संयुक्त राष्ट्र संघ: कल, आज और कल पर निबन्ध. Hindi Essay on United Nations Organisation : Past, Present and Future.
संयुक्त राष्ट्र संघ अर्थात् यू.एन.ओ. (United Nations Organisation) अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं । उसकी स्थापना के समय उपनिवेशवाद का जो अंतरराष्ट्रीय व्यूह था, वह समाप्त हो गया है । शीतयुद्ध काल की असमंजस भरी स्थितियाँ भी नहीं हैं ।
अब तो त्रस्त मानवता की रक्षा, विकास के नारों और विश्व शांति की परिकल्पनाओं का समय आ गया है । परतंत्रता की बेड़ियाँ काटी जा चुकी हैं । संघ के कोश से रंगभेद जातिभेद, धर्मभेद जैसे उत्पीड़न के शब्द अब हट गए हैं, फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ आज भी असहाय है ।
इसके उत्तरदायित्वों का दायरा तो बढ़ा है, लेकिन उसके साधन दिनोदिन सिमटते जा रहे हैं । संगठन ने कई दशकों की घोषणा की और प्रत्येक वर्ष किसी-न-किसी समस्या का निराकरण का स्वप्न देखा, किंतु एक मोटी रकम खर्च होने के बावजूद स्थितियों में विशेष अंतर नहीं आया ।
संघर्षरत पक्षों के बीच शांति स्थापन्रा के स्तर पर भी संगठन को उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी अपेक्षा की जाती थी । ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों, उसके कार्य करने के तौर-तरीकों, कार्य संचालन में आनेवाले व्यवधानों, संगठन की विवशताओं और उसके भविष्य की परिकल्पनाओं पर विस्तृत और गंभीर विचार करना जरूरी है, क्योंकि उसी स्थिति में कार्यक्रमों का सही-सही मूल्यांकन हो सकेगा ।
स्थापना का परिवेश ओर उगवश्यकता:
विश्व में शांति का वातावरण बनाने के लिए लंबे समय से प्रयास होते रहे, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध (सन् 1914-1918) के दौरान लाखों लोगों की अकारण मौत तथा अरबों रुपए की संपत्ति के विनाश से दुःखी होकर यह निर्णय किया गया कि राष्ट्र संघ (League of Nations) की स्थापना की जाए ताकि भावी महायुद्ध की संभावना टाली जा सके ।
इस तरह अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की पहल पर सन 1920 में ‘राष्ट्र संघ’ की स्थापना हुई । इसमें प्रारंभ में 42 राष्ट्र शामिल हुए जिनमें निबंध सागर अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा जापान तथा इटली भी थे ।
इनमें जापान ने सन् में संघ छोड़ दिया, क्योंकि राष्ट्र संघ ने मंचूरिया पर उसके हमले की आलोचना की थी । जर्मनी ने इस संगठन की सदस्यता सन् १९२५ में स्वीकार की थी, लेकिन १० वर्षो बाद हिटलर के सत्ता में आने के पश्चात् उसने संघ छोड़ दिया ।
इसी तरह इटली ने १९३७ में अबीसीनिया पर हमले के साथ राष्ट्र संघ को अलविदा कह दिया । अंतत: महाशक्तियों में फ्रांस और ब्रिटेन ही इसके सदस्य रह गए । रूस ने १९३४ में संघ की सदस्यता ग्रहण की, लेकिन हिटलर के साथ समझौते के बाद उसकी सदस्यता न के बराबर रहे गई । अमेरिका ने सदस्यता की परवाह ही, नहीं की ।
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इस तरह ‘लीग ऑफ नेशंस’ का भविष्य खतरे में पड़ गया । इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९) शुरू हो गया । इसमें जो विनाश क्त तांडव हुआ उससेमानवता काँप उठी । हिरोशिमा-नागासाकी पर अभु बम के प्रहार ने-सारे विश्व को दहला दिया था ।
अत: तीव्रता से किसी ऐसे संगठन की अवल्पकता अनुभव कीजाने लगी, जो विश्व को युद्ध की विभीषिका से बचा सके । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयास. पहले से जारी थे ही । धुरी राष्ट्रों (जापान, जर्मनी और इटली) के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों ने बो युद्ध अभियान शुरू किया, उसी समय संयुक्त राष्ट्र (United Nations) शब्द का प्रयोग होने लगा था ।
