Here is an essay on ‘Realism’ in Hindi language!
यथार्थवाद मानव मस्तिष्क के उस चिन्तन का प्रतीक है, जिसके द्वारा वह दृश्य जगत को साक्षात रूप में देखने के बाद जो व्याख्या करता है, उस दृश्य जगत को विकसित करने में उन अदृश्य घटनाओं को भी पृष्ठभूमि में रखता है । यह अदृश्य घटनाएं दृष्टिगत होने वाली घटनाओं का आधार होती हैं ।
वर्तमान में दिखाई देने वाला कोई दृश्य ऐसे ही विकसित नहीं होता, बल्कि वह अपने पीछे विकास का एक लम्बा इतिहास रखता है । मानव यह भी कल्पना करता है कि भविष्य में वह दृश्य कैसा रूप ले सकता है । अत: यथार्थवाद मानव की स्वतन्त्र सोच का परिणाम होती है ।
यह प्रत्यक्षवाद व आदर्शवाद से भिन्नता रखता है । इसकी दार्शनिकता उन तथ्यों का विश्लेषण करती है जो स्वयं बोलते हैं, व तर्कसंगत एवं प्रेरक (आगमनात्मक) होते हैं । यह प्रत्यक्षवाद के काफी समीप है । प्रत्यक्षवाद जहाँ एक ओर आनुभविक प्रश्नों का हल यथार्थता के आधार पा देता है, वहीं यथार्थवाद प्रत्यक्ष दृश्यों को उनकी अप्रत्यक्षता के आधार पर देखता है । यथार्थ वही है, जो प्रत्यक्ष में दिखता है, जिसमें अप्रत्यक्षता छिपी रहती है । आज जो रूप सामने है, संभव है वह कुछ समय पश्चात अस्तित्व न रख पाए ।
यथार्थवाद भौगोलिक स्पष्टीकरण में सिद्धान्तों व प्रतिरूपों के उपयोग का प्रचार करता है । यह मानव चिन्तन को तर्कसंगत विचारों पर आधारित आनुभविक चित्रण मानता है । यह उन तथ्यों का भी चित्रण करता है, जो सामने न दिखाई देकर उसकी पृष्ठभूमि में छिपी होती है ।
इसी के कारण ही उसकी वर्तमान संरचना का वास्तविक रूप देखने में आता है । उदाहरणस्वरूप यदि हम गेहूं के खेत को देखते हैं, तो वहां गेहूँ का इस दृश्य को उदित होने में किन परिस्थितियों का योगदान रहा, यह बात उसमें अंतर्निहित होती है ।
गेहूं की खेती वहीं पर अचानक ही नहीं होने लगी, बल्कि मानव चिन्तन ने उसको यथार्थता प्रदान की । मानव के मस्तिष्क में यह बात भी रहती कि वह भविष्य में उस कृषि भूमि का और भी अच्छी तरह से किस प्रकार उपयोग कर सकता है । यथार्थवाद की विचारधारा इन अव्यक्त संभावनाओं को भी सामने रखने का प्रयास करती है ।
प्लेटो (Plato) ने विचारों के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए बताया । कि जो भी बाह्य स्वरूप हम देखते, सूघंते, स्पर्श करते हैं, अर्थात इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं । उन्हें इंद्रियों (Senses) द्वारा सही-सही जानना, पहचानना सम्भव नहीं है, क्योंकि वे वास्तविक नहीं है । जो इस समय दृष्टिगत है, वह कुछ समय के पश्चात अदृश्य हो जायेगा ।
उदाहरण के लिए, महानगरों की सड़कों पर ट्रेफिक की भीड़भाड़ विशेष समय पर दृष्टिगत होती है, लेकिन कुछ समय के बाद वही सड़कें ट्रेफिक शून्य हो जाती हैं । नगर का व्यापारिक क्षेत्र दिन में गतिशील रहता है और रात्रि में मृतप्राय हो जाता है । यही उस क्षेत्र की यथार्थता है । वह इस भीड़ के रूप का ज्ञान अपनी इन्द्रियों द्वारा करता है, जिसका रूप कुछ समय बाद स्थिर नहीं है ।
