ पर बड़ा भारी उपकार होगा ।” अहिरावण रात में ही रावण से विदा लेकर वहों आया जहां हनुमान जी राम, लक्ष्मण, विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान, नल, नील तथा शेष सारी सेना को अपनी पूछ के घेरे में लेकर पहरे पर खड़े थे ।
वे जाग रहे थे और सभी लोग रात में सोकर दिन भर की थकान उतार रहे थे । हनुमान जी को देखकर अहिरावण ने विभीषण का रूप धारण किया और हनुमान जी के सामने जा पहुँचा । हनुमान जी ने विभीषण को देखा तो आश्चर्य से पूछा, ”विभीषण जी! इतनी रात गए आप कहां से आ रहे हैं ?”
”हनुमान जी!” विभीषण रूपधारी अहिरावण ने कहा, ”मैं रात्रि संध्या के लिए समुद्र तट पर गया था । अब वहां से आ रहा हूं । मुझे लौटने में थोड़ा विलंब हो गया ।” हनुमान जी को कुछ शक हुआ, पर वे चुप ही रहे । अहिरावण ने भीतर जाकर देखा कि सब पड़े सो रहे हैं । श्रीराम और लक्ष्मण के अनंत सौंदर्य को अहिरावण ने देखा । उसने विलंब नहीं किया ।
अपनी मायावी शक्ति से उसने सोते हुए दोनों भाइयों को उठाया और बड़े वेग से आकाश मार्ग से भागा । कुछ देर बाद आकाश में प्रकाश छा गया । उसे देखकर रावण समझ गया कि अहिरावण अपने कार्य में सफल हो गया है । उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा ।
उसे लगा कि युद्ध किए बिना ही उसने युद्ध जीत लिया है । उसने सोचा कि जब राम-लक्ष्मण ही नहीं रहेंगे, तब हनुमान ही क्या कर लेगा । वह उसे चुटकियों में मसल डालेगा । यही सोच-सोचकर वह हर्षित हो रहा था । आकाश में प्रकाश होते ही सुग्रीव की आखें खुल गईं ।
उसने उठकर देखा तो प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को वहां न देखकर वह सोच में पड़ गया कि वे अचानक कहा चले गए हैं । उसने सभी को एक-एक करके जगाया और पूछा कि भगवान कहां चले गए हैं, तो कोई भी ठीक से उत्तर नहीं दे सका । फिर तो वानर सेना में कोलाहल मच गया कि प्रभु राम और लक्ष्मण अचानक कहां चले गए ?
अंगद, विभीषण, नल, नील और जाम्यवान आदि सभी सोच में डूब गए । सभी भयभीत हो रहे थे और व्याकुल थे । तभी हनुमान जी वहां आए और प्रभु के अदृश्य होने की बात सुनकर परेशान हो उठे । उन्होंने सभी को शांत करते हुए कहा कि वे चिंता न करें ।
आकाश-पाताल जहां कहीं भी वे होंगे, उन्हें छू लिया जाएगा । पहले आप लोग यह बताएं कि रात्रि में यहां कोई अपरिचित व्यक्ति आया था ? सभी ने नकारात्मक रूप से सिर हिला दिया । तब हनुमान जी ने विभीषण की ओर देखकर पूछा, ”विभीषण जी ! आप जब रात्रि में समुद्र तट से संध्या वंदन करके लौटे थे, तब प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण क्या यहीं पर थे ?”
