List of popuplar Panchtantra Ki Kahaniyans in Hindi Langauge!


Content:

  1. मित्र-भेद |
  2. दूसरों के कार्यो में न करें हस्तक्षेप |
  3. ढोल की पोल |
  4. अक्ल बड़ी या भैंस |
  5. बगुला मामा बड़ा सयाना |
  6. बली वही जिसके पास बुद्धि |
  7. उपदेश से नहीं बदलते स्वभाव |
  8. रंगा सियार |
  9. फूंक-फूंक पग धरो |
  10. टिटिहरी और समुद्र |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

1. मित्र-भेद |

किसी समय दक्षिण राज्य में महिलारोप्य नाम का एक नगर था । उसमें वर्धमान नाम का एक वैश्य रहता था । वह व्यापार करता था और अपने धंधे के सिलसिले में प्राय: देश-विदेश की यात्राएं किया करता था ।

उसके पास अपार धन-सम्पत्ति थी फिर भी और अधिक दौलत कमाने की उसकी भूख कभी शांत नहीं होती थी । एक बार रात के समय बिस्तर पर लेटे हुए उसने विचार किया कि मुझे अपनी सम्पत्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए कोई उपाय करना चाहिए, क्योंकि धन ही एक ऐसी वस्तु है जिससे संसार की किसी भी वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है ।

धनवान व्यक्ति से ही सभी मित्रता करते हैं और धन न रहने पर तो सगे बंधु-बांधव भी साथ छोड़ दिया करते हैं । यही विचार कर वर्धमान ने एक दिन अपनी बैलगाड़ी तैयार करवायी । बैलगाड़ी में दो सुंदर बैल जुतवाए । बैलों के नाम थे-संजीवक और नैहक ।

फिर बैलगाड़ी के साथ कई नौकर-चाकर और बैलगाड़ियों में क्रय-विक्रय योग्य वस्तुएं लेकर वह व्यापार करने के लिए मथुरा की ओर रवाना हो गया । कुछ दिन तक तो उनकी यात्रा निर्दिष्ठ चलती रही किंतु दुदैंव से जब उनका काफिला यमुना के कछार में पहुंचा तो वर्धमान के संजीवक नाम के बैल का एक पैर दलदल में फंस गया ।

उसने बलपूर्वक आगे बढ़ना चाहा तो बैल का वह पैर ही टूट गया । बैल का पैर ठीक हो जाने की प्रतीक्षा में वर्धमान वहीं ठहरा रहा । जब उनको वहां ठहरे हुए तीन दिन और तीन रात हो गए तो वर्धमान के साथियों ने उसको समझाया: ‘मित्र, इस बीहड़ वन में बैल के ठीक होने की प्रतीक्षा में इस प्रकार रुके रहना बेकार है ।

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यह वन अनेक हिंसक प्राणियों से भरा पड़ा है । शेर-चीते हाथी जैसे हिंसक जानवर यहां विचरण करते हैं । किसी दिन उन्होंने हम पर आक्रमण कर दिया तो जान बचानी मुश्किल हो जाएगी । हमारे लिए यही बेहतर रहेगा कि इस स्थान को छोड्‌कर किसी सुरक्षित स्थान में चले जाएं । कहा भी गया है कि किसी छोटी वस्तु के लिए बड़ी वस्तु की हानि नहीं करनी चाहिए । संकट आने पर छोटी वस्तु का त्याग कर देना ही बुद्धिमानी समझी जाती है ।’

वर्धमान को यह बैल बहुत ही प्रिय था । उसने जन्म से ही इस बैल को पाल-पोस कर बड़ा किया था । वह अपने प्रिय बैल को इस हालत में छोड्‌कर नहीं जाना चाहता था किंतु साथियों के आग्रह पर विवश हो गया । उसने बैल की देखभाल के लिए अपने दो सेवक वहां छोड़ दिए और आगे के लिए प्रस्थान किया ।

जंगल हिंसक जीवों से भरा हुआ था । वर्धमान के सेवक एक ही रात में घबरा गए और बैल को छोड़कर भाग गए । उन्होंने अपने स्वामी से जाकर झूठ बोल दिया कि संजीवक मर गया । हमने उसका विधिवत दाह-संस्कार कर दिया है ।

अपने प्रिय बैल की मृत्यु पर वर्धमान को बहुत दुख हुआ किंतु संतोष करने के अलावा उसके पास कोई उपाय न था । उधर संजीवक को वहां पड़े-पड़े हरी घास चरने को मिली तो उसकी कुछ पीड़ा कम हो गई । वह लड़खड़ाता हुआ उठा और इधर-उधर चलने का प्रयास करने लगा ।

इस प्रकार धीरे-धीरे लंगड़ाता हुआ वह यमुना के तट पर पहुंच गया । शेर-चीतों के भय से वहां घास चरने वाले पशु बहुत कम ही आते थे । अत: बहुत बड़ी मात्रा में वहां हरी-हरी घास थी । उस हरी घास को खाकर और यमुना का शीतल जल पीकर संजीवक कुछ ही दिनों में ठीक हो गया ।

दिन भर स्वछंद भाव से नदी किनारे विचरण करना और पैने सींगों से किनारे की झाड़ियों को रौंदना उसका प्रिय खेल बन गया । एक दिन पिंगलक नाम का सिंह यमुना तट पर पानी पीने आया । उसने दूर से आते संजीवक की जोरदार हुंकार सुनी ।

उस हुंकार को सुनकर वह बुरी तरह भयभीत हो गया और बिना जल पिये ही वह वहां से भाग कर झाड़ियों में जा छिपा । इस दृश्य को दो गीदडों ने देखा । उनके नाम थे-करटक और दमनक । ये दोनों गीदड़ कभी पिंगलक नामक सिंह के बहुत विश्वासपात्र थे किंतु अब सिंह द्वारा उपेक्षा किए जाने के कारण बहुत दुखी रहते थे ।

फिर भी भोजन की तलाश में वे उसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे । सिंह जब शिकार करता तो उसका छोड़ा हुआ शिकार उन्हें भी खाने को मिल जाता था । पिंगलक को भयभीत होकर भागते देखा तो उन दोनों को बहुत आश्चर्य हुआ ।

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दमनक ने अपने साथी से कहा : ”करटक हमारा स्वामी इस जंगल का राजा है । जंगल के सभी प्राणी उससे डरते हैं किंतु आज वही इस तरह भयभीत होकर झाड़ियों में डरा सिमटा बैठा है । प्यास होते हुए भी वह जल पिये बिना ही किनारे से भाग आया इसकी क्या वजह हो सकती है ?”

करटक ने कहा : ‘अरे भाई दमनक वजह कुछ भी हो । वह इस जंगल का राजा है । अपनी मर्जी का मालिक है वह क्या और किस तरह का आचरण करता है इससे हमें कोई सरोकार नहीं होना चाहिए । क्योंकि जो व्यक्ति बिना उद्देश्य के कार्य करने की इच्छा करता है उसका परिणाम अच्छा नहीं निकलता बिना उद्देश्य के सिर्फ दिलचस्पी के कारण कार्य करने वाले एक बंदर को सिर्फ इसी कारण मौत का ग्रास बनना पड़ा था ।दमनक ने पूछा : ”अच्छा वह भला कैसे ?” करटक बोला-सुनाता हूं सुनो !


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

2. दूसरों के कार्यो में न करें हस्तक्षेप |

किसी बनिये ने अपने नगर के समीप के एक वन में देव-मंदिर बनवाना आरंभ किया । उसमें कार्य करने वाले मजदूर तथा कारीगर दोपहर के समय भोजन करने के लिए अपने-अपने घर चले जाया करते थे ।

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एक दिन अकस्मात वानरों (बंदरों) का एक झुण्ड घूमता-घामता उस वन में आ निकला । वहां काम करने वाले कारीगरों में से किसी कारीगर ने लकड़ी का एक खांचा चीरकर उसमें एक खूंटा गाड़कर छोड़ दिया था । बंदर वहां पहुंचे तो उन्होंने उत्सुकतावश वहां रखी प्रत्येक वस्तु को टटोलना आरंभ कर दिया ।

उनमें से एक नटखट बंदर उस अधचिरे खम्भे पर जाकर इस प्रकार बैठ गया कि उसके दोनों अंडकोष खम्भे के चिरे हुए भाग में लटक गए । उस बंदर ने उत्सुकतावश दोनों हाथों से खम्भे में फंसा खूंटा पकड़ लिया और लगा उसे उखाड़ने ।

उसके ऐसा करने से वह -इंद्रा तो उखड़ कर उसके हाथों में आ गया लेकिन खूंटा उखड़ने से खम्भे के दोनों चिरे हुए हिस्से खट की आवाज के साथ आपस में जुड़ गए और बंदर के दोनों अंडकोष उस चिरे हुए खांचे के बीच फंस गए ।

बंदर बहुत उछला-कूदा लेकिन अंडकोषों को बाहर न निकाल सका । पीड़ा से चीखते चिल्लाते हुए उसने अपनी जान दे दी । यह कहानी सुनाकर करटक ने आगे कहा : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । सिंह का बचा-खुचा आहार हमें मिल ही जाता है फिर दूसरी बातों की चिंता क्यों करें ?”

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करटक की बात दमनक को नहीं जमी । वह बोला : ”भाई मेरे ! लगता है तुम तो केवल भोजन के लिए ही जीते हो ! यह बात ठीक नहीं है । स्वामी के हित-अहित की तुम्हें कोई चिंता नहीं है । पेट तो सभी प्राणी भर लेते हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं उसी का जीवन सफल है ।”

दमनक का उपदेश सुनकर करटक संतुष्ट नहीं हुआ । बोला : ”लेकिन हम अपने स्वामी के हित-अहित की चिंता करें ही वयों उसने हमें अपमान के सिवा दिया ही क्या है ? यदि वह हमें उचित सम्मान देता तो जगंल के प्राणियों में हमारा भी मान-सम्मान होता हम बहुत प्रतिष्ठापूर्वक रहते ।”

दोनों में देर तक वाद-विवाद चला । करटक, दमनक के विचारों से सहमत नहीं हो रहा था । अंत में निर्णय किया गया कि दमनक अकेला ही सिंह के पास जाए । उससे भय का कारण पूछे फिर दोनों मिलकर सिंह के भय को दूर करने की तरकीब सोचें ताकि उसकी नजरों में उनका महत्व बढ़ जाए ।

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यह निर्णय करके करटक को एक जगह प्रतीक्षा करने को कहकर दमनक सिंह के पास पहुंचा । उसे प्रणाम किया और बार-बार अपनी निष्ठा का विश्वास दिला कर विनयपूर्वक पूछा : ”स्वामी, आप नदी किनारे जल पीने गए थे फिर बिना जल पिए ही क्यों लौट आए । इसका क्या कारण है ?”