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अरस्तु (Aristotle) की मान्यता थी कि यथार्थता वह है जिसे आप स्वयं देख रहे हैं, जिसका आप अनुभव कर रहे हैं व उसे पहचान रहे है । ऐसे यथार्थवाद को साक्षात अथवा सहज यथार्थवाद (Direct or Naive Realism) की संज्ञा दी जाती है । हम उस वस्तु या दृश्य को महत्व नहीं देते, जिसका काम व समय के अनुसार कोई अस्तित्व नहीं हो ।
जैसा हम देखते हैं, अनुभव करते है वही यथार्थता है । नदियों के जल का उपयोग पीने, सिंचाई करने, जल विद्युत बनाने, मत्स्यपालन करने में किया जा रहा है, तो यह दृश्य वास्तविकता की ओर संकेत करता है । जैसा दृश्य हमारे सामने दे, हम उसे पहचान रहे है ।
इसके लिए किसी अदृश्य तत्व की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है । इस विचारधारा का विकास 19वीं शताब्दी में हुआ । यह आदर्शवाद के विपरीत सोख है । कुक विलसन (Cook Wilson) ने इस चिन्तन को प्रतिपादित किया । उसने किसी भी जगत दृश्य को समस्यायुक्त नहीं माना ।
सहज यथार्थवाद यह भी बताता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे समय और स्थान के संदर्भ में नहीं देखा जा सकता हो । हर दृष्टिगत वस्तु यथार्थता है। किस प्रकार उसकी रचना हुई है यह मानव मस्तिष्क के भौतिक जगत व समाज के मध्य अन्तर्क्रिया का परिणाम है । सहज यथार्थवाद का भूगोल पर प्रभाव देखने में आता है ।
भूगोल उन सब तथ्यों, घटनाओं व दृश्यों के बारे में बताने का प्रयास करता है, जो समय विशेष पर अस्तित्व में दिखाई पड़ते है । जैसा हल देखते हैं वैसा ही हम बताने का प्रयास करते हैं । उनसे होने वालें परिवर्तनों की तस्वीर भी हमारे मस्तिष्क में होती है, लेकिन ऐसे दृश्य जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, जो समय के साथ समस्या जनित हो सकते है, का कोई महत्व नहीं होता ।
दृश्यों की यथार्थता समाज को सुधारने वे क्षेत्र के विकास को बनाये रखने में होती है। यथार्थ एक सहज निष्कपट दृश्य जगत है । संकल्पना को आधार मानते हुये डडले स्टाम्प ने ब्रिटेन के भूमि उपयोग का सर्वेक्षण किया । उसके सदुपयोग व दुरूपयोग पर प्रकाश डाला तथा भूमि के दुरुपयोग को रोकने के लिए जो सुझाव दिये उससे भूमि की उत्पादकता बड़ी, लोगों को रोजगार मिला ।
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इससे भूगोल में इस बात को बल मिला कि दृश्य जगत का जो वास्तविक रूप सामने है उसे स्वीकार किया जाये और उसमें उस सोच को शामिल किया जाये, जिसके द्वारा उसे समाज के हित में प्रयोग किया जा सके । इस विचारधारा को 60 के दशक में भूगोल में मात्रात्मक क्रांति का नाम दिया गया । क्रांति का यह कदम दार्शानिक प्रत्ययवाद की ओर बढ़ा एक कदम माना गया ।
यथार्थवाद का नया रूप:
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1970 के बाद यथार्थवाद ने नवीन रूप लिया है । इसको नवीन या आलोचनात्मक यथार्थता (New or Critical Realism) का नाम दिया गया । जिसकी नींव टी॰पी॰ (T. P. Nunn) ने रखी । इस संकल्पना का मार यह है कि कोई भी वस्तु या दृश्य जिसका हम अनुभव करते हैं, उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसका अनुभव किया जाये ।
