राजनीति का अपराधीकरण |Criminalisation of Politics in Hindi!

प्रस्तावना:

आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में जो कुछ हो रहा है उसमें कुछ भी आशाजनक नहीं कहा जा सकता । राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, नेतागण अपनी कथित उपलब्धि के विवरण के साथ अपनी फोटो अखबारों में छपवा रहे हैं ।

उनकी उपलब्धियों हैं-चारों तरफ फैले कूड़े के देर, बढ़ती महंगाई, इंसानियत का सफाया और संवदेना का अभाव, जिनके बलबूते वे अपना ढिंढोरा स्वयं पीट रहे हैं । विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में हमारी उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं ।

आकाश तक में हमारा दबदबा कायम हो चुका है । लेकिन ये सब तभी लाभदायक है जब उसके लिये वातावरण सुधरेगा । यही सुधारने की कौन कहे वरन् बिगाड़ने की कोशिश हो रही है ।

चिन्तनात्मक विकास:

राजनीति के अपराधीकरण और अपराधियों के राजनीतिकरण तक हम जहाँ थे आज वहीं आ गये हैं । वर्तमान में लोकतन्त्र की जो सामन्ती संस्कृति उभर रही है जिसमें जनता के चुने हुये प्रतिनिधि और सरकारी कर्मचारी राजसत्ता के उतने ही व्यक्तिगत- पारिवारिक स्तर पर उपभोक्ता और मजे लूटने वाले बन जाते हैं ।

राजनीतिज्ञ एक बारगी वोटों की वैतरणी पार कर ले और सरकारी कर्मचारी एक बार किसी तरह नियुक्ति भर पा जाएं फिर तो वे जनता के और देश के मालिक बन जाते हैं और वी.आई.पी. बनकर विशेष सुख-सुविधाओं के हकदार, कानून से ऊपर और जनता से अलग विशिष्ट वर्ग के व्यक्ति बन जाते हैं ।

सारा प्रशासन प्राथमिक रूप से उनकी सुख-सुविधाओं के लिए बन जाता है । इसी विशिष्ट वर्ग मनोभावना के तहत मुफ्तखोरी करने, शासन का व्यक्तिगत-पारिवारिक सुविधाओं के लिए प्रयोग करने, सिफारिश, भाई-भतीजावाद आदि के रास्ते अपने निजी अधिकार बढ़ाने आदि की जो प्रवृत्ति शुरू होती है वह पार्टी और व्यक्ति के भेद को मिटाती प्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कमीशन खाने, धोखाधडी करने आदि के चक्रव्यूह में फंसकर राजनीति को सफेदपोश और नकाबधारी अपराधियों का जमावड़ा बना देती है ।

उनके मुँह और लेखन में नैतिकता की बात सड़ाध पैदा करने लगती है । उनके कामों में ईमानदारी, प्रतिबद्धता और जनता के प्रति लगाव अब अपवाद स्वरूप ही देखे जा सकते हैं । अत: भ्रष्टाचार और राजनीति में अपराधीकरण की बीमारी से निपटने के लिए जो नीतिगत खामियां और प्रशासनिक लापरवाही है, उससे निजात पाने का कोई सार्थक संघर्ष कहीं भी नहीं दिख रहा है ।

जब तक नीतियों मे सुधार नहीं आता और लोग अपने कर्तव्यों का सम्यक् अनुपालन नहीं करते तब तक हमारे सामने सिर्फ .नारे’ ही होंगे, ‘सदाचार’ जैसी कोई चौंझ नहीं दिखेगी ।

उपसंहार:

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वस्तुत: कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों को ही आत्ममंथन करना होगा । हर तरह की धोखाधड़ी और हिंसा के लिए उन पर उंगली उठती है । राष्ट्र के समक्ष उनके मामले में न निगलते ही बन रहा है और न उगलते ही । लोकतान्त्रिक राजनीति में राजनीतिक दल तो होंगे ही । वे आचरण संहिता का पालन कर हिंसा व अपराध घटा सकते हैं ।

यदि ऐसा न हुआ तो भविष्य का जो आलेख प्राचीर पर लिखा है वह सभी को पद लेना चाहिए कही राजा भोज, कहाँ गंगू तेली, पर जब दोनों ही देश की स्थितियों और शासको, प्रशासक के क्रियाकलाप के विषय में एक से चिन्तित ओर क्षुब्ध हो, एक-सी बाते कहने लगें तो स्पष्ट कि संकट काफी गहरा है ।

राष्ट्र स्तरीय विशेष अवसरों पर भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण साम्प्रदायिकता और जातिवाद की बुराइयों को रेखांकित किया जाता है, उत्साही नागरिकों, प्रेस और न्यायपालिका से इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सहयोग का अदवान भी किया जाता है ।

मेरे, आपके गली-मोहल्ले, नगर-ग्राम के लोग भी इन बुराइयो के विषय में वैसे ही चिन्तित हैं जैसे उच्च पदाधिकारी अथवा आप, परन्तु सभी के विचार में इसे उखाड फैंकने की जिम्मेदारी मुख्यत: सरकार की, अर्थात् राष्ट्रपति, उनके द्वारा नियुक्त मंत्रिमण्डल एवं अन्य संवैधानिक संस्थाओं की है पर कुछ राजनीतिज्ञ एवं बुद्धिजीवी दिग्गज ऐसे भी हैं जिनके विचार में समस्या कहीं अधिक गम्भीर है ।

वास्तव में इसके लिये जिम्मेदार कौन है । कौन जानता था कि गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद के बाद देश को आपातकाल देखना पड़ेगा और तत्पश्चात् घोटाले पर घोटाले देश की नियति बन जायेंगे कौन जानता था कि संविधान द्वारा सुनिश्चित धर्मनिरपेक्षता एक दिन साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद का शिकार हो किताबी पन्नों में बंद होकर रह जायेगी ? कौन जानता था कि उनकी पीढी के बाद के राजनेताओं मे कोई नेहरू, पटेल, अथवा मौलाना आजाद नहीं उभर पायेगा ?