सिंह को दमनक पर कुछ-कुछ विश्वास हो गया था । उसने कहा : ”कोई विशेष कारण नहीं है । बस वैसे ही एकाएक जल पीने की इच्छा जाती रही और यहां आकर विश्राम करने के लिए बैठ गया ।” पिंगलक की बात सुनकर दमनक बोला : ”ठीक है स्वामी ।

यदि कोई गोपनीय बात है तो रहने दीजिए, क्योंकि शास्त्रों में भी कहा गया है कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें अपनी पत्नी से भी गुप्त रखना पड़ता है ।” पिंगलक ने सोचा यह गीदड़ बहुत बुद्धिमान लगता है, इसे अपने मन की बात बता देनी चाहिए । यह सोचकर उसने दमनक से कहा : ”दमनक ! दूर से यह जो गर्जना सुनाई पड़ रही है तुम उसे सुन रहे हो ?”

दमनक बोला : ”सुन रहा हूं स्वामी ! पर इससे क्या ?” पिंगलक बोला : ”बस इसी आवाज के कारण मैं इस वन को छोड़कर अब किसी अन्य वन में जाने की सोच रहा हूं ।” दमनक बोला : ”सिर्फ एक आवाज से डरकर ? नहीं स्वामी यह उचित नहीं होगा ।”

पिंगलक बोला : ”सच कहूँ दमनक मुझे तो इस आवाज से बहुत ही डर लग रहा है । लगता है कोई अत्यंत भयानक जंतु इस जंगल में आ पहुंचा है जिसका यह गर्जन  है । जिसका गर्जन ही इतना भयंकर है वह स्वयं न जाने कितना भयंकर होगा ।”

दमनक को मौका मिल गया । वह बोला : ”स्वामी ! सिर्फ शब्दमात्र को सुनकर ही भयभीत नहीं होना चाहिए । अपने पूर्वजों द्वारा सुरक्षित इस वन को छोड़कर सहसा किसी अन्य जगह चले जाना उचित नहीं है । शत्रु के प्रताप को देखकर जो धैर्यपूर्वक स्थिर नहीं रह सकता उसका तो जीवन ही व्यर्थ है ।

स्वामी ! कभी-कभी भयानक ध्वनि मात्र ढोल की पोल सिद्ध होती है । गोमायु नामक किसी गीदड़ ने एक भयानक वस्तु को देखकर पहले यह सोचा था कि वह रक्त और मांस से परिपूर्ण होगी किंतु जब उसने उसके अंदर घुसकर देखा तो वहां केवल सूखे चमड़े और कुछ लकड़ी के अलावा उसे कुछ भी नहीं मिला ।” पिंगलक ने पूछा : ”यह गोमायु गीदड़ का क्या किस्सा है ?” दमनक बोला : ”सुनाता हूं सुनो ।”


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

3. ढोल की पोल |

किसी जगंल में गोमायु नाम का एक गीदड़ रहता था । एक बार वह भूखा-प्यासा जंगल में घूम रहा था । घूमते-घूमते वह एक युद्धभूमि में पहुंच गया । वहां दो सेनाओं में युद्ध होकर शांती छाई हुई थी । किंतु एक ढोल अभी तक वहीं पड़ा था ।

उस ढोल पर इधर-उधर की बेलों की शाखाएं हवा से हिलती हुई प्रहार करती थीं । उस प्रहार से ढोल से बड़े जोर की आवाज होती थी । आवाज सुनकर गोमायु बहुत डर गया । उसने सोचा, इससे पहले कि वह भयानक आवास वाला जानवर मुझे देखे मैं यहां से भाग जाता हूं ।

किंतु दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि भय या आनंद के उद्वेग में हमें सहसा कोई काम नहीं करना चाहिए । पहले भय के कारण की खोज करनी चाहिए । यह सोचकर वह धीरे-धीरे उधर चल पड़ा जिधर से आवाज आ रही थी ।

जब वह आवाज के बहुत निकट पहुंचा तो ढोल को देखा । ढोल पर बेलों की शाखाएं चोट कर रही थीं । गोमायु ने स्वयं भी उस पर हाथ मारने शुरू कर दिए । ढोल और भी जोर से बज उठा । गीदड़ ने सोचा यह जानवर तो बहुत सीधा-साधा मालूम होता है ।

इसका शरीर भी बहुत बड़ा व मांसल भी है । इसे खाने से कई दिनों की भूख मिट जाएगी । इसमें चर्बी मांस रक्त खूब होगा । यह सोचकर उसने ढोल के ऊपर लगे चमड़े में दांत गड़ा दिए-चमड़ा बहुत कठोर था गीदड़ के दो दांत टूट गए । बड़ी कठिनाई से ढोल में एक छिद्र हुआ ।

इस छिद्र को चौड़ा करके गोमायु गीदड़ जब ढोल में घुसा तो यह देखकर बड़ा निराश हुआ कि वह तो अंदर से बिच्छल खाली है उसमें रक्त मांस मज्जा थे ही नहीं । अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ गीदड़ ढोल से बाहर निकल आया और दूसरे किसी शिकार की तलाश में आगे बढ़ गया । यह कथा सुनकर दमनक ने पिंगलक से कहा : ”स्वामी इसीलिए मैं कहता हूं कि आपको केवल आवाज सुनकर ही भयभीत नहीं हो जाना चाहिए ।”

पिंगलक बोला : ”परंतु मैं करूं भी तो क्या ? मेरे सारे अनुयायी तो भयभीत होकर यहां से भागना चाह रहे हैं । मैं अकेला यहां कैसे रह सकता हूं ।” दमनक बोला : ”इसमें दोष आपके अनुयायियों का नहीं है स्वामी । जब आप स्वयं ही डरे हुए हैं तो उनका डरना तो स्वाभाविक ही है फिर भी कोई बात नहीं मैं इस आवाज का पता लगाने के लिए जाता हूं मेरा निवेदन है कि मेरे लौटने तक न तो आप और न ही आपके अनुयायी कहीं जाएं ।”

पिंगलक को यह सुनकर बहुत अचंभा हुआ । उसने पूछा : ”क्या तुम सचमुच वहां जाओगे दमनक ?” दमनक बोला : ”एक सच्चे सेवक के लिए स्वामी की आज्ञा का पालन करना ही परम धर्म होता है, महाराज ! चाहे वह कार्य करणीय हो अथवा अकरणीय ।” पिंगलक ने कहा : ”ठीक है जाओ ! ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे । यही मेरा आशीर्वाद है ।

दमनक के जाने के बाद पिंगलक ने सोचा-यह बात अच्छी नहीं हुई कि मैंने दमनक का विश्वास करके उसके सामने अपने मन का भेद खोल दिया । कहीं वह इसका लाभ उठाकर दूसरे पक्ष में मिल जाए और उसे मुझ पर आक्रमण करने के लिए उकसा दे तो बुरा होगा ।

मुझे दमनक का भरोसा नहीं करना चाहिए था । वह पदक्षत है उसका पिता मेरा प्रधानमंत्री था । एक बार सम्मानित होकर अपमानित हुए सेवक विश्वासपात्र नहीं  होते । वे सदा अपने इस अपमान का बदला लेने का अवसर खोजते रहते हैं ।

इसलिए किसी दूसरे स्थान पर जाकर ही दमनक की प्रतीक्षा करता हूं । यह सोचकर वह दमनक की राह देखता हुआ दूसरे स्थान पर अकेला चला गया । दमनक जब संजीवक के शब्द का अनुसरण करता हुआ उसके पास पहुंचा तो यह देखकर उसे प्रसन्नता हुई कि वह कोई भयंकर जानवर नहीं बल्कि सीधा-सादा बैल है ।

उसने सोचा अब मैं सन्धि-विग्रह की कूटनीति से पिंगलक को अवश्य अपने वश में कर लूंगा । आपत्तिग्रस्त राजा ही मंत्रियों के वश में होते हैं । यह सोचकर वह पिंगलक से मिलने के लिए वापस चल दिया । पिंगलक ने उसे अकेले आते देखा तो उसके दिल में धीरज बंधा । उसने कहा:

”दमनक वह जानवर देख लिया तुमने ?” दमनक बोला : ”देख आया महाराज !” पिंगलक बोला : ”कैसा है वह ?” दमनक बोला : ”महाराज ! वह बहुत ही बलवान जीव है । आप तो उसके आगे कुछ भी नहीं है । फिर भी उसने मुझे कुछ नहीं कहा ।”

पिंगलक ने कहा : ”सामर्थ्यवान लोग दीनजनों से कुछ नहीं कहते दमनक ! उसकी दिलचस्पी तो बराबर के लोगों से टक्कर लेने में होती है । खैर अब यह बताओ कि क्या वह हमसे मिलने को यहां आ सकता है ?”  दमनक बोला : ”क्यों नहीं आएगा स्वामी ?” वह जरूर आएगा । मैं उसे यहां ला सकता हूं ।”

पिंगलक ने आश्चर्यचकित होकर पूछा : ”क्या सचमुच तुम उसे ला सकते हो ?” दमनक बोला : ”हां स्वामी हां ! आपको शायद अभी भी मेरी बुद्धिमत्ता पर संदेह है लेकिन मैं दावे के साथ कहता हूँ कि मैं उसे यहां लेकर आऊगा और वह भी आपके एक सेवक के रूप में । बुद्धि के बल पर क्या कुछ सिद्ध नहीं किया जा सकता ?”

