शिवाजी की जीवनी | Biography of Shivaji in Hindi

1. प्रस्तावना:

जिन वीरों ने अपनी असाधारण वीरता, त्याग और बलिदान से भारतभूमि को धन्य किया है, उनमें वीर शिवाजी का नाम अग्रगण्य है ।

मातृभूमि भारत की स्वतन्त्रता एवं गौरव के रक्षक वीर शिवाजी एक साहसी सैनिक, दूरदर्शी इन्सान, सतर्क व सहिष्णु देशभक्त थे । उनकी चारित्रिक श्रेष्ठता, दानशीलता के अनेक उदाहरण हमें गौरवगाथा के रूप में मिलते हैं । वे महाराष्ट्र के ही नहीं, समूची मातृभूमि के सेवक थे । वे हिन्दुत्व के नहीं, राष्ट्रीयता के पोषक रहे हैं ।

2. प्रारम्भिक जीवन:

मराठा केसरी महान् राष्ट्रभक्त वीर शिवाजी का जन्म चुनार के अन्तर्गत शिवनेरी दुर्ग में 10 अप्रैल सन् 1626 को हुआ था । उनके पिता शाहजी भोंसले-जिनकी जागीर पूना में थी-एक साहसी सैनिक, सेनानायक नीतिज्ञ एवं राज्य संचालक थे । अपने इन्हीं गुणों के कारण वे एक कृषक से शाही दरबारी से ऊंचे मनसबदार बन सके । मनसबदार होते हुए भी वे मुगलों के विरुद्ध युद्ध में संलग्न रहे ।

उनकी माता जीजाबाई एक सुशिक्षित, धर्मपरायण, दूरदर्शी व साहसी महिला थीं । अपनी शिक्षा का उपयोग उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी में संस्कार डालने में किया । वे चाहती थीं कि उनका पुत्र धीर-गम्भीर, वीर-साहसी, धर्मरक्षक और चरित्रवान बने । बचपन से जो बीज रामायण, महाभारत और गीता के माध्यम से बोये थे, वे आगे चलकर शिवाजी के चरित्र निर्माण में सहायक बने ।

उन्होंने शिवाजी की शिक्षा-दीक्षा में गुरु रामदास को नियुक्त किया, जिन्होंने शिवाजी में राष्ट्रभक्ति के आदर्श चारित्रिक गुण भरे । शिवाजी के समय में चारों तरफ मुगलों का आतंक तथा अत्याचार का वातावरण था । मुगलों ने देश की शान्ति, सुरक्षा व स्वतन्त्रता छीन ली थी । माता ने न केवल शिवा को इसका बोध कराया, वरन् इसके विरुद्ध संघर्ष करने की शिक्षा भी दी ।

दादा कोण्डके के नियन्त्रण में उन्होंने शिवा को घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी तथा युद्धकौशल की शिक्षा दी । बचपन से ही शिवाजी अपने समवयस्क साथियों के साथ सेना के संगठन, संचालन, व्यूह-रचना व आक्रमण का खेल खेला करते थे तथा उनकी समस्याओं का निपटारा भी करते थे ।

3. शिवाजी का व्यक्तित्व एवं मुगलों के साथ शिवाजी का संघर्ष:

शिवाजी का व्यक्तित्व एक सर्वगुणसम्पन्न प्रतिभाशाली व्यक्ति का है । उनमें दयालुता, सहिष्णुता, साहस, धैर्य, आत्मविश्वास, सद्व्यवहार, विवेकशीलता थी । वे अपने सद्‌गुणों से सबको प्रभावित करते थे । उनके सेनापति अधिकारी भी उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें काफी मानते थे । उन्होंने कभी विश्वासघात नहीं किया ।

शिवाजी पराक्रमी, एक चतुर राजनीतिज्ञ, योग्य सेनापति और कुशल प्रशासक थे । एक बार शिवाजी को उनके पिता शाहजी बीजापुर के सुलतान से मिलवाने ले गये थे । मातृभूमि के भक्त शिवाजी को मुगलों के दरबार में जाकर उनकी चाटुकारिता कर दुआ सलाम करना जरा भी अच्छा नहीं लगता था ।

वे पिता के आग्रह के कारण सुलतान के महल में तो पहुंचे, किन्तु अपने पिता के लाख समझाने पर भी उन्हें दुआ सलाम तक नहीं किया । उनके पिता को कहना पड़ा- ”यह दरबार के तौर-तरीकों से नावाकिफ है, सो ऐसी गुस्ताखी कर बैठा । आलमपनाह! बच्चे की नासमझी को मुआफ करें ।”

