प्रेस-स्वतन्त्रता पर निबन्ध |Essay on Freedom of Press in Hindi|
प्रस्तावना:
प्रेस की स्वतन्त्रता बहुत व्यापक अर्थ रखती है । इसका अर्थ केवल समाचार संकलन व प्रकाशन तक ही सीमित नहीं है । अपितु सही समाचारों के प्रकाशन के लिए उचित वातावरण का निर्माण भी प्रेस की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत आता है ।
प्रेस की स्वतन्त्रता एक आदर्श सिद्धान्त है और इसके साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ नहीं होना चाहिए । परन्तु विगत कुछ वर्षों का इतिहास निरन्तर प्रेस की स्वतन्त्रता पर अलग-अलग तरह से आक्रमण कर रहा है ।
चिन्तनात्मक विकास:
देश में जिस तरह अन्य व्यवस्थाओं से आदर्शो का स्खलन हो रहा है उसी तरह प्रेस की स्वतन्त्रता के आदर्श का भी क्खलन हुआ है । इसका एक प्रमुख कारण सत्ता प्रतिष्ठानों व राजनीति का अधिकाधिक असहिष्णु होते जाना है ।
यह एक स्थापित सत्य है कि प्रेस की मुख्य भूमिका विरोध की होती है । समाचारपत्र-पत्रिकायें जो कुछ घटित हुआ है मात्र यही नहीं बताते हैं बल्कि जो कुछ गलत हो रहा है उसे सामने रखते हैं और सही क्या हो सकता है इसका इशारा भी करते हैं ।
समाज के सभी अंग प्रेस को अपने-अपने अनुकूल न पाने के कारण उसकी स्वतन्त्रता को बाधित करने हेतु किसी भी स्तर तक, किसी भी प्रकार के हथकण्डे अपनाते हैं । प्रेस की स्वतन्त्रता का सर्वाधिक हनन सरकारों तथा प्रशासन द्वारा किया जाता है क्योंकि उनके पास सर्वाधिक कानून सम्मत शक्ति होती है ।
वह विभिन्न कानूनों के माध्यम से प्रेस को अपने नियन्त्रण में रखने का, खरीदने का अथवा खामोश रखने का प्रयास करते हैं । यह सही है कि इस क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार बढ़ा है किन्तु सभी को एक ही लाठी से हांकना उचित नहीं है । समाज के व्यापक हित में अभीष्ट स्थिति यह होगी कि जब चारों स्तम्भ-संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं प्रेस सभी एक-दूसरे के पूरक एवं संवर्द्धक हों ।
उपसंहार:
कई बार सच घटना के पीछे अदृश्य भी होता है और जब-जब प्रेस इस सच को सामने लाती है तब-तब उसकी स्वतन्त्रता पर हमला होता है । स्वयं प्रेस को भी अपने-आप को पूर्वाग्रहों से सर्वदा मुक्त रखना है ।
इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि प्रेस की स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए समुचित उपाय किये जाएं । भारतीय प्रेस परिषद भी इस दिशा मे कारगर कदम उठा सकती है ।
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विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता लोकतन्त्र की प्राणवायु की भांति है । लोकतान्त्रिक शासन में इस स्वतन्त्रता का अतिशय महत्व है । भारत के संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता जैसी शब्दावली का प्रयोग नहीं किया गया है ।
सम्भवत: इसीलिए अनेक बार प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा संविधान में प्रेस की आजादी का स्पष्ट प्रावधान करने की मांग की गई है । इसी कारण अनेक विवाद न्यायालयों के सामने आये हैं । समय-समय पर संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता की स्थिति को लेकर अनेक चिन्ताएं की जाती रही है । किन्तु विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता स्वत: सम्मिलित है ।
वस्तुत: प्रेस व समाचार-पत्र-पत्रिका आदि के अभाव में विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रकटीकरण सम्भव नहीं हो सकेगा । प्रेस व समाचार-पत्र-पत्रिका आदि मानवीय विचारों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है ।
संविधान सभा में डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा था कि समाचार पत्र नागरिकों के विचारों की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है । नागरिकों को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त अधिकारों की तुलना में प्रेस को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है ।
उदाहरणार्थ, अखबार का सम्पादक व प्रेस का प्रबंधक अखबारों के जरिये जब अपने विचार समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है, तो वह भारतीय नागरिक होने के नाते अपने विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग करते हैं ।
इस तर्क के कारण डॉक्टर अम्बेडकर ने संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता का पृथक् उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं समझी । इसके पीछे कोई भी तर्क व कारण रहें हो मगर संविधान के लागू होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य (1950), एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (1958), एम. एस.एम. शर्मा बनाम श्री कृष्ण सिन्हा (1959) साकल पेपर प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (1962) आदि अनेक मामलों में दिये गये निर्णयों में बालू एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मिलित मान लिया है । रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) के विवाद में उच्चतम न्यायालय ने, इसमें विचारों के प्रसारण की स्वतंत्रता को भी शामिल माना है ।