यह सुनकर पिंगलक बोला : ”यदि यही बात है तो मैं तुझे आज से अपना प्रधानमंत्री बनाता हूं । आज से मेरे राज्य के इनाम बांटने या दण्ड देने के काम तेरे ही अधीन होंगे ।” पिंगलक से यह आश्वासन पाने के बाद दमनक संजीवक के पास जाकर अकड़ता हुआ बोला : ”अरे दुष्ट बैल ।

मेरा स्वामी पिंगलक तुझे बुला रहा है । तू यहां नदी के किनारे व्यर्थ ही हुंकार क्यों भरता रहता है ?”  संजीवक बोला : ”यह पिंगलक कौन है ?” दमनक बोला : ”अरे तुम पिंगलक को नहीं जानते ?” थोड़ी देर ठहर तो उसकी शक्ति को जान जाएगा । जंगल के सब जानवरों का स्वामी पिंगलक शेर वहां वृक्ष की छाया में बैठा है ।”

यह सुनकर संजीवक के प्राण सूख गए । वह दमनक के सामने गिड़गिड़ाता हुआ  बोला : ”मित्र ! तू सज्जन प्रतीत होता है । यदि तू मुझे वहां ले जाना चाहता है तो पहले स्वामी से मेरे लिए अभय-वचन ले लो ।”  दमनक बोला : ”तेरा कहना सच है मित्र ! तू यहीं बैठ, मैं अभय वचन लेकर अभी आता हूं ।

यह कहकर दमनक पिंगलक के पास जाकर बोला : ”स्वामी ! वह कोई साधारण जीव नहीं है । वह तो भगवान् का वाहन बैल है । मेरे कहने पर उसने मुझे बतलाया कि उसे भगवान् ने प्रसन्न होकर यमुना तट की हरी-हरी घास खाने को यहां भेजा है । वह तो कहता है कि भगवान् ने उसे यह सारा वन खेलने और चरने को सौंप दिया है ।”

पिंगलक बोला : ”सच कहते हो दमनक । भगवान् के आशीर्वाद के बिना कौन बैल है जो यहां इस वन में इतनी नि शंकता से घूम सके । फिर तूने क्या उत्तर दिया दमनक ?” दमनक बोला : ”मैंने उसे कहा कि वन में तो चंडिकावाहन रूप शेर पिंगलक पहले से ही रहता है ।

तुम भी उसके अतिथि बन कर रहो । उसके साथ आनंद से विचरण करो । वह तुम्हारा स्वागत करेगा ।” पिंगलक ने कहा : ”फिर उसने क्या कहा ?” दमनक बोला : ”उसने यह बात मान ली और कहा कि अपने स्वामी से अभय-वचन ले आओ मैं तुम्हारे साथ चलूंगा । अब स्वामी जैसा चाहे वैसा करूंगा ।”

दमनक की बात सुनकर पिंगलक बहुत प्रसन्न हुआ बोला : ”बहुत अच्छा कहा दमनक तूने बहुत अच्छा कहा । मेरे दिल की बात कह दी । अब उसे अभय वचन देकर शीघ्र मेरे पास ले आओ ।” दमनक संजीवक के पास जाते-जाते सोचने लगा-स्वामी आज बहुत प्रसन्न हैं ।

बातों ही बातों में मैंने उन्हें प्रसन्न कर लिया । आज मुझसे अधिक धन्यभाग्य वाला कोई नहीं । यह सोचकर संजीवक के पास जाकर वह सविनय बोला : ”मित्र ! मेरे स्वामी ने तुम्हें अभय-वचन दे दिया है । मेरे साथ आ जाओ । किंतु राजप्रसाद में जाकर अभिमानी न हो जाना, मुझसे मित्रता का सम्बन्ध निभाना ।

मैं भी तुम्हारे संकेत से राज्य चलाऊंगा । हम दोनों मिलकर राजलक्ष्मी का भोग करेंगे ।” दोनों मिलकर पिंगलक के पास गए । पिंगलक ने नख-विभूषित दाहिना हाथ उठाकर संजीवक का स्वागत किया और कहा : ”कल्याण हो आपका । आप इस निर्जन वन में कैसे आ गए ?”

संजीवक ने सारा वृतांत कह सुनाया । पिंगलक ने सब सुनकर कहा : ”मित्र डरो मत । इस वन में मेरा ही राज्य है । मेरी भुजाओं से रक्षित वन में तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता । फिर भी अच्छा यही है कि तुम हर समय मेरे साथ रहो । वन में अनेक भयंकर पशु रहते हैं ।

बड़े-बड़े हिंसक वनचरों को भी डरकर रहना पड़ता है तुम तो फिर हो ही निरामिष-भोजी ।” शेर और बैल की इस मैत्री के बाद कुछ दिन तो वन का शासन करटक-दमनक ही करते रहे किंतु बाद में संजीवक के सम्पर्क में पिंगलक भी नगर की सभ्यता से परिचित होता गया ।

संजीवक को सभ्य जीव मानकर वह उसका सम्मान करने लगा और स्वयं भी संजीवक की तरह सुसभ्य होने का यत्न करने लगा । थोड़े दिनों बाद संजीवक का प्रभाव पिंगलक पर इतना बढ गया कि पिंगलक ने अन्य सब वनचारी पशुओं की उपेक्षा शुरू कर दी ।

प्रत्येक प्रश्न पर पिंगलक संजीवक के साथ ही एकान्त में मंत्रणा किया करता । करटक-दमनक बीच में दखल नहीं दे पाते थे । संजीवक की इस मानवृद्धि से दमनक के मन में आग लग गई । शेर व बैल की इस मैत्री का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ कि शेर ने शिकार के काम में ढील दे दी । करटक-दमनक शेर का उच्छिष्ट मांस खाकर ही जीते थे ।

अब वह उच्छिष्ट मांस बहुत कम हो गया था । करटक-दमनक इससे भूखे रहने लगे । तब वे दोनों इसका उपाय सोचने लगे । दमनक बोला : ”करटक भाई यह तो अनर्थ हो गया । शेर की दृष्टि में महत्व पाने के लिए ही तो मैंने यह प्रपंच रचा था ।

इसी लक्ष्य से मैंने संजीवक को शेर से मिलवाया था । अब इसका परिणाम सर्वथा विपरीत ही हो रहा है । संजीवक को पाकर स्वामी ने हमें बिस्कूल भुला दिया है । यहां तक कि अपना काम भी वह भूल गया है ।” करटक ने कहा : ”किंतु इसमें भूल किसकी है ? तूने ही दोनों की भेंट करवाई थी ।

अब तू ही कोई उपाय कर जिससे इन दोनों में बैर हो जाए ।” करटक की बात सुनकर दमनक बोला : ”जिसने मेल कराया है वह फूट भी डाल सकता है ।” करटक बोला : ”यदि इनमें से किसी को भी यह ज्ञान हो गया कि तू फूट कराना चाहता है तो तेरा कल्याण नहीं ।”

दमनक बोला : ”मैं इतना कच्चा खिलाड़ी नहीं हूं । सब दांव-पेंच जानता हूं ।” करटक बोला : ”मुझे तो फिर भी भय लगता है । संजीवक बुद्धिमान है वह ऐसा नहीं होने देगा ।” दमनक ने कहा : ”भाई मेरा बुद्धि-कौशल सब करा देगा ।

बुद्धि के बल से असंभव भी संभव हो जाता है । जो काम शास्त्रास्त्र से नहीं हो पाता वह बुद्धि से हो जाता है जैसे सोने की माला से काक पत्नी ने काले सांप का वध किया था ।” करटक ने पूछा : ” वह कैसे ?” दमनक बोला : ”सुनाता हूं सुनो !”


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

4. अक्ल बड़ी या भैंस |

किसी वन प्रदेश में एक विशाल बरगद का वृक्ष था । उस पेड़ पर एक कौआ और उसकी पत्नी रहते थे । उस वृक्ष के कोटर में एक काला सर्प भी रहता था । दुर्भाग्य से जब कौए और उसकी पत्नी को जब भी कोई बच्चा पैदा होता वह काला सर्प अपने कोटर से निकलता और उनके बच्चों को खा जाता । इस बात से कौआ और उसकी पत्नी दोनों बहुत दुखी थे ।

एक दिन वे दोनों एक दूसरे वृक्ष के नीचे रहने वाले अपने प्रिय मित्र गीदड़ के पास गए और उससे अपना दुख प्रकट किया । कौआ बोला : ”मित्र हम तो अपने वृक्ष के कोटर में रहने वाले सर्प से बहुत परेशान हैं । वह काला सर्प इतना दुष्ट है कि हमारे बच्चों को छोड़ता ही नहीं है ।

बच्चे जैसे ही अण्डों से निकलते हैं वह उन्हें खा जाता है । हम क्या करें ? उस सर्प से बच्चों को बचाने का कोई उपाय बताओ ।” गीदड़ ने उनको आश्वस्त किया और बोला : ”मित्र ! अब तुम इसकी चिंता मत  करो । अब वह किसी उपाय से मारा ही जाएगा ।

उपाय और बुद्धि से जो काम किया जा सकता है वह शस्त्रों से नहीं किया जा सकता ।  ठीक उसी प्रकार जैसे उत्तम मध्यम और अधम प्रकार की मछलियों को खाकर भी एक बगुला केकड़े के उपायरूपी जाल में फंस कर अपनी जान गंवा बैठा था ।”कौआ बोला : ”वह कैसे ?” गीदड़ ने कहा : ”सुनाता हूं सुनो !”

Hindi Story # 5 (Kahaniya)

5. बगुला मामा बड़ा सयाना |

किसी वन प्रदेश में एक विशाल सरोवर था । उस सरोवर में तरह-तरह के जलचर जीव रहते थे । वहीं एक बूढ़ा बगुला भी रहता था । वह मछलियां मारने में असमर्थ हो चुका था ।

एक दिन जब वह भूख से व्याकुल होकर सरोवर के किनारे बैठा रो रहा था कि एक केकड़ा उसके पास आया और उसने सहानुभूति जताते थए कहा : ”मामा ! क्या बात है आज आप अपने भोजन की व्यवस्था न करके किनारे पर खड़े इस तरह से रो क्यों रहे हो ?” इसका क्या कारण है ?”

