मदनमोहन मालवीय पर निबन्ध | Essay on Madanmohan Malavya in Hindi
1. प्रस्तावना:
महामना की उपाधि से विभूषित मदनमोहन मालवीयजी का चरित्र अपने आदर्शों के कारण सबको यह निश्चय ही प्रेरणा देता रहेगा कि मधुर वाणी, देश एवं मानव सेवा की भावना से व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है ।
मात्र दस या बारह वर्ष की अवस्था में इलाहाबाद की गली में पड़े घायल कुत्ते को डॉ० के पास उपचार के लिए ले जाने वाले अतिसंवेदनशील बालक का नाम मदनमोहन मालवीय ही था । आजन्म साधारण-सा जीवन व्यतीत करते हुए सार्वजनिक सेवा का प्रण लेने वाले इस महामना का जीवन समस्त राष्ट्र के लिए पूज्य एवं श्रद्धेय है ।
2. जन्म एवं शिक्षा-दीक्षा:
इलाहाबाद में सन् 1881 में जन्मे मालवीयजी का बाल्यकाल और शालेय जीवन परिश्रम के साथ गुजरा । उनके पिता ब्रजनाथ मिश्र कथा बांचने का कार्य करते थे । यद्यपि घर पर आर्थिक तंगी बनी रहती थी, तथापि ऐसे वातावरण में उन्होंने बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की ।
तत्पश्चात् गवर्नमेन्ट स्कूल में अध्यापकीय की । इसके बाद वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की । देश सेवा एवं समाज सेवा की भावना ने उन्हें हिन्दुस्तान के सम्पादन हेतु प्रेरित किया । हिन्दुस्तान में अपने ओजपूर्ण क्रान्तिकारी लेखों से जनता में जागृति पैदा की ।
वकालत से प्राप्त आय को मानव सेवा एवं देश सेवा में खर्च किया । गरीबों से उन्होंने कभी फीस तक नहीं ली । मालवीयजी ने इलाहाबाद से इण्डियन ओपिनियन पत्रिका का तथा अभ्युदय का सम्पादन भी किया । उनका कहना था कि देश में थोड़े- से लोगों के अभ्युदय से काम नहीं चलेगा । सभी मनुष्यों को धर्मसम्मत सुख व स्थायी सुख प्राप्त हो, वही उनका अभ्युदय है ।
3. मालवीयजी के महान् कार्य एवं राष्ट्रभक्ति:
मालवीयजी देशभक्त, मानव भक्त और समाजसुधारक भी थे । वे अभ्युदय के माध्यम से मानवीय जागरण एवं चेतना का प्रचार कर मूलत: मानव व देशसेवा करना चाहते थे । वे गरीब विद्यार्थियों की फीस अदा कर दिया करते थे, तो हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए घर-घर जाकर चन्दा मांगने में तनिक संकोच नहीं करते थे ।
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विश्वविद्यालय के कतिपय छात्र उनसे आर्थिक सहायता प्राप्त कर उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सफल होते थे । मालवीयजी विद्यार्थियों को राष्ट्रभक्ति के मूल तत्त्वों को जानने के साथ-साथ विषय भोगों से दूर रहने तथा खेलकूद व विद्योपार्जन में समय व्यतीत करने की प्रेरणा भी देते थे । मालवीयजी उन लोगों में से थे, जो सरकार की खुशामद में नहीं, बल्कि दिन-भर कष्ट सहकर और हानियां उठाकर देश सेवा में मगन रहते थे ।
वे कहा करते थे कि जब देश में इसी सेवा की भावना होगी, तो राष्ट्रीयता का भाव सर्वव्याप्त होगा । देशभक्ति व्यक्ति का कर्तव्य नहीं, धर्म है । मालवीयजी देश की संस्कृति के रक्षक थे । अत: वे सनातन धर्मो के आदर्शो पर भी विश्वास करते थे ।
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उनकी परोपकारिता एवं उदारता के कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनमें कई भटके हुए विद्यार्थियों को उन्होंने सही रास्ता दिखाया । अछूतों के प्रति उनमें सम्मान एवं सहानुभूति का भाव था । धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में काम करते हुए मालवीयजी ने हिन्दू विश्वविद्यालय के भीतर विशाल शिव मन्दिर की स्थापना भी की ।
4. उपसंहार:
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मालवीयजी अजातशत्रु थे । 50-60 वर्षों तक धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्रों मे कार्य करते हुए भी उनका कभी किसी से मनमुटाव, द्वेष एवं वैर भाव नहीं हुआ । सबको सम्मान देने वाले मालवीयजी का चरित्र एवं स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि सी०एफ० एन्ड्रज ने उनके बारे में कहा था- ”जो लोग उनके सम्पर्क में आये, उन्होंने उनको अति सौम्य एवं आकर्षक ही पाया ।
कोई भी व्यक्ति उनके जैसा हिन्दुओं में प्रिय नहीं था । यहां तक कि महात्मा गांधी भी नहीं । उनका चरित्र सभी को यही प्रेरणा देता है कि विचार और व्यवहार में भिन्नता नहीं होनी चाहिए । मानवता की सच्ची सेवा ही जीवन की सार्थकता है ।” ऐसे महामना का स्वर्गारोहण 12 नवम्बर 1946 को काशी में तब हुआ, जब असंख्य श्रद्धालुओं ने जुलूस निकालकर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट किया ।