स्वाधीनता के पश्चात् भारत की जो आकांक्षाएं एवं सपने थे वह पूर्णरूपेण साकार होने के बजाय टूटते एव बिखरते चले गये । वर्तमान भारत की परिस्थितियाँ अत्यन्त जटिल एवं विकट रूप धारण कर चुकी हैं । आर्थिक हलकों पर नजर डालने पर हमें कहना पड़रहा है कि आज भारत की स्थिति उपनिवेश जैसी बन गयी है, और हम विदेशी ताकतो की गिरफ्त में हैं ।

भारत को आर्थिक स्वतंत्रता की दरकार थी जो अभी तक नहीं मिल पायी । अगर कोई व्यक्ति अपनी क्षमता, इच्छा और योग्यता के बल पर काम करना चाहता है और उत्पादन के जरिये देश और समाज के लिए योगदान करना चाहता है तो उसे निराश होना पड़ेगा ।

यह विड्श्वना ही है कि आज हमारी लगभग पच्चीस प्रतिशत कार्य क्षमता प्रसुप्त अवस्था में है । सांस्कृतिक दृष्टि से लगता हे कि विदेशी पूंजी निवेश इतनी तेजी के साथ भारत मे हो रहा है कि लगता है, उसके प्रवाह के साथ बड़ी तेजी से भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण भी हो रहा है, हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि दूरदर्शन ने सांस्कृतिक आक्रमण को सर्वाधिक बल प्रदान किया है ।

हमारी निश्चित सोच रही है कि जब विदेशी पूंजी आती है तो वह अपने साथ बाहर की अपसंस्कृति भी लाती है । सामाजिक दृष्टि से विचार करने पर लगता है कि जिस प्रकार की समरसता, परस्पर भाईचारे का रिश्ता और ममत्व होना चाहिए था, वैसा हम स्थापित नहीं कर पाये हैं ।

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समाज जात-पांत के नाम पर छिन्न-भिन्न होने को विवश है । वजह है राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए जात-पांत पर बल, यानी मूल्यों की राजनीति पर लोगों का विश्वास नहीं रह गया है । उनका लक्ष्य तो येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना ही रह गया है । ऐसे लोग सामाजिक कटुता को तो उभारते ही हैं, देश का मान-सम्मान भी उनकी नजर में गौण हो जाता है ।

वे देश के स्वाभिमान को गिरवी रखने में भी नहीं चूकते । हमारा लक्ष्य तो समाज बनाना होना चाहिए । सरकार तो एक माध्यम है साध्य तो हमारा समाज ही है । यदि इस सोच और चिन्तन के आधार पर हम काम करे तो बहुत सारी राजनीतिक और सामाजिक बुराइयाँ दूर हो सकती हैं ।

सार्वजनिक जीवन में अपनी साख खोता हुआ आज का भारतीय राजनीतिज्ञ अपराध, भ्रष्टाचार, हिंसा और परिवारवाद से घिर कर मुजरिम बनता जा रहा है । इस तरह का घटनाक्रम विगत कुछ वर्षो में इतनी बार दोहराया जा चुका है कि अब लोग चौंकते नहीं और उसे राजनीति के स्वाभाविक चरित्र का हिस्सा मानने लगे हैं ।

अब शायद कोरे जनसेवक की छवि जो समाज के लिए अर्पित हो, राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गयी है । आज के हर दल में, हर क्षेत्र में और हर स्तर पर राजनीति का सत्ता-समीकरण और मूल्यहीन बंदरबांट साफ दिख रहा है ।

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इस उपक्रम में हर कोई शामिल नजर आता है । उसकी दलीय प्रतिबद्धता चाहे जो भी हो, छोटे कस्बे से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सक्रिय हर छोटे-बड़े नेता ने अपने-अपने दम-खम के हिसाब से राजनीति को अपने निजी स्वार्थ साधने का माध्यम बना लिया है ।

यह एक अचूक शार्टकट है, रामबाण औषधि है, और है भौतिक सुख-सुविधा के सरंजाम जुटाने का अचूक नुस्सा । विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचने वाले नेता केवल अपने कायाकल्प तक से संतुष्ट नहीं होते, वे अपने हाथ आये इस अलादीन के चिराग से अपने जन्म-जन्मांतर की साध पूरी करने की चेष्टा करते हैं ।

उनकी अतृप्त और उद्दाम अभिलाषाएं और आकांक्षाएं हिलोंरे लेती हैं ओर बेचारा नेता अपने इस नये जन्म को हर तरह से भुनाने में जुट जाता है । चूंकि इस नये जन्म की अवधि थोडी होती है, इसलिए उसे जल्दी भी होती है । हडबडी में उसे सबकुछ भूल जाता है ।

मतदाता, वादे, नारे, विचार, मूल्य और राष्ट्र जैसे सरोकार पीछे धरे रह जाते हैं । पार्टी चाहे जो हो-वामपंथी, दक्षिणपंथी, नरम, गरम सबके नेता और मंत्री आचरण में समरस हे । उन्हें सिर्फ याद रहता है तुलसीदास जी का वचन कि भैया समरथ को नहिं दोस गोसाई । नेता समर्थ है और कुछ भी कर सकता है ।

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वह सबसे परे हे, निरपेक्ष है और धर्मनिरपेक्षता के जमाने में शर्म-हया, पाप-पुण्य और लोक-परलोक आदि के दकियानूसी पचड्री में भी नहीं पड़ता । वह प्रगतिवादी है और अलौकिक शक्ति संपन्न ‘सुपरमैन’ बनने की कोशिश में है । उसका निजी संसार उस जनता से बडा दूर चला गया है, जिसका प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गयी थी ।

आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि जन आकाक्षाओं को फलीभूत करने वाली राजनीति की संभावना मृग मरीचिका सी होती जा रही है । अपने को गरीब जनता का मसीहा कहलाने वाला हो या फिर साफ-सुथरी छवि वाला नेता हो, आज हर कोई हवाले की हवा, स्कैम, स्कैंडल, अपराध, पूस और चोरी जैसे आरोपों से रूबरू है । इनमें छोटे-बड़े का भेद करना मुश्किल है ।

सार्वजनिक जीवन में उच्च पदों पर आसीन लोगों से कहां तो आशा थी कि वे अपने आचरण से लोगों को आश्वस्त करेंगे, सही दिशा देंगे और जीने की राह दिखाएंगे । पर हो सब कुछ उल्टा रहा है । भ्रष्टाचार के रूप, तकनीक और संदर्भ में विविधता होने के बावजूद इतना तो साफ जाहिर है कि इसकी जडें गहरी पैठ चुकी हैं और व्यवस्था तथा शासनतंत्र के छिद्रों के चलते वह संस्थागत रूप ले चुका है ।

