बढ़ता कालाधन: विकट समस्या | Black Money : A Serious Problem in Hindi!
प्रस्तावना:
कालाधन और चोर बाजारी शब्द दूसरे विश्व युद्ध के दौरान प्रचलित हुये थे । कालाधन शब्द उस रुपये के लिए इस्तेमाल किया जाता था जो रुपया चोर बाजारी के लिए इस्तेमाल होता था लेकिन अब कालाधन शब्द उस रुपये के लिए इस्तेमाल होता है जिस पर कर न दिया गया हो और छिपाई गई आय हो । काला धन सोने, जेवरात, हीरे जवाहरात, जमीन, इमारतों तथा कारोबारी सम्पदाओं में भी होता है ।
चिन्तनात्मक विकास:
देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और नेता, अफसरशाह, व्यवसायी-व्यापारी की चौकड़ी देश की अर्थव्यवस्था, कानून-कायदों के साथ खुला खेल, खेल रहे हैं । ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार अचानक उपजा है । इसकी पौध देश में हर काल में मौजूद थी लेकिन पिछले एक दशक में लाचार व्यवस्था ने इसको जो खाद-पानी मुहैया करायी है उससे यह जिस तेजी से पनपा है वह अदभूत है ।
धन की एक बड़ी मात्रा कहीं जमा रहे, प्रवाह में न आए और देश, समाज के सकारात्मक, विकासात्मक कार्यो में न प्रयुक्त हो तो यह देश के लिए अहितकर है । यह कितना विरोधाभासपूर्ण तथ्य है कि यदि देश के सारे कालेधन का 60 फीसदी भी बाहर आ जाए तो न सिर्फ हम कर्ज मुक्त होंगे, बल्कि हमारे विकास की रफ्तार भी तेज होगी ।
लेकिन है इसका उल्टा । कालेधन बनाने के मूल कारणों ने हमें कर्जे से लाद रखा है और विकास की बजाए विनाशकारी गतिविधियों का कारण बन रख है । आज भी कालेधन की अमरबेल जिंदा है और पूरी व्यवस्था की शाखाओं-प्रशाखाओं पर पसरती जा रही है ।
कालाधन बाहर निकालने की कोई कारगर योजना आज भी नहीं है उल्टे कालेधन की समस्या और विकराल होती जा रही है । कालाधन किसी रहजन के छुरे से चिकित्सक का नश्तर भी बन सकता है अगर वह बाहर आये, लेकिन सवाल यह है कि वह बाहर आये कैसे, उसे बाहर लाये कौन ? कालेधन की बढ़त को रोका कैसे जाए । जाहिर है बाहर लाने के लिए कुछ पारदर्शी, विश्वासप्रद, लचीले कानून-कायदों को एवं कुशल नेतृत्व को आगे आना पड़ेगा और स्वयं को ईमानदार साबित करना होगा ।
उपसंहार:
स्पष्टत: कालेधन के विशाल भंडार की ऊंचाई हमारे नैतिक पतन की गहराई दर्शाती है । कारण, हमारी शिक्षा-दीक्षा की पूरी प्रणाली में जरूर कहीं कोई कमी है । लगता है अपनी परम्परा, सार्वभौमिक नैतिकता, देशभक्ति और आचरण की शुद्धता के पाठ पाठ्यक्रम से हटाकर मात्र येन-केन-प्रकारेण क्लर्क बनने, पैसा कमाने के पाठों का समावेश कर दिया गया है, ऐसे में कालेधन की गहराती कालिमा में आशा की कोई मद्धिम-सी भी किरण कौंधती नहीं दिखाई देती ।
भारत में आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं को जन्म देने वाला प्रमुख कारक हैं : कालाधन और उसमें निरन्तर वृद्धि । सामाजिक समस्या होने के कारण यह समाज पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । उदाहरणार्थ, सामाजिक असमानताएँ, सामाजिक वंचनाएं आदि ।
