महात्मा गाँधी: महान युगपुरुष एवं दार्शनिक चिन्तक पर निबन्ध |

प्रस्तावना:

जब भी हम लोग किसी महान व्यक्तित्त्व एवं महापुरुष की बात करते महात्मा गाँधीजी का नाम स्मरण हो आता है । सम्भवत: वह आम व्यक्ति नहीं थे । समुचे राष्ट्र में ही नहीं अपितु विश्व में भी उन्हें स्मरण किया जाता है और उनकी राष्ट्र हेतु अनु को सराहा जाता है ।

चिन्तनात्मक विकास:

आज जिस भारत के खुले प्रांगण में हम चैन की साँफ हैं और सुख की नींद जो रहे हैं, तो यह गाँधीजी के ही प्रयासों का परिणाम है । उन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाई और सोने की चिड़िया कहे जाने वाले प फिर से खुले आकाश में विचरण करने का अवसर प्रदान किया ।

स्वाधीनता दिलाने में जो उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है उससे सभी परिचित हैं । ‘सत्य एवं अहिंसा’ के मार्ग पर चलते हुये उन्होंने अनेक आन्दोलन चलाये और प्राय: सफलता भी प्राप्त की, भले अनेक यातनाएँ सहनी पड़ी, जेल जाना पड़ा, भूखा रहना पड़ा, किन्तु यह अपने क से विचलित नहीं हुये अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र की जनता उनके साथ हो ली ।

वह केवल आन्दोलनकर्ता ही नहीं अपितु महान दार्शनिक भी थे । उन्होंने एक आदर्श राष्ट्र एवं समाज की स्थापना हेतु विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन ही नहीं किया अपितु अमल में भी लाये तथा जनता से भी यही अनुरोध किया कि यह भी इन्हें व्यावहारिक रूप में अपनायें तो एक आदर्श समाज की स्थापना हो सकती है ।

उपसंहार:

वस्तुत: गाँधीजी के कारण आज हमारे देश का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है । यह सत्य कि उनके विचारों में कहीं-कहीं विरोधाभास देखने को मिलता है किन्तु आवश्द गहराई से समझने की है । यह भारत को अपनी अनुपम पब अतुलनीय देन के कारण, भारतवासियों को सदैव स्मरणीय रहेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

आधुनिक भारतीय राजनीति एवं सामाजिक इतिहास में महात्मा गाँधी का योगदा अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना है, जिसके बिना भारतीय स्वाधीनता संग्राम और सामाजिक विकास की रूपरेखा सही-सही बताना जटिल होगा । यह एक विचारणीय प्रश्न है कि यदि आधुनिक भारत को बनाने में गाँधीजी की भूमिका न होती तो भारत की स्थिति क्या होती और उनके न होने का स्वतन्त्रता आन्दोलन पर क्या प्रभाव पड़ता ?

यह हो सकता था कि गाँधी के न होने पर भी भारत को कभी न कभी स्वतन्त्रता तो मिलती ही, किन्तु गाँधीजी ने स्वाधीनता आन्दोलन को जो तीव्रता और मोड़ प्रदान किया, शायद वह सम्भव नहीं हो पाता । वह गाँधीजी ही थे, जिन्होने स्वतन्त्रता को जन-जन से जोड़ उसे जन-आन्दोलन का रूप प्रदान किया ।

इसी कारण देश की जनता उनके एक इशारे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु तत्पर रहती थी और ऐसा प्राय: सभी अन्दोलनों (असहयोग, सविनय अवज्ञा, विभिन्न किसान आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन आदि) में देखने को मिला भी ।

इनका जीवन सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूपों में विभाजित होकर एक-दूसरे का पूरक था । उनका व्यवहार, उनके विचारों पर ही आधारित होता था । अपने विचारो, नेतृत्व क्षमता के कारण गाँधीजी लगभग चालीस वर्ष तक भारत की राजनीतिक, सामाजिक, तथा नैतिक चेतना के केन्द्र बिन्दु बने रहे ।

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वे मानवतावादी, धार्मिक एवं व्यावहारिक आदर्शवादी थे- भारतीय इतिहास में वे संघर्षशील, समाज सुधारक, समाजसेवी विचाष्क तथा मुक्ति रूप में प्रतिष्ठित हुये । वे प्राचीन दर्शन एवं संस्कृति को अपनी प्रेरणा तथा विचारों का जो थे ।