राजनीतिक दल गाहे-बगाहे इसके खिलाफ धीमी आवाज उठाते हैं, परंतु किसी तरह की सर्वस्वीकृत आचार संहिता का विकास अभी तक नहीं हो सका है । राजनीति करना एक महगा काम बन चुका है, जिसके लिए धन की जरूरत पड़ती है, जो प्राय: नाजायज हथकंडों के जरिये मिलता है ।

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पर धन के ये स्त्रोत बाद में अपनी कीमत वसूलते है और तब राजनेता उनके आगे झुकने के लिए लाचार रहता है । हवाला प्रकरण इस अन्तर्सम्बध के एक नये पहलू की ओर संकेत करता है । धन की आमद के स्त्रोतों का विस्तार विदेश में होना बहुतों को अंतरराष्ट्रीय षड्‌यंत्र का एक हिस्सा लगता है, जो देश में अस्थिरता पैदा करना चाहता है ।

भ्रष्टाचार की व्यापक उपस्थिति साबित करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वह हर किसी के अनुभव का हिस्सा बनता जा रहा है । राजनीति और नौकरशाही की मिलीभगत किस तरह भ्रष्टाचार के प्रतिमान स्थापित कर सकती है, यह चीनी घोटाले, टेलीकाम प्रकरण, बोफोर्स और अब बिहार के पशुपालन विभाग में हुए घोटाले से स्पष्ट हो चुका है ।

पर इन सब घटनाओं के प्रति हमारी प्रतिक्रिया बडी लिजलिजी रही है । जो जितना बड़ा है, वह उतने ही बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार मे लिप्त रहने के लिए स्वतत्र है । हवाला के प्रकरण में शामिल नेताओं के प्रति शासनतत्र, न्यायपालिका, जाँच अभिकरण इन सबकी भूमिकाएं बहुत हद तक नेताओं की पहचान पर निर्भर कर रही हैं ।

किसी के खिलाफ गैर जमानती वारंट है, कोई जमानत पर है और कोई मुक्त है । जाच ब्यूरो का कार्य पूर्वाग्रहमुक्त नहीं प्रतीत होता और उसके लिए उस पर न्यायालय की डांट भी पडी है पर उसका रवैया अभी भी राजनीति को चाल के अनुसार ही बना हुआ है ।

आम आदमी को यही लगता है कि जैसे किसी भी घोटाले में अब तक कुछ नहीं हुआ, वैसे ही इसमें भी सभी छूट जाएंगे । वैसे भी इसमें फंसे सभी नेता अपने को सही, न्यायप्रिय और दूध का धोया ही घोषित कर रहे है, अपने संभव कुकर्म की छवि को अपने जनाधार के सहारे झुठलाने की जी तोड़ कोशिश चल रही है और अब हवाला में नाम आना लोकसभा के टिकट पाने में बाधा नहीं बनेगा, इसका ऐलान भी हो चुका है ।

भ्रष्टाचार राजनीति की जीवन शैली के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है । आज देश के सामाजिक क्षितिज पर संशय, अविश्वास, भय और भ्रष्टाचार के काले बादल इस तरह मंडराने लगे हैं कि आम आदमी का सब पर से भरोसा उठता जा रहा है ।

उसे अपने पैसे तले की जमीन खिसकती नजर आ रही है । दिग्भ्रम की इस अवस्था में उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा है । निश्चित रूप से सर्वाधिक निराशा राजनीतिज्ञों और सरकारी अमले से हुई है । शासन की बागडोर संभालने वाले इन महान जनों के चरित्र, आचुरण और दायित्व को लेकर उठने वाले आरोपों तथा प्रत्यारोपों का सिलसिला जो शुरू हुआ हे, सो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है ।

सत्ता और उससे उपजी शक्ति की अनुभूति ने उसे सचमुच ही मदान्ध बना दिया है । इसमें मिलने वाले भौतिक सुख का रस उसकी विवेक बुद्धि को नष्ट करता जा रहा है और वह इन सुखो के साथ प्रतिबद्ध होकर अपने अलावा सब-कुछ मुलाता जा रहा है ।

राजनीति में आने और उसमे आगे बढने की ज्यादातर कहानियां ऐसे महत्वाकांक्षी, दुराग्रही, निर्लज्ज तथा अपराध मानो वृत्ति वाले नायकों का चरित्र उपस्थित करती है, जो अपने कारनामों से किसी आदर्श की याद नहीं दिलाते । हां, वैभवग्रस्त और रूग्ण मानसिकता वाले एक क्रूर अमानुष की छवि जरूर उभरती है, जो किसी के लिए भी दुःस्वप्न सरीखी होती है ।

सामाजिक जीवन में प्रतिमानो की इस प्रकार की गिरावट आम आदमी में हताशा और बेचैनी को जन्म दे रही है, जो स्वस्थ लोकतन्त्र के मार्ग में एक बडी बाधा है । इसके चलते लोग राजनीतिक प्रक्रिया में भाग न लेकर विरक्त से होते जा रहे है ।

ऐसा करना किसी भी तरह समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि व्यापक राजनीतिक भागीदारी के अभाव मे सीमित अवाछित तत्वों के प्रबल रूप से सक्रिय होने की ही संभावना बलवती होती है, परंतु अशिक्षा, गरीबी और संसाधनों के असमान वितरण के चलते समाज का एक बड़ा हिस्सा किसी तरह की पहल करने में असमर्थ है ।

पिछले आम चुनावों का अनुभव हमें यह बताता है कि बहुसंख्यक ग्रामीण मतदाताओ को रिझाया जा सकता है । उन्हें धन-बल, बाहुबल और छदम के द्वारा छला जा सकता है । हालाकि धीरे-धीरे उनके नजरिये में भी बदलाव आ रहा है और वे भी अपनी शक्ति पहचानने लगे हैं, पर उनकी पराधीनता, परनिर्भरता अभी भी बनी हुई है ।

इसलिए स्वत: उनके द्वारा किसी तरह की सार्थक पहल की आशा नहीं की जा सकती । राजनीति के अपराधीकरण को सत्ता के शिखर स्तरों पर भ्रष्टाचार, राजनीति में अवसरवाद और दलबदल व दलो के विभाजन के साथ-साथ अलग तत्व के तौर पर भी समझना चाहिए । हालांकि इन सब बीमारियो ने राजनीति में अपराधीकरण को बढाने में मदद दी है ।