जबकि आर्थिक रूप में इसे समान्तर अर्थव्यवस्था, छिपी अर्थव्यवस्था व अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था माना जाता है, जो सरकार की आर्थिक नीतियों का परिणाम होती है तथा जिसके देश की अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्र के समाजवादी नियोजन विकास पर हानि योग्य प्रभाव पड़ते हैं ।
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कालेधन की समस्या उन व्यक्तियो को प्रभावित नहीं करती जिनके पास काला धन होता है, बल्कि समाज के सामान्य व्यक्ति को प्रमावित कर हे । कालाधन बचाये गये कर अर्थात् करों की चोरी संबंधी आय है । यह आय वैधानिक तथा अवैधानिक दोनों तरीकों से कमाई जाती है । इसका वैध रूप यह है कि आय कमाने वाले देने के उद्देश्य से अपनी पूर्ण आय बताते नहीं हैं ।
उदाहरण के लिये वह आय जो सरकारी डर निजी अभ्यास से कमाते हैं, यद्यपि उन्हें निजी पेशा न करने का भत्ता भी मिलता है, अथवा आय जो शिक्षक परीक्षाओं से या अपनी पुस्तकों की रायल्टी से कमाते हैं, परन्तु उसे आर
के खाते में सम्मिलित नहीं करते, या वह आय जो वकील अपने लेखा-पुस्तक में दिखाये पारिश्रमिक से अधिक वसूल करते हैं, इत्यादि । इस कालेधन के अवैध रूप हैं: रिश्वत, तस् चोर बाजारी, नियन्त्रित मूल्यों से अधिक मूल्यों पर वस्तुएं बेचना, किराये पर मकान या दुकान देने के लिए पगडी लेना, ऊँचे दाम पर मकान बेचना परन्तु लेखा-पुस्तकों में कम दाम प्रद करना इत्यादि ।
कालेधन का श्वेतधन में और श्वेतधन का कालेधन में रूपान्तरण करना सम्भव है । उदाहर जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के लिए बिक्री कर देकर दुकानदार से उसकी रसीद लेता है, वास्तव में वह उस वस्तु को खरीदता नहीं है, तब उसका कालाधन श्वेतधन में परिवर्तित हो है ।
यहाँ दुकानदार वह वस्तु बिना रसीद दिये अन्य किसी व्यक्ति को बेच देता है । दूसरी यदि एक व्यक्ति कोई वस्तु खरीदता है जैसे, स्कूटर या वी.सी.आर आदि और उसके लिए 15,000 रुपये देता है, परन्तु रसीद 10,000 रुपये की ही लेता है, तब बेचने वाले के लिए 5,000 कालाधन होगा । यहाँ श्वेतधन कालाधन बन जाता है ।
कालेधन की समस्या को उत्पन्न करने में अनेक कारण उत्तरदायी हैं । प्रथम, करों और में वृद्धि लोगों को करों की चोरी करने के लिए बाध्य करती है । इस कारण लोग अपन् छिपाते हैं । यदि आयकर की दर कम कर दी जाये तो बहुत से व्यक्ति अपनी आय छिपायें तथा राजस्व में भी वृद्धि होगी । द्वितीय, एक ही प्रकार के उत्पादकों के लिए अनेक बार शुल्क के लिए विभिन्न दरें पाई जाती हैं ।
उदाहरणार्थ, कपड़ा व्यवसाय और सिगरेट में पे के गलत वर्गीकरण द्वारा इससे शुल्क का अपवंचन किया जाता है । कपड़ा व्यवसाय में व विभिन्न प्रकारों के लिए उत्पादक शुल्क अलग-अलग वसूल किया जाता है । कपडे के उत्पादक अपने उत्पाद में इस कारण नियमित रूप से गुणात्मक अवनति करते हैं, जिससे उन्हें कम शुल्क देना पड़े ।