प्रकाशन व परिचालन दोनों ही स्वतंत्रताएं समान रूप से आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं । इस सबसे इतना स्पष्ट है कि प्रेस की स्वतंत्रता का संविधान में पृथक् उल्लेख भले ही न किया गया हो, किन्तु इस अधिकार की संपूर्णता के उपयोग के लिए किसी प्रकार के संशय की गुंजाइश नहीं है । व्यवहार में हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता का उपयोग निर्बाध गति से किया गया है ।
किन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या यह स्वतंत्रता असीमित है ? अथवा क्या इसकी अपनी कुछ मर्यादाएं भी हैं ?वस्तुस्थिति तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए और राज्य के द्वारा उसकी किसी प्रकार की विचारधारा अथवा भावों की अभिव्यक्ति पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए ।
किसी विचार का दमन करना या उसके प्रकाश पर रोक लगाना सत्य का दमन करना है किन्तु यह नकारात्मक स्वतंत्रता है । अत: यह किसी सभ्य समाज में स्वीकार्य व व्यावहारिक नहीं हो सकी है । स्वतंत्रता सभी प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं है अपितु अनुचित प्रतिबंधों के स्थान पर उचित प्रतिबंधों की व्यवस्था है ।
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वस्तुत: यह सकारात्मक स्वतंत्रता है । जो हमें समाज में संतुलित जीवन जीने की परिस्थितियां प्रदान करती है । मूलत: स्वतंत्रता का अभिप्राय ऐसे वातावरण और परिस्थितियों के निर्माण और उनकी विद्यमानता से है, जिससे व जिनमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके ।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन पर राज्य और समाज में निवास करने वाले दूसरे व्यक्तियों की ओर से न्यूनतम प्रतिबध अवश्य होने चाहिए जिससे मनुष्य अपने विचार और कार्य-व्यवहार में ज्यादा से ज्यादा स्वतत्रता का उपयोग कर सके ।
इसका दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि समाज और राज्य के द्वारा मनुष्य को उसके व्यक्तित्व विकास के लिए ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं प्रदान की जाए । ऐसा तभी सभव है जब स्वतंत्रता के नकारात्मक पहलू के साथ स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष पर भी विचार किया जाए ।
तटस्थ और संतुलित दृष्टि से तो स्वतंत्रता व्यक्ति के जीवन की वह अवस्था है, जिसमे मनुष्य के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबंध लगाये जाएं और मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकतम सुविधायें प्राप्त हों । नियंत्रण और अनुशासन से मुक्ति प्राप्त कर लेने को भी हम स्वतंत्रता नहीं कह सकते, क्योंकि इससे एक व्यक्ति या कोई एक वर्ग दूसरे की स्वतंत्रता की बलि देकर स्वतंत्रता का उपभोग करने लगेगा ।
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हकीकत तो यह है कि स्वतत्रता का अभिप्राय कभी भी उच्छृंखलता नहीं हो सकता । हमारे संविधान में स्वतंत्रता का अभिप्राय मनमानी से नहीं लिया गया है अपितु विभिन्न स्वतंत्रताओं पर युक्ति-युक्त प्रतिबंध लगाकर उन्हें समाजोपयोगी बनाया गया है और इसलिए आवश्यकतानुसार संविधान संशोधनों के माध्यम से विभिन्न प्रतिबंधों की व्यवस्था की गई है ।
संविधान के प्रथम संशोधन (1951) के द्वारा राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के मित्रतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार व न्यायालय अपमान, मानहानि, अपराध के लिए उत्तेजित करना, भारत की सम्प्रभुता और अखंडता आदि आधारो पर राज्य-विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मुक्ति-मुक्त प्रतिबध लगा सकता है ।
16वें सविधान संशोधन (1963) के द्वारा यह प्रतिबंध लगा दिया गया है कि यदि कोई व्यक्ति भारत राज्य क्षेत्र से उसके किसी अंग को पृथक् करवाने का प्रचार करे, तो राज्य के द्वारा उसकी वाक् व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जा सकता है ।
हमारे संविधान में विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लोक शिष्टाचार व सदाचार के आधार पर प्रतिबंध की व्यवस्था प्रस्तुत की गई है । इसके अंतर्गत ऐसे प्रदर्शन, प्रकाशन, चित्र, भाषा-संकेत अश्लील समझे जायेंगे जिनसे सामान्य जनता के सम्पर्क में आए व्यक्तियों पर कामुक व वासनुायुका विचार प्रबल होते हैं अर्थात उनके मन में अनैतिक व भ्रष्ट विचार उत्पन्न होते हैं लेकिन वे यह समझने का कष्ट कतई नहीं करते कि आखिर जनता किसी चीज को इतनी जल्दी भूल क्यों जाती है ?