यू तो चुनावों में मतदान केन्द्रो पर कब्जा करने में अपराधी और समाज विरोधी लोगों की मदद काफी पहले से र्ला जा रही थी, किंतु उस घटनाक्रम का प्रसार कुछ ही राज्यों के थोड़े-बहुत क्षेत्रो तक ही सीमित था । अलबत्ता, आर्थिक और वैयक्तिक अपराधो की पूरी शृंखला 1960 के आस-पास ही चल पडी थी, जब काला धन जमा किया जाने लगा । उस काले धन को करों से बचाकर तस्करी के धंधे के द्वारा या रिश्वत से अफसरों नेताओं को भ्रष्ट करके सरकारी कानूनों के उल्लघन से ही जमा किया गया था ।

परन्तु इन अपराधो को अपराधों की सज्ञा नहीं दी गयी । हमारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और समांतवाद साहूकार परस्त मानसिकता के कारण अपराधों की परिभाषा ही बदल गयी थी । अब राजनेता उन समाज विरोधी तत्वों की सरपरस्ती खुले आम करने लगे है जो हिंसक कामों के लिए बदनाम है ।

वे अपना मूल्य मांगते हैं जो केवल कुछ रुपयों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि पार्टी पद, टिकट मंत्रिपद आदि हो गया है । वैसे तत्व अपने धाकडुपन, बदनामी और उत्तेजक व्यवहार के कारण समाज की नजरों में चढ़ जाते हैं और जो राजनेता उनको साथ रखते हैं, उनकी भी बदनामी होती है ।

देश का अपराधी वर्ग जिस ढंग से राजनीति मे प्रवेश कर रहा है यदि उसे न रोका गया तो हमारी संसद बदनाम अपराधियों का अड़ा बन जाएगी । सच तो यह है कि आजादी से पहले जनसेवा के लिए स्वच्छ छवि वाले लोग ही राजनीति में आते थे । राजनीति उनके लिए समाजसेवा का माध्यम हुआ करती थी । आजादी के बाद नैतिकता का तेजी से हास हुआ है । आज राजनीति रातों-रात धनवान बनने का एक सशक्त साधन बन गई है ।

केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के पुलिस अनुसंधान ब्यूरो ने एक अध्ययन किया, जिसमें चार दशकों अर्थात् 1951 से 1991 तक के अपराध आकडो का विश्लेषण किया गया है । साम्प्रदायिक दंगों की वारदात के आकलन हेतु 1992 के वर्ष को इसमें खासतौर पर शामिल किया काया है । उसी वर्ष बाबरी मस्जिद गिराई गई थी ।

इस अध्ययन के निष्कर्ष भयावह हैं । अपराध 4.6 प्रतिशत बढ़ रहे हैं, जबकि जनसंख्या वृद्धि 23 प्रतिशत है । संगठित हिंसा मे ठोस उभार आया है, साम्प्रदायिक दगों और आतकवादी वारदातों में वृद्धि सुस्पष्ट है । जातीय संघर्ष फैल ररू है और विद्रोही उग्रवाद के लिए नए क्षेत्रों की तलाश करते जा रहे हैं ।

अपराधों का स्वरूप भी बदल रहा है । अतीत की तुलना में अब सफेदपोश अपराध अधिक उजागर है । किशोर आयु वर्ग आग्नेयास्त्रों और विस्फोटकों का अत्यधिक इस्तेमाल कर रहा है, अतएव उसकी ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है । पुरुषों में अपराध प्रवृत्ति की तुलना में महिलाओं में यह प्रवृत्ति अधिक बढती हुई प्रतीत होती है ।

अध्ययन में कहा गया है, हुइनिकट अतीत में साम्प्रदायिक हिंसा में मानवीय संवेदनशीलता का निपट अभाव परिलक्षित हुआ है । बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद 1992 में अधिकतम संख्या मे साम्प्रदायिक वारदातें दर्ज हुई, जिनकी सख्या थी । लगभग दो हजार लोग मारे गए और 100 घायल हुए । अध्ययन में यह भी कहा गया है, “सारे देश में साथ-साथ दंगे अभूतपूर्व तौर पर फैले थे ।”

जाने-पहचाने सवेदनशील क्षेत्रों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और असम सरीखे राज्यों में अनेक नए इलाके साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में आए । साम्प्रदायिक हिंसा ग्रामीण अंचलों में भी फैली, जो पहले इससे प्रभावित नहीं थे ।

अध्ययन में उल्लेख है कि ‘ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक हिंसा के प्रसार पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है, क्योंकि ऐसे इलाकों मे से अधिसंख्य में पुलिस व्यवस्था बहुत कम है ।’ विश्लेषण से स्पष्ट है कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिहाज से सत्तर का दशक अपेक्षाकृत अधिक शातिपूर्ण था । वारदातों की वार्षिक संख्या 250 के लगभग थी, औसतन 118 लोग मरे थे ।

अस्सी के दशक में इनमे असाधारण वृद्धि हुई, वर्ष भर में वारदातों का औसत बढकर 665 और मृतक सख्या 545 पर जा पहुंची । हाल में तो देश में साम्प्रदायिक स्थिति में और अधिक बिगाड़ आया 1988 के प्रारंभ में 1992 के अंत तक पाच वर्ष की अवधि के दौरान अपराधों में सतत वृद्धि होती गई ।

मात्र तीन राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश अर्थात् गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में यह स्थिति थी । 1988 में गुजरात में से बढकर 1992 में अपराधों की सख्या पर जा पहुची अर्थात् 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई ।

राजस्थान में 88,146 से ये 1,23,426 पर जा पहुंचे (40 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश में 1,60,253 से 2,16,339 पर पहुंच गए (35 प्रतिशत और दिल्ली में इस अवधि के दौरान अपराधों की संख्या 28,013 से बढ़कर 36,302 (29.6) प्रतिशत हो गई ।

प्राय: सभी हिंसक अपराधो मे वृद्धि का ही रुख रहा । उदाहरणत: 1988 में हत्या की 28,771 वारदातें हुई थीं तो 1992 में उनकी संख्या पर जा पहुंची (यानी प्रतिशत की वृद्धि), डकैतियों में 21.5 प्रतिशत, लूटपाट में 224 प्रतिशत, अपहरण से संबंधित वारदातें 30.1 प्रतिशत तथा बलात्कार की घटनाएं 28.7 प्रतिशत बढी । सर्वाधिक वृद्धि “हत्या के प्रयास संबंधी” मामलों में हुई (50.8 प्रतिशत) ।

