हम सब भ्रष्ट हैं (निबन्ध) | Essay on “We All Are Corrupt” in Hindi!

अपनी दोरंगी नीति के चलते यह स्वीकार करना कुछ कठिन, परंतु ठोस वास्तविकताओं पर आधारित है कि प्राय: हम सब भ्रष्ट हैं । यह बात कड़वी जरूर है, परंतु इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । भ्रष्टाचार का दायरा काफी व्यापक है ।

अत: इसकी परिधि में वे सारी बातें आ जाती हैं, जो व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व, साथ ही मानवीयता, नैतिकता और अन्य सभी मानवीय मूल्यों से परे हों । यही कारण है कि भ्रष्टाचार या भ्रष्ट आचरण देश, काल और परिस्थिति की छोटी सी सीमा से परे अजगर की तरह है ।

भ्रष्टाचार सदा से है और आगे भी इसका अस्तित्व कायम रहेगा, क्योंकि हम मानवों की मानसिकता हमें स्वार्थ, छल, प्रपंच, लोभ, घृणा, द्वेष आदि की ओर ले जाती है । जब तक प्लेटो के आदर्श राज्य या फिर अरस्तु के ‘यूटोपिया’ की परिकल्पना साकार नहीं हो जाती, तब तक भ्रष्ट मानसिकता से हम मानवों का निजात पाना असंभव है ।

भ्रष्ट आचरण सापेक्ष होता है । यह व्यक्ति की मानसिकता, विवेकशीलता, सामाजिक और पारिवारिक माहौल, वित्तीय स्थिति, सभ्यता और संस्कृति, वैचारिक उदारता और संकीर्णता, परंपरा और स्वार्थपरता से प्रभावित होता है ।

एक ही काम एक ही व्यक्ति के लिए भ्रष्ट आचरण है तो इसके ठीक विपरीत, दूसरे को इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती है । यदि शराब पीना कुछ लोगों की दृष्टि में भ्रष्ट आचरण है तो शराबी के लिए वह वरदान, जीने का सहारा और गम भुलाने का साधन है ।

शराब उत्पादकों और विक्रेताओं के लिए यह एक लाभ का व्यापार है, तो केंद्र और राज्य सरकारों के लिए राजस्व प्राप्ति का अच्छा स्रोत है । रिश्वत लेना और देना दोनों गलत हैं, फिर यही रिश्वत कुछ लोगों के लिए आय का जरिया है, तो कुछ लोगों को अपना काम पूरा करवाने के लिए लाचारी है ।

भ्रष्ट आचरण कई तरह के होते हैं । उनमें प्रमुख हैं:

१. आर्थिक भ्रष्टाचार,

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२. राजनीतिक भ्रष्टाचार,

३. सामाजिक भ्रष्टाचार,

४. नैतिक भ्रष्टाचार ।

दुर्भाग्यवश, न केवल अपने यहाँ बल्कि विश्व के लगभग सभी देशों में इन चारों तरह के भ्रष्टाचार का राज कायम है । कुछ समय पूर्व भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त तिरुनिल्लै नारायण अथ्यर शेषन ने अपनी नवीनतम पुस्तक ‘दी डीजेनेरेशन ऑफ इंडिया’ में इन भ्रष्टाचारों का और भारत की अधोगति के कारणों एवं उसके भविष्य का विशद विश्लेषण किया है ।

आज हमारा सामाजिक जीवन पूर्णत: विषाक्त और तनावपूर्ण है । स्वार्थी राजनेताओं ने आरक्षण, मंदिर-मसजिद, अगड़ी-पिछड़ी जातियाँ हिंदू-मुसलमान अर्थात् जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, अलगाववाद, क्षेत्रवाद आदि के नारे बुलंद कर स्वयं को रहनुमा बताकर आम जनता की भावनाओं का भरपूर शोषण किया है ।