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न्यायालय का यह विचार सत्य ही है कि सच्चे और जिम्मेदार पत्रकारों का कार्य जन-सामान्य को विशुद्ध, यथार्थ व निष्पक्ष सूचना देना है और अपने विचारों को भी इन्हीं आधारों पर ही अभिव्यक्ति प्रदान करना है । खेद है कि प्रेस परिषद की यह चेतावनी कि ‘प्रेस स्वतंत्रता’ और मनमानी के अंतर को समझा जाये पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है ।
किसी भी प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के चार स्तंभ होते हैं- संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस । प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था तभी सफल हो सकती है जब यह चारों स्तम्भ स्वतन्त्र हों । यदि इनमें से कोई भी स्तंभ कमजोर होता है तो प्रजातान्त्रिक भवन ढह जाता है । सम्भवत: आज परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं ।
सत्य के अन्वेषण के अपने पेशेवर कर्तव्य को निभाने में प्रेस को रोकने और धमकाने में शायद ही कोई राजनीतिक दल पीछे रहा है । जब-जब प्रेस किसी राजनेता के लिये ‘समस्या’ बना तब-तब अनेक तरीकों से प्रेस को जायज-नाजायज हमलो का सामना करना पड़ा ।
क्या कारण है कि आजकल राजनेता हमारे मीडिया और पत्रकारों पर इतना क्रोधित है ? कई बार नाजायज राज-आक्रोश के आगे भी मीडिया बेबस-सा क्यों नजर आने लगता है ? स्वयं मीडिया के पास राजनेताओ के गुस्से का सामना करने के लिए कौन-सी ताकत है ?
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इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें राजनेताओं की जीवन शैली, उनकी सत्ता-लिप्सा और इसी के साथ मीडिया के वास्तविक दायित्वो को जानना होगा । 1947 में जब देश को आजादी और हमारे राजनेताओं को सत्ता मिली तो उनके सामने दो किस्म के हुक्मरानो के आदर्श थे ।
एक ओर ब्रिटिश हुक्मरानों के जीने का तरीका था तो दूसरी और राजा-महाराजाओं की राजसी ठाठ-बाट वाली जीवन शैली थी । हमारे राजनेताओं ने दूसरे आदर्श को अपनाना मुनासिब समझा । आजादी के बाद हमारी अर्थव्यवस्था पर सरकार के अत्यधिक और अनावश्यक नियन्त्रण से धीरे-धीरे समूची सत्ता राजनेताओं के हाथों में आने लगी । पर इनके रास्ते में सबसे बडी रुकावट थी-न्यायपालिका ।
इसलिए आगे चलकर राजनेताओं ने न्यायपालिका पर चढने के प्रयास शुरू किए । यह दावा लेकर कि हम देश के राजा हैं और संविधान ने हमको कानून बनाने का अधिकार दिया है । हम जो चाहे कर सकते हैं । तब उच्चतम न्यायालय को केशवानंद भारती के मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राजनेताओं को यह नसीहत देनी पड़ी कि ठीक है जो कर सकते हो करो लेकिन देश के बुनियादी ढांचे को आप बिगाड़ नहीं सकते ।
अगला निशाना बना मीडिया, क्योंकि राजनेताओं की निरंकुशता और राजसी जीवन शैली में अक्सर वह रुकावट डाल देता था । राजसी मिजाज को यह कहीं सहन होना था । नतीजतन मीडिया पर लगाम लगाने के प्रयास शुरू हो गए । कुछ कानूनी तरीके से ताउए कुछ बिना कानूनी तरीके से ।
अत: राजनेता यह कुप्रचार करने पर उतर आए कि अखबारों में सब कुछ सही नहीं छपता और इनकी बातों में विश्वास नहीं किया जाना चाहिए । खास तौर से अपने कार्यकर्ताओ को यह समझाने का सुनियोजित अभियान चलाया गया । अखबारों की विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाने के इस अभियान के तहत प्रेस को ही प्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करने का भी प्रयास हुआ ।