अपने लेखों के माध्यम से उन्होने तत्कालीन समस्याओं पर भी प्रकाश डाला । गाँधीजी के प्रति अज्ञानता की भावना तथा पाश्चात्य राजनीतिक विचारों के प्रति अत्यन्त आसकि का कड़ा विरोध किया तथा उसे दूर करने का प्रयास भी किया ।

महात्मा गाँधीजी को पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था । इनका जन्म गुर काठियावाड़ जिले में पोरबन्दर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर, 1869 ई. को हुआ । इनकी नाम पुतलीबाई और पिता का नाम करमचंद था । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अल्फ्रेड हाईस्कूल, राजकोट में हुई थी ।

13 वर्ष की ही आयु में इनका विवाह कस्तुरबा के साथ हो गया कुछ ही समय बाद उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ । 18 वर्ष की आयु में हाईस्कूल के पश्चात् उच्च शिक्षा प्राप्त करने वे भावनगर गये, लेकिन कॉलेज के अरूचिकर व्य उन्हें हताश कर दिया । अन्तत: मोहनदास जी ने वकालत की शिक्षा प्राप्त करने बम्बई से इंग्लैण्ड के लिए 5 सितम्बर, 1888 को प्रस्थान किया ।

प्रारम्भ में उन्हें इग्लैण्ड में अनेक समा सामना करना पडा । अंग्रेजी सभ्यता से सर्वथा अपरिचित होने के कारण वे उनसे समन्द नहीं कर पाते थे । इंग्लैण्ड में रहने के बावजूद मोहनदास अपनी माता को दिये गए शाकाहारी रहने के वचन का पालन करते रहे । 1891 में वे विधि के ‘बैरिस्टर’ बन वापस आये ।

इंग्लैण्ड से भारत लौटने पर उन्होंने राजकोट में वकालत की व्यावसायिर की, लेकिन इस क्षेत्र में इन्हे असफलता का मुँह देखना पड़ा । अत: गाँधीजी ने वकालत छोड़ अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर दिया । पुन: वकालत के प्रति विश्वास उत्पन्न होने पर उन्होने इसे ही अपना व्यवसाय बनाने का निश्चय किया । कुछ दिनों के बाद किसी व्यापारी मुकदमे क्ए में वे दक्षिण अफ्रीका गये ।

अफ्रीका-वास उनके जीवन को महत्वपूर्ण मोड़ देने का उपकरण बन गया । वहाँ उन्होंने जाति एवं रगभेद का नंगा नाच देखा । सफेद वर्ण वालों के रंगभेत अत्याचारों को अपनी आँखों से देखा तथा भुगता भी । इस अनुभव ने उनके जीवन तथा कार्यशैली को एक नवीन दिशा में प्रवाहित कर दिया ।

9 जनवरी, 1915 को बम्बई पहुँचने पर जनता ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें ‘महात्मा’ कहने लगे । उन्हे ‘केसर-ए-हिन्द’ का स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया गया । अ गाँधी जी ने साबरमती नदी के किनारे सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की ।

इसके साथ ही वे तत्कालीन राजनीति में भी उतर पड़े । सर्वप्रथम उनका ध्यान चम्पारन में नील की खेती करने वाले किसानों की समस्या पर गया, जिन पर यूरोपीय नील व्यापारी एवं फैक्ट्री मालिक अत्याचार कर रहे थे । गाँधीजी के प्रयास स्वरूप उन्हे इन अत्याचारों एव शोषण से मुक्ति मिली । इसके तुरन्त पश्चात् गाँधीजी ने अहमदाबाद के कपडा मिल मजदूरों की हड़ताल को अपने नेतृत्व प्रदान किया ।

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मार्च 1919 में केन्द्रीय विधानमण्डल द्वारा सभी भारतीय सदस्यों के सम्मिलित विरोध के बावजूद रौलट एक्ट पारित कर दिये जाने तथा 13 अप्रैल, 1919 अमृतसर के जालियां वाला बाग हत्याकाण्ड के पश्चात् भारत में ब्रिटिश सरकार को गाँधीजी ने ‘शैतान’ की संज्ञा दी और भारतियों से अपील की कि वे सभी सरकारी पदों से त्यागपत्र दे दें, ब्रिटिश स्कूल-कॉलेजों व आदालतों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह पंगु बना दें ।