जनवरी १९४२ में एक संयुक्त घोषणा-पत्र में इस नाम का प्रयोग भी किया गया, जिसमें २६ राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध क्यई शपथ ल्टई थी । इसके बाद सन् १९४३ में मॉस्को में इन राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ जिसमें ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, रूस और फ्रांस के विदेश मंत्री शामिल हुए, और विश्व में लति तथासुरक्षा के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संगठन बनाने बलाल्पा गया था ।
‘लीग ऑफ नेशंस’ को अक्षम मानकर नए संगठन के उद्देश्य-से काहिरा, तेहरान, ग्रेट-ब्रिटेन, बुड्स और हॉटस्टिंग में सम्मेलन करके संगठन की रूपरेखा पर विचार होता रहा । यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध अपनी पूरी क्षमता से लड़ा जा रहा था । अंततोगल्य स्मृर १९४४ के वाशिंगटन: सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रारूप प्रस्तुत किया गया ।
इस सम्मेलन में चीन, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका के प्रतिनिधि शामिल हुए । इसके बाद एक सम्मेलन २५ अप्रैल से २६ जून, १९४५ तक सैन फ्रांसिस्को में हुआ, जिसमें ५० देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए । इसी सम्मेलन में उल्लिखित चार्टर घोषणा-पत्र को स्वीकृति प्रदान की गई । इस घोषणा-पत्र पर २६ जूनको ५० राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे । एक अन्य राष्ट्र पोलैंड ने बाद में हस्ताक्षर किया ।
इस तरह ५१ राष्ट्रों की सहमति से संयुक्त. राष्ट्र संघ अपने अस्तित्व-में आया; लेकिन विभिन्न राष्ट्रों की ओर से पृथक-पृथक पुष्टि के बाद २४ अक्तूबर, १९४५ दृश्यको इस संगठन की स्थापना हुई । सुरक्षा परिषद् के ५ स्थायी सदस्य- चीन, फ्रांस, अमरिका, सोवियत संघ (अब रूस) और ग्रेट ब्रिटेन- इस संगठन के प्रारंभिक स्थापनाकर्ताओं में शामिल हैं और वही बाद में सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य घोषित हुए ।
उद्देश्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकार-पत्र (घोषणा-पत्र) में मुख्यत: चार उद्देश्यों का उल्लेख है:
१. अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना ।
२. राष्ट्रों केबीच उनके सम्मान, अधिकार (सार्वभौम अधिकार) और आत्मनिर्णय के उनके विशेषाधिकार को ध्यान में रखते हुए मित्रतापूर्ण संबंधों का विकास करना ।
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३. आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानव कल्याण से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का निराकरण करना और मानवाधिकारों के प्रति सम्मान भाव अभिवर्धित करने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करना ।
४. इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के साथ विश्व के समस्त राष्ट्रों के बीच आपसी संबंधों का सामंजस्य स्थापित करना ।
इन उद्देश्यों की पूर्ति का आधारभूत सिद्धांत इस प्रकार है:
१. संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन विभिन्न राष्ट्रों की संप्रभुता को बराबर सम्मान देने के आधार पर हुआ है । अत: सभी सदस्यों की सदस्यता का स्वरूप भी समान है ।
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२. घोषणा-पत्र के अंतर्गत सदस्य राष्ट्रों ने जो दायित्व या कर्तव्य स्वीकार किया है, उसे वे पूर्ण सत्यनिष्ठा से पूरा करेंगे ।