सभी दलों ने सत्ता की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए राजनीतिक बिसात पर निरीह जनता को मोहरा बनाकर शकुनि और दुर्योधन की तरह अपनी कुटिल चालें चलीं हैं । पं. द्वारका प्रसाद मिश्र, आचार्य सुचेता कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य विनोबा भावे जैसे भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य अपने शिष्यों से टकराने और उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोकने का साहस नहीं जुटा सके ।

आज सर्वमान्य राष्ट्रीय नेतृत्व का सर्वथा अभाव है । अत: अब जननेता या लोकनायक देखने को नहीं मिलते हैं । भ्रष्ट आचरण, निहित स्वार्थ और ओछी मानसिकता ने आज नेताओं को जाति और संप्रदाय विशेष तक ही सीमित कर दिया है ।

यहीश्कारण है कि वामपंथी दलों तथा कुछ अन्य दलों के गिने-चुने लोगों को छोड़कर सभी जातीय और दलीय नेता हैं । इन नेताओं ने ही जातीयता और सांप्रदायिकता को उभारकर दंगे करवाए और अपनी राजनीतिक-रोटी सेंकने का घटिया प्रयास किया ।

आरक्षण मंत्र का लाभ उठाकर शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने स्वजातीय लोगों को सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के नाम पर वर्चस्व बनाया । रामविलास पासवान ने अंबेडकर जयंती (१४ अप्रैल) के अवसर पर नई दिल्ली के अंबेडकर स्टेडियम में स्वयं को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर राजनीतिक लाभ उठाने का निम्न स्तरीय प्रयास किया ।

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वस्तुत: ये सब इन लोगों के भ्रष्ट आचरण के ज्वलंत प्रमाण हैं । खुद को गरीबों का मसीहा, दलितों और अल्पसंख्यकों का रक्षक बताकर उन चारों नताओं के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देश की बड़ी आबादी का भावनात्मक शोषण किया ।

इन क्रियाकलापों से इन नेताओं के स्वार्थ और ओछी मानसिकता का विकृत रूप उजागर हो गया । अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कुछ लोगों को छोड्‌कर अधिकतर भाजपा नेताओं ने भी भ्रष्ट मानसिकता के चलते स्वयं को हिंदुओं और हिंदुत्व का स्वघोषित रहनुमा, रक्षक और ठेकेदार के रूप में पेश किया ।

उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन भी एक भ्रष्ट आचरण है । फिर ऐसा भी नहीं है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन पहली बार हुआ है । स्व. राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के फैसले के विपरीत निर्णय सिर्फ मुसलिम कट्‌टरवादियों के दबाव में आकर किया था ।

यह भी एक भ्रष्ट आचरण है, जो मुसलिम तुष्टीकरण की कांग्रेस की परंपरागत नीति के तहत ही किया गया था । भ्रष्ट राजनीतिक खेल के कारण ही जनता दल और राष्ट्रीय मोरचा ने पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की राजनीति का खेल शुरू किया था ।

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इसके प्रत्युत्तर में भाजपा हिंदुओं की सामूहिक राजनीति करने का प्रयास कर रही है । कांग्रेस ने तुष्टीकरण की नीति को अपनाया था । लोगों को इस तरह बाँटना, उनमें विद्वेष पैदा करना, सांप्रदायिकता की राजनीति करना क्या नैतिक रूप से भ्रष्ट आचरण नहीं है ?

आज सर्वाधिक भ्रष्टाचार राजनीति में ही है । यही कारण है कि डॉ. मनमोहन सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कुछ ईमानदार नेताओं को छोड़कर अधिकांश बुद्धिजीवियों ने स्वयं को राजनीति से अलग कर लिया है । भारतीय राजनीति में नैतिकता का लोप, स्वार्थ का आगमन और जोड़-तोड़ की राजनीति का प्रादुर्भाव के दशक में इंदिरा गांधी के शासनकाल में शुरू हुआ ।

हमारी प्रधानमंत्री के ‘किचन-कैबिनेट’ में ऐसे लोगों की बहुलता रही, जो पूर्ण स्वार्थी, भ्रष्ट, तानाशाह और संजय गांधी के सेवक थे । बंसीलाल, ललित नारायण मिश्र, ओम मेहता, विद्याचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, सीताराम केसरी जैसे लोगों ने नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया और स्वार्थगत राजनीति का पोषण किया ।