विभीषण हनुमान जी की बात सुनकर चौंका और बोला, ”आप क्या कह रहे हैं पवनपुत्र! रात्रि में तो मैं कहीं गया ही नहीं । मैं तो यहीं पर सो रहा था । सायंकाल से ही मैं प्रभु के चरणों में विराजमान था । लगता है किसी मायावी राक्षस ने मेरा रूप धारण करके यह षड़यंत्र रचा है ।”
विभीषण की बात सुनकर सभी चिंतित हो उठे । विभीषण ने कुछ पल सोचकर कहा, ”हे पवनपुत्र ! मेरा रूप कोई देवता या गंधर्व धारण नहीं कर सकता । असुरों में मय दानव, बलि और बाणासुर ही मेरा रूप धारण कर सकते हैं ।
परंतु वे ऐसा कोई भी नीच कर्म नहीं कर सकते । राक्षसों में दशग्रीव रावण और अहिरावण ही मेरा रूप धारण कर सकते हैं । रावण इस समय लंका छोड़कर कहीं नहीं जा सकता । यह कार्य अवश्य ही पातालपति अहिरावण का है । वह दशग्रीव रावण का मित्र है ।
उसके कहने पर यह नीच कार्य वही कर सकता है । मैं तुम्हें उसकी पाताल पुरी का मार्ग बताता हूं । तुम वहां जाकर पता लगाओ । परंतु ध्यान रखना कि वह अत्यंत मायावी और शक्ति संपन्न राक्षस है । उसने अनेकानेक सिद्धियां तपोबल के द्वारा प्राप्त कर रखी हैं ।”
हनुमान जी ने कहा, ”विभीषण जी ! वह कितना मायावी और शक्तिशाली है, यह तो समय ही बताएगा । आप लोग यहां पूरी तरह से सावधान और सतर्क रहें । मैं प्रभु और उनके अनुज को लेने जा रहा हूं । आप लोग इस बात का ध्यान रखें कि प्रभु और उनके अनुज लक्ष्मण जी के अपहरण की सूचना शिविर से बाहर न जाए ।
यहां सबको ऐसे रहना है, जैसे यहां कुछ हुआ ही नहीं है । प्रतिदिन की भांति लंका पर आक्रमण किया जाए और पूरे प्राणपण से युद्ध किया जाए ।” उसके बाद हनुमान जी ने सुग्रीव को प्रणाम किया और वायुवेग से आकाश में उड़ चले । हनुमान जी हर पल और हर घड़ी प्रभु श्रीराम का ही चिंतन किए जा रहे थे ।
हनुमान की अपने पुत्र मकरध्वज से भेंट:
पलक झपकते ही हनुमान जी विभीषण के बताए मार्ग से चलकर पाताल पुरी जा पहुंचे । पाताल पुरी के विशाल प्रवेशद्वार की रक्षा में वहाँ एक विशाल वानर डटा हुआ था । उसे देखकर हनुमान जी ने अपना छोटा रूप धारण किया और द्वार में प्रवेश करने लगे ।
परंतु उस द्वार रक्षक वानर की दृष्टि से वे नहीं बच सके । उसने कड़ककर हनुमान जी से पूछा, ”हे वानर ! कौन है तू जो बिना मेरी आज्ञा के नगर में प्रवेश कर रहा है ? मैं यहां का रक्षक हू । मेरे यहां रहते हुए तुम नगर में प्रवेश नहीं कर सकते । मेरा नाम मकरध्वज है और मैं महापराक्रमी बजरंगबली हनुमान जी का पुत्र हू ।”
”क्या?” हनुमान जी चौंक पड़े । वे बोले, ”दुष्ट वानर! तू अपने आपको हनुमान जी का पुत्र कहता है । पर वे तो जन्म से ही बाल-ब्रह्मचारी हैं । उनके तुम पुत्र किस प्रकार से हो सकते हो ?” मकरध्वज ने उत्तर दिया, ”हे वानर ! मेरे पिता जी जब लंका-दहन के उपरांत अपनी पूँछ को समुद्र के जल में बुझाकर स्नान कर रहे थे, तब अत्यधिक श्रम करने के कारण उनके शरीर से पसीने की बूंदें जल में गिर रही थीं ।
वहीं पर एक मछली ने उस पसीने की बूंदों को पी लिया । एक बार उस मछली को पकड़कर पातालपुरी के मछुआरे राजभवन में लाए और यहां के रसोइयों को बेचकर चले गए । उस समय वह मछली उस पसीने के कारण गर्भवती हो गई थी । लेकिन जब अहिरावण के रसोइए ने उसे काटा तो मेरी उत्पत्ति हुई । बाद में अहिरावण ने ही मेरा पालन-पोषण किया ।
