स्वामी श्रद्धानंद पर निबंध | Essay on Swami Shraddhanand in Hindi
1. प्रस्तावना:
स्वामी श्रद्धानन्दजी का जीवन सन्त वाल्मीकि की जीवनगाथा से उस रूप में मिलता है, जब वाल्मीकिजी की सदात्मा उन्हें डाकू से सन्त प्रवृत्ति की ओर ले आयी थी । उसी प्रकार श्रद्धानन्द, जो पहले मुंशीराम के नाम से जाने जाते थे, किन्तु चमत्कारिक परिवर्तन ने उन्हें दुरात्मा से सदात्मा बना डाला । स्वतन्त्रता तथा समाज सेवा में अपना जीवन अर्पित करने वाले इस महान् व्यक्ति को उनके गुणों के कारण ही जाना जाता रहेगा ।
2. स्वामी श्रद्धानन्दजी का जीवन परिचय:
स्वामीजी का जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को जालन्धर जिले के एक ग्राम में हुआ था । उनके पिता कोतवाल थे । अत: किसी प्रकार का आर्थिक-सामाजिक बन्धन उन पर नहीं था । सुरापान से लेकर सारे अवगुण उनमें व्याप्त थे । ठीक उसके विपरीत उनकी पत्नी शिवदेवी थी, जो सेवा, त्याग, नम्रता, उदारता और भारतीय नारी के गुणों से परिपूर्ण स्त्री थी । स्वामीजी जब भी घर लौटते, तो उन्हें गरम खाना खिलाने के बाद ही वह भोजन करती ।
एक बार देर रात श्रद्धानन्द नृत्य-संगीत की सभा से सुरापान करते हुए घर लौटे । पत्नी शिवदेवी ने न केवल उनके कपड़े बदले, वरन् उनके सेवा भाव से पैर दबाती रही । आंख खुलने पर श्रद्धानन्द ने जलती हुई आग के सामने रोटी के लिए तैयार गूंथे आटे को देखा । पत्नी सेवाचर्या करती हुई बैठे-बैठे सो चुकी थी । आंख खुली, तो श्रद्धानन्द का हृदय धिक्कार उठा- ”कितनी ही रातें इस बेचारी ने मेरे कारण भूखे बितायीं ।”
उसके बाद श्रद्धानन्द का हृदय ऐसा परिवर्तित हुआ कि वे कालान्तर में स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए । समाज सेवा, धर्म सेवा, देश सेवा यही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया । उनके कार्यों से क्षुब्ध होकर एक धर्मोन्वादी अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम ने 23 दिसम्बर 1926 को उनका वध कर दिया । स्वामीजी मरकर भी अमर हो गये।
3. उनका राजनैतिक व सामाजिक जीवन:
उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ । अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे ।
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इतने निर्भीक कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । 1922 में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया ।
स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गये । आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया । वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे । आर्यसमाजी होने के कारण उन्होंने हरिद्वार में गंगा किनारे गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना कर वैदिक शिक्षा प्रणाली को महत्व दिया ।
दलितोद्धार, शुद्धि आन्दोलन, हिन्दी भाषा शिक्षण, व्यावहारिक शिक्षा तथा राष्ट्रभक्तिपूर्ण आन्दोलन के लिए वे पहचाने जाते हैं । वैदिक भारतीय संस्कृति पर उनका विश्वास था । वे हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल देते थे । हिन्दू जाति के उद्धारक, स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक स्वामीजी जीवन में नैतिकता को प्रमुख मानते थे । हिन्दुवादी होते हुए भी सभी धर्मों के प्रति उनके मन में सम्मान भाव था ।
4. उपसंहार:
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स्वामीजी सच्चे देशभक्त होने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के गौरव के संरक्षक थे । वे दलितों का उद्धार कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ना चाहते थे । हिन्दी भाषा के प्रति उनका प्रेम ऐसा था कि दक्षिण में भी उन्होंने हिन्दी भाषा का प्रचार किया ।
वे इसे राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित स्थान दिलाना चाहते थे । उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर न था । एक दुरात्मा से महात्मा बनने तक की कहानी स्वामी श्रद्धानन्दजी का समूचा जीवन ही है । व्यक्ति चाहे, तो अपने संस्कारों से ऐसा ही महान बन सकता है ।