३. सदस्यों को आपसी झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से इस प्रकार तय करना है, जिससे शांति, सुरक्षा और न्याय को कोई खतरा न हो ।
४. सभी सदस्य राष्ट्रों को अन्य सदस्य राष्ट्रों के विरुद्ध धमकी, चेतावनी या बल-प्रयोग से दूर रहना चाहिए ।
५. संयुक्त राष्ट्र संघ जो भी कार्य करता है, उसमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को मदद करनी होगी । जिन सदस्य राष्ट्रों के विरुद्ध राष्ट्र संघ निरोधात्मक काररवाई (Enforcement action), उन्हें विवश करने के लिए करता है, उनको सदस्य राष्ट्र मदद नहीं करेंगे ।
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६. संयुक्त राष्ट्र संघ किसी राष्ट्र के आतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा, परंतु जहाँ शांति भंग का खतरा हो या आक्रमण किया गया हो, वहाँ यह धारा लागू नहीं होगी और राष्ट्र संघ बाध्यीकरण या विरोधात्मक काररवाई कर सकेगा, क्योंकि बाध्यीकरण से अनुशासन का उल्लंघन करनेवाले राष्ट्र को अनुशासन में लाया जा सकता है ।
सदस्यता:
संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए दो मुख्य शर्तें हैं:
१. सुरक्षा परिषद् की संस्तुति,
२. महासभा द्वारा दो-तिहाई बहुमत से सदस्यता को स्वीकृति, किंतु इनमें से पहली ही शर्त महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यदि सुरक्षा परिषद् ने किसी सदस्य की सदस्यता निलंबित करने की स्वीकृति दे दी तो वह निलंबित होकर ही रहेगा और यदि सुरक्षा परिषद् चाहती है कि निलंबन समाप्त हो जाए तो वह समाप्त हो जाएगा ।
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इस तरह सदस्यता के लिए सुरक्षा परिषद् की स्वीकृति-अस्वीकृति महत्त्वपूर्ण है । यही कारण है कि संपूर्ण संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद् के अनुसार चलता है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अंग इस संगठन के प्रमुख अंग हैं:
१. महासभा (General Assembly)
२. सुरक्षा परिषद् (Security Council)
३. आर्थिक और सामाजिक परिषद् (Economic and social council)
४. न्यास परिषद् (Trusteeship Council)
५. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice)
महासभा:
सभी इस सभा के सदस्य होते हैं और उनका अपना एक मत होता है । आमतौर पर वर्ष में एक बार महासभा की बैठक होती है और यह दिन सितंबर का तीसरा मंगलवार होता है । इसका सत्र आमतौर पर दिसंबर के मध्य तक चलता है, लेकिन यदि आवश्यक होता है तो यह नए वर्ष के कुछ सप्ताहों तक भी चल सकता है । सुरक्षा परिषद् की पहल पर राष्ट्र संघ का महासचिव विशेष या आपात अधिवेशन बुला सकता है । महासभा का कोई स्थायी अध्यक्ष नहीं होता । वह अपने हर सत्र में नया अध्यक्ष चुनती है ।
महासभा का पहला सामान्य सत्र सन् १९४६ में १० जनवरी से १४ फरवरी (लंदन) और २३ अक्तूबर से १६ दिसंबर (न्यूयॉर्क) तक चला था । विशेष अधिवेशन प्राय: किसी विशेष मुद्दे को लेकर बुलाया जाता है, जैसे-सन् १९६७ में अरब-इजराइल युद्ध के कारण बुलाया गया था ।
सुरक्षा परिषद:
इस संस्था में १५ सदस्य हैं, जिसमें १० अस्थायी और ५ स्थायी सदस्य हैं । अस्थायी सदस्यों को राष्ट्र संघ महासभा में दो-तिहाई बहुमत से प्रति दो वर्षो के लिए चुना जाता है । अवकाश पानेवाले सदस्य तत्काल पुनर्निर्वाचित नहीं हो सकते । इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् अपनी बैठकों में गैर-सदस्यों को भी भाग लेने के लिए आमंत्रित कर सकती है ।
