जैल सिंह पर निबंध | Essay on Zail Singh in Hindi

1. प्रस्तावना:

भारत के राष्ट्रपति का पद अत्यन्त ही गरिमामय पद होता है । इस पद पर अनेक महान् विभूतियां आसीन होती रही हैं । इन विभूतियों में एक थे- ज्ञानी जैलसिंह ।

ज्ञानी जैलसिंह का सम्पूर्ण जीवन अत्यन्त संघर्षों में कार्य करते हुए बीता । वे स्वतन्त्रता के भी महान् सिपाही थे । कबीर की तरह उपाधि या डिग्रियां तो उनके पास नहीं थीं, लेकिन वे सचमुच ज्ञान के भण्डार, अर्थात ज्ञानी ही थे । ईमानदारी, निर्भीकता, कर्म के प्रति निष्ठा का भाव उनके व्यक्तित्व के प्रभावशाली गुण थे ।

2. जन्म परिचय:

राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह का जन्म 5 मई 1916 को कोटकपुरा से 4 कि०मी० दूर संधवान ग्राम में हुआ था । उनके पिता का नाम किशनसिंह था । उनके पिता ने 3 विवाह किये थे । उनके तीसरे विवाह से 4 बच्चे हुए, जिसमें 3 लड़के और 1 लड़की थी । जैलसिंह सबसे छोटे थे ।

जब वे 11 माह के थे, तो उनकी माता इन्दी कौर का निधन हो गया । उनकी सौतेली माता ने उन्हें असली माता की तरह बड़े ही लाड-प्यार से पाला । ज्ञानी जैलसिंह के पिता सिक्ख धर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा और आस्था रखते थे । उनके घर के एक कमरे में ही गुरुग्रन्थ साहिब पूजित होते थे, जहां प्रतिदिन भजन-कीर्तन तथा गुरुग्रन्थ साहिब का पाठ होता था । धार्मिक संस्कार उन्हें अपने पिता से विरासत में ही मिले थे ।

ज्ञानी जैलसिंह की विधिवत शिक्षा मिडिल कक्षा तक ही पूरी हो पायी थी । मिडिल तक पढ़े होने के बाद भी उनके ज्ञान की सीमा व्यापक थी । 5 वर्ष की अवस्था से गुरुग्रन्थ साहिब का पाठ करने वाले ज्ञानी जैलसिंह ने स्वाध्याय के बल पर हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू का ही नहीं, वरन् वेद, उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल का सम्यक ज्ञान प्राप्त किया । उर्दू साहित्य का तो उन्हें विशेष तथा व्यापक ज्ञान प्राप्त था ।

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अपने संघर्ष के दिनों में उन्होंने राजमिस्त्री तथा बढ़ईगिरी का कार्य भी किया । दर्जी की तरह कपड़े सिये । मजदूर की तरह पत्थर भी ढोये । इस तरह दैनिक जीवन में सब तरह के परिश्रम के कार्य उन्होंने किये । उनका विवाह 15 वर्ष की अवस्था में 1934 को बीबी प्रधान कौर से हुआ । उनके एक लड़का और तीन लड्‌कियां थीं ।

3. उनके कार्य एवं उपलब्धियां:

ज्ञानी जैलसिंह स्वतन्त्रता के एक अच्छे सेनानी थे । बचपन से ही उनके मन में गुलाम भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने की अदम्य इच्छा रही थी । अंग्रेजों द्वारा गुलाम भारतीयों पर किये जाने वाले अत्याचारों को देखकर उनका खून खौल उठता था । किशोरावस्था में जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड के प्रति गहरा आक्रोश था । अंग्रेजों के विरुद्ध की जाने वाली जनसभाओं में हमेशा जाया करते थे ।

भगतसिंह की फांसी के बाद तो उन्होंने अंग्रेज सरकार को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए आनन्दपुर साहिब के एक क्रान्तिकारी दल से अपना नाता जोड़ लिया । उनकी कम अवस्था को देखकर ”युग पलटों” नाम के इस क्रान्तिकारी दल ने उन्हें सम्मिलित करने से ही इनकार कर दिया था । 1934 में ये फरीदपुर अकाली दल के सदस्य हो गये ।

12 सितम्बर 1937 को अकाली सम्मेलन में उन्होंने अपना प्रभावशाली भाषण दिया । 1938 के अप्रैल में उन्होंने फरीदपुर में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की एक शाखा स्थापित की, जिसके कारण उन्हें 5 वर्ष तक जेल की कोठरी में रखा गया । 1943 में जेल से मुक्त होकर अमृतसर में शहीद सिक्ख मिशनरी कॉलेज में अपना सहयोग देकर स्वयंसेवक और धर्म प्रचारक का काम किया ।

