भ्रष्टाचार: आज के जीवन का यथार्थ पर निबंध | Essay on Corruption : The Reality of Today’s Life in Hindi!
भारतीय व्यवस्था में भ्रष्टाचार गहरे तक जड जमा चुका है । हांगकांग की शीर्ष व्यावसायिक सलाहकार फर्म पॉलिटिकल एंड इकनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड (पी.ई.आर.सी.) ने हमारे देश को एशिया पैसिफिक क्षेत्र के 16 देशों में चौथा सबसे भ्रष्ट देश माना है । संस्था ने भ्रष्टाचार के मामले में भारत को कंबोडिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस से ही पीछे रखा है ।
भ्रष्टाचार के मुददे ने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस-नीत गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल को फीका कर दिया है । सरकार की छवि टेलिकॉम लाइसेंस, राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी और सैन्य अधिकारियों से जुडे भूमि-घोटाले के कारण खराब हुई है । हालांकि इन मामलों में कोर्ट में सुनवाई और जांच जारी है, किंतु आम भारतीय के मन में सवाल उठ रहा है कि क्या प्रधानमंत्री में भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लडने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है?
बताया जाता है कि विदेशी बैंकों में हमारे देश के लोगों का इतना धन जमा है कि उससे देश का कायाकल्प हो सकता है । क्या इस धन से देश की गरीबी दूर नहीं की जा सकती थी? अनेक बड़ी परियोजनाएं धनाभाव के कारण शुरू नहीं हो पातीं ।
गरीब जनता को बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं । जनसंख्या का एक बडा हिस्सा स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी गरीबी-रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहा है । किंतु देश का वर्तमान कानून इन घोटालों को केवल भ्रष्टाचार के रूप में ही देखता है ।
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ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में पुलिस और राजनीति ही नहीं, बल्कि लोअर जूडिशरी को भी लपेटे में लिया गया, जबकि जनहित के मुददे और कल्याणकारी योजनाओं की सफलता के लिए इन तीनों इकाइयों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका महत्व रखती है ।
ऐसे में क्या वाकई हमारा संतुलित विकास सभव है? क्या यह संभव है कि भ्रष्टाचार के रहते दिल्ली में बनी नीतियां गांवों तक सही तरीके एवं पूरे प्रभाव के साथ पहुच पाएगी? निस्संदेह इसका उत्तर ‘नहीं’ है, किंतु कुशासन की आलोचना से शासन में बैठे अधिकारी को कोई फर्क नहीं पड़ता ।
चिंताजनक रूप से देश में भ्रष्टाचार की आलोचना दिनोंदिन रस्म-अदायगी की बात बनती जा रही है । हमारी लोकतांत्रिक सरकारों ने कभी भी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की कोशिश नहीं की । मीडिया और सामाजिक संगठनों के प्रयासों के बाद सरकार ने जो कदम उठाए भी, उन्हें बाद में ठंडे बस्ते में डाल दिया गया ।
कुछ वर्ष पहले तत्कालीन राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के संदर्भ में कहा था कि राज्य सरकारें रोजगार-सृजन के त्रुटिपूर्ण दावे कर रही हैं । उन्होंने ऐसे दावों के परिणामों को विनाशकारी बताते हुए ई-गवर्नेस की बात की । वस्तुत: ऐसे गलत दावों का एकमात्र कारण भ्रष्टाचार ही है । इसके रहते जनता के कल्याण की योजनाएं कागजों पर ही रह जाने वाली हैं ।
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ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोई एजेंसी हमारे पास नहीं, किंतु शासक वर्ग में उपस्थित लोग ही नहीं चाहते कि ऐसा हो । मुख्य निगरानी आयुक्त सरकारी अधिकारियों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले लगातार सामने लाते रहे हैं, किंतु अपवादों को छोड़ कभी कार्रवाई नहीं की जाती । संयुक्त सचिव या उससे ऊपरी स्तर के अधिकारियों या किसी मंत्री के विरुद्ध कार्रवाई से पहले तो मंत्रियों या ऊपरी अधिकारियों की अनुमति लेनी आवश्यक है, जो शायद ही मिलती हो ।