तृतीय, कालेधन का एक और कारण सरकार की मूल्य नियन्त्रण नीति है । नियन्त्रण लगाने के लिए वस्तुओं के चुनाव तथा उनके मूल्य निर्धारित करने में सरकार मांग और के लचीलेपन को महत्व देने में असफल रहती है । नियन्त्रण के उपाय जितने अधिक का तथा अर्थव्यवस्था जितनी अधिक नियन्त्रित होगी, उतना ही उसके उल्लंघन का प्रयास अधि जिससे गुप्तसंचय, जालसाजी, कृत्रिम दुर्लभता बढेगी तथा कालाधन पैदा होगा । चतुर्थ, का एक साधन कोटा व्यवस्था भी है ।
आयात का कोटा, निर्यात का कोटा व विदेशी बि कोटा, अधिमूल्य पर बेच कर अधिकांश: दुरुपयोग किया जाता है । पंचम, वस्तुओं की एवं जन वितरण व्यवस्था में दोषों के कारण भी कालाधन पैदा होता है । जब आवश्ट दुर्लभ हो जाती हैं, तब लोगों को उनके लिये नियन्त्रित मूल्य से अधिक कीमत देनी जिससे कालाधन पैदा होता है ।
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षष्टम, कुछ वस्तुओं (जैसे पेट्रोल) के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार-मूल्यों में वृद्धि के कारण, कुछ वस्तुओं में वृद्धि के कारण, कुछ व्यक्तियों के धनवान व्यक्तियों द्वारा प्रदर्शन उपभोग के कारण, तथा संसाधनों के उत्पादन से विशेषीकरण में विशाखन के कारण मुद्रास्फीति पैदा होती है, जो ईं कालेधन को जन्म देती है ।
सप्तम्, देश में एक चुनाव में हजारों करोड़ रुपये व्यय किये हैं । लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए एक उम्मीदवार सामान्यत: दस लाख से अधिक खर्च करत है, जबकि विधानसभा चुनाव लडने के लिए एक उम्मीदवार को वर्तमान में पाँच लाख रुपये स्ऐ अधिक व्यय करना पड़ता है ।
चूंकि कानून ने उम्मीदवार के निर्वाचन व्यय को सीमित किया हुअ है, तथा कम्पनियों को राजनैतिक पार्टियों को चुनाव के लिए चन्दा देने की अनुमति नहीं दे रख है, अत: चुनाव का व्यय अधिकांश कालेधन से किया जाता है ।
जो लोग चुनावों में कालाधन लगार हैं, वे राजनैतिक संरक्षण व आर्थिक रियायतों की आशा रखते हैं जो उन्हें वस्तुओं के कृत्रिम नियन्त्रा तथा वितरण साधनों में शिथिलता आदि द्वारा राजनैतिक अभिजनों की सहमति व मीनानुमति प्राप्त होती है ।
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ये सब विधियाँ कालाधन पैदा करती हैं । अष्टम, अचल सम्पत्ति का क्रय-विक्र कालाधन उत्पन्न करने का एक प्रमुख साधन है । वर्तमान में मकान व भूमि खरीदना न केवा लाभदायक, अपितु आवश्यक भी माना जाता है । शहरों में भूमि कम होने के कारण कृषि भू को आवासीय भूमि में रूपान्तरण करने की प्रवृत्ति बढती जा रही है ।
जबकि कृषि भूमि पर बिर अनुमति के बस्तियाँ स्थापित करना अवैध है । नयी बस्तियाँ स्थापित करने वालों द्वारा जो पंजीकर दस्तावेजों में क्रय-विक्रय मूल्य दर्शाया जाता है, वह बाजार मूल्य ब वास्तविक मूल्य से बहुत होता है । इससे भूमि बेचने वाला पूंजी लाभ पर कर देना अपवंचित करता है ।
अनुमानत: हर शहरी सम्पत्ति में लगभग 50 लाख क्रय-विक्रय होते हैं, सम्पत्ति के अवैध क्रय-विक्रय से लगभग 2,000 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष कालाधन पैदा होता है । इन सभी कारणों के परिणामस्वरूप आर्थि दृष्टि से कालाधन राजकोष को उसके देय हिस्से से वंचित करता है, आर्थिक असमानता बढ़ा है, तथा आर्थिक विकास संबधी कार्यक्रमों में बाधा डालता है ।