सुरक्षा परिषद् का मुख्य दायित्व विश्व में शांति-व्यवस्था बनाए रखना है । सुरक्षा परिषद् में किसी प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए ९ मत आवश्यक होते हैं । यदि स्थायी सदस्य अनुपस्थित रहते हैं तो इसका तात्पर्य ‘निषेधाधिकार’ नहीं होता, लेकिन उपस्थित सभी स्थायी सदस्यों का मत उन ९ मतों में शामिल होना जरूरी है ।
शांति और सुरक्षा स्थापित करने में मदद के लिए एक सैनिक कर्मी समिति (Millitary Staff Committee) की व्यवस्था की गई है, जिसमें सभी स्थायी सदस्यों के सेनाध्यक्ष या उनके प्रतिनिधि शामिल होते हैं । सुरक्षा परिषद् के अध्यक्ष अंग्रेजी नामाक्षरों के आधार-क्रम में एक-एक महीने के लिए सदस्य देश होते हैं ।
सुरक्षा परिषद् के पास विशेषज्ञों की दो समितियाँ हैं, जो नए सदस्यों की सदस्यता की अर्हता का निर्णय करती हैं । इसके अलावा समय-समय पर विभिन्न मसलों पर तदर्थ और विशेष समितियों भी गठित की जाती हैं । अणुशक्ति आयोग भी इसी का अंग है । कई स्थायी समितियाँ भी हैं ।
आर्थिक और सामाजिक परिषद:
राष्ट्र संघ की आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य आदि मामलों का दायित्व इस परिषद् को दिया गया है । इसमें ५४ सदस्य हैं, जो महासभा द्वारा दो-तिहाई बहुमत से चुने गए हैं । प्रतिवर्ष १ सदस्य चुने जाते हैं, जिनका कार्यकाल ३ वर्ष का होता है । अवकाश ग्रहण करनेवाले सदस्य तत्काल दोबारा भी चुने जा सकते हैं ।
प्रत्येक सदस्य का एक मत होता है और उपस्थित सदस्यों के बहुमत से निर्णय किए जाते हैं । यह समिति प्रत्येक वर्ष दो सत्र में बैठती है और आवश्यक होने पर विशेष अधिवेशन भी बुला सकती है । इसके अंतर्गत अपेक संगठन हैं, जैसे-सांख्यिकी आयोग, जनसंख्या आयोग, मानवाधिकार आयोग, मादक पदार्थ आयोग, नारी सामाजिक स्थिति आयोग, सामाजिक विकास आयोग आदि ।
इन आयोगों के अतिरिक्त स्थायी समितियाँ भी हैं, जैसे- आर्थिक समिति, सामाजिक समिति, समन्वय समिति, गैर-सरकारी संगठनों से संबद्ध समिति, सम्मेलनों के कार्यक्रम संबंधी अंतरिम समिति, औद्योगिक विकास समिति आदि । इस तरह आर्थिक और सामाजिक परिषद् का क्षेत्र बहुत व्यापक है ।
न्यास परिषद:
इस परिषद् का महत्त्व उपनिवेशवाद काल में अधिक था । उस समय इस तरह के ११ न्यास बनाए गए थे, जिनमें माइक्रोनेशिया अब भी अमेरिका द्वारा शासित है । यह प्रशांत के द्वीपों का समूह है । कुछ ऐसे ही द्वीप फ्रांस के पास भी हैं ।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय:
यह न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र का एक अंग है और एक अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत इसकी स्थापना हुई है । इसमें निष्पक्ष न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है, जिसके लिए किसी देश की राष्ट्रीयता जरूरी नहीं है ।
उनमें अपने देश में उच्च पद के लिए निर्धारित योग्यता देखी जाती है । इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय कानून से संबद्ध ख्याति देखी जाती है । इस समय १५ न्यायाधीशजैं । इनकी नियुक्ति सन् १८९९ और ११०७ के हेग कन्वेंसन के अनुसार गठित स्थायी न्यायाधिकरण द्वारा नामांकित न्यायाधीशों की सूची से की जाती है, जिस पर महासभा और सुरक्षा परिषद् दोनों की स्वीकृति होती है ।
इन न्यायाधीशों का कार्यकाल १ वर्षों का होता है । यह न्यायालय अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तीन वर्षों के लिए स्वयं चुनता है, साथ ही निरंतर कार्यशील रहता है । आमतौर पर सभी १५ न्यायाधीश न्यायालय में बैठते हैं, लेकिन ९ न्यायाधीशों की उपस्थिति से कोरम पूरा मान लिया जाता है ।