राजनेताओं ने कई छोटे अखबारों को पटाकर और बड़े अखबारों के पत्रकारों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर प्रेस की चमक को कम करने के लिए सधे हुए कदम उठाए । इसका कुछ असर जरूर हुआ और जनता की नजरों में अखबारों की विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठने लगे ।
रही-सही कसर अखबार मालिकों पर कई तरह के अंकुश लगाकर और उन्हे व्यावसायिक प्रलोभन देकर पूरी करने की कोशिश की गई लेकिन तब तक जनता में अपनी विश्वसनीयता और इस कारण मिलने वाले जन समर्थन की ताकत से मीडिया राजनेताओं के ऐसे कई हमलों का सफलतापूर्वक सामना कर सका ।
इमरजेंसी में क्या हुआ’ संजय गांधी के नसबंदी अभियान के तहत नीचे तक जनता के साथ जो ज्यादतियां हुईं, उससे लोग जाग उठे । राजनेताओं की ज्यादतियों के खिलाफ देश में हर जगह जनांदोलन का लावा फूट पड़ा । अंतत: सार्थक नतीजा सामने आया । यानी जनता की ताकत के आगे खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाले राजनेताओं को अखिरकार झुकना पड़ा ।
मीडिया के लोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि देश में आज यदि प्रेस स्वतंत्र है तो इसमें जनता के समर्थन और न्यायपालिका की बडी अहम भूमिका है । आज राजनेता अपनी निजी जिंदगी में प्रेस के हस्तक्षेप का सवाल अक्सर उठाते हैं । रारननेता को एक आम नागरिक की तरह अपनी अवमानना का आरोप लगाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता ।
सार्वजनिक जीवन में जो है, उनके निजी जीवन में झांकने का प्रेस को पूरा अधिकार है । बशर्ते कि किसी राजनेताओं के निजी जीवन में झांकने के पीछे प्रेस की नीयत गलत न हो । राजनेता केवल प्रेस की नीयत को लेकर ही सवाल उठा सकते हैं ।
राजनेताओं की निजी जिंदगी को जानना प्रेस का कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि आम नागरिको की ओर से मिला एक सहज अधिकार है । यदि किसी व्यक्ति के निजी जीवन का देश के भविष्य पर असर पड़ सकता है तो महज निजी जीवन की दुहाई देकर कोई खुद को प्रेस से छिपा नहीं सकता ।
इस मामले में जो स्वतंत्रता आम नागरिक को है, वैसी स्वतंत्रता राजनेता को कतई नहीं दी जा सकती । न ही सार्वजनिक पद पर बैठे किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा अधिकार दिया जा सकता है । यह ठीक है कि निजी जीवन के कुछ बेहद अंतरंग व निहायत निजता वाले पहलुओं में किसी को नहीं झांकना चाहिए ।
लेकिन जिस व्यवहार का असर देश के लोगों पर पड़ सकता है, उसे भला निजी कैसे माना जा सकता है । सार्वजनिक जीवन में आने वाले व्यक्ति को यह कीमत चुकाने के लिए तैयार होना ही चाहिए । लेकिन राजसी मिजाज वाले राजनेताओं को अपने विशेषाधिकारों में होने वाले किसी भी हस्तक्षेप से गुस्सा आना स्वाभाविक है ।
वह सोचते हैं कि देश हमारा है, देश की पूंजी हमारी है, कानून हम बनाते हैं फिर कोई हम पर उंगली कैसे उठा सकता है । भले ही सार्वजनिक तौर पर राजनेता कुछ कहें, लेकिन उनके राजसी मन-दिमाग में कहीं यह बात घर किए हुए हैं कि देश के कानून उन पर लागू नहीं होते और वे सभी कानूनों से ऊपर हैं ।
उनकी सहज दलील है कि हमें मतदाता चुनते हैं और यदि अपराधी होने के बावजूद हमें लोगों ने चुनकर सत्ता सौंप दी तो अदालत, प्रेस या कोई और उंगली भला कैसे उठा सकता है । राजनेताओ के बढ़ते गुस्से और टूटते संयम के पीछे एक कारण यह भी है कि धीरे-धीरे जनता जाग रही हैं और जिन संस्थाओं को राजनेताओं ने तोड दिया था, वे धीरे-धीरे स्वत: मजबूत होती जा रही हैं ।