जब में खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ, तो इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का अच्छा अवसर समझकर के नेतृत्व में कांग्रेस ने खिलाफत का समर्थन किया । जनवरी, 1920 में खिलाफत समिति की बैठक में गाँधी ने ‘असहयोग’ का प्रस्ताव पेश किया और कांग्रेस ने दिसम्बर, 1920 के नागपूर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम अपना लिया और गाँधीजी को इसे चलाने की अनुमति दे दी गयी किन्तु हिंसात्मक घटनाओं से धुब्द गाँधीजी ने 22 फरवरी, 1922 आन्दोलन स्थगित कर दिया ।

इन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर 6 वर्ष की सजा दी हालाकि 5 फरवरी, 1924 को ही उन्हें एपेण्डेसाइटिस की बीमारी के कारण रिहा कर दिया सन् 1927 में गाँधीजी ने पुन: राजनीति में हिस्सा लेना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि संवेधानिक विकास की मंद गति के कारण देश में हिंसा भड़क उठने की शंका बढ गई थी ।

दिसम्बर में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ का लक्ष्य घोषित किया । गाँधीजी के नेतृत्वो में शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कि यदि ब्रिटिश सरकार तत्काल ‘औपनिवेशिक स्वराज्य’ करने का वायदा नहीं करती है तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा का एक नया अहिंसक आन्दोलन करेगी ।

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गाँधीजी मार्च 1930 में अपने चुने हुये 78 अनुयायियो के साथ अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से समुद्र के किनारे-किनारे 200 मील की पद यात्रा पूरी करके दाण्डी और समुद्र जल से नमक बनाकर नमक कानून का उल्लंघन किया ।

इसी के साथ 8 अप्रैल से देशव्यापी सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल पड़ा । सन् 1932 के ग्रीष्मकाल तक गाँधीजी ने पुन: राष्ट्रीय आन्दोलन में दिलचस्पी दिया और हरिजन समस्या की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया तथा हिन्दुओं में फैली छुआ-छूत की भावना (अस्पृश्यता) को दूर करने का प्रयास किया ।

8 अगस्त, 1942 को उन्होंने बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान से अंग्रेजी से भारत छोडो और भारतवासियो को तत्काल सत्ता करने की मांग की । ‘भारत छोडो’ का नारा एक जन-आन्दोलन बनकर समूचे भारत मे फैल 9 अगस्त को गाँधीजी और उनकी पत्नी सहित सभी कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया 1944 को ही कस्तुरबा की जेल में मृत्यु हो गयी ।

स्वास्थ्य खराब के कारण गाँधीजी को 1944 को रिहा कर दिया गया । अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदाय के स्वार्थी नेताओं ने 1946 में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे करवा गाँधीजी साम्प्रदायिक दंगो व देश विभाजन दोनों के ही कडे विरोधी थे ।

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अत: उन्होंने समस्त में साम्प्रदायिक सौहार्द एव राष्ट्रीय एकता की भावना का महत्व समझाया किन्तु उनके प्रयास रहे और देश का विभाजन भारत और पाकिस्तान के रूप में हो गया । 15 अगस्त, 1947 को भारत ने स्वाधीनता प्राप्त कर ली । भारत और पाकिस्तान के बीच पुन: साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे ।

फलस्वरूप गाँधीजी ने वैमनस्य दूर करने के लिये अनशन आरण्य कर दिया । भारत के विज्ञापन के लिये गाँधीजी को ही उत्तरदायी मानते हुये 30 जनवरी, 1948 को एक धर्मान्ध हिन्दू गोडसे ने उन्हें दिल्ली के बिडला मंदिर में उस समय गोली मार दी, जब वे अपनी दैनिक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे ।

महापुरुष गांधीजी की मृत्यु पर सारा देश शोकाकुल हो उठा । तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरु जी ने राष्ट्र को महात्मा गाँधी का हत्या का सूचना इन दी, हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और चारों तरफ अन्धेरा छा गया है । मैं नहीं जानता कि आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ ।

हमारे प्यारे नेता राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे । गाँधी वास्तव में भारत के ‘राष्ट्रपिता’ थे । उन्होंने भारत को सदियों से दासता के अंधकार से निकाल प्रकाश की ओर पहुंचा दिया । अर्नाल्ड लान ने गाँधीजी के विषय में लिखा है जिस पीढी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन है, वरन वह भारत में गाँधी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ सकती है कि मानव इतिहास पर गाँधी का प्रष्टव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज्यादा और स्थायी होगा ।

