जयप्रकाश नारायण पर निबन्ध | Essay on Jayprakash Narayan in Hindi

1. प्रस्तावना:

लोकनायक जयप्रकाश नारायण सच्चे अर्थों में लोक, अर्थात जनता के नायक थे । वे भारतमाता के उन वीर सपूतों में से एक थे, जिन्होंने मानवीय मूल्यों और मानवता के प्रति निरन्तर संघर्ष किया । समाजवादी लोककल्याणकारी राज्य एवं समाज की कल्पना को साकार करने में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था ।

2. उनका आरम्मिक जीवन व कार्य:

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म बिहार के छपरा जिले के सिताबदियारा नामक ग्राम में दशहरे के दिन 11 अक्टूबर 1902 को हुआ था । उनके पिता श्री देवकीदयाल तथा माता फूलरानी थी । माताजी अत्यन्त धर्मपरायण व संस्कारवान महिला थीं ।

अपने 3 भाई और 3 बहिनों में जयप्रकाश चौथी सन्तान थे । कहा जाता है कि चार वर्ष तक उनके दांत नहीं निकले थे, तो माता-पिता उन्हें प्यार से बडल के नाम से पुकारने लगे थे, किन्तु जब उन्होंने बोलना शुरू किया, तो सुनने वाले दंग रह जाते थे ।

गांव में पढ़ाई समाप्त कर वे पटना आ गये । यहां से सन् 1919 अप्रैल को उन्होंने इन्ट्रेस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । 16 मई 1920 को उनका विवाह प्रभावती देवी से हो गया । बिना दहेज व सादगी से उन्होंने आदर्श विवाह किया था । इसी बीच महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित हुए । पटना में सन् 1921 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को सुना, तो कॉलेज छोड़ साबरमती आश्रम जाने की तैयारी करने लगे । वहां से बिहार विद्यापीठ चले गये ।

उन्होंने बी०एस०सी० काशी विश्वविद्यालय से इसीलिए नहीं की; क्योंकि इसमें अंग्रेज सरकार का पैसा लगता था । परिवारवालों की सहमति से वे फ्रांसिसको चले गये । विदेश में स्वावलम्बी जीवन व्यतीत करते हुए अपना अध्ययन जारी रखा । दिसम्बर में 6 माह की देरी में भी केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से रसायन इंजीनियरिंग की सेकेण्ड ईयर की परीक्षा 90 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण की । पांच-छह विद्यार्थियों के साथ रहते हुए कारखाने तथा होटल में काम किया ।

जहां अयोबा यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की । वहां से शिकागो आ गये । फिर विस्फाफिन विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर विज्ञान छोड़कर समाजशास्त्र का अध्ययन किया, जहां पर मार्क्सवादी साहित्य से प्रभावित हुए । वे रूस जाकर मार्क्सवादी चिन्तन को आगे बढ़ाना चाहते थे, किन्तु बीमारी की अवस्था में एक हजार डॉलर का खर्च उन पर आ पड़ा । ऐसे में उनकी इच्छा अधूरी रह गयी ।

ओहामो राज्य में दिन में अध्यापकीय की । 31 अगस्त 1928 को ग्रेज्युएट होने के साथ ही विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने लगे । अस्सी हजार डॉलर का वेतन प्राप्त करते हुए एम०ए० भी किया । अमेरिका में ओने के छह साल बाद वे जे०पी० के नाम से सम्मानित अध्यापक बन गये । जे०पी० ने सामाजिक परिवर्तन पर शोध प्रबन्ध भी लिखा । यहां कम्युनिस्टों के लेबर यूनियनों में भी वे भाग लेते रहे ।

पी०एच०डी० की तैयारी के बीच माता की अस्वस्थता के कारण भारत लौट आये । यहां आकर राजनीति में सक्रिय हो गये । यहां बाबू राजेन्द्र प्रसाद व नेहरूजी से मिले । 26 जनवरी 1929 को लाहौर अधिवेशन में भाग लेने सपत्नीक चले आये । नेहरूजी के आवाहन पर इलाहाबाद आ गये । मोतीलाल नेहरू ने उन्हें स्वराज्य भवन एवं भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय का कार्यभार सौंप दिया ।

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4 जनवरी 1932 तक गांधीजी के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में सक्रिय रहे । माता की मृत्यु का समाचार पाकर घर लौट आये । फिर सपत्नीक इलाहाबाद लौट आये । 3 फरवरी 1932 में उनकी पत्नी प्रभावती को देश सेवा के कारण 2 वर्ष का कारावास हुआ । इसी बीच जयप्रकाश ने कमेटी के कार्य से देश का तीन बार दौरा किया । 7 सितम्बर 1932 को सेंदुली मद्रास में उन्हें गिरफतार किया गया । अखबारों में छपा था-कांग्रेस ब्रेन अरेस्टेड ।

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इसके बाद नासिक जेल में अपने क्रान्तिकारी साथियों की लोकतान्त्रिक भावना को दृढ़ किया । 15 जनवरी 1934 को बिहार में भूकम्प की भारी तबाही को देखते ही प्रभावती देवी के साथ जेल से छूटते ही मानव सेवा में लग गये । 18 मई 1934 को अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संगठन मन्त्री नियुक्त हुए । विचारों में मतभेद होते हुए भी गांधीजी उन्हें तथा उनकी पत्नी को बहुत मानते थे ।

1938 को सुभाषजी के अध्यक्ष चुने जाने पर कांग्रेस में जो मनमुटाव हुआ, इससे वे काफी खिन्न हुए । 7 मार्च 1940 को उन्हें जमशेदपुर की जेल भेज दिया गया । यहां पर उनकी पत्नी प्रभावती के मिलने आने पर उन्हें पैर का नाप कागज में देने के एवज में हिन्दुस्तान का षड्‌यन्त्री नं० 1 कहकर आरोप लगाये गये । 33 दिन की भूख हड़ताल के बाद उन्हें नवम्बर 1930 को हजारी बाग जेल से छोड़ दिया गया ।