उदाहरण के लिए आज बड़े से बड़ा नेता भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह फलां चुनाव में हर हालत में विजयी हो ही जाएगा । इससे ‘राजाओं’ के मन में गुस्सा भरना स्वाभाविक है । दूसरे, चुनाव आयोग और लोकतंत्र को मजबूत करने वाली कई संस्थाएं इधर स्वत: मजबूत होती नजर आ रही हैं ।
इन कारणों से राजनेताओं को ऐसा लगने लगा है, मानो वे अपने ही राजमहल में घिरते जा रहे हैं । फिर ‘राजा’ को गुस्सा क्यों नहीं आएगा ? मीडिया क्षेत्र में हाल के कुछ वर्षों में हुई तकनीकी क्रांति ने लोकतंत्र के इस ताकतवर माध्यम के प्रभाव-क्षेत्र और शक्ति को भी बढा दिया है । नई तकनीक के जरिए अब राजनेताओं की निरंकुशता से निबटना आसान हो गया है ।
पहले इमरजेंसी में सरकार को यह अधिकार भी था कि आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर हमारी मशीनें तक जज्ञ कर सकती थीं । लेकिन आज इलेक्ट्रिक मीडिया के विस्तार के बाद यदि सरकार उतारू भी हो जाए तो आखिर कितने वीडियो कैसेट जब्ल कर लेगी ।
यदि हुक्मराने ने अपने देश से अपलिंकिंग की सुविधा देने से इंकार कर दिया तो आज हम किसी अन्य देश से यह सुविधा लेकर अपने कार्यक्रमों का प्रसारण कर सकते हैं । यानी मीडिया की आवाज को बंद करने के संपूर्ण अधिकार आज तकनीक के विस्तार के बाद हमारे राजनेताओं के हाथों मे नहीं हैं ।
राजनेताओं की आज जब-तब प्रेस के प्रति बौखलाहट की यह पृष्ठभूमि भी है । अब प्रश्न उठता है कि प्रेस राजनेताओं के दबाव से कैसे मुक्त हो । इसके लिए जरूरी है कि राजनेताओं और सत्ता में बैठे दूसरे लोगों के तमाम प्रलोभनों से प्रेस स्वयं को मुक्त रखते हुये पेशेवर तरीके से सच्चाई को लगातार उजागर करती रहे ।
यदि प्रेस की नीयत सही हो, उसके तथ्य सही हो और लेखन शैली सयमित हो तो कोई ताकत उसे दबा नहीं सकती । पत्रकार खुद कमजोरी नहीं दिखाएंगे तो कोई उनको इस्तेमाल नहीं कर सकता । इस्तेमाल केवल वही होते हैं, जो इस्तेमाल होना चाहते हैं ।
प्रेस को समझना चाहिए कि जहाँ एक ओर राजनेताओं की पसंद-नापसंद की परवाह न करते हुये उसकी ताकत बढ रही है, वहीं उसकी जिम्मेदारी भी बढ रही है । जब कानून सबके लिए बराबर है तो सभी को कानून का सम्मान करना चाहिए । जो काम कानून की परिधि में रहकर हो सकता हो उसे उतावलेपन से तोड़ने का प्रयास ठीक नहीं ।
आज जब धारणा ऐसी है कि यदि लोग राजनेताओं को 90 फीसदी बेईमान समझते है तो पत्रकारों की छवि भी लोगों की नजरों में पाक साफ नहीं है । लोगों में आम धारणा बन गई है कि पत्रकारों को कुछ तरीकों से खरीदा जा सकता है । कभी दारू से, कभी गिपट से तो कभी अच्छे बर्ताव यानी लोक संपर्क से ।
हालांकि सबको एक ही डंडे से नहीं हांका जा सकता और इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि पूरी प्रेस ठीक नहीं, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि जहां एक ओर पत्रकारों की समृद्धि बढी है, वहीं दूसरी ओर उनकी विश्वसनीयता पहले की तुलना मे कम हुई है ।
कई बार यह सवाल उठता है कि न्यायपालिका की प्रभुत्वसंपन्न सत्ता और प्रेस की स्वतन्त्रता की मूल अवधारणाओं की दृष्टि से कौन-किससे श्रेष्ठ है । पर यदि इस पचड़े में न पड़े तो भी यह सच है कि भारत का संविधान देश के नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बुनियादी अधिकार और उसके सम्यक् उपयोग की गारंटी देता है ।
इस गारंटी को लागू करने का दायित्व न्यायालय पर डाला गया है । कोई भी नागरिक इस अधिकार का उल्लंघन होने पर सीधे उच्चतम न्यायालय तक जा सकता है, जिसकी यह जिम्मेदारी है कि वह उसके पास अधिकार की रक्षा करे । इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता शामिल है, न्यायालय की स्थिति से श्रेष्ठ माना जा सकता है ।