उनकी कड़ी में यशपाल कपूर, राजेंद्र कुमार धवन, मोहम्मद युनूस, डॉ. जगन्नाथ मिश्र, अंबिका सोनी, रुखसाना सुलाना, हरिदेव जोशी, नारायण दत्त तिवारी जैसे अन्य लोगों ने प्रसिद्ध तांत्रिक धीरेंद्र ब्रह्मचारी की सहायता से संजय गांधी के नेतृत्व में नैतिकताविहीन भ्रष्ट राजनीति का पोषण किया ।

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पं. द्वारका प्रसाद मिश्र, पं. कमलापति त्रिपाठी, कृष्णकांत, डॉ. शंकर दयाल सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह, इंद्र कुमार गुजराल, राजा दिनेश सिंह, सुचित्रा कुलकर्णी, मीरा बेन, श्रीमती चंद्रावती, डीपी. धर, पीएन. हक्सर जैसे लोग क्रमश: धीरे-धीरे तत्कालीन घटिया राजनीति के वर्चस्व के शिकार होते गए ।

भ्रष्ट राजनीति के कारण जन-कल्याण की अपेक्षा सत्ता पर पकड़ बनाए रखना ही महत्त्वपूर्ण था । संजय गांधी सत्ता के गैर- संवैधानिक केंद्र बनते गए । ये सब शनै:-शनै: भ्रष्ट राजनीति के कारण ही संभव हुआ था । इसके लिए हम सभी मतदाता, पत्रकार, बुद्धिजीवी सभी भ्रष्ट होते गए ।

इस कारण, इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति आई । हमें गलत कामों का विरोध करना चाहिए था । स्व. राजीव गांधी पर भी स्विट्‌जरलैंड की कंपनी से बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का आरोप लगा । उनके साथ प्रसिद्ध उद्योगपति हर्ष चड्‌ढा, विन चड्‌ढा और फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन का भी नाम घसीटा गया था ।

मामले को बेवजह अत्यधिक तूल देते हुए लगभग सभी विपक्षी दलों के सांसदों ने समय-पूर्व लोकसभा की सदस्यता से सामूहिक त्याग-पत्र दे दिया था । क्या यह भ्रष्ट-आचरण नहीं है कि जनप्रतिनिधि आम जनता की भावनाओं की अनदेखी करते हुए उन्हें विश्वास में लिये बगैर इस तरह इस्तीफा देते रहें ?

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पूर्व प्रधानमंत्री पामुलपति वेंकट नरसिंह राव पर प्रसिद्ध शेयर दलाल हर्षद मेहता ने एक करोड़ रुपए की रिश्वत दो किस्तों में देने का आरोप १६ जुलाई, १९९३ को लगाया था । उसने इसके लिए कुछ सबूत भी पेश किए थे । भाई ठाकुर, भूपेन दलाल, हितेन दलाल, राजन पिल्लई, चार्ल्स शोभराज, आटोशंकर, पवन सचदेवा जैसे अनेकानेक लोगों ने व्यापारिक और सामाजिक जगत् में भ्रष्ट कार्यों को खूब बढ़ावा दिया है ।

राजन पिल्लई ने सिंगापुर में घोटाला कर भारत को बदनाम किया था । पवन सचदेवा ने हरियाणा में शेयर में घोटाला किया था । हर्षद मेहता, हितेन दलाल और भूपेन दलाल ने कुछ बैंक अधिकारियों के साथ मिलकर अरबों रुपए का घोटाला किया था ।

भूपेन दलाल ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पुत्र की कंपनी गोल्ड स्टार को २ करोड़ रुपए दिए जाहिर है कि देनेवालों का कुछ स्वार्थ रहा होगा । संभव है कि उसने इसके द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री को प्रभावित किया होगा । अत: यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ये सभी भ्रष्ट हैं ।