इस प्रकार मैं बजरंगबली पवनपुत्र श्री हनुमान जी का ही पुत्र हू । इसी से तुम अंदाजा लगा लो कि मुझे जीते बिना कोई भी पाताल नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता ।” हनुमान जी ने आश्चर्य में भरकर मकरध्वज को देखा । एकाएक उनके हृदय में पुत्र प्रेम उमड़ आया । उन्होंने कहा, ”हे वत्स ! मैं ही हनुमान हूं ।”
हनुमान जी की बात सुनकर मकरध्वज ने विस्मय और हर्ष से भरकर हनुमान जी को प्रणाम किया और कहा, ”पिताश्री ! यह मेरा अहोभाग्य है, जो मुझे आपके दर्शन हुए । देवर्षि नारद ने ही मुझे मेरे जन्म की यह कथा सुनाई थी ।
उनकी बात पर विश्वास न करने का कोई कारण ही नहीं था । उन्होंने मुझसे यह भी कहा था कि श्रीराम और लक्ष्मण को छूने एक दिन आप यहां आएंगे । आज उनकी वाणी सत्य हुई ।” मकरध्वज ने आगे बढ्कर हनुमान जी के चरण-स्पर्श किए और कहा, ”पिताश्री ! आज्ञा करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं ?”
हनुमान जी ने मकरध्वज को अपने हृदय से लगा लिया और अपने वहां आने का कारण बताया । इस पर मकरध्वज ने कहा कि मेरे स्वामी कल रात्रि में दो युवा संन्यासियों को लेकर यहां आए हैं और इस समय वे उन्हें महाकाली के मंदिर में बलि चढ़ाने ले गए हैं ।
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वहां महाकाली की पूजा प्रारंभ की जा चुकी है । पूजा समाप्त होते ही उनकी बलि चढ़ा दी जाएंगी । मैं नहीं जानता कि वे कौन हैं । अगर वे ही राम-लक्ष्मण हैं तो उनका जीवन संकट में है । ”यह नहीं हो सकता ।” हनुमान जी बोले, ”वे मेरे आराध्य हैं । मैं उनकी बलि नहीं चढ़ाने दूंगा । तुम मेरे मार्ग से हटो ।”
मकरध्वज अभी तक द्वार के मध्य में खड़ा था । उसने कहा, ”पिताश्री ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अपना मस्तक काटकर आपके श्रीचरणों में रख सकता हूं । किंतु द्वार रक्षक होने के कारण मैं अपने स्वामी से छल नहीं कर सकता ।
उनकी अनुमति के बिना मैं आपको द्वार में प्रवेश नहीं करने दूंगा । आपका यह आदेश मैं कदापि नहीं मान सकता । मुझे क्षमा करें । स्वामी से विश्वासघात का दोषी होने से अच्छा तो यही है कि मैं युद्ध करते हुए अपने प्राणों को त्याग दूं ।”
मकरध्वज की बात सुनकर हनुमान जी का सीना चौड़ा हो गया । उसने अपने पिता की भांति ही स्वामीभक्ति दिखाई । तब उन्होंने अपनी मुष्टिका का एक तगड़ा प्रहार मकरध्वज के सिर पर किया । उससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा । उसके गिरते ही हनुमान तेजी से द्वार में प्रवेश कर गए और सूक्ष्म रूप से देवी मंदिर में जा पहुंचे ।
उहीरावण की बलि:
वहां पर अहिरावण स्नान करके, रक्त चँदन का तिलक लगा और पुष्पों की माला पहनकर, धूप बत्तियां जलाकर माँ काली की आराधना कर रहा था । हनुमान जी देवी की मूर्ति के पीछे जाकर छिप गए । अहिरावण ने देवी को तरह-तरह से खाद्य पदार्थ, पुष्पमाला, गंध, अक्षत, धूप आदि प्रस्तुत किए ।
हनुमान जी धीरे से हाथ निकालते और खाद्य-पदार्थों को खींचकर खा जाते । अहिरावण मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि आज देवी प्रसन्न होकर उसकी भेंट स्वीकार कर रही है । उसे आज परम सिद्धि अवश्य प्राप्त होगी । अंत में उसने बंधनों में बंधे श्रीराम और लक्ष्मण को वहाँ बुलवाया ।