मगर इसका दूसरा पहलू यह है कि संविधान जहां प्रेस को न्यायालय की आलोचना करने का भी अधिकार देता है, वहां उसने इस स्वतंत्रता के दायरे को न्यायालय की अवमानना के संबंध में कानून बना कर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने की सीमा में बांध दिया है ।
साथ ही उसने उच्चतम और अन्य न्यायालयों को अपनी-अपनी अवमानना के सिलसिले में दंड देने की अभिलेख न्यायालय की सारी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार अनुच्छेद- 129 और 215 में दे रखा है । यानी जहां न्यायालयों का दायित्व प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करना है, वहीं उसे प्रेस से अपनी प्रतिष्ठा उघैर प्राधिकार की रक्षा करने का भी अधिकार है ।
सच तो यह है कि एक ओर प्रेस द्वारा स्वतंत्रता से कार्य करने में और दूसरी तरफ न्यायालय किसी भी प्रकार के भय, बाधा, दबाव और असम्मान से मुक्त माहौल में केवल अपने विवेक न्याय निर्णय करने में सक्षम बने रहने में अर्थात् इन दोनों में ही सर्वोच्च लोकहित निहित है । दोनों उदात्त सामाजिक मूल्य हैं जिनकी अटूट निष्ठा से रक्षा की जानी चाहिए ।
आज जब कार्यपालिका में सर्वत्र भ्रष्टाचार, अनियमितता अकुशलता, अनाचार और कुशता का बोलबाला है, जब जनमानस में उसके प्रति विश्वास उठ रहा है, जब प्रशासन नीतिक कार्यपालिका के नियंत्रण और निर्देशन में न रह कर मनमानी कर रहा है और जब भी जनसामान्य को कार्यपालिका के दुष्कृत्यों और दुराचार से राहत नहीं दिला पा रही नब इस घुप अंधेरे में प्रेस और न्यायपालिका ही समाज के लिए आशा के दो दीए बचे रह है ।
ये दोनों निकाय जनाधिकर के योद्धा हैं । इन्हें समाज द्वारा विश्वास की ताकत दिए जाने प्रावश्यकता है । स्वयं इन्हें अपने कार्य और आचरण से लोकविश्वास अर्जित करके अपनी प्रतिष्ठा नी चाहिए क्योकि इनकी प्रतिष्ठा ही इनकी ताकत है । साथ ही इन्हे एक-दूसरे के सम्मान रक्षा करनी चाहिए ।
मगर न्यायालय के अवमान का वर्तमान कानून (1971) इसमें सहायक नहीं है । पत्रकार अक्सर कानून के चंगुल मे जा फसते हैं । इसमे कुछ दोष उनका होता है पर बहुत कुछ इस कानून अदालतों के रुख का है । इसके कारण पत्रकार सूचना के लोक अधिकार के सिलसिले में ।
दायित्व का संपूर्ण निर्वाह नहीं कर पाते । कानून के आतंकमय प्रभाव और जजो के रुख अनिश्चिता की वजह से वे न्यायपालिका के अंदर झांकने से कतराते हैं और जो कुछ जानते से भी पूरी तरह से उजागर नहीं करते । न्यायालय के संबध मे जनता और प्रेस के अधिकारों के चार पहलू हैं- अदालत को कार्यवाही दूरी जानकारी का अधिकार, अदालतों के समक्ष उपस्थित मामलों और मुद्दों में भाग लेने विचाराधीन कार्यवाही के संबंध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अदालतों का मूल्यांकन करने और उसकी आलोचना करने का अधिकार ।
यद्यपि यह नितांत यक है कि न्यायालय को कलंकित किए जाने या उसके कार्य मे बाधा डालने अथवा उसके हार को गिराने के प्रयासों के विरुद्ध उसकी रक्षा के लिए कानून में जरूरी प्रावधान होने पर यह भी अनिवार्य है कि इन प्रावधानों को उपर्युक्त अधिकारों के साथ अनुकूलित और नत रखा जाए । वर्तमान कानून में ऐसा नहीं है ।
न्यायालय अवमानना कानून का सबसे ज्यादा असाधारण पहलू इसके अधीन सुनवाई की ऐसी प्रक्रिया अपनाया जाना है जो आपराधिक मामलों की सामान्य प्रक्रिया से उल्टी है । अवमानना गंभीर हो या मामूली, इसमें अभियुक्त को संक्षिप्त कार्रवाई के बाद जल्द सजा दे दी जाती या उसे कर दिया जाता है ।