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एक बार दरबार जाते समय शिवाजी ने गौवध करने वाले कसाई को ही पीट दिया था । शाहजी शिवाजी को समझ चुके थे । उन्होंने उसे पूना भेज दिया था । यहां पूना और सूया की जागीर दादा कोंणदेव की मृत्यु के बाद शिवाजी को संभालनी पड़ी । बस फिर क्या था, किशोर वय के शिवाजी ने अपनी सैन्य शक्ति एवं उसका प्रभाव मुगलों से विरोध करने में शुरू कर दिया था ।

अपने विश्वासपात्र सैनिकों की मदद से शिवाजी ने बीजापुर के सुलतान के आधिपत्य में रहे किलों को आजाद करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी थी । जल्द ही उनका अधिकार चाकण, इंदरपुर, बारामती, कोडावन और पुरन्दर के किलो पर हो गया ।

शिवाजी की शक्ति का विस्तार जब बीजापुर के नवाब के कानों तक पहुंचा, तब उन्होंने शाहजी पर दबाव डाला कि वे उसके हथिया लिये किले वापस करवायें । शिवाजी ने इसे मानने से इनकार करते हुए सुलतान को विरोध में खत लिख दिया ।

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इधर शिवाजी का अधिकार कल्याण के किले पर हो गया । शिवाजी के कुछ सिपहसलारों ने किलेदार अहमद की अत्यन्त रूपवती पुत्रवधू को बन्दी बनाकर भेंट करना चाहा । शिवाजी ने ससम्मान उसे उसके घर तक पहुंचा आने का हुक्म दिया । इस पर अहमद ने उनकी नेकचलनी, ईमानदारी के नाम पर सिजदा किया । बीजापुर के सुलतान आदिलशाह के दरबार तक यह खबर पहुंची, तो सबने उनके चरित्र की प्रशंसा की ।

इस बीच बीजापुर का सुलतान आदिलशाह शाहजी पर लगातार उनके किले वापस करने हेतु दबाव बना रहा था, किन्तु शिवाजी ने उसे यह पत्र लिखा- ”मेरे पिता बीजापुर के मनसबदार हैं, यह जरूरी नहीं कि उनका पुत्र आपकी अधीनता स्वीकार करे ।” शिवाजी के इस उत्तर से क्रोधित होकर सुलतान ने छल-कपट से शाहजी को धोखे से बन्दी बना लिया ।

पिता-मोह में शिवाजी ने सन्धि का विचार मन में लाया था, किन्तु अपनी पत्नी के कहने पर शिवाजी ने शाहजहां को पत्र लिखकर अपने पिता शाहजी को मुक्त करवाने में सफलता प्राप्त कर ली थी । शिवाजी की सफल नीति से बीजापुर का सुलतान आदिलशाह उसका परम शत्रु बन बैठा था । ऐसे में उसने शिवाजी को मारने का षड्‌यन्त्र रच डाला था ।

इस षड्‌यन्त्र का पता शिवाजी को लग चुका था । उन्होंने अपने बचाव का तरीका भी ढूंढ़ लिया था । शिवाजी अपने बल को बढ़ाकर हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहते थे । जल्द ही उन्होंने अहमदनगर, जुन्नारगढ़ के किलों को हिन्दू साम्राज्य में मिला लिया था ।

शाहजहां की मृत्युपराज औरंगजेब अपनी विस्तारवादी साम्राज्य की नीति लेकर दक्षिण भारत आया । आदिलशाह औरंगजेब से मिलकर शिवाजी का खात्मा करना चाहता था । उनके मौत का फरमान लेकर जब अफजल खां पहुंचा, तो उसने शिवाजी को अपनी छलपूर्वक कूटनीति से उनसे गले मिलकर उन्हें मारना चाहा ।

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दूरदर्शी शिवाजी ने बघनखे ने उसका पेट चीरकर उसका काम तमाम कर डाला । अफजल खां की मृत्यु से आदिलशाह के साथ औरंगजेब के मन में भी प्रतिशोध की ज्वाला जल उठी थी । दोनों का परमशत्रु शिवाजी तो था । इसी बीच राजा जयसिंह से मिलकर उनकी सहायता से, शिवाजी को मिलने के बहाने आगरे के किले में कैद करवा दिया ।