वैसे बेंच में कम-से-कम ३ न्यायाधीश शामिल होते हैं । किसी फैसले से पहले निम्न बातें ध्यान में रखी जाती हैं:
१. अंतरराष्ट्रीय समझौतों की शर्ते, जिन्हें विवादी राष्ट्रों ने स्वीकार किया है ।
२. अंतरराष्ट्रीय परंपराओं तथा विधि द्वारा स्वीकृत शिष्टाचार ।
३. अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार के आधारभूत तत्त्व ।
४. विभिन्न देशों के उच्चतम न्यायालयों के निर्णय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कानूनविदों की राय ।
इस तरह राष्ट्र संघ स्वयं में एक अति शक्तिशाली संस्था है । इससे संबद्ध अनेक संस्थाएँ हैं, जैसे-विश्व बैंक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूनीसेफ, यूनेस्को, अंतरराष्ट्रीय अणुशक्ति अभिकरण आदि, जो विश्व को साधन-संपन्न बना सकने में समर्थ हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ अपने दायित्वों को पूरा करेंने में वहीं सफल हो पाता है, जहाँ सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य रुचि लेते हैं । विशेष तौर पर अमेरिका और उसके मित्र देशों का बोलबाला है ।
संद्युक्त राष्ट्र संघ की असफलताओं के कारण:
विश्व शांति की स्थापना का दायित्व वहन करनेवाला, मानवाधिकारों का संरक्षक, बच्चों, युवकों, महिलाओं, विस्थापितों और अल्पसंख्यक राष्ट्रों को संरक्षण देने का दम भरनेवाला संयुक्त राष्ट्र संघ स्वयं में एक निरीह संगठन है ।
इसके प्रमुखतया पाँच कारण हैं:
१. राष्ट्र संघ का अपना कोई सैनिक तंत्र नहीं है, अत: विभिन्न देशों से जो सेनाएँ और मानव कल्याण से संबद्ध कर्मचारी वह उधार लेता है, उनमें तालमेल बैठाना कठिन हो जाता है । इस प्रकार शांति स्थापित करने का सारा प्रयास बिखर जाता है और राष्ट्र संघ को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती ।
२. संयुक्त राष्ट्र संघ का अपना कोई आय-च्चोत नं होने केकारण सदस्य राष्ट्रों से प्राप्त होनेवाला चंदा पर्याप्त नहीं होल और ‘अनेक स्थानों से’ शांति स्रेनाएँ इसलिए वापस बुलानी पड़ी हैं, क्योंकि उनके पास उन सेनाओं अए रखमे की आर्थिक क्षमता नहीं रही ।
चंदे की रकम भी समय से नहीं मिल पाती । सबसे बड़ा गैर-जिम्मेदाराना कार्य अमेरिका करता है, जिसने चंदे का २५ प्रतिशत देने का दायित्व लिया है; पर उसका भुगतान-नहीं करता ।
३. असफलताओं का तीसरा प्रमुख कारण महाशक्तियों की स्वार्थपरता है । महाशक्तियाँ जो विवादित पक्षों में से किसी एक की पक्षधरता करने लगती हैं, जिससे शांति सेना को दायित्व निर्वाह करने का अवस ही नहीं मिल पाता ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति सैनिक युद्ध करने नहीं जाते, बल्कि युद्धरत पक्षों को युद्ध से विरत करने के उद्देश्य से भेजे जाते हैं । अत: उन्हें किसी एक पक्ष की तरफदारी का हक नहीं, भले ही वह दोषी ही क्यों न हो ।
४. संयुक्त राष्ट्र संघ के समाज कल्याण के सारे कार्यक्रम प्राय: भ्रष्टाचार के शिकार हो जाते हैं और फर्जी आँकडों से खानापूर्ति तो कर दी जाती है, मगर मदद लेनेवाले राष्ट्र उस धन का उपयोग अन्य कार्यो में कर लेते हैं ।
जैसा कि देखा गया है राष्ट्र संघ से समाज कल्याण के लिए मिले धन से हथियार तक खरीदे गए हैं । इसी तरह विस्थापितों के लिए मिलनेवाले धन का भी दुरुपयोग होता रहा है ।
५. संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा, जिसके सदस्य सभी राष्ट्र होते हैं, एक असहाय संस्था है । वह अपने बहुमत से ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकती, जो सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों, विशेषतौर पर अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों की इच्छा के विरुद्ध हो ।
यही कारण रहा कि सन् १९७९ तक जनवादी चीन महासभा का सदस्य नहीं बन सका और जब अमेरिका ने राष्ट्रवादी (ताइवान) चीन को उसके पद से हटाने का निर्णय लिया तो वर्तमान चीन राष्ट्र संघ में शामिल हो सका और सुरक्षा परिषद् का सदस्य बन सका ।
उपलब्धियाँ:
ऐसी बात नहीं कि इन कारणों से संयुक्त राष्ट्र संघ की सारी उपलब्धियाँ ही नकारात्मक हो गईं । राष्ट्र संघ की सबसे बड़ी उपलब्धि तो यही रही कि विगत ६५ वर्षों में तृतीय विश्वयुद्ध की नौबत ही नहीं आई । छोटी-मोटी लड़ाइयाँ तो कई हुई, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से जो बातचीत के क्षेत्र खुले रखे गए उनसे समस्याओं के निराकरण में काफी मदद मिली ।
कुछ मामले तो संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद ही सुलझ पाए । महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध भले ही पूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका की आपसी बातचीत से समाप्त हुआ हो, फिर भी उसमें संयुक्त राष्ट्र का योगदान कम न रहा ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने मध्यस्थता और शांति स्थापना के कई महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए, जैसे- सन् १९४६ में ईरान से रूसी फौजों की वापसी, १९४८ में अरब-इजराइल युद्ध तथा भारत-पाकिस्तान युद्ध में मध्यस्थता, कोरिया युद्ध में शांति स्थापना, १९५६ में अरब-इजराइल के बीच स्वेज नहर के लिए छिड़े युद्ध में शांति सेना के माध्यम से शांति स्थापित करना, १९६० में कांगो में शांति सेना भेजकर अमन-चैन कायम करना,
१९६२ में क्यूबा में प्रक्षेपास्त्रों की तैनाती पर अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच उठे विवाद में बीच-बचाव, १९६४ में साइप्रस के लिए संघर्षरत पक्षों के बीच शांति स्थापित करना, १९६७ के अरब-इजराइल युद्ध में मध्यस्थता करके युद्ध विराम कराना, १९७८ में लेबनान में शांति स्थापित कराना तथा १९९०-९१ के खाड़ी युद्ध में इराक के हमले को नाकाम करने के लिए बहुराष्ट्रीय सेनाओं को दायित्व सौंपना ।
सोमालिया, कंबोडिया में शांति स्थापना के प्रयास, बोस्निया में शांति के लिए जद्दोजहद, उत्तरी कोरिया को परमाणु हमले से रोकना, फिलिस्तीन-इजराइल समझौते, ईरान का परमाणु मुद्दा आदि ऐसे कार्य हैं, जिनसे राष्ट्र संघ का महत्त्व स्थापित हुआ है ।
यह बात और है कि जहाँ महाशक्तियों (विशेषतया अमेरिका) ने सहयोग किया वहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ सफल हुआ । फिर भी उसके कार्यों का महत्त्व घटता नहीं, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका भी उसका महत्त्वपूर्ण सदस्य है, अत: उसकी मदद से भी जो कार्य राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में होते हैं, उनको उसके ही खाते में रखना समीचीन होगा ।
उपनिवेशों की समाप्ति में योगदान:
राष्ट्र संघ का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान उपनिवेशों की समाप्ति है । उदाहरण के लिए-नामीबिया की आजादी, निकारागुआ में लोकतंत्र की स्थापना, फिलिस्तीन समस्या की समाप्ति में योगदान, दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र की स्थापना, अंगोला में गृहयुद्ध की समाप्ति, नारूर न्यूकेलीडोनिया, मॉरीशस, सूरीनाम, फीजी, हैती, सेशेल्स आदि तमाम देशों में उपनिवेश समाप्त करने में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिए हैं ।