सामाजिक दृष्टि से सामाजिक असमानता बढाता है, ईमानदार व्यक्तियों में निराशाएं पैदा करता है, तस्करी, रिश्वतखोरी, आ जैसे अपराधी में वृद्धि करता है तथा समाज के निर्धन व कमजोर तबके के व्यक्तियों के उत्थान के लिए सामाजिक सेवाओ संबंधी कार्यक्रमों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है । यह उत्पाद दर, स्फीति दर, बेरोजगारी व निर्धनता, आदि के सही दरों के नापने को भी विकृत करता जिससे इन समस्याओं को नियन्त्रित करने संबंधी सरकारी नीतियाँ भी प्रभावित होती हैं ।
भारत में कालेधन की समस्या:
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आज अगर कोई यह कहे कि कालेधन की प्रेतछाया से उस जीवन पूर्णतया मुक्त है तो शायद इससे बडा झूठ और कुछ नहीं होगा । हां यह बात हो सब है कि इस भ्रष्टाचार में उसकी अप्रत्यक्ष और आशिक भागीदारी हो ।
मोटे तौर पर व्यवसाय अन्य कार्यो में संलग्न व्यक्तियो का धन जिस पर आयकर नहीं दिया गया हो, कालाधन कहल है । यह कालाधन छोटे दुकानदारी से लेकर बड़े-बड़े पूंजीपतियों तक की आय का एक स्रोत होता है ।
कर योग्य आमदनी पर आयकर न चुकाना आज के व्यावसायिक युग में व्यवसाय की व्यापारिक नीति का मुख्य हिस्सा बन गया है । सरकार और समाज को इसका अहसास के बावजूद कालेधन की रोकथाम हेतु कोई भी सैद्धांतिक मुहिम नहीं चलायी जा रही है ।
माहौल में किसी एक को भ्रष्ट बताने की अपेक्षा यह जानना बेहद जरूरी है कि काली क का काला साम्राज्य किस खतरनाक मोड़ तक आ पहुंचा है । नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसी के एक अनुमान के अनुसार 1983 में भारत में लगभग 35 हजार करोड़ रुपये का कालाधन था, जो सात वर्षों के बाद यानी में बढकर करीब 60 हजार करोड रुपये हो गया ।
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संसद की स्थायी वित्त समिति की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1994-95 में कालेधन का आकडा 110 हजार करोड रुपये हो गया, इसी अवधि में सकल घरेलू उत्पाद राशि 190 हजार करोड रुपये थी, भारतीय लगभग समानातर चल रही इस कालेधन की सत्ता के बारे में समिति ने आशंका व्यक्त कि यदि समय रहते इस पर नियत्रण नहीं पाया गया तो बहुत जल्द कालेधन का आकडा उत्पाद राशि के कडे को पार कर जाएगा ।
एक तरफ कालेधन का शासन लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ भारत सरकार का घाटा भी निरंतर बढता जा रहा है । कड़े बताते हैं कि वर्ष 1990-91 में सरकार का घाटा 44632 करोड रुपये था जो बढकर 1994-95 में 61 हजार करोड रुपये हो गया ।
इसके अलावा अनुमान है कि वर्ष 1995-96 में यह घाटा 71 हजार करोड रुपये तक पहुँच वित्तीय घाटे के इस सकट से उबरने के लिए सरकार का बार-बार बाक्य एव आतरिक से लेना पड़ रहा है । इस कारण ब्याज अदायगी भी एक सकट बनती जा रही है । वर्ष 91 में सरकार को ब्याज-भुगतान पर 21,948 करोड रुपये खर्च करने पडे थे । 1994-95 राशि बढकर 46 हजार करोड रुपये यानी दोगुने से भी ज्यादा हो गयी ।