वीर शिवाजी अपनी बुद्धिमानी से फलों की टोकरी में छिपकर कैद से बाहर आ गये । इधर अफजल खां के मरते ही शिवाजी की छिपी हुई सेना ने अफजल खां के तोपखानों, गोला-बारूद, हाथी, घोड़ों तथा दस लाख रुपयों को लूट लिया । शिवाजी की इस राजनीतिक प्रभुसता से मराठों के यश, गौरव एवं उत्साह में वृद्धि हुई ।

अफजल खां के वध एवं बीजापुर सेना की पराजय के बाद शिवाजी ने बीजापुर, कोंकण, कोल्हापुर, पन्हाला दुर्ग के आसपास भी अपना अधिकार जमा लिया था । इसी बीच अहमद शाह ने बीजापुर पर पुन: अधिकार कर लिया था । 1962-63 में शाहजी की मध्यस्थता में आदिलशाह व शिवाजी में सन्धि हो गयी ।

बीजापुर सुलतान ने शिवाजी को स्वतन्त्र शासक के रूप में स्वीकार कर लिया । शिवाजी के घोर शत्रु औरंगजेब ने शाइस्ता खां को सैनिक अभियान पर भेजा । इसमें शिवाजी की सेना की जीत हुई । जनवरी 1664 में शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण कर वहां से अपार धन-सम्पदा प्राप्त की । औरंगजेब ने शिवाजी की शक्ति का दमन करने के लिए राजा जयसिंह व उसके कुछ साथियों को अपने साथ मिला लिया था ।

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शिवाजी को पुरन्दर के किले में कैद कर लिया गया । जयसिंह की गद्दारी के कारण शिवाजी को पुरन्दर की सन्धि करनी पड़ी । शिवाजी का मुगलों से अन्त तक संघर्ष चलता रहा । सन्धियाँ और युद्ध यही शिवाजी की नियति बनी हुई थी । उनका मुगलों से पुन: संघर्ष सन् 1670 से 74 तक चलता रहा ।

16 जून 1674 को उनका राज्याभिषेक हुआ । शिवाजी ने पोण्डा, कोलाबा से मालबार तक के समुद्री तटों पर भी विजय प्राप्त की थी । इस प्रकार शिवाजी का साम्राज्य उत्तर में गुजरात, सूरत में रामनगर, दक्षिण में कारबार तक था । नासिक, पूना, सातारा, कोल्हापुर से कर्नाटक के समुद्री तट तक था ।

4. शिवाजी का शासन प्रबन्ध:

शिवाजी का शासन प्रबन्ध एक लोकतन्त्रात्मक राज्य प्रणाली का था । उन्होंने अपनी सहायता एवं परामर्श के लिए ‘अष्टप्रधान’, अर्थात् 8 मन्त्रियों की परिषद् बनायी थी, जिनमें प्रधानमन्त्री, वित्त मन्त्री, वाकियानवीस, विदेश मन्त्री, सचिव, राज्य पुरोहित, सेनापति, न्यायाधीश आदि थे । राज्य के सुधार संचालन के लिए उसे प्रान्तों, जिलों एवं परगनों में बांटा गया था । वित्त व्यवस्था के साथ-साथ भूमि कर प्रणाली का आदर्श रूप प्रचलित था ।

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लोगों से ‘चौथ’ वसूला जाता था । सरदेशमुखी कर राज्य की आय का एक बटे दस भाग होता था । सैनिक व्यवस्था अनुशासित थी, जिसमें अश्वारोही, पैदल सेना, जल सेना थी । 250 दुर्गों की रक्षा के लिए सैनिकों का कार्य विभाजन उत्तम कोटि का था । विदेशी व्यापार भी प्रचलित था । कहा जाता है कि शिवाजी के राज्य की आय एक करोड़ हूण प्रतिवर्ष थी । उन्हें 80 लाख हूण चौथ वसूली से प्राप्त होते थे ।

5. उपसंहार:

दक्षिण भारत में शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र की नींव रखने वाले सर्वशक्तिशाली शासक शिवाजी कहे जा सकते हैं । हिन्दुत्व का जो मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया, किसी ने नहीं किया । उन्हें हिन्दुओं का अन्तिम महान् राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है । उनका निर्मल चरित्र, महान् पौरुष, विलक्षण नेतृत्व, सफल शासन प्रबन्ध, संगठित प्रशासन, नियन्त्रण एवं समन्वय, धार्मिक उदारता, सहनशीलता, न्यायप्रियता सचमुच में ही अलौकिक थी ।

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