इन देशों में जागरूकता बढ़ाने में राष्ट्र संघ ने भी काफी मदद की, अत: इसका श्रेय उसे दिया जा सकता है ।
सामाजिक-सांस्कृतिक कल्याण कार्यक्रम:
राष्ट्र संघ और उससे संबद्ध संगठनों ने इस क्षेत्र में विकासशील देशों तथा अन्य गरीब देशों की पर्याप्त मदद की और आज भी कर रहे हैं । यूनेस्को, यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व खाद्य संगठन, अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन, डाक-तार विभाग से संबद्ध संगठन आदि ने कई दृष्टियों से विकास-कार्यक्रमों, जैसे- साक्षरता, बाल विकास, महिला उत्थान, प्रकोत्थान, मलेरिया उन्यूलन, चेचक उन्यूलन, टी.बी. निवारण, एड्स चिकित्सा तथा इसी तरह के अनेक कार्यक्रमों से राष्ट्र संघ ने विश्व की सेवाएँ की हैं, इसमें दो राय नहीं ।
आज डिफ्यीरिया, काली खाँसी, टिटनेस, पोलियो, टीबी, खसरा आदि बीमारियों के विरुद्ध अभियान संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व स्वास्थ्य कार्यक्रम का ही एक अंग है । सांस्कृतिक, शैक्षिक, प्रौद्योगिक तथा अन्य क्षेत्रों के कई कार्यक्रम इस विश्व-संस्था के ही हैं ।
यहाँ तक कि नगरों की सफाई, समुचित मल-निस्तारण व्यवस्था जैसे कार्यक्रमों कें लिए भी विश्व बैंक से मदद मिलती है, जो राष्ट्र संघ से संबद्ध हैं । नदी परियोजनाओं, ऊसर-उर्वरीकरण योजना आदि विकास कार्यक्रम भी इसी से जुड़े हैं । इस तरह इस क्षेत्र में ‘विश्व संस्था’ का आभार माना जा सकता है ।
उल्लिखित विवरणों से यह स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने अब तक के जीवन में बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं, लेकिन उसकी असफलताएँ भी कम नहीं हैं । जहाँ भी शांति स्थापना में राष्ट्र संघ ने योगदान किया है, वहाँ कहीं भी समस्या का समुचित निराकरण नहीं हो सका ।
समस्या उठती है, संघर्ष होते हैं, राष्ट्र संघ की शांति योजना शुरू होती और फिर समस्याएँ वहीं दबा दी जाती हैं । इस दृष्टि से राष्ट्र संघ एक निरीह संस्था और अमेरिका की बँधुआ सी लगती है । इसका मुख्य कारण इसकी अर्थव्यवस्था का जर्जर होना है, क्योंकि इसमें विकासशील देशों में से अधिकांश का चंदा १ प्रतिशत भी नहीं है ।
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अन्य प्रमुख देशों ने जो चंदे की धनराशि नियत कर रखी है, उससे उनका महत्त्व बढ़ जाता है । अधिकांश वे देश, जो अमेरिका या उसके प्रभाव में हैं, चंदे की बड़ी रकम देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि राष्ट्र संघ पर उनका ही प्रभाव छाया रहता है । संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रमुख सदस्य राष्ट्रों का विवरण इस प्रकार है ।
इनमें वे ही देश शामिल हैं, जो १ प्रतिशत से अधिक का योगदान करते हैं:
ऑस्ट्रेलिया १.८३, बेल्जियम १.२२, ब्राजील १.२७, कनाडा ३.२८, चीन १.६२, फ्रांस ६.२६, पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी ९.७०, इटली ३.४५, जापान ९.५८, नीदरलैंड्स १.६३, पोलैंड, १.२४, स्पेन १.७०, स्वीडन १.३१ यूक्रेन १.४६ सोवियत संघ ११.१० ग्रेट ब्रिटेन ४.४६, अमेरिका २५ प्रतिशत ।
यद्यपि यह आँकड़ा कुछ पहले का है, तथापि इसमें यदि कोई परिवर्तन हो सकता है तो वह जापान और जर्मनी के योगदान में ही । भारत का अब योगदान क्या है, कहा नहीं जा सकता; लेकिन उल्लिखित आँकडों में उसका योगदान मात्र ०.६० प्रतिशत का रहा था । अब यह समझा जा सकता है कि अमेरिका राष्ट्र संघ पर इतना अधिक प्रभावी क्यों रहता है ।