बगुले ने कहा : ”मित्र ! तुम ठीक कहते हो । मुझे मछलियों को भोजन बनाने से विरक्ति हो चुकी है । आजकल अनशन कर रहा हूं । इसीलिए मैं पास में आई मछलियों को भी नहीं पकड़ता ।” यह सुनकर केकड़े ने पूछा : ”मामा ! इस वैराग्य का कारण क्या है ?” बगुला बोला : ”मित्र ! बात यह है कि मैंने इसी तालाब के निकट जन्म लिया बचपन से लेकर अब तक मेरी उम्र यहीं गुजरी है ।

इस तालाब और तालाबवासियों से मैं बहुत प्रेम करता हूं । किंतु अब मुझे पता चला है कि यहां बहुत भारी अकाल पड़ने वाला है । इस इलाके में बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी ।” केकड़े ने पूछा : ”यह आपने किसके मुंह से सुना मामा ?”

बगुला बोला : ”मुझे एक ज्योतिषी ने बताया है बेटा । उसने कहा है कि शीघ्र ही शनि रोहिणी मंडल को भेदकर मंगल और शुक्र से युति करेगा । ज्योतिर्विद वाराहमिहिर का कहना है कि जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो बारह वर्ष तक जलवृष्टि नहीं होती ।

इस सरोवर में तो वैसे भी बहुत कम पानी है थोड़े दिनों में यह भी सूख जाएगा । तब क्या होगा ? फिर तो सारे जलचर जिनके साथ मैं खेला-खाया बड़ा हुआ सभी काल के ग्रास बन जाएंगे । दूसरे जलाशयों के सभी जलचर अपने छोटे-छोटे तालाब छोड्‌कर बड़ी झीलों में चले जा रहे हैं ।

बड़े-बड़े जलचर तो स्वयं ही चले जाते हैं छोटों के लिए ही कठिनाई है । दुर्भाग्य से इस जलाशय के जलचर बिच्छल निश्चित बैठे हैं मानो कुछ होने ही वाला नहीं है । मैं उन्हीं के लिए रो रहा हूं कि उनका वंश नाश हो जाएगा ।”

केकड़े ने बगुले के मुख से यह बात सुनकर अब सभी मछलियों को भी भावी दुर्घटना की सूचना दे दी । सूचना मिलते ही जलाशय के सभी जलचरों मछलियों कछुओं आदि ने बगुले को घेर कर पूछना शुरू कर दिया : ”मामा ! क्या किसी उपाय से हमारी रक्षा हो सकती है ?”

बगुला चालाकी के स्वर में बोला : ”यहां से थोड़ी दूरी पर एक बहुत गहरा सरोवर है । उसमें कमल के फूल खिले रहते हैं । वह इतना विशाल है कि यदि अगले चौबीस वर्ष तक पानी न बरसे तब भी उस सरोवर का पानी सूखेगा नहीं । यदि आप लोग चाहेंगे तो मैं अपनी पीठ पर एक-एक को बैठाकर वहां पहुंचा सकता हूं ।”

जलचरों ने बगुले की बात पर विश्वास कर लिया और सभी कहने लगे : ”मुझे पहले ले चलो, मुझे पहले ले चलो ।” वह दुष्ट प्रतिदिन एक जलचर को अपनी पीठ पर बैठा कर ले जाता और थोड़ी दूर एक शिला पर पटककर उस जलचर को मारकर खा जाता ।

वहां से लौटकर वह अन्य जलचरों को गहरे जलाशय के कपोल-कल्पित समाचार सुनाता । इस तरह उस बूढ़े बगुले ने अपने भोजन की समस्या हल कर ली । एक दिन केकड़े ने कहा : ”मामा ! सबसे पहले मेरी आपसे बातचीत हुई थी । आप मुझे अभी तक उस सरोवर में नहीं ले गए । मेरी जान भी तो बचाइए ।”

केकड़े की बात सुनकर बगुले ने सोचा : ”मछलियां खाते-खाते तो अब ऊब गया हूं । क्यों न आज केकड़े के मांस का स्वाद चखा जाए । यह सोचकर उसने केकड़े को अपनी गर्दन पर बैठा लिया और फिर उस शिला की ओर उड़ चला जहां वह प्रतिदिन मछलियों को मारकर खाता था ।

केकड़े ने दूर से ही जब एक शिला पर मछलियों की हड्‌डियों का पहाड़-सा देखा तो वह सावधान हो गया कि बगुला किस अभिप्राय : से मछलियों को यहां लाता था । फिर भी वह असली बात को छिपाकर प्रकट में बोला : ”मामा ! वह सरोवर अब कितनी दूर रह गया है ? मेरे भार से तुम काफी थक गए होंगे इसलिए पूछ रहा हूं ।”

बगुले ने सोचा अब इसे सच्ची बात बता देने में भी कोई हानि नहीं है, इसलिए बोला : ”दूसरे सरोवर की बात अब भूल ही जाओ केकड़े । यह तो तेरी प्राण यात्रा चल रही थी । अब तेरा काल भी आ गया है । अंतिम समय में अपने देवता को याद कर ले । इसी शिला पर पटककर तुम्हें भी मारूर्गा और खा जाऊंगा ।”

बगुला अभी यह बात कह ही रहा था कि केकड़े ने अपने तीखे दांत बगुले की नरम व मुलायम गर्दन में गड़ा दिए । बगुला तड़प-तड़प कर मर गया । उसकी गर्दन कट गई । केकड़ा मृत बगुले की गर्दन लेकर धीरे-धीरे अपने जलाशय पर लौट आया ।

उसे देखकर बाकी जलचरों ने उसे घेर लिया और पूछने लगे : ”क्या बात है । आज मामा नहीं आए ? हम सब उसके साथ सरोवर में जाने के लिए तैयार बैठे हैं ।” केकड़े ने हंस कर उत्तर दिया : ”मूर्खों ! वह कपटी बगुला तो सभी मछलियों को यहां से ले जाकर एक शिला पर पटककर मार डालता था और फिर उन्हें खा जाता था ।”

यह कहकर उसने बगुले की कटी हुई गर्दन उन्हें दिखाई और कहा : ”अब चिंता की कोई बात नहीं है । मैंने उसे मार डाला है । अब तुम सब आनंद से यहां रहोगे ।” गीदड़ के मुख से यह कथा सुनकर कौवे ने पूछा : ”मित्र उस बगुले की तरह क्या सर्प भी किसी तरह मर सकता है ?”

गीदड़ ने उत्तर दिया : ”जरूर मर सकता है । तुम एक काम करो तुम नगर के राजमहल में चले जाओ । वहां से किसी प्रकार रानी का कंठहार उठा लाओ और उसे सर्प के बिल के समीप डाल दो । राजा के सैनिक जब कंठहार की खोज में आएंगे तो उस सर्प को भी मार देंगे ।”

दूसरे दिन जब रानी अपने आभूषण उतारकर अंत पुर के एक सरोवर में स्नान कर रही थी तब कौए की पत्नी उड़कर वहां पहुंची और झपट्‌टा मारकर रानी का कंठहार उठा लाई ।  राजा ने कीवी का पीछा करने का आदेश दिया । कौवी ने वह कंठहार सर्प के बिल के पास रख दिया ।

सर्प ने उस कंठहार को देखकर उस पर अपना फन फैला दिया । खोज करते हुए राजा के सैनिक जब सर्प के बिल के पास आए तो उन्होंने डंडों से पीट-पीट कर सर्प को मार डाला और कंठहार लेकर चले गए । तब से कौआ और उसकी पत्नी अपने बच्चों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे ।

यह कहानी सुनाकर दमनक ने कहा : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि उपाय से जो हो सकता है वह पराक्रम से नहीं हो सकता । बुद्धिमानों के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं होता । बुद्धिहीनों का तो बल भी व्यर्थ साबित होता है । एक छोटे से खरगोश ने अपनी बुद्धि के बल पर ही तो एक भयानक सिंह को मार डाला था ।”  करटक ने पूछा : ”वह कैसे ?”  दमनक बोला : ”सुनो सुनाता हूं ।”


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

6. बली वही जिसके पास बुद्धि |

किसी वन में मासुरक नाम का एक सिंह रहता था । जो बली होने के कारण छोटे-बड़े जानवरों को खा जाता । वह इतना अत्याचारी था कि जिस ओर निकल जाता उधर जंगली जानवरों के शव ही शव पड़े नजर आते ।

इनमें से वह एक-दो को तो खा जाता बाकियों को छोड्‌कर चला जाता जिन्हें गीदड़ लोमड़िया आदि जानवर खा जाते । शेर के अत्याचारों से तंग आए जानवरों ने दुखी होकर एक दिन एक सभा बुलायी । उसका सभापति मोर को बनाया गया । इस सभा में सारे दुखी जानवर इकट्‌ठे हो गए थे ।

सभा में सभी ने एकमत होकर निर्णय लिया कि हम जंगल के राजा शेर के पास जाकर यह प्रार्थना करेंगे कि वह नाहक ही किसी प्राणी की हत्या नहीं करेगा बल्कि हममें से बारी-बारी एक जानवर रोज उसके पास भोजन के लिए पहुंच जाया करेगा ।

शेर के आगे जब सारी प्रजा ने अपना यह सुझाव रखा तो उसने खुशी से स्वीकार कर लिया । बस उस दिन के बाद से वन के अन्य पशु वन में निर्भय घूमने लगे । उन्हें शेर का भय नहीं रहा । शेर को भी घर बैठे एक पशु मिलता रहा ।

शेर ने यह धमकी दे दी थी कि जिस दिन उसे कोई पशु नहीं मिलेगा उस दिन वह फिर अपने शिकार पर निकल जाएगा और मनमाने पशुओं की हत्या कर देगा । इस डर से भी सब पशु यथाक्रम एक-एक पशु को शेर के पास भेजते रहे ।

इसी क्रम में एक दिन खरगोश की बारी आ गई । खरगोश शेर की मांद की ओर बढ़ चला । किंतु मृत्यु के भय से उसके पैर नहीं उठते थे । मौत की घड़ियों को कुछ देर और टालने के लिए वह जंगल में इधर-उधर भटकता रहा । एक स्थान पर उसे एक कुआ दिखाई दिया ।

उसे देखकर उसके मन में एक विचार उठा क्यों न मासुरक को उसके वन में दूसरे शेर के नाम से उसकी परछाई दिखाकर इस कुएं में गिरा दिया जाए ? यही उपाय सोचता-सोचता वह भासुरक शेर के पास बहुत समय बाद पहुंचा । शेर उस समय तक भूखा-प्यासा होंठ चाटता बैठा था ।