व्हाइट कॉलर यानी सफेदपोश अपराधों में वृद्धि भी समान रूप से चिंताजनक रही । उल्लेखनीय वृद्धि 1991 से हुई जबसे पूर्व सरकार ने अपनी आर्थिक नीति के उदारीकरण का श्रीगणेश किया । 1991 मे धोखाधड़ी और जालसाजी के मामलों की संख्या 50,000 के लगभग थी, जो 1992 में छलांग लगा कर 52,500 पर जा पहुंची । गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में ही ऐसी कुल वारदातो में दो-तिहाई वृद्धि हुई ।

श्वेत-कॉलर अपराधों का संभवत: नक्सलियों से किसी प्रकार से कोई सरोकार नहीं है । फिर भी उग्र वामपंथी आदोप्नन का भी बहुआयामी विस्तार हुआ । 1988 के वर्ष से यह आध प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उडीसा जैसे राज्यों के अनेक जिलो में फैला ।

1989 में ऐसी कुल वारदातें 901 हुई थीं तो 1990 में उनकी तादाद 1,682 और 1991 मे 1,876 हो गई । ऐसे गमलों में से 80 प्रतिशत आध्र प्रदेश और बिहार में हुए । ऐसी वारदात के फलस्वरूप हताहतों ही संख्या वर्ष-प्रतिवर्ष बढ़ती गई ।

कोई भी यह सोच सकता है कि इन वर्षों में सरकार ने ऐसे अपराधों के विरुद्ध अपना संघर्ष नेश्चय ही द्विगुणित किया होगा, परन्तु यह सोचना सही नही । विश्लेषण से यह तथ्य उभरा है के अपराधों का पता लगाने और उन्हें निपटाने के मामले में पुलिस और अदालतों का क्रियाकलाप नेराशाजनक ही रहा हैं ।

जांच के लिए लम्बित मामलों में से हत्या के मामलों में 36.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई । डकैती की जांच से सबंधित मामले 51.3 प्रतिशत ओर बलात्कार के 30.9 प्रतिशत तथा दंगों की जांच हेतु लम्बित मामले 295 प्रतिशत बड़े । 1992 के अंत में ऐसे केसों की संख्या 7,25,115 थी, जिनके बारे में पुलिस ने अभी जांच करनी थी । यह प्रतिशत 73.5 था ।

अपराध से संबंधित जांच के लिए लम्बित मामलों और विचाराधीन मामलों में तो वृद्धि हुई ही और अपराध के अनेक केस ऐसे भी हैं, जो अचीन्हें ही रह गए । साथ ही सजा पाने वालों के अनुपात में भी गिरावट आई है । अध्ययन में कहा गया है कि ”अनेक लोगों को, जिनमें से अनेक के खिलाफ घृणित अपराधों के केस हैं, जमानत पर रिहाई हासिल हो गई ।”

अपराधों की जांच के स्वरूप में आ रही गिरावट के कारणों में से एक प्रभावी निगरानी का अभाव भी है । राष्ट्रीय पुलिस आयोग की अनुशंसाओं को श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि आयोग का गठन जनता सरकार ने आपातकालीन ज्यादतियों के परिप्रेक्ष्य मे किया था ।

आयोग की रिपोर्ट में यह भी इंगित किया गया था कि जांच-पडताल में ‘समुचित रुचि’ से जनता में सतोष के लिहाज से स्थिति में सुधार होगा । उसमें यह मत व्यक्त किया गया था कि अधिकारी की पदोन्नति पडताल कार्य की मात्रा और गुणवत्ता पर निर्भर हो ।

पुलिस के प्रशिक्षण, न्यायिक प्रणाली को चुस्त-दुरास्त बनाने और राजनीतिक हस्तक्षेप की रोकथाम से हालात को सुधारने मे मदद मिलेगी । अपराधों पर नियंत्रण बिना जनता के सहयोग और सहभागिता के संभव नहीं है ।

किन्तु ऐसा नहीं हो पा रहा है क्योंकि यह सोच बढ़ती जा रही है कि सरकार यानी सत्ता पक्ष स्वयं ही अपराधीकरण और राजनीतिक मकसद के लिए बाहुबलियों और ठगो का इस्तेमाल करने के दोष से मुक्त नहीं है । न तो शासक ओर न पुलिस ही अपराधों के दमन में अग्रणी होकर अपनी साख बनाने की स्थिति में है ।

इस सारी स्थिति में जनता का, कानून व व्यवहार लागू कराने वाली सरकारी मशीनरी पर से विश्वास उठ जाना स्वाभाविक ही है । अपराधो की रोकथाम में असफलता तो बुरी बात है ही किन्तु उससे निपटने वाली एजेसियों की प्रभावहीनता तो केन्द्र व राज्यों के प्रशासन पर और अधिक दुखद टिप्पणी ही है ।

आपराधिक न्याय प्रणाली वस्तुत: टूटन के कगार पर है । इससे भी बुरा यह है कि इस भावना से जनता और विशेषज्ञ ही नहीं अपितु विभिन्न स्तरों पर प्रणाली से जुड़े लोग भी अछूते नहीं हैं । वास्तविक समस्या यह है कि समाज और सत्ता के उपर्करण दोनो ही आशाओं को पूरा नहीं कर पा रहे ।

आशा थी कि जब एक बार आधुनिक और उदार संस्थाएं व मूल्यों पर आधारित प्रणाली जड़ें जमा लेंगी तो साम्प्रदायिकता और जातिवाद के विषाणु दम तोड़ देंगे, परन्तु अब राजनीतिज्ञों और उनके माफियाओं का वर्चस्व है । धर्म व जाति अधिक सशक्त विभाजक ताकतों के रूप में उभरे हैं ।

अध्ययन में कहा गया है कि द वोट बैंक की राजनीति से राजनीतिक जीवन का अपराधीकरण हुआ है । सत्ता के गलियारों में प्रवेश पाने और वहां जमने के लिए धन बल व बाहुबल का उपयोग होता है । हिंसा के विस्तार मे अपराधीकरण की राजनीति भी बड़ी हद तक मददगार रही है । इसके अलावा दैनिक कार्य में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप से आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभावहीनता में भी मदद हुई है ।

यह तत्व इस बात का ढोल जोरों से पीटते हैं कि वह चूकि निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं इसलिए वह भला अपराधी कैसे हो सकते हैं ? हालांकि सच्चाई यह है कि जब यह माफिया किंग चुनावी मैदान में खड़े हो जाए तो जीतेगे ही ? किसमे इतनी हिम्मत है जो कि इनके खिलाफ वोट देकर अपनी जान को खतरे में डाले ।