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दार्शनिक विचारधारा की दृाष्टुइ से गाँधीजी मौलिकतावादी थे । हालांकि उनके वि आधारित पद्धति को ‘गाँधीवाद’ का नाम दे दिया गया किन्तु वह स्वयं अपने विचारों को ‘गांधीवाद’ की संज्ञा देने के पक्ष में नहीं थे । गाँधीजी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक लगते हैं, जीतने तब थे । कमी-कभी उनके विचारों में विरोधाभास भी देखने को मिलता है । गाँधीजी के दि पर व्यक्त किए गये विचार इस प्रकार हैं:

सत्याग्रह और अहिंसा:

अहिंसा के माध्यम से असत्य पर आधारित बुराई का विरे ही गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रह है । उनका मत था कि प्रत्येक व्यक्ति में सत्य अवश्य होता है । वह कोई भी बुरा कार्य भ्रमवश करता है । यदि उसे सत्य की अनुभूति कराई जाय अथवा यह अहसास कराया जाये कि वह जो कार्य कर रहा है वह अच्छा है या बुरा हे तो सम्भवत: वह असत्य के मार्ग से हट जाएगा ।

अत: असत्य को सत्य से और बुराई को भलाई के जीता जा सकता है । इनके मतानुसार सत्याग्रही के पास पर्याप्त आत्मबल और निस्बा का होना अत्यधिक आवश्यक है । साथ ही सत्याग्रही को सुख का परित्याग कर, अनेक दुख: अथवा यातनाएँ सहकर बुराई का प्रतिरोध करना पड़ सकता है ।

निष्क्रिय विरोध से उसे सफ मिल सकती । सत्याग्रही को अपना उद्‌देश्य प्राप्त करने के लिए अनेक साधनों का प्रर पड़ता है, जिसमें प्रमुख हैं: उपवास, धरना, हड़ताल, सविनय अवज्ञा, हिजरत, सामाजि बहिष्कार इत्यादि । गाँधीजी की सत्याग्रही विचारधारा अहिंसा पद्धति’ से पूर्णरूपेण सम्बंधित हैं ।

कोई बगैर अहिंसक हुये सत्याग्रही नहीं हो सकता । यहाँ केवल किसी जीव मात्र को हत्या ही, अहिंसा नहीं है । बल्कि यह एक नैतिक दृष्टि है, जो प्राणी के एकत्व पर आधारित बल से युक्त सत्याग्रही को यदि किसी की रक्षा के लिए अपना बलिदान भी करना पीछे नहीं हटता ।

गाँधीजी के मतानुसार विरोधी से भयभीत रहकर अहिंसक बने रह नहीं, बल्कि कायरता कहा जाएगा । उनका मानना था कि हमको पाप से लड़ना चा पापी से । बड़े से बडा पापी भी मनुष्य ही है, उसके भीतर भी ईश्वर अंश है ।

पापी का हद कर पाने में सफल हो पाना ही, सच्चे अर्थ में अहिंसक होना है । गाँधी का अहिंसा भार परमो धर्म: के प्राचीन भारतीय आदर्श पर आधारित है । उनके अनुसार केवल ईश्वर ही शुभ और सत्य है । ईश्वर, सत्, चित् तथा आनन्द का समन्वय है । यदि कोई व्यक्ति सापेक्ष सत्य की उप। करता है तो वह निश्चय ही ईश्वर को प्राप्त कर लेता है ।

धर्म और राजनीति:

गाँधीजी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने ‘धर्म’ को पंथ और सम् की संकीर्ण परिभाषा से बाहर निकाला । उनकी दृष्टि में धर्म का तात्पर्य केवल हिन्दू-मुस्लिम, अथवा कोई अन्य धर्म से नहीं है बल्कि धर्म तो मानव में अन्तर्निहित सत्य की अभिव्यक्ति हे ।

‘सर्वधर्म समभाव’ के सिद्धान्त के घोर पक्षपाती थे । वे सभी को इस बात का स्मरण कि किसी के भी धर्म ग्रन्ध में दूसरे अन्य धर्म की निन्दा नहीं की गई है । वे चाहते थे वि लोग अहिंसा का पालन करते हुये धार्मिक प्रवृत्ति रखें । उनकी इस धर्म सम्बंधी व्याख्या पर कर धार्मिक विद्वेष और साम्प्रदायिकता जैसी समस्या से बचा जा सकता है ।

