स्वामी विवेकानंद पर निबंध | Essay on Swami Vivekanand in Hindi!

विश्व पटल पर देश को गरिमामय स्थान दिलाने में स्वामी विवेकानंद का नाम सदैव आदर व सम्मान से लिया जाता रहेगा । स्वामी विवेकानंद उन महापुरुषों में से एक हैं जो भारत माता तथा हमारी गरिमामय संस्कृति के उत्थान हेतु आजीवन प्रयासरत रहे ।

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उनका व्यक्तित्व व उनके महान आदर्श आज भी देशवासियों को प्रेरित करते हैं। स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 1863 ई॰ में कोलकाता महानगर में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । पिता श्री विश्वनाथ दत्त पश्चिमी सभ्यता से अत्यंत प्रभावित थे परंतु माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक आचार-विचारों वाली एक साध्वी महिला थीं ।

स्वामी विवेकानंद जी के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था । नरेंद्रनाथ अपने बचपन में अत्यंत चंचल स्वभाव के थे तथा उनका अधिकांश समय अध्ययन के बजाय खेलकूद में व्यतीत होता था । 1879 ई॰ में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्‌ध जनरल असेंबली कॉलेज में प्रवेश लिया ।

स्वामी विवेकानंद बचपन से ही अपनी माता जी के धार्मिक विचारों से अत्यंत प्रभावित थे । धीरे-धीरे उनके प्रभाव में बालक नरेंद्रनाथ के मन में आध्यात्म के प्रति आसक्ति बढ़ती ही चली गई । ईश्वर ज्ञान की परम जिज्ञासा उनके मन में हिलोरें ले रही थीं । अपनी आध्यात्मिक ज्ञान-पिपासा की शांति के लिए वे तत्कालीन महान संत रामकृष्ण परमहंस की शरण में गए ।

नरेंद्रनाथ को देखते ही गुरु रामकृष्ण परमहंस को यह ज्ञात को गया कि वह एक साधारण युवक नहीं है । उनकी विलक्षण प्रतिभा को पहचानते हुए उन्होंने नरेंद्रनाथ को मानव कल्याण के लिए तत्पर रहने का आदेश दिया । नरेंद्रनाथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस की ओजमयी वाणी व उनके दिव्य ज्ञान से अत्यंत प्रभावित हुए और कालांतर में वे परमहंस जी के परम शिष्य व उनके सच्चे अनुयायी बन गए ।

घर में पिता जी के देहान्त के बाद भी उनका घरेलू दायित्व उनकी आध्यात्म के आसक्ति को कम न कर सका । स्वामी परमहंस से उन्हें यही ज्ञान प्राप्त हुआ कि स्वयं के दु:ख से संसार के अनगिनत लोगों का दु:ख कहीं अधिक है । लोक सेवा ही मनुष्य का परम कर्तव्य है तथा मानव मात्र की सेवा ही परम धर्म है ।

गुरु परमहंस जी की सन् 1886 ई॰ में मृत्यु के पश्चात् नरेंद्रनाथ ने वेदों व शास्त्रों आदि का गहन अध्ययन किया । परम ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत उन्होंने ज्ञानोपदेश तथा धर्म का प्रचार-प्रसार का कार्य प्रारंभ कर दिया । गृहस्थ जीवन से पूर्ण सन्यास प्राप्त करने के उच्चात नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए ।

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सन् 1883 ई॰ में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ । वहाँ जाने के लिए नरेंद्रनाथ के पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी । मगर धुन के पक्के स्वामी विवेकानंद भारत के जन प्रतिनिधि के रूप में वहाँ गए । दिव्य व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ने अपने उद्‌घोषणा के प्रारंभ में जब ” मेरे प्रिय अमेरिकावासी भाइयो व बहनो ” कहा तब सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा ।

इसके पश्चात् स्वामी विवेकानंद ने विश्व के समस्त जन प्रतिनिधियों व धर्म शास्त्रियों के समक्ष अपना व्याख्यान दिया तो वहाँ बैठे समस्त व्यक्ति स्तब्ध रह गए । धर्म की जो महान व्याख्या स्वामी विवेकानंद जी ने दी तथा जिस कुशलता से उन्होंने भारत के सनातन धर्म का पक्ष रखा उसकी परिकल्पना भी किसी ने नहीं की थी । उस विख्यात विश्व धर्म सम्मेलन के उपरांत संपूर्ण पश्चिमी जगत उनके धर्मोपदेश का अनुयायी बन गया । उनकी यश व कीर्ति चारों ओर फैलने लगी ।

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विश्व धर्म सम्मेलन के उपरांत स्वामी विवेकानंद वेदांत के प्रचार-प्रसार व लोक कल्याण के लिए देश और विदेशों में भ्रमण करते रहे । कालांतर में अनेक अमेरिकी धर्म संस्थानों ने उन्हें व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया । वेदांत के प्रचार-प्रसार हेतु अमेरिका के अतिरिक्त जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों में भी नित नए संस्थान खुलते गए । भारत वापस लौटने पर उन्होंने कोलकाता में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की ।

युवा पीढ़ी के लिए उनका संदेश था:

उठो, जागो और अपने लक्ष्य से पहले मत रुको

लोक कल्याण की उनकी भावना तथा धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु उनकी व्यस्तता बढ़ती ही गई । अथक परिश्रम व निरंतर भ्रमण से उनका स्वास्थ्य गिरता गया । उनका शरीर जर्जर हो गया । 1902 ई॰ में देश की युवाशक्ति को नई चेतना प्रदान करने वाला यह महापुरुष चिर निद्रा में सो गया ।

इनके द्‌वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन आज भी देश-विदेश में जनसामान्य के बीच लोकप्रिय है क्योंकि यह संस्था मानव मात्र की सेवा के प्रति समर्पित है । लोगों के स्वास्थ्य, बच्चों की उच्च कोटि की शिक्षा, भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप का प्रचार-प्रसार आदि संस्था के प्रमुख उद्‌देश्य हैं ।

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