इन बाहुबलियों के इशारे पर मतदान केन्द्रों पर कब्जे होते हैं और थोक भाव में वोट इन तत्वो को पड़ते हैं । पहले यह रोग सिर्फ उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश तक ही सीमित था मगर अब तो इसने सारे देश को अपने चंगुल मे फंसा लिया है । वैसे वर्तमान हालात में यही उपयुक्त होगा कि डॉक्टर अम्बेडकर, राम मनोहर लोहिया और पंडित नेहरू के शताब्दी वर्ष मनाने की बजाय मान सिह, पुतलीबाई, सुलाना, डाकू मोहर सिंह जैसे डाकुओं के शताब्दी वर्ष मनाने की नई परम्पर शुरू की जाए ।

वैसे भी लूट-खसूट करने में पुराने डाकुओं और आज के राजनेताओं में कोई खास अतर नहीं रहा है । पुराने डाकू सही अर्थो में समाजवादी हुआ करते थे । सुस्ताना डाकू व मान सिंह भ्रष्ट और शोषणकर्ताओं को लूट कर निर्धन वर्ग की आर्थिक सहायता के लिए विख्यात थे ।

राजनीति के अपराधीकरण के लिए सभी पार्टियां दोषी हैं । आज चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार तय करते समय उसके चरित्र को नहीं देखा जाता बल्कि पार्टी टिकट पाने का आधार उसकी धन-दौलत और जीत पाने की क्षमता ही रह गई है ।

हाल में ही देश के बुद्धिजीवियो ने यह मांग की है कि उन उम्मीदवारों के चुनाव लडने पर भी पाबदी लगनी चाहिए जिनके खिलाफ किसी भी अदालत में फौजदारी मुकदमे विचाराधीन हों या जिनका पुलिस रिकार्ड हो । यह अजीब बात है कि एक चपडासी तक की नौकरी पाने के इच्छुक व्यक्ति के चरित्र की तो पुलिस जांच-पड़ताल करती है जबकि सांसद और विधायक बनने के इच्छुक व्यक्तियो के लिए यह जरूरी नहीं है ।

वास्तव में राजनीतिक हिंसा के रूप ने ही चुनावी प्रणाली को आपराधिक बनाया है । इस संबध के पीछे राजनीतिक लाभ, शक्ति एवं अंधाधुंध आर्थिक लाभ की चाह है । जब तक यह भाव समाप्त नहीं होता, राजनीतिज्ञ नहीं बदलेंगे ।

खासकर तब तक जब तक सिर्फ बैलेट बॉक्स’ ही सत्ता प्राप्ति की कुंजी हो । राजनीतिज्ञों और अपराधियों के गठजोड का पहला चरण वह है जब राजनीतिज्ञ अपराधियों का इस्तेमाल लोगों को धमकाने मे, बूथ कैच्चरिग आदि के लिए इस्तेमाल करते हैं जिससे कि वे सत्ता प्राप्ति के अपने लक्ष्य को पा सकें ।

बदले में अपराधी को पैसा मिलता है । दूसरा चरण होता है जब अपराधी पार्टियो को अपने संरक्षण व काम के बदले पैसे देना शुरू करते हैं । तीसरा चरण होता है कि जब अपराधी सरगने स्वयं राजनीतिज्ञ बन जाते हैं ।

यह कहा जा सकता है कि राजनीतिज्ञो और अपराधियों का गठजोड़ या संबंध हमारे उस मानवीय समाज की एक द प्राकृतिक या स्वाभाविक गंदगी’ है जहां कि सत्ता संख्यात्मक बल या सहयोग के आधार पर प्राप्त की जाती है ।

इटली इस प्रकार के राजनीतिज्ञ-अपराधी गठजोड़ के लिए अब तक कुख्यात रहा है । जापान व अमरीका में भी इस प्रकार की बातें होती हैं लेकिन देशों में इन बातों से निपटने की क्षमता व इच्छा शक्ति भी उतनी ही स्पष्ट दिखाई देती है ।

दुर्भाग्यवश हमारी चुनावी प्रक्रिया में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं किया गया है । मुख्य चुनाव व की अनेक रिपोर्टों के बावजूद इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है । इस प्रकार की में प्रयुक्त कागजों के रिम आज उतने ही दीमकों से ग्रसित हैं जितनी कि हमारी राजनीति ।

उपर्युक्त परिस्थिति स्वच्छ राजनीति की संभावना को धूमिल करती है । इस दिशा में यदि से आशा की जा सकती है तो वह है प्रबुद्ध वर्ग । पढे-लिखे बुद्धिजीवी तबके से यह अपेक्षा जाती है कि वह समय की इबारत पड़ेगा और अपना दायित्व स्वीकार करते हुए पहल करेगा ।

छोटे-छोटे स्वार्थों की भीड में खोकर अत्याचारी को झेलना और किसी तरह अपना अस्तित्व रखना आसान लगता है और अल्पकालिक दृष्टि से लाभदायक भी । परंतु इसकी परोक्ष बहुत ज्यादा है । मानवीय संवेदना और विवेक बुद्धि के लिए यह एक बडी कसौटी है कि द’ निजी हित के बदले लोकहित के साथ प्रतिबद्धता किस तरह बढायी जाए । व्यक्ति और के बीच, अपने और पराये के बीच, व्यष्टि और समष्टि के बीच का भेद दुर्भाग्यवश प्रबल जा रहा है और उनके बीच अनुपूरकता का रिश्ता पृष्ठभूमि में जा रहा है ।

व्यक्तिनिष्ठ तथा संस्कृति का यह प्रसाद अतिम विश्लेषण में व्यक्ति या समाज किसी का भी भला मे सक्षम नहीं ठहरता । आधुनिक जीवन इसका साक्षी है कि सीमित वैयक्तिता का उत्सव के अन्दर, व्यक्तियों के बीच और व्यक्ति तथा समाज के बीच केवल वैर, द्वेष और युद्ध ही जन्म देता है ।

इच्छाएं अनन्त होती हैं और उनकी पूर्ति से इच्छाओं का शमन नहीं होता, 8 वे और भी जोर-शोर से प्रज्वलित होती है । भौतिक इच्छाओं, सुखों और उसके संसाधनों बारे में भी यह बात लागू होती है । आज आवश्यकताओं की वृद्धि जीवन की गुणवत्ता का मानी जाने लगी है । इस तरह की सोच प्रचुर साधनों से संपन्न समाज में तो चल सकती परतु सीमित ससाधनों वाले देशों में जहां जनसख्या का दबाव भी ज्यादा है, इसके परिणाम कलह और पूर्वाग्रह को ही बढाएंगे ।