वोल्कर प्रकरण में यदि सोनिया गांधी या फिर नटवर सिंह और उसके पुत्र दोषी हैं तो इनपर मुकदमा दायर कर न्यायालय को स्वतंत्र रूप से अपना काम करना चाहिए । स्टिंग-ऑपरेशन के दौरान रँगे हाथों जिन सांसदों को पकड़ा गया है, उन्हें बरखास्त कर देना या हटा देना पर्याप्त नहीं है ।

उन्हें तो कठोर-से-कठोर शारीरिक दंड भी देना चाहिए ताकि ऐसे दुष्कृत्यों की पुनरावृत्ति न हो सके । हाँ इससे इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि हमारे जनप्रतिनिधि भ्रष्ट हैं । वर्तमान समय में चोरी, डकैती, लूट-खसोट, हत्या, बलात्कार, अपहरण के मामले प्रतिदिन देखने और सुनने को मिलते हैं ।

आजकल भ्रष्ट मानसिकता ने सबकुछ विषाक्त बना दिया है । अपहरण भी अब एक लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है, जिसे कई राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त है । अपराध का राजनीतीकरण और राजनीति का अपराधीकरण हुआ है ।

चुनाव के दौरान मतदाताओं को प्रलोभन, सुविधा, रिश्वत और धमकी देकर चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन होता है, जातीय उन्माद पैदा किया जाता है । अत: यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हम सभी भ्रष्ट हैं, क्योंकि मतदाता भी उतना ही दोषी है जितने ये नेता ।

आज महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है । गृह मंत्रालय द्वारा पेश रिपोर्ट काफी चिंताजनक है । राज्यसभा में भी हाल ही में एक सदस्य द्वारा पेश निजी विधेयक पर बहस के दौरान सभी सदस्यों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी ।

अब लोगों में संवेदनशीलता की इतनी कमी है कि हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि की खबर अखबारों में चंद शब्दों में पिरोया एक रोचक मसाला मात्र है । संवेदनहीन लोगों के लिए ये बातें गौण हैं । आजकल परीक्षा में कदाचार का बोलबाला है । उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा जैसे कई राज्यों में छात्रों और उसके अभिभावकों ने परीक्षा में कदाचार को बढ़ा दिया है ।

उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार ने नकल विरोधी कानून को रद्‌द कर छात्रों का अहित किया है । आज सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी देर से आते हैं । सही काम करने के बदले रिश्वत चाहते हैं । शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई नहीं होती, बल्कि अन्य सभी गलत काम होते हैं ।

छात्र संगठनों ने छात्रों को राजनीति का मोहरा बना दिया है, जो अत्यंत ही शर्मनाक बात है । इससे यह प्रमाणित होता है कि हम सभी भ्रष्ट, निकम्मे और स्वार्थी हैं । पूर्व केंद्रीय विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण मिश्र तुलामोहन लाइसेंस कांड के आरोपी थे ।

तत्कालीन शिक्षा मंत्री प्रो. नूरुल हसन ने कालपात्र गाड़ने में राष्ट्र के कुछ महान् विभूतियों के नामों को नजरअंदाज कर भ्रष्ट आचरण का परिचय दिया था । डॉ. शंकरदयाल सिंह ने अपनी एक पुस्तक ‘इमरजेंसी : क्या सच ? क्या झूठ ?’ में इसपर काफी कुछ लिखा है ।

इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा के तत्काल बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, मोहन धारिया, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं को बेवजह सलाखों के पीछे बंद कर गलत राजनीतिक परंपरा की शुरुआत की थी । आपातकाल के दौरान ज्यादतियाँ हुईं । जबरदस्ती नसबंदी और झुग्गी-झोपड़ियों को गिराने के ढेर सारे मामले बाद में प्रकाश में आए ।

अरबों रुपए के प्रतिभूति घोटाले की जाँच करने के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने पूर्व केंद्रीय मंत्री रामनिवास मिर्धा के नेतृत्व में पेश अपनी रिपोर्ट में पूर्व स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री बी. शंकरानंद, तत्कालीन वित्त राज्यमंत्री रामेश्वर ठाकुर और वित्त मंत्रालय को दोषी माना था ।