सन् 1942 के करो या मरो आन्दोलन में गांधीजी का साथ देने पर गिरफ्तार कर लिया गया । जहां से वे अपनी धोती की सहायता से निकल भागे । उस पर अंग्रेजों ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए 10 हजार का इनाम रखा था । साइंटिका के रोगी जयप्रकाश नारायण को दौड़ते-भागते हुए 48 घण्टे बाद खाना नसीब हुआ । यहां पर करवादिया स्टेशन पर मुजफ्फरपुर पहुंचने से पहले उन्हें पकड़ लिया गया । यहां से छूटकर वे एक रईस के वेश में दिल्ली आ पहुंचे । यहां से उन्होंने देश के क्रान्तिकारियों को कई पत्र लिखे तथा किसानों और मजदूरों के बीच रहकर काम किया ।

स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने विनोबा भावे के साथ रहकर भूमि सुधार सम्बन्धी समाजवादी कार्य किये । 19 अप्रैल 1956 को सर्वोदय आन्दोलन से जुड़ गये । दिसम्बर 1960 को बेरूत के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेते हुए शान्ति सेना बनाने का सुझाव दिया तथा वर्ल्ड पीस ब्रिगेड की घोषणा की । उत्तर रोडिशिया की स्वतन्त्रता के लिए वे पूर्वी अफ्रीका में एक मास तक भारत में रहे ।

भारत-पाक सम्बन्धों में मैत्री की सम्भावना को लेकर वे पाकिस्तान भी गये । वहां पाकिस्तान मैत्री संघ की स्थापना की । 1966 में उनके महान् कार्यों के लिए उन्हें मनीला में रैमसन पुरस्कार मिला । 1968 तथा 69 में रूस, अफगानिस्तान तथा अफ्रीका भी गये । 26 जून 1971 को बंगलादेश बनाने के पक्ष में वातावरण तैयार कर दिल्ली आये ।

सन् 1972 से उन्होंने चम्बल घाटी के 501 खतरनाक डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया । 13 अप्रैल 1973 को उनकी पत्नी प्रभावती देवी का देहावसान हो गया । 1974 में उन्होंने गुजरात तथा बिहार के छात्रों का नेतृत्व कर समर क्रान्ति की घोषणा की ।

सन् 1977 को आपातकाल का विरोध करने पर उनको जेल में भेज दिया गया । उसी समय उन्होंने जनता पार्टी की स्थापना की । ऐसे युग प्रवर्तक लोकनायक जयप्रकाश नारायण का गुर्दे की खराबी के कारण 9 अक्टूबर 1979 में निधन हो गया ।

3. चिन्तन एवं विचारधारा:

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जे०पी० समाजवादी, सर्वोदयी तथा लोकतान्त्रिक जीवन पद्धति के समर्थक थे । उनके अनुसार समाजवाद एक जीवन पद्धति है, जो मानव की स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व तथा सर्वोदय की समर्थक है । समाजवाद आर्थिक तथा सामाजिक पुनर्निमाण की पूर्ण विचारधारा है, जिसके सुनियोजित सिद्धान्त के तहत सम्पूर्ण समाज का सन्तुलित विकास होना चाहिए । विभिन्न गुणों से सम्पन्न मनुष्य को इसमें शोषण, भूखमरी तथा दरिद्रता से मुक्ति दिलानी है ।

समाजवाद के पथ में किसी तानाशाह की भूमिका उन्हें स्वीकार नहीं है । समाजवाद में भूमि कर की समाप्ति, गांवों का विकास, राष्ट्रीयकरण, भू दान, सम्पत्ति दान, ग्राम दान, आर्थिक, सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा तथा सर्वोदय शामिल हैं । लोकतन्त्र में भ्रष्टाचार के वे आलोचक थे ।

लोकतन्त्र सत्यप्रियता, कर्तव्यपरायणता, स्वतन्त्रता, समानता, उत्तरदायित्व, अहिंसापूर्ण जीवनयापन करने में है । लोकतन्त्र की सफलता के लिए सत्ता विकेन्द्रीकरण करना होगा तथा व्यक्तिगत हितों का त्याग कर सार्वजनिक हितों को महत्त्व देना होगा ।

वे संसदीय व्यवस्था को उत्तम नहीं मानते थे । राजनीतिक दलों की खर्चीली, दूषित चुनाव प्रणाली को ब्रिटिश शासन प्रणाली की तरह ही मानते थे । जहां स्थानीय मामलों में भी जनता से दूरी बनायी रखी जाती थी । वे लोकतन्त्र को दलतन्त्र मानने के खिलाफ थे । योग्य व्यक्ति ही संसद तक पहुंचे, यही उनका विचार था । इस तरह उन्होंने वैचारिक क्रान्ति का आवाहन किया ।

4. उपसंहार:

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देश में समाजवाद, सर्वोदय तथा सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना का स्वप्न साकार करने वाले जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रान्ति लाने हेतु छात्रों को 1 वर्ष तक पढ़ाई बन्द करने का आवाहन किया । उत्तर भारत में इसका प्रभाव प्रारम्भ हुआ, लेकिन सरकार की दमनपूर्ण नीति तथा जयप्रकाशजी के स्वास्थ्य की खराबी की वजह से यह सफल नहीं हो पाया । यह सत्य है कि जयप्रकाश सच्चे अर्थो में लोकनायक थे । 1942 के बाद ऐसी वैचारिक क्रान्ति लाने का श्रेय लोकनायक जयप्रकाश को ही जाता है ।

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