अपने अवमानना के मामले में न्यायालय खुद ही अभियोजन पक्ष और ही जज होता है । ऐसी स्थिति में हर मामले में सरसरी सुनवाई की प्रक्रिया न्यायसंगत नहीं जा सकती । पर यह ऐसी ही है । रोनाल्ड गोल्डफार्ब ने अवमानना कानून पर अपनी पुस्तक में यह रोचक बात लिखी है कि नना का कानून आदमियों का नहीं, राजाओं का कानून है ।
राजाओं की अपेक्षा रहती है कि लोग उनकी अवज्ञा नहीं करेगे, उनसे सहयोग करेगे और हर हालत में उन्हें सम्मान देंगे । इस कानून का वैसा ही विकास हुआ है जैसा जजों ने चाहा है । सक्षिप्त विचार की प्रक्रिया भी 18वीं शताब्दी से उन्हीं की अपनाई हुई है, जो अब तक चल रही है ।
इस कानून के अंतर्गत कार्रवाई और सजा जजों के अपने रुख पर निर्भर होती है । किसी अभियुक्त को माफ करना या न करना जज की सतुष्टि पर निर्भर रहता है, हालाकि कानून अब कहता है कि अगर अभियुक्त ईमानदारी से माफी मांग ले तो उसे बरी कर दिया जाना चाहिए । इस कानून में कई सुधारों की आवश्यकता है ।
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साथ ही अदालतों के रुख में बदलाव की जरूरत है । सरकार, न्यायाधीशों, वकीलों, राजनैतिक दलों और संसद को निम्न और अन्य जो भी सुझाव हों उन पर विचार करना चाहिए । गंभीर मामलो को छोड़ कर अन्य मामलो मे सक्षिप्त विचार की प्रक्रिया खत्म की जाए । न्यायालय को कलकित करने या उसके प्राधिकार को गिराने के अभियोग की सुनवाई आपराधिक कानून की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार होनी चाहिए ।
न्याय प्रक्रिया और न्याय प्रशासन मे बाधा डालने का आशय हो तभी न्यायालय अवमानना का अभियोग चलाया जाना चाहिए अन्यथा नहीं । अगर सुनवाई पर गंभीर असर न पड़ता हो तो प्रेस को विचाराधीन मामलों से सबंध तथ्य उजागर करने दिए जाने चाहिए, विशेषकर तब जब वे तथ्य व्यापक लोकहित में हों ।
लोकहित के सामान्य विषयो या मामलो पर सद्भाव से सार्वजनिक बहस चलाना तब तक न्यायालय का अवमान नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि उसका सुनवाई पर पडने वाला प्रतिकूल असर केवल प्रासंगिक हो । किसी भी मुकदमे के दौरान यदि प्रेस के पास यह साक्ष्य हो कि असली अपराधी कोई और है तो उसे यह साक्ष्य प्रकाशित करने की छूट होनी चाहिए ।
यदि अवमानना का अप्रयुक्त न्यायपालिका के सबंध मे प्रकाशित बातों को सच्ची और उनके प्रकाशन को लोक-लाभ में होना सिद्ध कर दे तो उसे बरी कर दिया जाना चाहिए । प्रेस को अदालत के अंतिम निर्णय के बाद ही नहीं जैसा कि अभी प्रावधान है, उससे पहले भी उसकी उचित और संयत आलोचना करने का अधिकार होना चाहिए ।
न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप के लिए सजा तभी होनी चाहिए जब हस्तक्षेप भारी या गंभीर रूप में हो । कानून में अदालतों में पनप रहे भ्रष्टाचार व अन्य बुराइयो का सदभावपूर्ण उद्घाटन करने के लिए गुंजाइश होनी चाहिए । अदालत को अपने स्रोतो की जानकारी देने से इंकार करने वाले पत्रकार को न्यायालय की अवमानना का दोषी नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि अदालत के लिए यह जानकारी राष्ट्रीय सुरक्षा या अपराध निवारण के हित में अपरिहार्य न हो ।
हमारे सामने प्रश्न राह भी उठते हैं कि प्रेस जगत अपने सामाजिक दायित्वो का सफलतापूर्ण निर्वाह करने में कही तक सफल है ? कहों वह उच्च वर्ग के हितो का पोषण और समर्थन तो नहीं कर रहा ? क्या वह ऐसा सम्पादन नहीं कर रहा है जिससे पाठक गुमराह हो ?