आर्थिक और सामाजिक विषमता के आशय बहुत दिनों हर नहीं रह सकते । एक वर्ग की विपन्नता या दरिद्रता के कारण, विपन्न या दरिद्र लोगो विशेषताओं में कम बल्कि वैभवशाली लोगो के व्यवहार और युक्तियो में अधिक होते हैं । इसका टल यथास्थितिवाद को खत्म करने और सामाजिक न्याय तथा समान अवसर की प्रतिष्ठा लिए आवश्यक है ।

आज की विषम परिस्थिति मे जब लोकतत्र मुट्‌ठी भर धन कुबेरों के हाथों की कठपुतली जा रहा है और राजनेता हास्यास्पद ढंग से गैर जिम्मेदार और निर्लज्जतापूर्वक धनार्जन पर पिल पड़े है, देश के बुद्धिजीवियो को मूकदर्शकों की भूमिका छोडकर सक्रिय रूप से बढ़ना होगा ।

बहुदलीय लोकतंत्र की रक्षा और सवर्धन के लिए आवश्यक है कि बुद्धिजीवी आगे जाएँ और छोटे-छोटे निजी स्वार्थों के आपसी टकराव से ऊपर उठकर सकारात्मक भूमिका तथा इस चुनौती को एक अवसर के रूप में ग्रहण करे ।

राजनीतिक जगत में प्रदूषण को करने के लिए आवश्यक शुद्धि का प्रयास खतरनाक भी होगा । इससे छोटे-छोटे सुख और गराम मे खलल पडेगी । पर इस खतरे को मोल न लेने के परिणाम कहीं और भी ज्यादा भयकर खतरनाक होगे ।

राजनीति की उपेक्षा और उससे अलग रहने से राजनीति का सच नहीं जा सकता । राष्णगीति में जो कलुष है उसकी चाहे कितनी भी निदा कर ली जाये, निंदा करने भर से उसका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है । इस तरह के नपुंसक आक्रोश से राजनीति की गहराती जडता अप्रभावित ही बनी रहेगी ।

आज के संवेदनशून्य मोटी चमडी वाले राजनीतिज्ञों में खत; किसी तरह का सुधार नहीं आ सकता, क्योंकि वे अपने ही द्वारा फैलाये जाल में इस तरह फंस चुके हैं कि उन्हें अपने आचरण में किसी तरह का द्वंद्व या अतर्विरोध नहीं दिखता, जो किसी नवाचार के लिए उकसा सके ।

साथ ही उसे जैसी जिंदगी जीने की, आदत पड़ गयी है, वह उसके कदाचरण को अनदेखा करने के तमाम बहाने सुझाती है । वह उसके पोषण की जुगाड़ करने लगता है । भ्रष्टाचार उसका प्राण है, जिसके बिना वह निर्जीव हो जाएगा ।

वर्तमान चुनावी रणनीति में ऐसा माहौल आयोजित हो रहा है, जब प्रत्येक दल किसी तर्क, पैंतरे और बहाने की तलाश में छटपटा रहा है । हवाला में शामिल होकर लगभग सभी दल आज एक ही कठघरे में खड़े हैं । भ्रष्टाचार में सभी लिप्त हैं, शायद कोई थोड़ा कम हो, कोई थोड़ा ज्यादा । पर कालिंख कमोबेश सब पर लगी है । यह अवसर एक परिवर्तन का आह्वान करता है । देश की चीख-पुकार को अनसुना करते राजनेता फिर तीन-पांच कर रहे हैं । सौदे और गठबंधन का दौर चालू है ।

इसका प्रतिकार करना होगा और मूल्यों पर आधारित राजनीति की दिशा में पहल करनी होगी । शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग को इसमें सार्थक और सक्रिय भूमिका निभागी होगी । आज हमारी प्रणाली राजनीतिक वेश्याओं द्वारा किये जाने वाले बलात्कार से बुरी तरह क्षत-विक्षत हो रही है ।

इसलिए यह जरूरी है कि अपराधीकरण का मुकाबला करने के लिए जनमत और उन लोकतान्त्रिक संस्थाओं को मजबूत किया जाए जिनका दबाव पूरी व्यवस्था पर पड़े । इन संस्थाओं में राजनीतिक दल हैं, पुलिस, नागरिक प्रशासन, न्यायपालिका, समाचार पत्र और पंचायती राज संस्थाएं भी हैं ।

इनको यह काम नियमों विधियों द्वारा भी करना होगा और आन्तरिक सुधारों के द्वारा भी । अभी तक इन बातों पर जो कुछ लिखा या कहा गया है, उन पर अमल बिल्कुल नहीं हुआ । क्या कानून के द्वारा कोई भरपाई, कोई सुधार संभव है ? देश के राजकाज को ऐसे महानुभावों के हाथ में जाते हुए क्या हम निरुपाय देखते रहने के लिए अभिशप्त हैं ?

सिद्धांतत: कम से कम दो उपाय हैं, जिनके लिए नागरिक अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं: एक है मैंडेमस (परमादेश) याचिका जिसके माध्यम से अदालत एक प्रधानमंत्री को या फर्ज कीजिए, एक मुख्यमत्री को इस किस्म के व्यक्ति को मंत्रिमंडल से हटाने का निर्देश देती है, और दूसरा हे क्वो वारटी अधिकार-पृच्छा याचिका जिसके माध्यम से अदालत संबंधित व्यक्ति को यह साबित करने के लिए कहती है कि वह उस पद के लिए कानूनी रूप में योग्य या हकदार है ।

चुनाव और राजनीतिक दलों से सम्बंधित कानून में अन्य परिवर्तन यह हो सकता है; प्रथम, प्रत्येक उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वह अपने चुनाव नामांकन पत्र के साथ उन मामलों का ब्यौरा और उनकी मौजूदा स्थिति बताते हुये एक घोषणा दाखिल करे जिनमें वह लिप्त है, और यह जानकारी प्रचार सामग्री के हर उस टुकड़े पर होनी चाहिए जो उसके द्वारा या उसकी ओर से प्रकाशित किया जाता है ।

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द्वितीय, जिस तरह राजनीतिक दलों को अन्तत: अपने लेखा-परीक्षित खाते अनिवार्यत: प्रस्तुत करने का आदेश दिया जाता है, ठीक उसी तरह उनके लिए यह भी अनिवार्य होना चाहिए कि वे प्रतिवर्ष चुनाव आयोग को, लोकसभाध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति को (और इसी तरह राज्य विधानमण्डल के पीठासीन अधिकारियो को) एक सूची प्रस्तुत करें जिसमें उनके विधानमडलों के सदस्यो के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों और हरेक मामले की मौजूदा स्थिति के ब्यौरे हों ।

हरेक पार्टी आज दिन रात कस्में खाती है कि वह राजनीति के अपराधीकरण का मुकाबला और यह भी कि वह राजकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगी । मात्र ये दो घोषणाएं दाखिल इन दोनों लक्ष्यो की दिशा में एक छोटी-सी शुरखात क्यों न की जाए ?

