दयानंद सरस्वती की जीवनी | Biography of Dayanand Saraswati in Hindi
1. प्रस्तावना:
उन्नीसवीं शताब्दी में अनेक महापुरुष हुए, जिन्होंने इसे पुनर्जागरण काल का रूप प्रदान किया । इन महापुरुषों में दयानन्दजी भी एक थे । वे बाल ब्रह्मचारी एवं महान् योगी थे ।
संस्कृत, अरबी, हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान् तथा ओजस्वी वक्ता थे । जातिगत, धर्मगत भेदभाव को समाप्त कर वे एक राष्ट्रीय धर्म बनाना चाहते थे । स्वामी दयानन्द ने बौद्धिक पुनरोद्धार द्वारा सामाजिक सुधार के लिए एक शक्तिशाली आन्दोलन प्रारम्भ किया ।
उन्होंने भारत के राजनैतिक दर्शन तथा संस्कृति के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । उन्होंने आर्यसमाज का प्रवर्तन किया तथा हिन्दू समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए काफी प्रयास किया ।
भारतीय जीवन में नवचेतना का संचार करने के लिए वेदों की अमृतमयी वाणी का प्रयोग किया । आर्यसमाज की शक्तिशाली संस्था के द्वारा समाज में नयी ऊर्जा का संचार किया । वे भारतीय राष्ट्र के महान् सेवक, देशभक्त व संस्कृति के उन्नायक थे ।
2. प्रारम्भिक जीवन:
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स्वामी दयानन्दजी का जन्म 1824 में गुजरात के टंकारा नामक स्थान में हुआ था । उनका जन्म नाम मूलशंकर था । उनका परिवार शैव सम्प्रदाय का अनुयायी था । एक दिन महाशिवरात्रि के दिन उन्होंने मन्दिर में भगवान् शंकर की मूर्ति पर चूहे को उछल-कूद मचाते देखा । इस घटना ने उन्हें मूर्तिपूजा का प्रबल विरोधी बना दिया । ज्ञान की खोज में संन्यासी बनकर मठों एवं आश्रमों का भ्रमण करने निकल पड़े ।
24 वर्ष की आयु में संन्यासी की दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे दयानन्द सरस्वती कहलाने लगे । उन्होंने अज्ञान, अन्धविश्वास एवं जातीय व्यवस्था की दूषित अवधारणा से ग्रसित समाज को नवीन ज्ञान-ज्योति प्रदान करने हेतु संकल्पित किया तथा सत्यार्थ प्रकाश की रचना की ।
वैदिक साहित्य को महत्त्व देते हुए उन्होंने लिखा कि- ”वेद विश्व की सर्वाधिक प्राचीन धरोहर है । वेद समस्त मानवीय ज्ञान का भण्डार है । वेदों के अनुसार ही सृष्टि का निर्माण एवं विनाश होता है । यह क्रिया अनादि एवं अनन्त है ।” सत्यार्थ प्रकाश में 14 अध्याय लिखे, जिसमें उन्होंने ओ३म् शब्द की व्याख्या की है । इसके साथ ही बच्चों के जन्म तथा उनकी प्रारम्भिक शिक्षा, मातृत्व की देखभाल का विवेचन किया । स्वामी दयानन्द ने वेदों को देवी-देवता के शासन का एक प्रकार बताया है ।
स्वामी दयानन्द ने राज्यों को समुदायों का समुदाय बताया है । वे राज्य को सामाजिक संस्था न मानकर तीन समुदाय मानते हैं-पहला, राजनीतिक । दूसरा, कला एवं विज्ञान सम्बन्धी समुदाय । तीसरा, धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी समुदाय । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1905 के बंगाली राष्ट्रवादी आन्दोलन के मार्ग को प्रशस्त किया ।
3. स्वामी दयानन्द सरस्वती के (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व शैक्षिक) विचार:
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स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचारों में प्रमुख यह है कि वे हिन्दू समाज को सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं कुप्रथाओं से मुक्त कराना चाहते थे । वे यह मानते थे कि हिन्दू समाज कुरीतियों एवं सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अन्धविश्वासों में डूबा हुआ है । इसे उन बुराइयों से मुक्त करने की आवश्यकता है ।
उन्होंने जातिप्रथा का घोर विरोध किया । सारा हिन्दू समाज इसी प्रथा के कारण छिन्न-भिन्न हो रहा है । वे न तो मन्दिरों में प्रवेश पा सकते हैं और न ही वेदों का अध्ययन कर सकते हैं । समाज को जातिप्रथा एवं अस्पृश्यता से मुक्त करने के लिए समाज को उन्नत व सशक्त बनाने की आवश्यकता है । उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को कर्म पर आधारित माना है न कि जन्म पर ।
उन्होंने बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी प्रथाओं का विरोध किया है । उन्होंने सर्वप्रथम बाल विवाह के विरोध में विवाह के लिए लड़कों की आयु 25 वर्ष और लड़कियों की आयु 16 वर्ष निश्चित की । दहेज प्रथा को समाज का अभिशाप बताते हुए उसके उन्मूलन हेतु प्रयास किया ।
विधवाओं के पुनर्विवाह हेतु उन्होंने सार्थक व सक्रिय प्रयास किये । मुसलमानों द्वारा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन को शुद्धिकरण के माध्यम से पुनर्गठित किया । हिन्दू धर्म में वापसी के लिए धर्म शुद्धि आन्दोलन चलाया । स्वामीजी ने ऐसे सहस्त्र लोगों को ईसाई धर्म से हिन्दू धर्म में प्रविष्ट कराया । दयानन्दजी ने नारी शिक्षा तथा उनके अधिकारों का समर्थन किया ।
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उन्होंने पर्दा प्रथा तथा नारी शिक्षा की उपेक्षा का घोर विरोध किया । आर्यसमाज के माध्यम से कन्या स्कूल खोलने तथा स्त्री शिक्षा के प्रचार का कार्य किया । बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि के विरुद्ध आन्दोलन चलाया ।
धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक विचार:
स्वामी दयानन्द संन्यासि एवं कर्मयोगी थे । वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे । वे सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के सक्रिय कार्यकर्ता थे । वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे, जो आधुनिक युग के अनुरूप गुलाम भारतीयता को सब बंधनों से मुक्त कराये । उन्होंने स्वराज्य का उद्घोष करते हुए ”स्वशासन” एवं ”स्वराज्य” की मांग उठायी ।
वे भारतीयता एवं भारतीय संस्कृति पर गर्व महसूस करते थे । इसी भारतीयता को वे गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे, ताकि उस पर गर्व किया जा सके । उन्होंने स्वराज्य, लोकतन्त्र की मांग की । राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करते हुए राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया । आर्थिक स्वतन्त्रता हेतु स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया ।
4. उपसंहार:
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स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक विचारों की अज्ञान निद्रा में सोये हुए भारत को जागृत किया । 10 अप्रैल 1875 को आर्यसमाज की स्थापना कर राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य किया । मानवता के लिए किये गये उनके कार्य निःसन्देह महान् थे ।
लोकमान्य तिलक ने उनके विषय में लिखा है- ”ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, जो भारतीय आकाश पर अलौकिक आभा में चमके और गहरी निद्रा में सोये हुए भारत को जागृत कर गये । वे स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक एवं मानवता के उपासक थे ।