कामुकतापूर्ण, अश्लील और सनसनीखेज समाचार एवं चित्र छापकर वह समाज को किस दिशा की ओर ले जा रहा है ? कहीं अधिकाश पत्र ‘खरीददार’ की भूमिका तो नहीं निभा रहे हैं ? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि अधिकाश समाचार पत्र अपनी बिक्री बढाने के लिए भी अश्लीलता, कामुकतापूर्ण एव सनसनीखेज समाचार छापते हैं- लेकिन प्राय: यह भूल जाते हैं कि इससे हमारे समाज को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है ।
भारतीय सदर्भ में जब मनमानी करने की छूट किसी को भी नहीं मिल सकती तो प्रेस ही मनमानी का कैसे लाभ उठा सकता है । प्रेस और पत्रकारिता की भी अपनी एक आचार-संहिता और मर्यादा है । प्रेस का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह अपने पाठको में अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने व बनाये रखने के लिए पूर्वाग्रह और पक्षपात मुक्त समाचार प्रेषण करे ।
इस व्यावहारिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि पत्रकारिता में भी अनौचित्यपूर्ण घटनायें उसके और उसकी स्वतंत्रता के कदम से कदम मिला कर चलती रहेंगी किन्तु किसी भी देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जो प्रयास उस राज्य के द्वारा किये जाते है, ठीक उसी प्रकार के ईमानदार प्रयास प्रेस और पत्रकारों को करने चाहिएं ।
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तभी उनकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता व प्रतिष्ठा कायम रह सकती है । यद्यपि हमारे देश में समाचार पत्रो और पत्रिकाओं का पश्चिम की भांति विकास नहीं हो पाया है, संभवत: इसीलिए हम अमरीका की भाति समाचारपत्रो में स्वयं अपनी (समाचार पत्रो की) आलोचना करने का प्रयास व स्वस्थ मानसिकता विकसित करने का साहस नहीं जुटा सके है । प्रेस का सुसचालन, विश्वसनीय संचालन उसकी अपनी व देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनिवार्य है ।
राजनेताओ के दबावो का सक्षमता से सामना करने के लिए यह जरूरी है कि पत्रकार भी खुद को पारदर्शी बनाए और अपनी निष्ठा को लेकर लगातार सतर्क रहें । कभी यह न भूलें कि उनकी जनता के बीच साख है । इसलिए उसकी कीमत पर कोई समझौता नहीं हो । यह सत्य है कि एक खरा पत्रकार बनना बहुत कठिन तपस्या है ।
पत्रकारों के लिए आत्म मंथन की सतत प्रणाली का विकसित होना भी निहायत जरूरी हो गया है । बेहतर होगा कि पत्रकार खुद अपने सस्थानी व सस्थाओ के माध्यम से ऐसी प्रणाली को विकसित करे । जरूरत अधिक पेशेवर तरीके से काम करने की भी है ।
यह किया तो पूरा देश आपका मुरीद होगा, वरना सब मिलकर आपको घेर लेंगे । साथ ही भारतीय प्रेस परिषद् को ऐसे अधिकार दिये जाने चाहिएं जिससे वह प्रेस की स्वतंत्रता का हनन करने वाले तत्वों को दण्डित कर सकें, क्योंकि अब तक प्रेस परिषद के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि जिससे वह अपने निर्देशों का पालन न करने वालों को किसी भी प्रकार का दण्ड दे सके ।
अंत में कहना होगा कि समाचार और विचार केवल सूचनात्मक नहीं होते हैं इनके द्वारा शिक्षण का कार्य भी किया जाता है । ये विचार, व्यवहार और कार्य तीनो को प्रभावित करते हैं । ऐसा केवल राजनीतिक क्षेत्रों में नहीं होता है ? सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में भी ऐसा ही होता है । जिन समाचारों और विचारों का प्रकाशन प्रेस के द्वारा होता हैं- उनमें लोकहित की मात्रा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । अत: प्रेस के साथ हम सभी का उसे संरक्षण देना परम कर्तव्य है ।