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18 अप्रैल 1946 को उन्होंने तिरंगा लहराने का कार्य किया । फरीदकोट की एक जनसभा में कार्यकर्ताओं को पीटे जाने और तिरंगे के अपमान को लेकर उन्होंने विरोध प्रदर्शित किया । इस तरह देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति तक वे गांधी तथा नेहरूजी के साथ जुड़कर अपना सहयोग देते रहे ।

1 मार्च 1948 को फरीदकोट के राजा ने उन पर बगावत तथा राजद्रोह का झूठा आरोप लगाकर उनके हाथ-पैर बांधकर उनके केशों की रस्सी को जीप से बांधकर सड़क पर घसीटने का आदेश दिया । 50 रुपये के साथ 1 वर्ष का सश्रम कारावास दिया । पटेल द्वारा रियासतों की समाप्ति के बाद ज्ञानी जैलसिंह ने कई आन्दोलनों का नेतृत्व किया ।

स्वतन्त्र भारत में 20 जुलाई 1949 को वे पंजाब और पूर्वी राज्यों के केबिनेट मिनिस्टर बने । राजस्व मन्त्रालय के साथ-साथ उन्होंने कृषि और लोक निर्माण विभाग का कार्य भी देखा । 1956 से 1962 तक वे राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए । 1966 से 62 तक पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे । 17 मार्च 1972 से पूरे 5 वर्षों तक पंजाब के मुख्यमन्त्री रहे । पंजाब को औद्योगिक तथा कृषि क्षेत्र में उन्होंने अन्य राज्यों की श्रेणी से अलग लाकर खड़ा किया ।

उनके ही प्रयास से शहीद ऊधमसिंह के भस्मावशेष को लंदन से लाया गया व सुनाम में इसका स्मारक बनाया गया । पंजाब के 332 गांवों और 90 पवित्र स्थानों को जोड़ने वाला 640 कि०मी० लम्बा मार्ग बनवाया । रिक्शा चालकों को रिक्शा खरीदने हेतु मुफ्त कर्ज दिया । 4 जनवरी 1980 को उन्हें इन्दिरा गांधी के शासनकाल में गृहमन्त्रालय का केबिनेट मिनिस्टर बनाया गया । उस समय भटके हुए लोगों द्वारा खालिस्तान की मांग का उन्होंने विरोध किया ।

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25 जून 1982 को कांग्रेस पार्टी के समर्पित सिपाही के रूप में उन्हें राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गयी । भारत के राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए उन्होंने सुरक्षा के कई प्रतिबन्धों को तोड़कर जनता की समस्याएं सुनीं । प्रतिदिन शाम 6 बजे वे आम लोगों के लिए दरबार लगाते थे । हिन्दी भाषा के प्रति उनके मन में अपार सम्मान था ।

”सादा जीवन उच्च विचार” उनके जीवन का उद्देश्य था । सफेद अचकन के साथ चूड़ीदार सलवार उनकी पारम्परिक पोशाक थी । सरल और अहंकार शून्य व्यक्तित्व के धनी ज्ञानी जैलसिंह ने इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को समस्त प्रकार के संवैधानिक प्रावधानों की उपेक्षा करते हुए प्रधानमन्त्री की शपथ दिलवायी, जिसका विरोध उन्हें सहना पड़ा ।

ऐसा कहा जाता है कि- ”राजीव गांधी ने कई बार उनकी उदारता और सरलता की उपेक्षा करते हुए उनके तथा उनके पद की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा था ।” राजीव गांधी के साथ सैद्धान्तिक तौर पर होने वाले तनाव के कारण उन्होंने 25 जुलाई 1987 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और राष्ट्रपति भवन छोड़कर 4 सर्कुलर रोड के आवास में रहने चले गये ।

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29 नवम्बर 1994 को पंजाब के रोहतक के पास एक सड़क दुर्घटना में वे बुरी तरह से घायल हो गये । 27 दिनों तक कोमा में रहते हुए 24 दिसम्बर 1994 को उन्होंने अन्तिम सांस ली ।

4. उपसंहार:

स्वाध्याय और आत्मबल के द्वारा एक सामान्य-सा, कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी किस तरह ज्ञानवान होकर राष्ट्रपति जैसे महिमामण्डित पद पर पहुंच सकता है, इसका सशक्त उदाहरण राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह थे । ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी, स्वाभिमान के धनी थे राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह । दबंगता इतनी थी कि एक बार उन्होंने हस्ताक्षर के लिए आये हुए बिल को जेबी बनाकर इतिहास रचा । ऐसा साहस एवं विद्वता विरले ही राष्ट्रपतियों में देखने को मिलती है ।

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