इसका अर्थ है कि के राजकोषीय घाटे में ब्याज अदायगी ही मुख्य कारण है, जिसे रातो-रात समाप्त किया जा है बशर्ते सरकार काली रकम के आधे हिस्से को ही अपने कब्जे मे लेने में सफल हो यहां प्रश्न यह भी है कि कालाधन कहां से आता है और कैसे अपने पांव पसारता है जाहिर सी बात है कि सरकार जिन योजनाओं तथा कार्यक्रमों की बाबत आतरिक या बाह्य लेती है उस में से जो भाग सही मद में नहीं खर्च किया जाता है उसी से ‘आधुनिक कालेधन’ का बहुत बड़ा हिस्सा तैयार होता है ।
इसके अतिरिक्त भूल-खोरी, तस्करी, कालाबाजारी, सौदों तथा हवाला बाजार जैसे कारोबारों से भी ‘कालाधन’ फलता-फूलता रहता है, जिस पर लगाना सरकार के लिए टेडी खीर है क्योंकि सत्ता के आधे से अधिक भाग पर कालाबाजरियों का ही कब्जा है ।
अब तक के अनुभव बताते है कि कालेधन को नियंत्रित करने के लिए सरकार छ भी कदम उठाये गये हैं, वे सब हवाई निकले हैं । इस संबंध में पहले 1000 रुपये तथा 500 के नोटों का प्रचलन अचानक रोक दिया गया था, लेकिन उससे भी कोई खास फायदा था ।
इस दिशा में वर्तमान सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय आवास बैंक तथा भारतीय – की डालर बांड योजना, भारतीय रिजर्व बैंक की स्वर्ण बांड योजना और विदेशी मुद्रा के संबध में भारत सरकार की उदारवादी नीतियों सहित जितने भी प्रयास किये गये वे सब ही साबित हुए हैं ।
वैसे भी सरकार जिस प्रकार इस अघोषित धनराशि की निकासी की तैयार करती है, उससे कहीं ज्यादा लाभदायक बेनामी खातो, बेनामी शेयरों तथा बेनामी पैसा लगाना रहता है, जिसका कालाबाजारियों को बेहतर ज्ञान होता है । इसीलिए काले व्यवसाय को रोकने में ऐसे प्रयासो को अब तक सफलता नहीं मिल सकी है ।
कालेधन को बढाने में भ्रष्टाचार तो प्रमुख कारण है ही मगर साथ ही साथ हमारी कर भी कम जिम्मेदार नहीं है । यही वजह है कि सरकार को जिस सुगमता से सार्वजनिक उपक्रमों एवं उनके कर्मचारियों से कर के रूप में राजस्व प्राप्त होता है, उस अनुपात में उस सहजता से निजी क्षेत्र के उपक्रमों तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों एवं उनके कर्मचारियों से मिलता है ।
चूंकि सरकारी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का अधिकांश कार्य समुचित खातों के तहत है अत: टैक्स अदा करना उनकी बाध्यता बन जाती है, अन्यथा ये लोग भी टैक्स न अदा करते ।यदि बढती मंहगाई तथा मुद्रा के बाजार मूल्य के अनुरूप सरल कर व्यवस्था होती तो संभवत: सरकार को अधिक मात्रा में राजस्व प्राप्त होता ।
बहरहाल इतना तो स्पष्ट है कि हमारी अर्थव्यवस्था को खोखला करने वाले इन कालाबाजार का बहुत धन बड़ा बेनागी धंधों में ही लगा है । इसलिए जिन सूत्रों के आधार पर सरकार यह मालूम हो जाता है कि देश में इस समय कितनी रकम कालेधन के रूप में मौजूद है, सूत्रों का सहारा लेकर सरकार को इस रकम की निकासी हेतु एक जोरदार अभियान चl चाहिए ताकि ऐसे तत्वों को अपने कालेतंत्र का और अधिक विस्तार का मौका न मिले ।