उसके भोजन की घड़ियां बीत रही थीं । वह सोच ही रहा था कि कुछ देर और कोई पशु न आया तो वह अपने शिकार पर चल पड़ेगा और पशुओं के खून से सारे जंगल को सींच देगा । इसी बीच वह खरगोश उसके पास पहुंच गया और प्रणाम करके बैठ गया ।

खरगोश को देखकर शेर ने क्रोध से लाल-लाल आखें करते हुए गरजकर कहा : ”नीच खरगोश एक तो तू इतना छोटा है, और फिर इतनी देर लगाकर आया है । आज तुझे मारकर कल मैं जंगल के सारे पशुओं की जान ले लूंगा वंश नाश कर दूंगा ।”

शेर की क्रोध भरी बातें सुनकर खरगोश ने विनय से सिर झुकाकर कहा : ”स्वामी आप व्यर्थ क्रोध करते हैं । इसमें न मेरा अपराध है, और न ही अन्य पशुओं का । कुछ भी फैसला करने से पहले देरी का कारण तो सुन लीजिए ।”

शेर ने कहा : ”जो कुछ कहना है जल्दी कह । मैं बहुत भूखा हूं कहीं तेरे कुछ कहने से पहले ही तुझे अपनी दाढ़ों से न चबा जाऊं ।” खरगोश बोला : ”स्वामी ! बात यह है कि सभी पशुओं ने आज सभा करके और यह सोचकर कि मैं बहुत छोटा हूं मुझे तथा अन्य चार खरगोशों को आपके भोजन के लिए भेजा था ।

हम पांचों आपके पास आ रहे थे कि मार्ग में कोई दूसरा शेर अपनी गुफा से निकल आया और बोला ‘अरे ! किधर जा रहे हो तुम सब ? अपने देवता का अंतिम स्मरण कर लो मैं तुम्हें मारने आया हूं ।’  मैंने कहा ‘हम सब अपने स्वामी भासुरक शेर के पास आहार के लिए जा रहे हैं ।’ तब वह बोला ‘भासुरक कौन होता है ? यह जंगल तो मेरा है । मैं ही तुम्हारा राजा हूं ।

तुम्हें जो बात कहनी हो मुझसे कहो । भासुरक चोर है । तुम में से चार खरगोश यहीं रह जाएं एक खरगोश भासुरक के पास जाकर उसे बुला लाए, मैं उससे स्वयं निपट लूंगा । हममें जो शेर अधिक बली होगा वही इस जंगल का राजा होगा । अब मैं किसी तरह उससे जान छुड़ाकर आपके पास आया हूं । इसीलिए मुझे देर हो गई । आगे स्वामी की जो इच्छा हो करें ।”

यह सुनकर भासुरक बोला : ‘ऐसा ही है तो जल्दी से मुझे उस दूसरे शेर के पास ले  चल । आज मैं उसका रक्त पीकर ही अपनी भूख मिटाऊंगा । इस जंगल में किसी दूसरे का हस्तक्षेप मुझे पसंद नहीं ।’ खरगोश बोला : ”स्वामी ! यह तो सच है कि अपने स्वत्व के लिए युद्ध करना आप जैसे शूरवीरों का धर्म है, किंतु दूसरा शेर अपने दुर्ग में बैठा है ।

दुर्ग में रहने वाले शत्रु पर विजय पाना बड़ा कठिन होता है ।  दुर्ग में बैठा शत्रु सौ शत्रुओं के बराबर माना जाता है । दुर्गहीन राजा दन्तहीन सांप और मदहीन हाथी की तरह कमजोर हो जाता है ।”  खरगोश की बात सुनकर भासुरक बोला : ”तेरी बात ठीक है किंतु मैं उस दुर्गस्थ शेर को भी मार डालूंगा ।

शत्रु को जितना जल्दी हो नष्ट कर देना चाहिए । मुझे अपने बल पर पूरा भरोसा है । शीघ्र की उसका नाश न किया गया तो वह बाद में असाध्य रोग की तरह प्रबल हो जाएगा ।” खरगोश बोला : ”यदि स्वामी का यही निर्णय है तो आप मेरे साथ चलिए ।” यह कहकर खरगोश शेर को उसी कुएं के पास ले गया जहां झुककर उसने अपनी परछाई देखी थी ।

वहां जाकर वह बोला : ”स्वामी ! मैंने जो कहा था वही हुआ । आपको दूर से ही देखकर वह अपने दुर्ग में घुस गया है । आप आइए, मैं आप को उसकी सूरत तो दिखा दूं ।” भासुरक बोला : ”जरूर ! उस नीच को देखकर मैं उसके दुर्ग में ही उससे लड़ेगा ।” खरगोश शेर को कुएं की मेड पर ले गया ।

भासुरक ने झुककर कुएं में अपनी परछाई देखी तो समझ गया कि यही दूसरा शेर है । तब वह जोर से गरजा । उसकी गरज के उत्तर में कुएं में दुगुनी गूंज पैदा हुई । उस गूंज को प्रतिपक्षी शेर की ललकार समझ कर भासुरक उसी क्षण कुएं में कूद पड़ा और वहीं पानी में डूब कर प्राण दे दिए ।

खरगोश ने अपनी बुद्धिमता से शेर को हरा दिया । वहां से लौटकर वह पशुओं की सभा में गया । उसकी चतुराई सुनकर और शेर की मौत का समाचार सुनकर सब जानवर खुशी से नाच उठे । करटक को यह कथा सुनाने के बाद दमनक बोला : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि बली वही है जिसके पास बुद्धि है ।

अब तू देखता जा कि किस तरह पिंगलक और संजीवक में फूट डालता हूं । अपनी प्रभुता जमाने का यही मार्ग है । मैत्री-भेद किए बिना काम नहीं चलेगा ।” करटक बोला : ”मेरी भी यही राय है । तू उनमें भेद कराने का यत्न कर । ईश्वर करे तुझे सफलता मिले ।”

वहां से चलकर दमनक पिंगलक के पास गया । उस समय पिंगलक के पास संजीवक नहीं बैठा था । पिंगलक ने दमनक को बैठने का इशारा करते हुए कहा : ”कहो दमनक! बहुत दिनों बाद दर्शन दिए ।”  दमनक बोला : ”स्वामी ! आपको अब हमसे कोई प्रयोजन ही नहीं रहा तो आने का क्या लाभ ? फिर भी आपके हित की बात कहने को आपके पास आ जाता हूं ।

हित की बात बिना पूछे भी कह देनी चाहिए ।” पिंगलक बोला : ”जो कहना हो निर्भय होकर कहो । मैं अभय-वचन देता हूं ।” दमनक बोला : ”स्वामी ! संजीवक आपका मित्र नहीं बैरी है । एक दिन उसने मुझे एकान्त में कहा था कि पिंगलक का बल मैंने देख लिया उसमें विशेष सार नहीं है ।

उसको मारकर मैं तुझे मंत्री बनाकर सब पशुओं पर राज करूंगा ।” दमनक के मुख से उन वज की तरह कठोर शब्दों को सुनकर पिंगलक ऐसा चुप रह गया मानो मूर्च्छा आ गई हो । दमनक ने जब पिंगलक की यह अवस्था देखी तो सोचा पिंगलक का संजीवक से प्रगाढ़ स्नेह है संजीवक ने इसे वश में कर रखा है ।

जो राजा इस तरह मंत्री के वश में हो जाता है वह नष्ट हो जाता है । यह सोचकर उसने पिंगलक के मन से संजीवक का जादू मिटाने का निश्चय और भी पक्का कर लिया । पिंगलक ने थोड़ा होश में आकर किसी तरह धैर्य धारण करते हुए कहा : ” दमनक ! संजीवक तो हमारा बहुत ही विश्वासपात्र नौकर है । उसके मन में मेरे लिए वैर-भावना नहीं हो सकती ।”

दमनक बोला : ”स्वामी आज जो विश्वासपात्र है वही कल विश्वास-घातक बन जाता है । राज्य का लोभ किसी के भी मन को चंचल बना सकता है । इसमें अनहोनी कोई बात नहीं ।” पिंगलक बोला : ”दमनक ! फिर भी मेरे मन में संजीवक के लिए द्वेष-भावना नहीं उठती ।

अनेक दोष होने पर भी प्रियजनों को नहीं छोड़ा जाता । जो प्रिय है वह प्रिय ही रहता है ।”  दमनक बोला : ”यही तो राज्य-संचालन के लिए बुरा है । जिसे भी आप स्नेह का पात्र बनाएंगे वही आपका प्रिय हो जाएगा । इसमें संजीवक की कोई विशेषता नहीं विशेषता तो आपकी है ।

आपने उसे अपना प्रिय बना लिया तो वह बन गया, अन्यथा उसमें गुण ही कौन-सा है ?  आप यह समझते हैं कि उसका शरीर बहुत भारी है और वह शत्रु-संहार में सहायक होगा तो यह आपकी भूल है । वह तो घास-पात खाने वाला जीव है, आपके तो सभी शत्रु मांसाहारी हैं अत: उसकी सहायता से शत्रु-नाश नहीं हो सकता ।

आज वह आपको धोखे से मारकर राज्य करना चाहता है । अच्छा है कि उसका षड्‌यंत्र सफल होने से पहले ही उसको मार दिया जाए । दमनक की बातें सुनकर पिंगलक बोला : ”दमनक ! जिसे हमने पहले गुणी मानकर अपनाया है उसे राजसभा में आज निर्गुण कैसे कह सकते हैं ? फिर तेरे कहने से ही तो मैंने उसे अभय-वचन दिया था ।

मेरा मन कहता है कि संजीवक मेरा मित्र है मुझे उसके प्रति कोई क्रोध नहीं है । यदि उसके मन में बैर आ गया है तो भी मैं उसके प्रति वैर-भावना नहीं रखता । अपने हाथों लगाया विष-वृक्ष भी अपने हाथों नहीं काटा जाता ।”  यह सुनकर दमनक बोला-स्वामी ! यह आपकी भावुकता है ।