अत: धर्म निरपेक्षता का सबसे बड़ा उदाहरण हमें गाँधीजी में ही देखने को मिलता है । गाँधीजी ही पहले ऐसे थे जिन्होंने धर्म और राजनीति का समन्वय किया । वह धर्म विहीन राजनीति को नहीं मानते थे । उनके अनुसार कोई भी धर्म अथवा नैतिकता के अनुरूप किया हुआ राजनीतिक कार्य वांछनीय है । हमें दुश्मन का भी कठिनाई के समय राजनीतिक लाभ नहीं उठाना चाहिए ।

सामाजिक समता और साम्प्रदायिकता:

गाँधीजी की सामाजिक विचारधारा समानत आधारित है । सभी ईश्वर की सन्तान हैं, अत: इस दृष्टि से सभी व्यक्ति समान हैं । उनके मतानुसार असमानता वस्तुत: मनुष्य द्वारा निर्मित की गई है । यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति जाति, सम्प्रदाय, वंश, लिंग अथवा आयु के आधार पर भेदभाव करता है तो वह ईश्वर हुए नियमों का उल्लंघन करता है ।

वे ऐसे आदर्श समाज की स्थापना की कल्पना करते ऊँच-नीच की भावना न हो । उनके मतानुसार राजनीति नैतिकता पर आधारित होनी चा राजनीति धर्म द्वारा ही मर्यादित एवं नियन्त्रित होती है, इसलिए राजनीति और धर्म दो अलग-अलग विचारधाराये कतई नहीं हैं । धर्म विहीन राजनीति की कल्पना बेमानी है । किन्तु का अर्थ संकीर्ण धार्मिक विचारधारा से नहीं है । अपितु सभी का ईश्वर एक है, इसलिए अर्थ में सभी का धर्म भी एक ही होना चाहिए ।

अत: जब समाज में इसी तरह की भावना सभी लोगों में व्याप्त हो जाएगी, तभी समानता की स्थिति पैदा होगी । उन्होंने कड़े शब्दों में साम्य का विरोध किया और इस दुर्भावना का कड़े शब्दों में विरोध कर इसे दूर करने का किया । वे सभी जाति एवं धर्म के लोगों में प्रेम एवं सौहार्दपूर्ण सम्बंध देखना चाहते थे । उन्होने धर्म के शाश्वत मूल्यों के आधार पर एकता की बात की ।

अस्पृश्यता और अछूतोद्वार:

गाँधीजी छुआ-छूत को समाज की प्रगति में बाधक वर्ण व्यवस्था में उनका विश्वास था क्योंकि इस पद्धति में व्यक्ति को उसकी रुचि एवं योग्यतानुसार काम मिलता था । रुचि और योग्यता के आधार पर कार्य का बंटवारा ही गाँधांजी का सिद्धान्त था । यह कोई आवश्यक नहीं कि निकृष्ट कार्य करने वाले व्यक्ति का पुत्र भी निकृष्ट कार्य ही करे ।

यदि उसमें उच्च योग्यता है और वह डॉक्टर या इंजीनियर बनने की लालसा उसे अवसर अवश्य मिलना चाहिए । यदि ऐसा न हुआ तो हमारा समाज उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो पायेगा । गाँधीजी का मत था कि जब तक छुआ-छूत की भावना को जड़ से नहीं मिटाया जा सकता तब तक समाज प्रगति नहीं कर सकता ।

अत: अछूतोद्धार हेतु अनेक क्रांतिकारी कदम उठाये । इसीलिए उन्होंने सबसे पहले अपने साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में काम किया तथा ‘हरिजन’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया । गाँधीजी के अनुसार जो भी मनुष्य अपने जैसे दूसरे मनुष्य के कामों को निवृ उसे नीच समझेगा, तो वह जघन्य अपराध एवं पाप का भागीदार होगा । इस कार्य में भीमराव अम्बेडकर जैसे नेताओं का सक्रिय सहयोग मिला ।

गाँधीजी के प्रयासों हरिजनों के मदिरों में प्रवेश पर लगाई गई रोक धीरे-धीरे हटने लगी और आज ल रूप से समाप्त हो चुकी है । इस दृष्टि से उनका रामराज्य और सर्वोदय का सिद्ध समभाव’ और ‘सर्व जन हिताय’ पर आधारित है, जिसमें समाज के सभी लोगों को बराबरी का अधिकार प्राप्त है ।