उन्हें बलि के लिए पूरी तरह तैयार किया गया था । उन्हें अपने सामने देखकर अहिरावण ने कहा, ”अब कुछ ही देर में तुम दोनों भाइयों को देवी की भेंट चढ़ा दिया जाएगा । तुम्हें जिसका स्मरण करना हो कर लो ।” श्रीराम ने अहिरावण से कहा, ”हे राक्षसराज ! आपत्ति के समय प्राणि मेरा स्मरण करते हैं, पर मेरी आपदाओं का हरण करने वाले तो पवनकुमार हनुमान हैं ।
हम दोनों भाई अब उन्हीं का स्मरण करते हैं ।” श्रीराम और लक्ष्मण ने देवी की ओर देखा तो उसी समय हनुमान जी ने अपना विशाल रूप बनाकर घोर गर्जना की । उनकी गर्जन से धरती दहल गई और आकाश फटने लगा । घबराकर अहिरावण उठ खड़ा हुआ और उसने तलवार खींच ली ।
उसी समय हनुमान जी कूदकर बाहर आए और अहिरावण के हाथ से तलवार छीन ली । उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को उठाकर अपने कंधे पर बैठा लिया । हनुमान जी के रौद्र रूप को देखकर अहिरावण कांप उठा । इससे पहले वह कुछ करता हनुमान जी ने तलवार के एक ही वार से उसकी गरदन उड़ा दी और उसका सिर देवी के चरणों में डाल दिया ।
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अचानक हुए इस हादसे को देखकर वहीं उपस्थित सैकड़ों राक्षस हनुमान जी पर टूट पड़े । परंतु हनुमान जी ने उन्हें पकड़-पकड़कर मारना प्रारंभ कर दिया । कुछ ही देर में वहां राक्षसों के शवों का ढेर लग गया । बाकी बचे राक्षस अपनी जान बचाकर वहां से भाग खड़े हुए ।
हनुमान जी के सामने एक भी राक्षस नहीं टिक सका । अहिरावण का सारा परिवार मारा गया । बाद में हनुमान जी ने जब मकरध्वज को होश में लाकर उसका परिचय प्रभु श्रीराम से कराया तो प्रभु ने कहा, ”वत्स हनुमान ! सर्वप्रथम तुम मकरध्वज को पाताल का राज्य देकर उसका राजतिलक करो । उसके बाद ही हम यहां से चलेंगे ।”
हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम की आज्ञा मानकर मकरध्वज का राजतिलक कर दिया और अपने पुत्र से कहा, ”पुत्र ! तुम धैर्य और सत्याचरण से पाताल का शासन करते हुए प्रभु सीता राम का सदैव स्मरण करते रहना । तुम्हारा कल्याण होगा ।”
मकरध्वज ने प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और अपने पिता के चरणों को स्पर्श करके माथे से लगाया और उन्हें वहां से विदा किया । हनुमान प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को अपने कंधे पर बैठाकर दुत गति से लंका जा पहुंचे । प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान जी को वापस सकुशल आया देखकर उदास मुख बैठे वानरों के चेहरे खिल गए और उन्होंने ‘जय श्रीराम’ का तुमुल घोष किया ।
प्रभु श्रीराम ने कहा, ”जय मेरी नहीं, अंजनि पुत्र हनुमान की बोलो । आज उन्हीं के कारण हमारे प्राणों की रक्षा हुई है ।” प्रभु की वाणी सुनकर हनुमान जी ने कुछ कहना चाहा, पर प्रभु ने आखों के संकेत से उन्हें चुप कर दिया । तभी सारे वानर समाज ने ‘बोल बजरंगबली की जय ! पवनपुत्र हनुमान की जय !! अंजनिपुत्र महावीर की जय !!!’ के नारे लगाए । उस जयकारे को सुनकर लंकापति रावण का हृदय दहल गया ।