यह अनुभव ही यथार्थ है । हमारा उद्देश्य प्राकृतिक जगत के वास्तविक लक्षणों को पहचानना है । इसके बारे में प्रत्येक ज्ञान हमारे अभिमत (Perception) पर आधारित होता है । वह कभी भी इस प्राकृतिक जगत के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है । परन्तु अपनी इन्द्रियों (Senses) द्वारा वह उनके बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
जैसे समुद्री जल की उपस्थिति इस बात को बताती है कि वहाँ जल है, लेकिन वह खारा है, या कितना खास है, यह ज्ञान वह अपने चेतनता, इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त करता है । इस चिन्तन ने वैज्ञानिक यथार्थता (Scientific Realism) को विकसित किया । यह दृश्य जगत की वर्तमान रूप में उपस्थिति के उन कारकों की खोज करता है, जिनके कारण वह आज विद्यमान है ।
उदाहरणत: मिट्टी की विशिष्टता की व्याख्या मूल चट्टानों व जलवायु दशाओं के संदर्भ में करना वैज्ञानिक यथार्थता है । इसमें यह बात निहित है कि मिट्टी का वर्तमान स्वरूप, उस पर एक लम्बे समय तक प्रभाव डालने वाली प्राकृतिक शक्तियों की दशाओं का प्रतिबिम्ब है ।
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इसी प्रकार बांगर मिट्टी की उपस्थिति इस बात का एहसास कराती है, कि वहाँ कभी नदी प्रवाहित होती थी । अत: बांगर मिट्टी की व्याख्या में यह सभी अनदेखे (बीते हुये) दृश्य शामिल रहते हैं । स्पष्ट है कि यश दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि जैसा हम अनुभव करते हैं, या देखते है, वही यथार्थता है ।
प्रत्यक्षवाद एवं यथार्थवाद में अन्तर:
1. प्रत्यक्षवादी यह प्रश्न करते है कि किस प्रकार बाह्य प्रतिरूप स्थापित होता है, जबकि यथार्थवादी क्यों का प्रश्न करते है ? अर्थात प्रतिरूप किन कारणों से स्थापित होता है ।
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2. प्रत्यक्षवादी नियमितता की व्याख्या तार्किक अनिवार्यता से करता है, जबकि यथार्थवादी यह व्याख्या प्राकृतिक अनिवार्यता के संदर्भ में करता है ।
3. प्रत्यक्षवादी के लिए सिद्धान्त तार्किक अनुमान हो सकता है, यह गणितीय नियम है व संक्षेप सार है, जबकि यथार्थवादी सामान्य तर्क पर जोर देते हैं, जो अनुरूपता को मानता है ।
4. प्रत्यक्षवादी के लिए सिद्धान्त सैद्धान्तिक नियम का प्रतिफल है, जबकि यथार्थवादी के लिए सिद्धान्त समस्यायुक्त अस्तित्व का प्रतिफल है, जो प्रत्ययाश्रित तर्क से बंधा होता है ।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यथार्थवादी दृश्य जगत को महत्व देते हैं । दृश्य जगत का अस्तित्व मानव सोच से स्वतन्त्र है । यह वह भौतिक विश्व है, जिसको वैज्ञानिक विधियों द्वारा सरलता से समझा जा सकता है ।
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वह दृश्य जगत की भौगोलिक व्याख्या निश्चित सिद्धान्तों व माडलों के आधार पर करने की संस्तुति करते है । वर्तमान दृश्य जगत का भौगोलिक विवेचन यथार्थवाद के चिन्तन पर आधारित है । वह इसका वैज्ञानिक (कारण व क्यों) विश्लेषण करता है ।