राजधर्म इसका आदेश नहीं देता । कैर-बुद्धि रखने वाले को राजनीति की दृष्टि से नहीं देखना मूर्खता है । आपने उसकी मित्रता के वश में आकर सारा राजधर्म भुला दिया है । आपके राजधर्म से ज्यूत होने के कारण ही जंगल के अन्य पशु आपसे विरक्त हो गए हैं । सच तो यह है कि आपमें और संजीवक में मैत्री होना स्वाभाविक नहीं है ।

आप मांसाहारी हैं वह निरामिष भोगी । यदि आप उस घास-पात खाने वाले को अपना मित्र बनाएंगे तो अन्य पशु आपको सहयोग करना बंद कर देंगे । यह भी आपके राज्य के लिए बुरा होगा । उसके संग से आपकी प्रकृति में वे दुर्गुण भी आ जाएंगे जो शाकाहारियों में होते हैं ।

शिकार से आपको अरुचि हो जाएगी । आपका सहवास अपनी प्रकृति के पशुओं से ही होना चाहिए । इसीलिए साधु लोग नीच का संग छोड़ देते हैं । संग दोष से ही खटमल की तीव्र गति के कारण मंदविसर्पिणी जू को मरना पड़ा था ।” पिंगलक ने पूछा : ”वह किस प्रकार ?” दमनक बोला : ”सुनो सुनाता हूं ।”


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

7. उपदेश से नहीं बदलते स्वभाव |

किसी राजा के शयनकक्ष में शथ्या पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मंदविसर्पिणी जू रहती थी । रात्रि के समय राजा का रक्तपात करके वह आनंद से अपना जीवन व्यतीत कर रही थी । एक बार अग्निमुख नामक एक खटमल कहीं से घूमता-घामता वहां आ पहुंचा ।

उसे देखकर जू को चिंता होने लगी । उसने कहा : ”अरे अग्निमुख तू यहां अनुचित स्थान पर आ गया है । इससे पहले कि कोई तुझे देख ले तू तुरंत यहां से भाग जा ।” खटमल बोला : ”भगवती ! घर आए मेहमान का तो कोई भी व्यक्ति निरादर नहीं करता चाहे वह मेहमान कितना ही दुष्ट क्यों न हो और तुम मेरा इस तरह निरादर कर रही हो ।

अरे धर्मग्रंथों में तो अतिथि को देवता कहा गया है । अतिथि का सेवा-सत्कार करने वाले को तो स्वर्ग में स्थान मिलता है ।” यह सुनकर जू बोली : ”धर्मग्रंथों की बात तो ठीक हो सकती है । किंतु मैं तो राजा का खून धीरे से तब चूसती हूं जब वह सो जाता है ।

तुम तो अग्निमुख हो और स्वभाव से ही चपल हो । यदि स्वयं पर काबू रख सको तो ठीक है अन्यथा तुरंत यहां से नौ दो ग्यारह हो जाओ ।” खटमल बोला : ”तुम जैसा कहोगी मैं वैसा ही करूंगा । मैं देवता और गुरु की सौगंध लेकर कहता हूं कि जब तक तुम राजा का खून पीकर अपनी भूख नहीं मिटा लोगी और मुझे आज्ञा नहीं दोगी मैं राजा के शरीर के पास फटकूंगा भी नहीं एक ओर शांत भाव से बैठा रहूंगा ।”

”ठीक है! तू मेरा मेहमान है, इसीलिए एक रात के लिए मैं तुझे यहीं ठहरने की आज्ञा देती हूं । लेकिन सिर्फ एक रात के लिए । कल तुझे यहां से अवश्य ही जाना होगा ।” इस तरह वह खटमल राजा के शयनकक्ष में उसके बिस्तर के नीचे छिपकर बैठ गया । अब खटमल तो खटमल होता है । उसमें संयम कहां ?

जब राजा अपने बिस्तर पर लेटा तो कुछ क्षण तो वह उसके सोने की प्रतीक्षा करता रहा लेकिन अधिक प्रतीक्षा करना अब उसके लिए असहनीय हो गया तो उसने राजा का खून चूसना आरंभ कर दिया । सच ही कहा गया है किसी के स्वभाव को उपदेश द्वारा बदला नहीं जा सकता । जल को चाहे जितना खौला दिया जाए आग से उतारने के बाद वह पुन: ठण्डा हो ही जाता है ।

बस ज्यों ही खटमल ने राजा के शरीर में अपने दांत गड़ाए कि राजा तड़प कर जाग उठा । वह पलंग से कूद पड़ा और चिल्लाकर संतरी को आवाज लगा दी : ”संतरी ! देखो इस शय्या में कहीं कोई जू अथवा खटमल अवश्य मौजूद है । इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है ।”

संतरियों ने दीपक जलाकर चादर की तहे देखनी शुरू कर दीं । इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पांवों के जोड़ में जा छिपा । मंदविसर्पिणी जू चादर की तह में ही छिपी थी । संतरियों ने उसे देखकर पकडू लिया और मसलकर मार डाला ।

यह कहानी सुनाकर दमनक ने पिंगलक से कहा : ”स्वामी ! इसलिए मैं कहता हूं कि जिसके स्वभाव का पता न हो उसे कभी आश्रय नहीं देना चाहिए । जो व्यक्ति अपने घनिष्ट संबंधियों और अंतरंग मित्रों को छोड्‌कर बाहरी लोगों को अपना अंतरंग बनाता है, और उन्हें अधिकार सम्पन्न कर देता है, उसकी वैसी ही दुर्दशा हो जाती है जैसे एक मूर्ख गीदड़ चंडख की हुई थी ।


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

8. रंगा सियार |

किसी जंगल में चंडख नाम का एक सियार गीदड़ रहता था । एक दिन वह भूख-प्यास से व्याकुल होकर लोभवश नगर में पहुंच गया । नगर में प्रवेश करते ही नगर के कुत्ते उसके पीछे पड़ गए और उसे जगह-जगह से नोचने-खसोटने लगे ।

कुत्तों से जान बचाकर चंडख भागा । भागते-भागते जो भी उसे पहला दरवाजा खुला मिला वह उसी में घुस गया । वह एक धोबी के मकान का दरवाजा था । मकान के अंदर एक बड़ी-सी नांद कड़ाहीनुमा मिट्‌टी का एक बड़ा बर्तन में धोबी ने नील घोलकर नीला पानी बनाया हुआ था ।

नांद नीले पानी से भरी थी । गीदड़ जब डरा हुआ अंदर घुसा तो उस नदि में जा गिरा । उसको नाद में कूदते देख कुत्ते वहां से भाग गए । गीदड़ जब उस नांद से बाहर निकला तो उसका सारा शरीर नीला हो गया था । नीले रंग से रंगा चंडख जब जंगल में पहुंचा तो जंगल के सभी पशु उसे देखकर चकित हो गए ।

ऐसे रंग का जानवर उन्होंने कभी नहीं देखा था । उसे कोई विचित्र प्राणी समझ सभी जानवर भयभीत हो गए । सिंह, बाघ, भेड़िए, चीते जैसे हिंसक पशु भी उससे डरकर दूर-दूर रहने लगे । चंडख ने जब सब पशुओं को डरकर भागते देखा तो उसने उन्हें बुलाकर कहा,  ”पशुओं! मुझसे डरो मत ।

मैं तुम्हारी रक्षा के लिए ही यहां आया हूं । त्रिलोक के राजा ब्रह्मा ने मुझे आज ही कहा था कि आजकल चौपायों का कोई राजा नहीं है । सिंह-मृगादि सब राजाहीन हैं । आज मैं तुझे उन सबका राजा बनाकर भेजता हूं । तू वहां जाकर सबकी रक्षा कर ।

इसीलिए मैं यहां आ गया हूं । अब से सब पशु मेरी छत्रछाया में रहेंगे । मेरे रहते उन पर किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आएगी । सब पशु आनंद से रद्देंगे । मेरा नाम ककुद्द्रुम है ।’

यह सुनकर सब पशुओं ने उसे अपना राजा मान लिया और बोले : ”स्वामी ! हम आपके दास हैं आज्ञापालक हैं आगे से हम आपकी आज्ञा का ही पालन करेंगे ।” चंडख ने राजा बनने के बाद शेर को अपना प्रधानमंत्री बनाया, बाघ को नगर-रक्षक और भेडिए को संतरी का काम सौंपा ।

अपने आत्मीय-जन गीदड़ों को उसने जंगल से बाहर निकाल दिया उसने उनसे कोई बात नहीं की । उसके राज्य में शेर छोटे-छोटे जानवरों को मारकर लाते थे और चंडख को भेंट कर देते थे । चंडख उनमें से कुछ भाग खाकर शेष अपने नौकर-चाकरों में बांट देता था ।

इसी प्रकार कई दिन बीत गए । एक दिन वह सभा में बैठा किसी गहन विषय पर बात कर रहा था कि तभी दूर वन में रहने वाले सियार सहसा समवेत स्वर में ‘हूंआ-हूंआ’ की आवाजें करने लगे । उन आवाजों को सुनकर चंडख इतना हर्षित हुआ कि स्वयं भी हुआ-हुआ करने लगा ।

वह यह बात बिस्कूल ही भूल गया कि अब वह यहां का राजा बना बैठा है । शेर-बाघ आदि पशुओं ने जब उसकी किलकारियां सुनीं तो वे समझ गए कि चंडख ब्रह्मा का दूत नहीं बल्कि एक मामूली सियार है । कुछ देर तक सभी अपनी नासमझी पर लज्जित हो मुंह नीचा किए बैठे रहे किंतु फिर उनके स्वाभिमान ने जोर मारा ।

शेर और बाघ चंडख पर झपटे और उसके शरीर को चीर-फाड़कर रख दिया । यह कथा समाप्त करके दमनक ने कहा : ”इसीलिए कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने आत्मीय-जनों की अवहेलना करता है । उसकी ऐसी ही दशा होती है ।”

पिंगलक को दमनक की बात का विश्वास नहीं हो रहा था । उसने संदेहपूर्वक कहा : ”आखिर इसका क्या प्रमाण है कि संजीवक मेरे प्रति विद्रोह कर रहा है ?” दमनक बोला : ”मेरे सामने उसने आज ही कहा है कि प्रात काल होने तक मैं पिंगलक को अवश्य मार डालूंगा ।

आप यदि इसका प्रमाण ही चाहते हैं तो सुबह होने की प्रतीक्षा कर देखिए । कल वह अपनी आखें लाल-लाल करता हुआ आपकी ओर क्रोधित भाव से देखता हुआ आपके निकट पहुंचेगा और आपकी उपेक्षा कर अनुचित स्थान पर बैठने की चेष्टा करेगा । तब आप जैसा उचित समझें वैसा ही करें ।”

इतना कहकर दमनक वहां से उठ गया और कुछ देर बाद संजीवक के पास जाकर बैठ गया । उसको इस प्रकार शांत भाव से बैठा देखकर संजीवक बोला : ”मित्र दमनक ! आज बहुत दिनों बाद दिखाई दिए । कहो मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं ?”