पिछले चालीस वर्षो में सरकार ने अलग-अलग समय में सात योजनाएं उदघोषित की हैं, जिनसे काल निकालने को प्रोत्साहन मिल सके । इनमें से कुछ योजनाएं इस प्रकार हैं: विशेष धारक बंध की योजना का आरम्भ, उच्च मूल्यांकन वाले नोटों का विमूल्यीकरण, कडे छापे तथा ऐाइच् प्रकटीकरण की योजना ।
जुलाई, 1991 में केन्द्रीय वित्त मंत्री ने एक नयी योजना राष्ट्रीय नि बैंक योजना प्रस्तावित की थी, जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वैध योजना में कालेधन को ला जा सके । इस योजना ने अघोषित धनधारकों को एक अवसर प्रदान किया कि वे धन-प्राप्ति साधनों को बिना घोषित किये उसे एन.एच.बी. में कम से कम 10,000 रुपया जमा कर सकें ।
यह प्रस्ताव सात महीनों तक खुला रहा और 31 जनवरी, 1992 को बन्द कर दिया गया । योजना खाता-धारियों को अपने खाते में से 60 प्रतिशत तक वापस लेने की सुविधा देती है शेष 40 प्रतिशत को अपने अधिकार में लेकर उसे गन्दी बस्तियों के साफ करने, निर्धनों के मकान बनाने जैसी परियोजनाओं के लिए व्यय करने हेतु आरक्षित रखती है ।
जिस उद्देश्य लिए रुपया 60 प्रतिशत व्यय करना है, उसे बता कर ही रुपया निकालने की अनुमति थी । व्यक्तियों को केवल 40 प्रतिशत ही आयकर देना होता था । 1978 में एक हजार रुपये के नोट का विमूल्यीकरण करके लगभग 20 करोड़ रुपये में वापस लाये गये थे ।
1951, 1955 और 1975 की ऐच्छिक प्रकटीकरण योजनाओं से 249 व रुपया अघोषित रुपयों के रूप में प्राप्त हुआ था । 1986 की प्रकटीकरण योजना से केवल करोड रुपया मिला था । योजना लगभग एक वर्ष तक खुली रखी जाती है । 1978 में छाए द्वारा भी कालेधन का लगभग 217 लाख रुपया वसूल किया गया था ।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि ये उपाय केवल हिमशैल के सिरे को ही स्पर्श करते चालीस वर्षों में सभी योजनाओं को मिलाकर 5,000 करोड़ रुपया ही प्राप्त ध्या हे । इन योजनाओं में मुख्य दोष यह हैं कि यह पहले से ही पैदा किये गये कालेधन की समस्या से सम्बन्धी तथा कालाधन पैदा होने के मूल कारण को समाप्त करने का प्रयास नहीं करती और न ही इस बात का कारण ढूंढती है कि व्यक्ति दण्ड का भय होते हुये भी कालेधन को इकट्ठे करने जोखिम क्यो लेते हैं । जब तक यह प्रश्न हल नहीं किये जायेंगे, तब तक कालेधन का अरि बढता ही जाएगा ।
कालेधन की विकट समस्या से निपटने के लिए देश के कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने नागरिक पहचान पत्र जारी करने का सुझाव दिया है । इस पहचान पत्र में अंकित पांच या छह अंकों वाले एक नंबर के आधार पर ही लोगों को खाता खोलने, शेयर खरीदने या किसी भी प्रकार के व्यवसाय करने की अनुमति दी जानी चाहिए ।
इन सभी नागरिक पहचान पत्र नंबरों को एक केंद्रीय कम्प्यूटर कक्ष से जोडी जाए ताकि इनके द्वारा की जा रही आर्थिक गतिविधियों की सही जानकारी रखी जा सके । इसी तरह का एक प्रयोग दक्षिण कोरिया ने किया जो काफी सफल साबित हुआ । अतिरिक्त कालेधन का प्रमुख स्रोत व्यवसायियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिया जाने भी है ।