सर्वोदय:

सर्वोदय शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- सर्वस्उदय । सर्व अर्थात् उदय यानी उत्थान । इसका तात्पर्य हुआ ‘सभी का उत्थान’ । गाँधीजी का सा सामान्यत: व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधारित है । जिसमें समूची मानव जाति के कल्याण की भावना अन्तर्निहित है ।

यह सिद्धान्त गाँधी का प्रजातान्त्रिक पद्धति की लीक से हटकर सर्वोदय समाज की प्रकृति आध्यात्मिक है, जिसमें धर्म समाज का मार्गदर्शन किया जाता है । गाँधीजी की दृष्टि से धर्म का तात्पर्य परम्परागत धर्म से नहीं वरन् व्यक्ति के उचित कर्त इस प्रकार सर्वोदय समाज में सभी व्यक्ति आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों से संचालित वास्तव में इसी भावना के भीतर ही समाज के सबसे निचले वर्ग के उत्थान कई है ।

राम राज्य तथा ग्राम स्वराज्य:

गाँधीजी की सबसे महत्वपूर्ण परिकल्पना सम्भवत: ‘राम राज्य’ की परिकल्पना थी । उनके मतानुसार यदि सर्वोदय के सिद्धान्त का पालन कि ? राज्य स्वत: ही स्थापित हो जाएगा और दण्ड विधान करने वाली राजनीतिक सत्ता ही समाप्त हो जाएगी ।

गाँधीजी जानते थे कि समाज में अहिंसा पूर्ण रूप से समाए इसीलिए राज्य के विरुद्ध होते हुये भी उन्होंने स्वराज्य की बात की थी विकेन्द्रीयकरण इस प्रकार से हो कि उसमें राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्र इस प्रकार राज्य विहीन समाज की स्थापना हो सकती है, किन्तु साथ ही वह कि वास्तव में ऐसे आदर्श समाज की स्थापना नहीं हो सकती, लेकिन उसके का प्रयास तो किया ही जा सकता है ।

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स्त्री-पुरुष समानता:

भारतीय समाज में सदा से ही स्त्री एव पुरुष के मध्य असमानता विद्दामान रही है । गाँधीजी जानते थे कि स्त्री-पुरुष के बीच इस भेद-भाव का प्रमाण धार्मिक अथवा दार्शनिक ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता । गाँधीजी से पूर्व राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र ज्योतिबा फुले आदि सुधारक स्त्रियों की दशा सुधारने में अतुलनीय सफल प्र गाँधीजी ने इन्हीं का समर्थन करते हुये स्त्री-पुरुष को बराबरी का स्थान दि द्वारा स्त्री को अबला माने जाने का विरोध किया । स्त्री दशा सुधारने के लिए चट हर क्षेत्र में उसकी भागीदारी को अत्यावश्यक माना । उनका मत था कि स्त्री भी वह सब कुछ कार्य कर सकती है जो पुरुष कर सकते हैं ।

आर्थिक दृष्टिकोण:

भारतीय जनजीवन व भारतीय अर्थव्यवस्था को गाँधीजी ने से जाना था । उनके आर्थिक विचार भी सत्य एवं अहिंसा पर ही आधारित थे । उनके अनुसार आय का वितरण, समाज के सभी लोगों में समान रूप से होना चाहिए । गाँधीजी के आर्थिक विचारों का आधार विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त भी है । पंचायती राज प्रणाली इसी विचार ब प्राय: यह भी माना जाता है कि वह आधुनिक मशीनों के विरुद्ध थे, क्योंकि इनसे हानि होती है ।

खादी एवं कुटीर उद्योग:

गाँधीजी ने भारतीय जनता को खादी पहनने के किया तथा विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के लिए कहा । चरखे का सम्बंध उस खादी से बुना तथा तैयार किया हुआ कपड़ा होता है । खादी का उददेश्य भारत के प्रत्येक गाओं को वस्त्र आदि के सम्बंध में पूर्णरूप से आत्मनिर्भर बनाना था । चरखे के माध्यम से उद्यागो को पुनर्जीवित करना चाहते थे क्योंकि यह बेरोजगारी दूर करता है ।

ट्रस्टीशिप अथवा न्यासिता सिद्धान्त:

गाँधीजी के इस सिद्धान्त के अनुसार जो कुछ भी प्रकृति प्रदत्त अथवा अर्जित रूप में उपलब्ध है, वह किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति नहीं है, उस पर सभी लोगों का समान अधिकार है । वस्तुत: उनते उन लोगो पर लागू होता है जिसके पास आवश्यकता से अधिक धन-सम्पत्ति है ।

चूंकि आधिक धन बुराई का भी स्रोत होता है, इसलिए धनवान को चाहिए कि वह अपने अधिशेप लोगो में बाँट दें जिनके पास रोजी-रोटी के लिए भी पैसे नहीं हैं । गाँधीजी अनर्जित आए एवं उत्तराधिकारी व्यवस्था के कारण फलने-फूलने वाली तथाकथित अमीरी को रोक; सम्पत्ति पर राज्य का नियन्त्रण स्थापित किये जाने का समर्थन करते थे ।

शिक्षा एवं आधारभूत शिक्षा:

गाँधीजी के मतानुसार शिक्षा स्वय को पहचान गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का अर्थ मात्र साक्षर होना ही नहीं था, अपितु शिष्ट शरीर और आत्मा का चहुँमुखी विकास मानते थे । गाँधीजी बुनियादी शिक्षा के पक्षधर थे बुनियादी शिक्षा कार्यक्रम में पूर्ण प्राथमिक, माध्यमिक और विश्वविद्यालय स्तर तथा प्रौढ़ शिक्षा को सम्मिलित किया गया था, जिसे वर्तमान समय मे अनौपचारिक शिक्षा भी कहा मतानुसार शिक्षा मातृभाषा में हो, 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए, शिक्षा यथार्थ जीवन पर आधारित हों, शिक्षा में हस्तकला को महत्त्व दिया जाय, स्त्रियों को पुरुषो के समान शिक्षा दी जाए तथा ऐसी शिक्षा की व्यवस्था की जाये जो रोजगार की गारंटी दे ।

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शिक्षा ऐसी हो जो बच्चों में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यो का विका इतिहासविद हुमायूँ कबीर गाँधीजी के बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्त की प्रशंसा करते हुये कहते हैं, कि ”गाँधी की नयी शिक्षा प्रणाली महानतम है, क्योंकि यह नागरिको को एवं प्रतिष्ठा करने में सहायक है तथा सहयोग, प्रेम एवं सत्य के आधार पर एक साथ रहने की बात कहती है ।”

स्वतन्त्रता बनाम राजनीतिक स्वतन्त्रता:

गाँधीजी का स्वतन्त्रता सम्बधी सिद्धान्त नैतिकता पर आधारित है । जिसमें पहली आवश्यकता कर्तव्यों के निर्वाह की है । वह स्वतंत्रता स्वच्छंदता से कदापि नहीं लेते । उनके शब्दो में कर्तव्यों का निर्वाह तभी सम्भव है जब मनुष्य को अपनी आत्मिक एवं दैवीय शक्तियों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिले ।

जब व्यक्ति पर मानव निर्मित बंधन थोप दिये जाते हैं तब उसकी स्वतन्त्रता का हनन होता है । गांधीजी का मानना था कि सामाजिक स्वतन्त्रता एवं राजनैतिक स्वतन्त्रता, दोनों एक-दूसरे से भिन्न भी हो सकती हैं और पूरक भी केवल राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करना ही व्यक्ति का लक्ष्य नहीं होना चाहिए ।

सामाजिक समानता की प्रक्रिया राजनैतिक स्वतन्त्रता की प्रक्रिया से पूर्व आरम्भ कर चूंकि हमें एक राष्ट्र बनाना है और सभी प्रकार के आन्दोलनों के लिए अहिंसा का सहारा लेना चाहिए । उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि गाँधी वास्तव में ही युगपुरुष एवं महान आत्मा के व्यक्ति थे ।

देश को स्वतन्त्र कराने में ‘सत्य एवं अहिंसा’ का जो शस्त्र उन्होंने इस्तेमाल किया वह किसी और के बस की बात नहीं थी । अब ऐसा महान व्यक्तित्व का पुरुष सृष्टि हो ऐसा नहीं हो सकता । गाँधीजी न तो कोई बन सकता है और न ही बन सकेगा आदर्शो राष्ट्र एवं विचारों को वास्तविक रूप में अमल में लाया जाये तो शायद एक आर समाज की स्थापना हो सकती है ।