न्याय में देरी भी भ्रष्टाचार को बढावा देती है । इतना ही नहीं, अब तक हमारे पास कोई ऐसा पुख्ता कानून नहीं, जिसके अंतर्गत हम विदेशों से भ्रष्टाचार के संदिग्ध आरोपियों के प्रत्यर्पण की माग कर सकें । कानून के अभाव में हम विदेशों में गुप्त रूप से जमा निजी या सार्वजनिक धन जप्त करने या काले धन को सफेद करने के स्रोतों की जांच करने की माग किसी दूसरे देश से नहीं कर सकते । कुछ वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सम्मेलन में भारत ने भ्रष्टाचार-निरोधक कानूनों को राष्ट्रीय कानून का दर्जा देने पर सहमति व्यक्त की थी ।
इस सबध में अब तक कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है । वस्तुत: भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, वह हमारी सरकार या संसदीय दलों के पास नहीं है । यही कारण है कि करप्ट पब्लिक सर्वेंट बिल लंबित पडा है । यह बिल शायद तभी सामने आएगा, जब जनता भ्रष्टाचार को वोट देने का मुद्दा बनाएगी । किंतु खेद है कि ऐसा अभी दूर की कौड़ी ही दिखाई देता है ।
उदारीकरण से पहले के दौर में कर की उच्च दरों ने भ्रष्टाचार कम करने के बजाय उसे बढाने का काम किया । कारोबारियों को आयात और निर्यात के लाइसेंस के लिए अधिकारियों को एक बड़ी राशि रिश्वत के रूप में चुकानी पड़ती थी । दबाव इस सीमा तक था कि कंपनियां कितने उत्पादों का निर्माण करेंगी, यह भी वे स्वयं तय नहीं कर सकती थीं ।
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ऐसे में सरकारी बाबुओं को रिश्वत के रूप में बिना किसी लेखे-जोखे के बड़ी राशि चुकानी पडती थी । इन सबके कारण कंपनियों ने अपना कारोबार बढाने के लिए विदेशों की ओर रुख करना शुरू कर दिया ।
कर की दरें अब पहले की तुलना में काफी कम हो गई हैं, फिर भी आदतन अधिकतर लोग कर नहीं देना चाहते, इसलिए चोरी निरंतर जारी है । इसे रोकने हेतु लोगों को उचित कर देने के लिए प्रोत्साहित करने के उपाय ढूंढने होंगे । साथ ही, जब तक नेताओं, नौकरशाहों और बाबुओं को रिश्वत देने का सिलसिला नहीं थमेगा, काले धन पर रोक लग पाना कठिन है ।
जहां तक भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई की बात है, तो अभी तक यही देखने में आया है कि इसमें किसी भी बड़ी मछली को कोई सजा नहीं हुई । नेताओं के ऊपर चल रहे मामले वर्षों से लंबित हैं । ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें इन नेताओं के विरुद्ध जांच-प्रक्रिया बाधित करने के प्रयास किए गए हैं । इस स्थिति पर गालिब का यह शेर सटीक लगता है-बेरुखी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी परदादारी है ।
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भ्रष्टाचार के समूल उन्मूलन के लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगे । अंग्रेजी राज के समय से चले आ रहे कानून में उचित संशोधन कर आर्थिक अपराध के लिए कठोर दंड के प्रावधान करने चाहिए । भ्रष्ट तरीके से धन इकट्ठा करने वाले लोगों की संपत्ति जल की जानी चाहिए । राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाना एक सही कदम साबित हो सकता है ।
भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों को शीघ्र निपटाने के लिए विशेष न्यायालयों का गठन किया जाना चाहिए । न्यायिक प्रक्रिया जितनी शीघ्र पूरी हो, उतना ही अच्छा है । भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल संगठन को और शक्तियाँ दी जानी चाहिए । इसे सरकारी नियंत्रण से भी बाहर रखना चाहिए ।