राजनीतिक दलों के जलसो और चुनावी खर्चों पर पाबंदी लगाकर इस तरह के रोक लगायी जा सकती है । इस संदर्भ में सभी राजनीतिक दलों के खातो की नियमित जांच नियंत्रक एवं महालेखाकार की, निगरानी में कराने से भी इस समस्या से मुक्ति में सहायता मिल सकती है । बशर्ते इसके लिए सरकार और सभी राजनीतिक दल ईमानदारी का परिचय दें ।
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बहरहाल कालेधन के खिलाफ जहां एक तरफ सैद्धातिक स्तर पर जोरदार अभियान की आवश्यकता है, वहीं दूसरी तरफ प्रशासनिक स्तर पर भी कुछ ठोस पहल करनी पडेगी जटिल कर प्रणाली के कारण लोगों में आयकर या बिक्रीकर न देने की प्रवृत्ति पनपती है । लिए आयकर ढांचे में सुधार और बिक्रीकर व उत्पादकर के झंझट को मैत्युफैक्चरिंग ही सुलझा देने की मांग के साथ-साथ कालेधन पर रोक लगाने के लिए कुछ सख्त की भी जरूरत है ।
इस दृष्टि से भारत के वित्त मन्त्री श्री चिदम्बरम ने कालाधन निकालने के उद्देश्य से एक स्वैच्छिक अनुपालन योजना शुरू करने की घोषणा की । इसके तहत घोषित धन चाहे वे किसी भी स्रोत से आया हो, देश में हो या देश के बाहर हो, नकद या किसी और रूप में हो, पर उच्चतम दर से कर देना होगा ।
घोषित धन पर किसी तरह का या ब्याज नहीं देना होगा । इसके साथ ही धन घोषित करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध आयकर कर या विदेशी मुद्रा अधिनियम के अंतर्गत किसी तरह की कार्रवाई नहीं की जाएगी । शुरू होने की तारीख अलग से घोषित की जाएगी और इस वर्ष के अंत तक यानी 31 दिसम्बर, 1997 तक लागू रहेगी । वित्त मंत्री ने यह भी आशा व्यक्त की कि लोग सरकार द्वारा दिये गए इस अवसर का लाभ उठाएगे ।
उसे लोगो की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करने के लिए जा रहे कार्यक्रमों में किया जाएगा और लगभग 77.5 प्रतिशत हिस्सा राज्य सरकारों को मिलेगा । वरिष्ठ नागरिकों को कुछ और राहत देने के उद्देश्य से श्री चिदम्बरम ने आयकर तू दर को 40 प्रतिशत से बढाकर 100 प्रतिशत करने का प्रस्ताव किया है । यह दर 10,000 की सीमा तक लागू होगी ।
इस प्रकार एक लाख रुपए तक की दार्षिक आय वाले किसी नागरिक को अब कोई कर नहीं देना होगा । मुख्यमंत्री और उपराज्यपालों के राहत कोष गई राशि को 100 प्रतिशत कटौती की छूट देने के उद्देश्य से वित्त मंत्री ने आयकर की संबंधित धारा में सशोधन करने का प्रस्ताव भी किया है ।
व्यावसायिक जगत को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से प्रस्तावित बजट में और कर रियायतें की घोषणा की गई है । कम्पनियो पर लगने वाले शेष अधिभार को पूरी तरह समाप्त करने की घोषणा करते हुए श्री चिदम्बरम ने कहा कि नए निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए घरेलू विदेशी दोनों ही तरह की कपनियो पर करो की दर कम करने का प्रस्ताव है ।
