मेरा प्रिय साहित्यकार अथवा मुंशी प्रेमचंद पर निबंध | Essay on My Favorite Writer : Munshi Premchand in Hindi!
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मुंशी प्रेमचंद मेरे प्रिय एवं आदर्श साहित्यकार हैं । वे हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तंभ थे जिन्होंने हिंदी जगत को कहानियाँ एवं उपन्यासों की अनुपम सौगात प्रस्तुत की । अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए मुंशी प्रेमचंद उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं ।
केवल साहित्यकार ही नहीं अपितु सच्चे अर्थों में समाज सुधारक भी कहे जा सकते हैं क्योंकि अपनी रचनाओं में उन्होंने भारतीय ग्राम्य जीवन के शोषण, निर्धनता, जातीय दुर्भावना, विषाद आदि विभिन्न रंगों का जो यथार्थ चित्रण किया है उसे कोई विरला ही कर सकता है ।
भारत के दर्द और संवेदना को उन्होंने भली-भाँति अनुभव किया और उसके स्वर आज भी उनकी रचनाओं के माध्यम से जन-मानस में गूँज रहे हैं । प्रेमचंद जी का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही नामक ग्राम में सन् 1880 ई॰ को एक कायस्थ परिवार में हुआ था । उनके पिता श्री अजायब राय तथा माता आनंदी देवी थीं । प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था । परंतु बाद में साहित्य जगत में वे ‘मुंशी प्रेमचंद’ के रूप में प्रख्यात हुए ।
प्रेमचंद जी ने प्रारंभ से ही उर्दू का ज्ञान अर्जित किया । 1898 ई॰ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे सरकारी नौकरी करने लगे । नौकरी के साथ ही उन्होंने अपनी इंटर की परीक्षा भी उत्तीर्ण की । बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के प्रभाव से उन्होंने सरकारी नौकरी को तिलांजलि दे दी तथा बस्ती जिले में अध्यापन कार्य करने लगे । इसी समय उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की ।
मुंशी प्रेमचंद ने आरंभ में उर्दू में अपनी रचनाएँ लिखीं जिसमें सफलता भी मिली परंतु भारतीय जनमानस के रुझान को देखकर उन्होंने हिंदी में साहित्य कार्य की शुरुआत की । परिवार में बहुत गरीबी थी, बावजूद इसके उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से कभी मुख न मोड़ा । वे अपनी अधिकतर कमाई साहित्य को समर्पित कर दिया करते थे । निरंतर कार्य की अधिकता एवं खराब स्वास्थ्य के कारण वे अधिक समय तक अध्यापन कार्य जारी न रख सके ।
1921 ई॰ में उन्होंने साहित्य जगत में प्रवेश किया और लखनऊ आकर ‘माधुरी’ नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया । इसके पश्चात् काशी से उन्होंने स्वयं ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ नामक पत्रिका का संचालन प्रारंभ किया परंतु इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिल सकी । घर की आर्थिक विपन्नता की स्थिति में कुछ समय के लिए उन्होंने मुंबई में फिल्म-कथा लेखन का कार्य भी किया ।
अपने जीवनकाल में उन्होंने पत्रिका के संचालन व संपादन के अतिरिक्त अनेकों कहानियाँ व उपन्यास लिखे जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं सजीव लगते हैं जितने उस काल में थे । मात्र 56 वर्ष की अल्पायु में हिंदी साहित्य जगत का यह विलक्षण सितारा चिरकाल के लिए निद्रा निमग्न हो गया ।
मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने अल्प साहित्यिक जीवन में लगभग 200 से अधिक कहानियाँ लिखीं जिनका संग्रह आठ भागों में ‘मानसरोवर’ के नाम से प्रकाशित है । कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने चौदह उपन्यास लिखे जिनमें ‘गोदान’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है । इसके अतिरिक्त रंगभूमि, सेवासदन, गबन, प्रेमाश्रम, निर्मला, कायाकल्प, प्रतिज्ञा आदि उनके प्रचलित उपन्यास हैं ।
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ये सभी उपन्यास लेखन की दृष्टि से इतने सजीव एवं सशक्त हैं कि लोग मुंशी जी को ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित करते हैं । कहानी और उपन्यासों के अतिरिक्त नाटक विद्या में भी प्रेमचंद जी को महारत हासिल थी ।‘चंद्रवर’ इनका सुप्रसिद्ध नाटक है । उन्होंने अनेक लोकप्रिय निबंध, जीवन चरित्र तथा बाल साहित्य की रचनाएँ भी की हैं ।
उर्दू भाषा का सशक्त ज्ञान होने के कारण उन्होंने अपनी प्रारंभिक रचनाएँ उर्दू भाषा में लिखीं परंतु बाद में उन्होंने हिंदी में लिखना प्रारंभ कर दिया । उनकी रचनाओं में उर्दू भाषा का प्रयोग सहजता व रोचकता लाता है ।
प्रेमचंद जी की उत्कृष्ट रचानाओं के लिए यदि उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ के स्थान पर साहित्य सम्राट की उपाधि दी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । मुंशी प्रेमचंद के पात्रों के वर्ग प्रतिनिधित्व को सहजता से देखा जा सकता है । वे समाज का चित्रण इतने उत्कृष्ट ढंग से करते थे कि संपूर्ण यथार्थ सहजता से उभर कर मस्तिष्क पटल पर चित्रित होने लगता था ।
ऐसे महान उपन्यासकार, नाटककार व साहित्यकार के लिए इससे बढ़कर और बड़ी श्रद्धांजलि क्या होगी कि उनकी मृत्यु के आठ दशकों बाद भी उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता पूर्ववत् बनी हुई है । हजारों की संख्या में लोग उनकी रचनाओं व शैली पर शोध कर रहे हैं । वह निस्संदेह हमारे हिंदी साहित्य का गौरव थे, हैं और सदैव ही रहेंगे ।
प्रेमचंद जी की रचनाओं में समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग की समस्याओं को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत किया गया है । गोदान का पात्र ‘होरी’ भारतीय किसानों की दु:ख-सुख से भरी संपूर्ण जीवन यात्रा का आदर्श प्रतिनिधित्व करता है । प्रेमचंद तत्कालीन समाज की सभी समस्याओं, उसके सभी पक्षों को छूने वाले समर्थ रचनाकार कहलाते हैं ।