1. प्रस्तावना:

लियो टॉल्सटाय का रूसी साहित्यकारों में सर्वश्रेष्ठ स्थान इसलिए है; क्योंकि उसने अपनी लेखनी के माध्यम से तत्कालीन रूढ़िग्रस्त समाज में न केवल सत्य और ज्ञान की ज्योति फैलायी, वरन जागृति भी उत्पन्न की ।

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टॉल्सटाय यद्यपि यूनानी ईसाई सम्प्रदाय का अनुयायी था, तथापि उसने धर्म के रूढ़िग्रस्त आडम्बर से युक्त पक्ष का अन्ध समर्थन कभी नहीं किया । वह सच्चे धर्म को मानता था और लोगों को भी उसी पथ पर चलने हेतु प्रेरित किया करता था ।

2. जीवन परिचय:

टॉल्सटाय का जन्म एक यूनानी ईसाई परिवार में हुआ था । अपने माता-पिता के कहने पर वह अपने धर्म के प्रति एक अच्छी राय रखता था, किन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, वैसे-वैसे उसे ईसाई चर्च जाते समय यह प्रतीत होता था कि चर्च का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, वह तो केवल सरकार की सहायता से चलता है । वास्तव में यह तो निकम्मे, बेईमान और मूर्ख लोगों का एक झुण्ड है, जिसके पीछे धर्मभीरू लोग बिना कुछ सोचे-बूझे चलते हैं ।

आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की शान्ति के लिए है, ईश्वर के नजदीक जाने के लिए है, किन्तु चर्च जैसे धार्मिक केन्द्रों में जाकर उसे कुछ ऐसा अनुभव नहीं होता था । उसने रूसी भाषा में अनेक कहानियां लिखी थीं, जिससे उसे काफी यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि मिली थीं । उसका पारिवारिक जीवन पत्नी व बच्चों से भरपूर था ।

सभी दृष्टि से सम्पन्न होने के बाद भी उसके मन में अपने जीवन तथा ईश्वर की सत्ता के विषय में प्रश्न उठा करते थे, जैसे-मेरे जीने का क्या अर्थ है? सब लोगों का अस्तित्व क्या है? भीतर की अच्छाई और बुराई का अनुभव कैसे होता है? मृत्यु क्या है? कैसा जीवन जीना चाहिए? यह जानने के लिए वह चर्च के कट्टरपंथी धर्माचारियों के पास गया । उसे मानसिक शान्ति नहीं मिली । वह धर्म और दर्शन के गहरे जंगल में उलझता ही चला गया ।

टॉल्सटाय ने सूर्य, पृथ्वी और ग्रहों की उत्पत्ति कैसे हुई? मनुष्य और उसका जीवन वास्तव में है क्या? परमाणुओं से रचे इस संसार की गति क्या है? वह इसका उत्तर जानने जहां भी गया, उसका समाधान नहीं हो पाया । टॉल्सटाय ने जो भी साहित्य लिखा था, वह इन धार्मिक प्रश्नों के आगे दब कर रह गया था । साहित्य से हट जाने के कारण उसे मैक्सिम गोर्की जैसे साहित्यकारों के प्रश्नों का जवाब भी देना पड़ा ।

टॉल्सटाय का जीवन आत्मनिर्भरता एवं सादगी की मिसाल था । वह स्वयं अपना भोजन बनाकर खाता था । जब वह रूस के किसानों और गुलामों के शोषण को देखा, तो उसकी आखें भर आती थीं । इस पीड़ा से छुटकार दिलाने के लिए सामान्य जनता को शक्तिशाली प्रशासन से लोहा लेना होगा, टॉल्सटाय ने इसी विचार से प्रेरित होकर विलासिता का जीवन त्याग दिया और वह एक छोटी-सी कुटिया में साधुओं का-सा जीवन व्यतीत करने लगा ।

उसका सारा जीवन मजदूरों की तरह खेतों में काम करते हुए बीता । उसकी पत्नी तथा बच्चे भी टॉल्सटाय के इस जीवन में भागीदार थे । उसने दीन-दुखियों की सेवा में ही अपना जीवन समर्पित कर दिया था । टॉल्सटास ने 1856 में ग्रामीण बच्चों के लिए एक पाठशाला की स्थापना की तथा स्वयं भी वहीं पढ़ाने लगा ।

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वह चाहता था कि बच्चों के शरीर, मन और मस्तिष्क का विकास शिक्षा द्वारा किया जाना चाहिए । उसने जर्मनी, फ्रांस, स्विटजरलैण्ड, रूस आदि के चमक-दमक वाले स्कूलों का निरीक्षण करने पर यह पाया कि उन स्कूलों का पाठ्‌यक्रम जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं से दूर है, जहां की नीरस शिक्षा में बालक घुटन महसूस करता है । बच्चों के लिए पाठ्‌य पुस्तकों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए ।

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उसने शिक्षा-प्रणाली में कुछ नवीन परिवर्तन करने हेतु विदेश यात्राएं भी की । इस तरह 21 स्कूल खोले और उन स्कूलों से मासिक पत्रिका भी निकाली, जिसमें शिक्षा के नयी तरीकों और प्रचार के सम्बन्ध में लेख प्रकाशित करवाये ।

सन् 1862 में उसे स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों की वजह से देश से बाहर रहना पड़ा, तो उसके स्कूलों पर सरकार के हस्तक्षेप से वह बहुत व्यथित हुआ । युद्ध और शान्ति नामक उपन्यास की रचना में लगे रहकर उसने अपने स्कूल सम्बन्धी विचार को पुनर्जीवित किया ।

उसका स्कूल सम्बन्धी कार्य बच्चों में ऐसी शिक्षा के लिए था, जो उनका न केवल सर्वागीण विकास करे, अपितु उन्हें वास्तविक शान्ति भी दिला सके । अपने लेखों और कार्यों से उसने यह सब कर दिखाया । महात्मा गांधी ने टॉल्सटाय को अपना आदर्श माना और उन्हीं की तरह बच्चों की शिक्षा में शरीर, मन और आत्मा के विकास को महत्त्व देते हुए बुनियादी तालीम पर जोर दिया ।

देश का विकास वे टॉल्सटाय की तरह गांव से सम्भव है, यह मानते थे । एक संन्यासी की तरह जीवन बिताते हुए 82 वर्ष की आयु में टॉल्सटाय मानव सेवा, परोपकार और शिक्षा का प्रचार करने हेतु भ्रमण करता रहा । अत्यधिक ठण्ड की वजह से एक स्टेशन के छोटे से कमरे में उसका प्राणान्त हो गया ।

3. उपसंहार:

टॉल्सटाय की जीवनगाथा सभी मनुष्यों को यह प्रेरणा देती है कि मनुष्य के जीवन का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए, जिसमें सच्ची परोपकारिता एवं मानव सेवा का भाव यदि हो, तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है ।

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