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स्वामी विवेकानन्द पर निबंध | Essay on Swami Vivekanand in Hindi!

भारत वर्ष में नवजागरण का शंखनाद करने वाले महापुरुषों में स्वामी विवेकानन्द का अद्वितीय स्थान है । स्वामी जी का जन्म 1863 ईस्वी में हुआ । उनका जन्म नाम नरेन्द्रनाथ था ।

स्वामी जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और उच्च विचार सम्पन्न थे । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई । सन् 1884 ई॰ में उन्होने स्नातक की परीक्षा पास की । उनकी माता इन्हें वकील बनाना चाहती थी । परन्तु स्वामी विवेकानन्द के भीतर एक आध्यात्मिक भूख उत्पत्र हो चुकी थी, जिसे शान्त करन के लिए वे अधिकांश समय साधु-सन्तों की संगति में व्यतीत करते थे ।

परन्तु उन्हें ऐसा कोई आध्यात्मिक गुरू नहीं मिला, जिससे वह दीक्षा प्राप्त कर सकें । वे सत्य की खोज में निरन्तर भटकते रहे, परन्तु उन्हें शान्ति नहीं मिली । अन्त में वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए । उन्होंने स्वामीजी के सामने अपनी शंकाएं रखीं । ईश्वर के अस्तित्व और रहस्य को जानने की उनके मन में प्रबल इच्छा थी ।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस की सरलता, सादगी और दृढ़ आत्मविश्वास, तत्व ज्ञान और वाणी में बिजली की सी अद्‌भुत शक्ति ने विवेकानन्द को परमहंस का परम भक्त बना दिया । स्वामी जी से उन्होंने आध्यात्म और वेदान्त का ज्ञान प्राप्त किया ।

स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व बड़ा विलक्षण था । उनके चेहरे पर अद्वितीय आभा थी । वे अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित थे । भारतीय धर्म और दर्शन का उन्हें अच्छा ज्ञान था । स्वामी विवेकानन्द ने कई वर्षों तक हिमालय के क्षेत्र में कठोर तपस्या की । वहाँ उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा ।

कई बार उनका सामना उन असुरों से हुआ तो कई बार भयंकर ठण्ड में नंगे बदन रहना पड़ा । परन्तु स्वामी विवेकानन्द की निष्ठा और आध्यात्मिक शक्ति ने उन्हें विचलित नहीं होने दिया । वे वर्षों तक उनके महात्माओं के संसर्ग में रहे । इसके पश्चात् उन्होंने देश का भ्रमण किया और उनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ने लगी ।

सन् 1893 ईस्वी में वे अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए शिकागो पहुँचे । धन की कमी के कारण उन्हें वहाँ अनेक कष्ट उठाने पड़े । स्वामी जी के पाण्डित्य पूर्ण ओजस्वी और धारा प्रवाह भाषण ने वहाँ जनता को मन्त्रमुग्ध कर दिया । विवेकानन्द की विद्वता का जादू पश्चिमी लोगों के सिर चढ़कर बोला । उन्हें अनेक विश्वविद्यालयों से निमन्त्रण आए, अनेक पादरियों और बड़े-बड़े धर्मगुरूओं ने चर्च में बुलाकर भाषण कराए ।

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लोग उनके भाषण सुनने के लिए घण्टों पूर्व निश्चित स्थल पर पहुँच जाते थे । लगभग तीन वर्ष तक अमेरिका में रहकर वेदान्त का प्रचार करते रहे । इसके पश्चात् वे इंग्लैण्ड चले गए । स्वामी जी का सिक्का तो पहले ही बैठचुका था । अब तो उनके अनुयायियों का संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी ।

उन्हें अनेक व्यापारी, प्रोफेसर, वकील और राजनैतिक नेता उनके शिष्य बन गए । वे लगभग एक साल तक इंग्लैण्ड में रहे । लगभग चार वर्ष के बाद स्वामी जी 16 सितम्बर 1886 को स्वेदश के लिए रवाना हो गए । रत पहुँचने पर स्थान-स्थान पर उनका भव्य स्वागत हुआ । उन्होंने लगभग सम्पूर्ण भारत का दौरा किया । लाहौर, राजपुताना, सियालपुर सभी स्थानों पर उन्होंने प्रवचन किए । इसी बीच उन्होंने दो मठों की स्थाना की ।

स्वामीजी मानव को ही ईश्वर सेवा समझते थे । उन्होंने देशवासियों में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए एक ज्योति जलाई । 1857 में भयंकर प्लेग की महामारी फूट पड़ी । स्वामी जी ने दीन-दुखियों की सेवा के लिए अनेक साधु-सन्तों की अनेक मंडलियाँ गठित कीं ।

मुर्शिदाबाद, ढाका, कलकत्ता, मद्रास आदि अनेक स्थानों पर सेवा आश्रम खोले । उन्होंने अपने प्रवचनों से लोगों में आत्मविश्वास, देश प्रेम, भाईचारे, मानव सेवा और अस्पृश्यता का संदेश दिया । अत्यधित्क परिश्रम करने के कारण स्वामी जी का स्वास्थ्य बहुत् गिर गया । वे बीमार रहने लगे । परन्तु तब भी उन्होंने समाधि लगाना नहीं छोड़ा ।

4 जुलाई 1902 को स्वामी जी का देहावसान हुआ । यद्यापि आज स्वामी जी हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु इनका जीवन एक प्रकाश स्तम्भ की तरह आज भी हमारा मार्ग दर्शन कर रहा है । उनके द्वारा स्थापित रामकृष्णन मिशन संस्था की अदक शाखाएँ आज भी वेदान्त का प्रचार-प्रसार कर रही हैं और मानव सेवा में जुटी हैं ।