चित्त संकट का कारण:
राष्ट्र संघ के समक्ष वित्त संकट का कारण भी यही है कि अमेरिका ने न तो २५ प्रतिशत चंदा दिया और न शांति स्थापना के लिए ३० प्रतिशत योगदान किया । सर १९९५ के मध्य तक अमेरिका पर ६६६ मिलियन डॉलर (६६.६ करोड़ डॉलर) बकाया था, जिसमें से २७० मिलियन डॉलर-यानी २७ करोड़ डॉलर संयुक्त राष्ट्र संघ के सामान्य परिव्यय (बजट) का हिस्सा था ।
उधर, ३९६ करोड़ डॉलर उसे शांति सेनाओं के मद में देना था । उसने धन नहीं दिया तो कंबोडिया और सोमालिया से शांति सेनाएँ वापस बुलानी पड़ी । अब बोस्निया से भी उनकी वापसी का इंतजार है । अमेरिका राष्ट्र संघ पर दबाव डाल रहा है कि उसकी हिस्सेदारी घटाई जानी चाहिए और जापान, जर्मनी, फ्रांस, चीन तथा अन्य समृद्ध देशों की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए ।
इसपर कुछ लोगों ने संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय को न्यूयॉर्क से हटाने के भी सुझाव दिए लेकिन वास्तविकता यह है कि कोई भी देश इस तरह राष्ट्र संघ की कर्मचारी ‘सेना’ अपने यहाँ पाल नहीं सकता । वैसे कंबोडिया में शांति सेना के रखरखाव का ६० प्रतिशत व्यय-भार जापान ने वहन किया था, लेकिन वह भी कब तक ?
राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने सुरक्षा परिषद् के पिछले अधिवेशन में शांति सेनाओं के संबंध में अपना जो प्रतिवेदन रखा था, उसमें उन्होंने तीन महत्त्वपूर्ण बातें बताई थीं”:
१. शांति सेना के माध्यम से संघर्षशील गुटों के बीच युद्ध विराम कराना या शांति स्थापित करना संभव नहीं है, क्योंकि रवांडा, सोमालिया तथा बोस्निया के अनुभव बताते हैं कि ऐसा करने पर अकारण शांति सैनिक मारे जाते हैं ।
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२.राष्ट्र संघ के पास न तो अनुभवी अधिकारी हैं और न तंत्र । इतना ही नहीं, प्रशिक्षण, रसद और उपकरणों के अभाव में शांति सेना निरीह होकर रह जाती है । उसको युद्ध नहीं, शांति की मध्यस्थता का अधिकार होता है, जिसका पालन दोनों पक्षों को करना होता है ।
३.एक त्वरित प्रति-काररवाई सेना (Rapid Reaction Force) होनी चाहिए । इसके लिए शांति सेना में सहयोग करनेवाले देशों की तैयारी जरूरी है । अमेरिका ने इसका तत्काल विरोध किया और कहा कि इस तरह की तैयारी संभव नहीं और न आर. आर.एफ. ही बनाई जा सकती है । यही कारण रहा कि वह योजना असफल हो गई ।
इस तरह हम इस निष्कर्ष को समक्ष रख सकते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ का जो व्यापक स्वरूप संपूर्ण विश्व में अपना फैलाव लिये हुए हैं, उसमें कतिपय देशों की दादागिरी प्रमुख है, क्योंकि वे ही अधिक धन देते हैं और सर्वत्र अपना प्रभाव बनाए रखते हैं ।
जब कभी समन्वित दृष्टिकोण समक्ष आता है या शांति स्थापना की दिशा में कोई ठोस काररवाई की जाती है, वहाँ सफलता न मिले, ऐसी बात नहीं । उदाहरणार्थ- कार्यक्रम कार्यान्वयन की समुचित व्यवस्था रहने पर कंबोडिया में काफी सफलता मिली, लेकिन सोमालिया, रवांडा और बोस्निया में शरणार्थियों को भेजी जानेवाली सामग्री की समुचित सुरक्षा न हो सकी, अत: उसे संघर्षरत गुटों ने रास्ते में ही छीन लिया था ।
ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि योजनाओं का कार्यान्वयन नहीं होता तो राष्ट्र संघ असफल होता रहेगा । यदि पर्याप्त कर्मचारी, सुरक्षा और शांति सैनिकों की टुकड़ी नहीं रहती तो शांति स्थापना संभव ही नहीं है और न संघर्षरत गुट ही शांति के लिए बाध्य किए जा सकते हैं ।