यह सुनकर दमनक बोला : ”मित्र ! सेवक जन की कुशलता कहां ? राजसेवकों की सम्पत्ति तो दूसरों के अधीन होती है । उनका चित्त तो सदा अशांत ही बना रहता है । यहां तक कि उन्हें अपने जीवन के प्रति भी संदेह बना रहता है ।”

संजीवक बोला : ”आखिर बात क्या है ? तुम इतने व्यग्र क्यों हैं ? तुम्हारे मन में कोई विशेष बात है तो उसे नि संकोच कहो । साधारणतया राजसंबंधियों को सब कुछ गुप्त रखना चाहिए, किंतु मेरे तुम्हारे बीच कोई पर्दा नहीं है ।

तुम बेखटके अपने दिल की बात मुझको कह सकते हो ।” दमनक बोला : ”आपने मुझे अभय-वचन दिया है इसलिए मैं कहे देता हूं । बात यह है कि पिंगलक के मन में आपके प्रति पाप-भावना आ गई है । आज उसने मुझे बिस्कूल एकांत में बुलाकर कहा है कि कल सुबह ही वह आपको मारकर अन्य मांसाहारी जीवों की भूख मिटाएगा ।”

दमनक की बात सुनकर संजीवक देर तक हतप्रभ-सा रहा उसके शरीर में मूर्च्छा-सी छा गई । कुछ चेतना आने के बाद तीव्र वैराग्य-भरे शब्दों में बोला : ”राजसेवा सचमुच बड़ा धोखे का काम है । राजाओं के पास दिल होता ही नहीं । मैंने भी शेर से मैत्री करके मूर्खता की ।

समान बलशील वालों से मैत्री होती है समान शील-व्यसन वाले ही सखा बन सकते हैं । अब यदि मैं उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करूंगा तो भी व्यर्थ है क्योंकि जो किसी कारणवश क्रोध करे उसका क्रोध उस कारण के दूर होने पर दूर किया जा सकता है लेकिन जो अकारण ही कुपित हो उसका कोई उपाय नहीं है ।

निश्चय ही पिंगलक के पास रहने वाले जीवों ने ईर्ष्यावश उसे मेरे विरुद्ध उकसा दिया है । सेवकों में प्रभु की प्रसन्नता पाने की होड़ लगी ही रहती है । वे एक-दूसरे की वृद्धि सहन नहीं करते ।” यह सुनकर दमनक ने कहा : ”मित्रवर ! यदि यही बात है तो मीठी बातों से अब राजा पिंगलक को प्रसन्न किया जा सकता है । वही उपाय करो ।”

संजीवक बोला : ”नहीं दमनक ! यह उपाय सच्चा उपाय नहीं है । एक बार तो मैं राजा को प्रसन्न कर लूंगा किंतु उसके पास वाले कपटी लोग फिर किन्हीं दूसरे झूठे बहानों से उसके मन में मेरे लिए जहर भर देंगे और मेरे वध का उपाय करेंगे जिस तरह गीदड़ और कौए ने मिलकर एक ऊंट को शेर के हाथों मरवा दिया था ।”


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

9. फूंक-फूंक पग धरो |

किसी जंगल में मदोत्कट नाम का एक शेर रहता था । बाघ कौआ और गीदड़ ये तीन उसके सेवक थे । जो अपने राजा की सेवा करके उसके मारे हुए शिकार से जो बच जाता था उससे अपना पेट भर लेते थे ।

एक दिन उसके सेवक जंगल में घूम रहे थे कि अचानक उन्होंने एक ऊंट को जंगल की ओर आते देखा । कौआ गीदड़ और बाघ उसे देखकर खुश हुए । वे तीनों उस ऊंट के पास पहुंचे और बड़े प्यार से पूछने लगे : ”परदेशी भैया आप इस जंगल में कैसे आ गए ?”

ऊंट बोला : ”मैं अपने साथियों से बिछुड़कर रास्ता भूल गया हूं । इसीलिए इस जंगल में भटकता फिर रहा हूं ।” सेवकों ने कहा : ”भैया आप हमारे राजा शेर से मिल लें । हमारा राजा तो बहुत दयालु है । वह हर परदेशी की मदद करता है और आप तो रास्ता भूले हुए हैं ।

आपको तो महाराज अवश्य ही राह सुझाएंगे ।” ऊंट तो बेचारा पहले से ही बहुत दुखी था उसने उनकी बात मानकर शेर के पास जाना मंजूर कर लिया । दुखी आदमी को तो किसी न किसी पर विश्वास करना ही पड़ता है ।  फिर तीनों सेवक उसे शेर के पास ले आए ।

ऊटं को देखकर शेर ने कहा : ”अरे तुम यह विचित्र प्राणी कहां से लेकर आए हो । यह कौन-सा प्राणी है । जंगली है या ग्रामवासी है ?” शेर की बात सुनकर कौआ बोला : ”स्वामी यह तो एक ग्रामीण पशु है आपका भोजन है । इसे खाकर आप अपनी भूख मिटा सकते हैं ।”

शेर बोला : ”नहीं मैं घर आए मेहमान को नहीं मारता । यह विश्वास करके मेरे वन क्षेत्र में आया है । विश्वास करके बिना डरे घर आए शत्रु को कभी नहीं मारना चाहिए ।  यदि कोई ऐसा करता है तो वह पाप का भागी होता है । तुम इसे अभयदान देकर मेरे दरबार में ले आओ ।

मैं इससे जंगल में आने का प्रयोजन पूछूंगा ।” सेवक क्रथनक नाम के उस ऊंट को शेर के दरबार में ले आए । ऊंट ने शेर को प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया । शेर द्वारा पूछने पर उसने अपनी दुखभरी कहानी उसे सुना दी और कहा कि वह अपने साथियों से बिछुड़कर जंगल में अकेला रह गया है ।

उसकी कहानी सुनकर शेर ने उसे धीरज बंधाया । बोला : ”अब तुम्हें गांव जाकर बोझ ढोने की कोई आवश्यकता नहीं है । आनंद से यहां रहो । स्वेच्छापूर्वक जंगल में विचरण करो । कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा ।” शेर का आश्वासन पाकर ऊंट सुखपूर्वक वन में विचरण करने लगा ।

संयोग की बात कि कुछ दिन बाद उस जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया । उस हाथी से अपने अनुचरों की रक्षा करने के लिए शेर को उसके साथ युद्ध करना पड़ा । उस मतवाले हाथी पर सिंह ने विजय तो प्राप्त कर ली किंतु हाथी ने भी सिंह को सूंड में लपेटकर एक बार ऐसा पटका कि उसके अस्थि-पंजर हिल गए ।

शेर इतना घायल हो गया कि शिकार करने से भी लाचार हो गया । वह भूखा मरने लगा । उसके सेवक जो उसके द्वारा छोड़े शिकार पर जीवित रहते थे वे भी आहार के लिए परेशान रहने लगे । एक दिन शेर ने उन्हें बुलाकर कहा : ”मित्रों मैं बहुत घायल हो गया हूं ।

अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं बची कि किसी पशु का शिकार कर सकूं । तुम किसी पशु को घेरकर यहां तक ले आओ । मैं उसे मारकर अपनी भूख मिटाऊंगा । तुम्हें भी पेट भरने के योग्य मांस मिल जाएगा ।” शेर की बात सुनकर उसके अनुचर शिकार की तलाश में निकले किंतु बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं दिखाई दिया ।

तब कौए और गीदड़ ने आपस में मंत्रणा की ।  दड़ बोला : ”भैया कौए अब इधर-उधर भटकने से कोई फायदा नहीं है । क्यों न इस ऊंट क्रथनक को मारकर ही अपनी भूख मिटाई जाए ।” कौआ बोला : ”तुम्हारी बात तो ठीक है मित्र! किंतु स्वामी ने तो उसे अभय-वचन दे रखा है ।”

गीदड़ बोला : ”तुम चिंता मत करो मैं कोई ऐसा उपाय करूंगा कि स्वामी उसे मारने को तैयार हो जाएंगे । मैं अभी जाकर स्वामी से इस विषय में बात करता हूं ।” गीदड़ ने तब शेर के पास जाकर कहा : ”स्वामी हमने सारा जंगल छान मारा है किंतु कोई पशु हाथ नहीं लगा ।

अब तो हम सभी पशु इतने दुर्बल हो गए हैं कि एक कदम भी नहीं चला जाता । आपकी दशा भी ऐसी ही है । आज्ञा दें तो इस क्रथनक को मारकर उससे भूख शांत की जाए ।” गीदड़ की बात सुनकर शेर क्रोधित होकर बोला : ”अरे पापी ! फिर कभी ऐसी बात मुख से निकली तो उसी क्षण तेरे प्राण ले लूंगा ।

जानता नहीं मैंने उसे अभयदान दिया है ।” गीदड़ ने दीनतापूर्वक कहा : ”स्वामी ! मैं आपसे वचन भंग करने के लिए नहीं कह रहा हूं । आप स्वयं उसका वध न कीजिए, किंतु यदि वह स्वयं ही आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए तब तो उसके वध में कोई दोष नहीं है ।

यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हममें से सभी आपकी सेवा में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शांत करने के लिए आएंगे ।  जो प्राणी स्वामी के काम न आए उसका उपयोग ही क्या है ? स्वामी के नष्ट होने पर उसके अनुचर स्वयं ही नष्ट हो जाया करते हैं । स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म बनता है ।”