अब कर की दर घरेलू कंपनियों पर 35 प्रतिशत और विदेशी कंपनियों पर 45 प्रतिशत होगी । इसके ही विदेशों से तकनीकी सेवाएं लेने पर कपनियों को अब रॉयल्टी 30 प्रतिशत की जगह 20 प्रतिशत की दर पर ही देनी होगी । पिछले साल लागू बहुचर्चित न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) को हटाए जाने की मांग की चर्चा करते हुए श्री चिदम्बरम ने कहा कि इसको पूरी तरह से हटाया जाना संभव नहीं होगा, लेकिन इसमें आवश्यक संशोधन किए जा सकते हैं ।
उन्होंने निर्यात से वाली आय को पूरी तरह से मैट से छूट देने की घोषणा की । इसके साथ ही मैट के भुगतान के संबंध में एक नई ण प्रणाली शुरू करने का प्रस्ताव भी किया । इसके तहत जब मैट अदायगी करने वाली कपनी यदि ण लेती है तो वह आयकर के निर्धारण के लिए उस का लाभ अगले पाच वर्षो तक ले सकती है ।
शेयरो के लाभाश से होने वाली आय पर कर छूट देने के संबंध में लंबे समय से चली रही मांग को स्वीकार करते हुए वित्त मंत्री ने शेयरधारकों को मिलने वाले लाभांश पर कर सा करने की घोषणा की है । लेकिन इसके साथ वित्त मत्री ने अधिक लाभांश देने वाली कंपा द्वारा वितरित किए जाने वाले लाभांश पर 10 प्रतिशत की दर पर कर लगाने की घोषणा उन्होंने कहा कि इससे शेयर धारकों पर कोई बोझ नहीं बढ़ेगा, लेकिन कंपनी को निवेश के प्रोत्साहन मिलेगा ।
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सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए वित्त मंत्री ने प्रतिभूतियों पर ‘स्रोत पर’ कर की कटौती खत्म करने के साथ ही भारतीय यूनिट ट्रस्ट की यू और खुचुअल फड पर 1500 रुपए तक मिलने वाली छूट को अब सरकारी प्रतिभूतियों के पं में भी लागू करने का प्रस्ताव किया ।
निष्कर्षत: कालेधन और समानान्तर अर्थव्यवस्था संबंधी समस्याओं के समाधान हेतु कुछ में कर कम करना पडेगा, आय के ऐच्छिक प्रकटीकरण के लिए प्रोत्साहन देना, आर्थिक गुा विभाग की इकाई में पूर्णत: हेर-फेर करना, विभिन्न स्तरों पर प्रशासनिक भ्रष्टाचार को निय करना, मकान निर्माण पर व्यय किये गए धन को कर मुक्त करना तथा नियन्त्रण योजना समाप्त करना ।
एकल व पृथष्कृत प्रयासों से अधिक लाभ होने की सम्भावना कम है, परन्तु पारस बलवर्धन उपायो का सवेष्टन, प्रबल राजनीतिक संकल्प व राजनैतिक अभिजनों की प्रतिज् मिलकर कालेधन की समस्या को समाप्त करने में सफल हो सकते हैं ।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के चलते आज हम जिस स्थान पर खडे हैं वा कालेधन को समाप्त करने वाले रास्ते पर चल पड़ना निश्चित रूप से एक दृढ़ इच्छाशक्ति मांग करता है । मगर अहम समस्या ऐसी दृढ इच्छाशक्ति वालों का अभाव होना है, अनयथा कालाबाजारियों और कालाधन संग्रह करने वालों को इतना अवसर ही नहीं मिलता ।
किन सबके बावजूद इस काले साम्राज्य पर लगाम लगाना अत्यंत आवश्यक है । क्योंकि कालेध असुर अब अपने रौद्र रूप में आ गया है, जिससे समूची अर्थव्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जा खतरा साफ-साफ दिखाई देने लगा है ।