समाधान के तरीके अनगिनत हैं । सिर्फ राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है । जब तक हूं, पार्टियां अपनी उदासीनता समाप्त नहीं करती तब तक कोई रास्ता नहीं निकलेगा, एवं कानूनों के होते हुए भी । भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है, अगर हमारे युवा अपराध सम्बंधी उदाहरणों का अनुसरण रहेंगे जो कि अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं द्वारा इस्तेमाल व अपमानित किए जाते रहते जिनके बल पर निहित स्वार्थी राजनीतिज्ञ अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए बाहुबल का खेल हैं ।

उदाहरण के लिए राजनीतिक दलों की बात ले ले । अगर उनका तदर्थ चलन, संगठन का उपर से मनोनीत होना और हिसाब-किताब का ठीक से न रखा जाना जारी रहता है तो नेता मनमर्जी से धनपतियों या उनके चमचों, अपने खुशामदी समाज विरोधी तत्वों को टिकट देते रहेंगे ।

यदि जर्मनी की तरह यहां भी राजनीतिक दलों के नियमन के लिए विधि बन जाए कि एक न्यायिक आयोग यह देख-रेख करेगा कि सदस्यता भर्ती भी उनके अपने-अपने संविधानों आधार पर हो और नियमित रूप से नीचे से ऊपर तक लोकतांत्रिक चुनाव भी हों, उम्मीदवारों चयन भी संबंधित स्तरों पर निर्वाचित समितियाँ करें तो यह प्रथा खत्म हो सकती है ।

उनके-व्यय और सम्पत्ति का भी सार्वजनिक और निष्पक्ष उल्लेख होगा तो और कमियां भी दूर होंगी । नेताओं और सरकारी अफसरों के संबंध में यह कानून बनाया जा सकता है कि वे प्रतिवर्ष-अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा घोषित करें और कोई न्यायिक प्राधिकरण उसकी जांच करे ।

कपाल और लोकायुक्त प्रणाली को भी ज्यादा सुचारू बनाना चाहिए और लोकपाल विधेयक । विगत पच्चीस वर्षों से मान्यता प्राप्त नहीं कर सका है उसे भी संसद में मान्य करना चाहिए । पुलिस के संबंध में पुलिस आयोग की वह रिपोर्ट जो 1979 में पेश की गयी थी, उसको मान्यता देकर उसकी सिफारिशो को तत्काल लागू करना चाहिए ।

इसी प्रकार न्यायपालिका में भ्रष्टाचार संबंधी सुझाव भी आते रहे हें जिनमें पूर्व न्यायाधीशो की समिति बनाकर उसे अधिकार का सुझाव भी है । प्रशासन में जनता के प्रति उत्तरदायित्व की भावना लाने के लिए यह सुझाव या गया था कि कानून द्वारा यह निश्चित कर दिया जाए कि किसी भी व्यक्ति, को यह अधिकार कि वह अपने मामले के संबंध में किसी अधिकारी की कार्रवाई के कारणों की जानकारी लेकर सके और अधिकारी नियमों के चलते बाध्य होगा कि वह वैसे जानकारी दे ।

उस की न्यायालय में जांच कराने का अधिकार भी प्रार्थी को मिलना चाहिए । पंचायती राज सस्थाओं को वास्तविक अधिकार मिले, इसके लिए संविधान के 73वें सशोधन फिर से संशोधित करना भी जरूरी है और सहकारी समितियों के कानूनों को तो बुनियादी पर बदलना होगा ।

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इस सबंध में कर्नाटक के पंचायती राज अधिनियम और आध प्रदेश के अधिनियम से बहुत कुछ सीखा जा सकता है । चुनाव प्रणाली में जिन सुधारों की जरूरत है उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने लागू किया है । उन सुधारों को संसद को मान्य कराके अधिनियमों में शामिल करना चाहिए केवल ऐसे आदेश जो किसी दूसरे चुनाव आयुक्त द्वारा बदले जा सकते हैं, चुनाव प्रणाली में स्थायी सुधार नहीं ला सकते ।

समाचार पत्रों-पत्रिकाओं और आकाशवाणी-दूरदर्शन और चित्रपट का जनता की सोच पर भारी प्रभाव पड़ने लगा है । उनकी सभी प्रकार के सरकारी नियंत्रणों और दबाव से तो मुक्त कराना जरूरी ही है, किन्तु यह प्रबंध भी करना होगा कि वे अपराधों, हिंसा और दूराचारों को अति सम्मोहक तौर पर प्रस्तुत न करें । सरकारी तौर पर नियंत्रण लाये बिना भी इसे दूर करने के उपाय तलाशने होंगे । खासकर विदेशी सामग्री के प्रसार पर भी ध्यान देना होगा ।

यदि राजनीति के अपराधीकरण को रोकना है तो विधियों द्वारा संस्थाओं को गंदगी से बचाना और उन्हें जनता के नियंत्रण में लाकर जवाबदारी का जिम्मा देना जरूरी है और इसी दृष्टि से ये सुझाव दिये गये हैं । अधिक सोच-विचार के बाद ऐसे अन्य सुझाव भी सामने आ सकते हैं ।

लेकिन मुख्य बिन्दु ये हैं: क्या हमारे प्रजातंत्र के लिए ऐसे प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिज्ञों की उपस्थिति अच्छी है ? जब, ऐसे लोग, जिनसे हम नेतृत्व की आकांक्षा रखते हैं, अपराधी तत्व व तोड़-फोड़ करने वाले बन जाते है, तब लोगों के लिए समय होता है कि वे दृढ़तापूर्वक स्वयं निर्णय लें ।

जैसा कि एलिस इन वंडरलेंड में रानी कहती है, “पहले गर्दन काटी, बहस बाद में होगी ।“ यानी पहले समस्या को जड़-मूल से नष्ट करो, उस पर बहस तो बाद में भी होती रहेगी ।