यह सुनकर शेर ने शकित स्वर में पूछा : ”लेकिन यह कैसे संभव है ? वह स्वयं ही अपने प्राण संकट में क्यों डालेगा ?” तब गीदड़ ने शेर को अपनी तरकीब बताई । सुनकर शेर बोला : ”यदि तुम्हारा ऐसा ही विश्वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है ।”

शेर का आश्वासन पाकर गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास आया और बोला : ”मैंने स्वामी से सहमति ले ली है । उन्हें मेरी योजना पर कोई आपत्ति नहीं है । अब तुम सब सुनो कि योजना क्या है ? योजना यह है कि हम सब क्रथनक ऊंट को साथ लेकर स्वामी के पास चलेंगे और बारी-बारी से स्वयं को स्वामी को अर्पण करेंगे जिससे कि वे हममें से किसी को खाकर अपनी भूख मिटा सकें ।

स्वामी ऐसा नहीं करेंगे । हमारी देखा-देखी क्रथनक भी यह सोचकर स्वयं को अर्पण करेगा कि जब स्वामी ने अपने अनुचरों में से किसी को खाना स्वीकार नहीं किया है तो मुझे ही क्यों खाएंगे ?  जैसे ही वह स्वयं को स्वामी के सम्मुख अर्पण करेगा हम सब उस पर टूट पड़ेंगे और उसका मांस खाकर अपनी भूख मिटा लेंगे ।

योजनानुसार वे क्रथनक को लेकर शेर के पास पहुंचे । सबसे पहले कौए ने अपने आपको पेश किया । बोला : ”स्वामी ! मुझसे आपका यह हाल नहीं देखा जाता । आप मुझे खाकर अपने प्राण बचा लीजिए ताकि अपने स्वामी की सेवा के बदले मुझे भी मुक्ति मिले ।

क्योंकि शास्त्रों में ऐसा ही कहा गया है कि अपने स्वामी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले जीव मरकर सीधे स्वर्ग में जाते हैं । वह अमर हो जाता है ।” तभी गीदड़ ने कौवे की बात काट दी और बोला : ”मित्र तुम तो बहुत छोटे हो ।

तुम्हारे मांस से स्वामी का पेट तो भरेगा नहीं उलटे उन्हें जीव-हत्या का पाप लग जाएगा । तुमने अपनी स्वामिभक्ति का परिचय दे दिया है । तुमने अपना ऋण उतार दिया है इसलिए तुम तीनों लोकों में प्रशंसा के पात्र बन गए हो । अब तुम यहां से हट जाओ जिससे मैं स्वयं को स्वामी की सेवा में प्रस्तुत कर सकूं ।”

यह सुनकर कौआ शेर के पास से हट गया । तब गीदड़ शेर के सम्मुख पहुंचा और बोला : ”स्वामी ! आज आप मुझे ही खाकर अपनी भूख शांत कर लीजिए । आप के ऐसा करने से मैं स्वर्ग जाने का अधिकारी हो जाऊंगा । क्योंकि ऐसा कहा गया है कि सेवक का शरीर उसके स्वामी के अधीन होता है ।

यदि आवश्यकता पड़ने पर स्वामी उसे ले भी ले तो वह पाप का भागी नहीं बनता ।”  यह कहते हुए गीदड़ ने जब अपना शरीर भेंट करना चाहा तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा : ”मित्र तुम भी बहुत छोटे हो । फिर तुम्हारे नाखून इतने विषैले हैं कि जो भी तुम्हें खाएगा उसे जहर चढ़ जाएगा ।

इसलिए तुम खाने योग्य नहीं हो । अपने स्वामी को तो मैं अपना शरीर अर्पण करूंगा । मुझे खाकर उनकी भूख भी शांत हो जाएगी और मुझे पुण्यलाभ मिल जाएगा ।” लेकिन शेर ने उसका भक्षण करना अस्वीकार कर दिया । वह बोला : ”नहीं तुम मेरे सजातीय हो । भला कहीं अपने सजातियों का वध किया जाता है ।”

शेर द्वारा बाघ का मांस खाने से इंकार करते देख क्रथनक ने सोचा : ”स्वामी अपने अनुचरों को हानि नहीं पहुंचाना चाहते । तभी तो उन्होंने सभी को अस्वीकार कर दिया है । क्यों न मैं भी अपना शरीर उन्हें अर्पण करूं ?  यदि ऐसा नहीं किया तो मैं कृतप्न कहलाऊंगा ।

जब स्वामी ने दूसरे अनुचरों को खाना स्वीकार नहीं किया तो वह मेरा वध भी नहीं करेंगे ।”  यही सोचकर क्रथनक ने अपना शरीर शेर को अर्पण कर दिया । बस फिर क्या था । शेर के संकेत पर बाघ चीता गीदड़ आदि पशु उस पर टूट पड़े । उन्होंने उसका पेट फाड़ डाला और उसके मांस से सबने अपनी भूख शांत की ।

यह कथा सुनाकर संजीवक ने दमनक से कहा : ”तभी तो मैं कहता हूं कि छल-कपट भरे वचन सुनकर सहसा ही किसी को उस पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहें उसे किसी न किसी उपाय से मरवा ही देते हैं ।

नि:संदेह ऐसे ही किसी नीच ने राजा पिंगलक को मेरे विरुद्ध भड़का दिया है । अब दमनक भाई एक मित्र के नाते मैं तुमसे यह पूछता हूं कि ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए ?” दमनक ने कहा : ”मैं तुम्हें यही सलाह दूंगा कि यहां से कहीं दूर भाग जाओ । वहां कम से कम तुम्हारे प्राणों को तो भय नहीं रहेगा ।”

संजीवक ने निराशा भरे स्वर में कहा : ”दूर जाकर भी अब छुटकारा संभव नहीं है । बड़े लोगों से शत्रुता करके कोई शांति से नहीं बैठ सकता । मेरे विचार में तो अब युद्ध ही सर्वोत्तम उपाय है । युद्ध में एक बार ही तो मौत मिलती है किंतु शत्रु से डरकर भागने वाले को तो प्रतिक्षण मौत का भय सताता रहता है ।

उस चिंता से तो एक बार की मृत्यु कहीं ज्यादा बेहतर है । दमनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिए तैयार देखा तो वह सोचने लगा कहीं ऐसा न हो कि वह अपने पैने सींगों से स्वामी का पेट फाड़ दे । यदि ऐसा हो गया तो महान अनर्थ हो जाएगा ।

इसलिए वह फिर से संजीवक को देश छोड़ने का परामर्श देता हुआ बोला : ”मित्र ! तुम्हारा कहना भी सत्य है किंतु स्वामी और सेवक के युद्ध से क्या लाभ ? क्योंकि कहा गया है जो व्यक्ति शत्रु की शक्ति जाने बिना ही उससे बैर बढ़ाता है उसे शत्रु के सम्मुख उसी प्रकार अपमानित और पराजित होना पड़ता है जिस प्रकार टिटिहरी के सम्मुख समुद्र को होना पड़ा था ।”


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

10. टिटिहरी और समुद्र |

समुद्र तट पर टिटिहरी का एक जोड़ा रहता था । दोनों ने मिलकर समुद्र के किनारे ही रेत में अपना एक छोटा-सा घर बना लिया था । दोनों पति-पत्नी बड़े आनंद से रह रहे थे ।

कुछ समय के पश्चात् टिटिहरी ने गर्भधारण किया तो दोनों पति-पत्नी अपनी आने वाली संतान को लेकर तरह-तरह की योजनाएं बनाने लगे । संतान पैदा होने की खुशी तो हर प्राणी को होती है । संतान का प्रेम सबके हृदय में बराबर होता है ।

टिटिहरी ने अपने पति से कहा : ”स्वामी पहले तो हम लोग अकेले थे हमें कोई डर नहीं था । अब तो हमारे बच्चे होने वाले हैं इसलिए हमें किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर ही रहना चाहिए । ताकि हमारे बच्चों के जीवन को कोई खतरा न हो ।” अपनी पत्नी की बात सुनकर टिटिहरा बोला : ”यहां सभी स्थान सुरक्षित हैं प्रिये । तुम चिंता मत करो ।”

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टिटिहरी ने कहा : ”नहीं प्रिये यहां पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार आता है तो लहरें मदमस्त हाथी तक को खींच ले जाती हैं । अत: हमें कोई सुरक्षित स्थान खोज लेना चाहिए ।” अपनी पत्नी की चिंता जानकर टिटिहरे ने कहा : ”प्रिये मैंने कहा है न ।

तुम समुद्र की चिंता मत करो । समुद्र में इतना साहस नहीं कि वह मेरी संतान को लील ले । वह मुझसे डरता है । तुम निश्चिंत होकर यहां अपने अण्डे दो ।” समुद्र इन दोनों का वार्तालाप सुन रहा था । टिटिहरे की गर्वोक्ति सुनकर उसने सोचा : ”यह तुच्छ पक्षी कितना अभिमानी हो गया है ।

आकाश के गिरने के भय से यह अपने दोनों पैरों को ऊपर उठा कर सोता है और सोचता है कि इस तरह से यह आकाश को अपने पैरों से रोक लेगा । कौतूहल के लिए इसकी शक्ति को भी देख लेना चाहिए । इसके अण्डे अपहरण कर लेने के बाद यह क्या करता है यह देख ही लूं ।”

बस यही सोचकर जब टिटिहरी ने अण्डे दिए और जब टिटिहरी और टिटिहरा भोजन की खोज में निकले हुए थे तो समुद्र ने लहरों के बहाने से उनके अण्डों का अपहरण कर लिया । वापस लौटने पर टिटिहरी ने अपने अण्डों को गायब पाया तो वह विलाप करती हुई अपने पति से बोली : ”स्वामी ! मैंने पहले ही कहा था कि समुद्र की तरंगों से मेरे अण्डे नष्ट हो जाएंगे किंतु अपनी मूर्खता और अभिमान के कारण आपने मेरी बात नहीं सुनी ।

देख लो मेरी आशंका बिच्छल सही साबित हुई । किसी ने ठीक ही कहा है कि जो व्यक्ति अपने हित चितंकों और मित्रों की उपेक्षा करता है वह अपनी मूर्खता के कारण उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है जिस प्रकार कि एक मूर्ख कछुआ लकड़ी से गिरकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठा था ।”