चीनी की कमी से संबंधित मामले की जाँच के लिए गठित ‘ज्ञानप्रकाश समिति’ ने अपनी जाँच के दौरान तत्कालीन खाद्य मंत्री कल्पनाथ राय, वाणिज्य सचिव तेजिंदर खन्ना और पूर्व कैबिनेट सचिव जफर सैफुल्लाह को दोषी बताया ।

न्यायालय ने रेल मंत्री सी.के. जाफर शरीफ के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी की थी । इन आरोपी मंत्रियों को प्रदत्त संरक्षण और लोकसभा में कल्पनाथ राय को बचाने का प्रयास तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा किया जाना इस बात को एकदम प्रमाणित करता है कि केंद्र सरकार स्वयं भ्रष्ट लोगों को पनाह देती है अन्यथा सभी मंत्रियों को तत्काल अपदस्थ किया जाना चाहिए था, ताकि सरकार के प्रति लोगों की विश्वसनीयता बनी रहती ।

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राजनीतिज्ञों के भ्रष्ट आचरण का आलम यह है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अचूल रहमान अंतुले को न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी के कारण इस्तीफा देना पड़ा था । औध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन. जनार्दन रेड्‌डी को इसी कारण इस्तीफा देना पड़ा था ।

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस. बंगारप्पा पर भी भ्रष्टाचार के अनेक आरोप दर्ज हैं । बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव चारा घोटाला के आरोपी हैं । कुछ लोगों ने औध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नंदमूरि तारक रामाराव पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने की अनुमति माँगी थी ।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जयराम पर भी भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने की अनुमति जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने राज्यपाल डॉ. एम चेन्ना रेड्‌डी से प्राप्त की थी । जयललिता पर अकूत धन जमा करने का आरोप है । इससे नाराज होकर अन्नाद्रमुक के उच्छूंखल कार्यकर्ताओं ने डॉ. स्वामी और डॉ. चेन्ना रेड्‌डी पर पथराव किया था । डॉ. स्वामी के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट भी निकलवाया गया था ।

पांडिचेरी जा रहे डॉ. चेन्ना रेड्‌डी पर पथराव की घटना की जानकारी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा को प्रेषित किए जाने के बावजूद केंद्र सरकार मूकदर्शक बनी तमाशा देखती रही । वह तत्काल कुछ प्रभावी कदम न उठाकर राजनीतिक लाभ-हानि का जायजा लेती रही । क्या ये सभी भ्रष्ट आचरण नहीं हैं ?

खेल-जगत् में खिलाड़ियों के चयन में चयनकर्ताओं ने सदा धाँधली की है । इसके अलावा, जब तक बिहार की मर्सी कुट्‌टन राष्ट्रीय स्तर पर ऊँची कूद में सफल थीं तब तक उसे ‘अर्जुन पुरस्कार’ के योग्य नहीं समझा गया । जब उसने क्षुब्ध होकर एथलेटिक्स जगत् से संन्यास ले लिया तब अगले ही वर्ष उसे ‘अर्जुन पुरस्कार’ के योग्य मान लिया गया था ।

भारतीय टेनिस संघ के एक पदाधिकारी रमेश देसाई ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चंडीगढ़ में हुए डेविस कप सेमी फाइनल में रमेश कृष्णन पर पैसे के लोभ में बीमारी की हालत में भी खेलने का आरोप लगाया था । भारत यह मैच ०-५ से हार गया था । अंतत: इस गलत आरोप से कुद्ध होकर रमेश कृष्णन ने टेनिस-जगत् से ही संन्यास ले लिया था ।

भारतीय हाँकी महासंघ के अध्यक्ष बनने के उपरांत पंजाब पुलिस के महानिदेशक कँवर पाल सिंह गिल के प्रेस कॉन्फ्रेंस में पंजाब पुलिस ने दो खेल- पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी थी । उन खेल-पत्रकारों ने पंजाब हॉकी के बुरे प्रदर्शन पर प्रश्न उठाया था, तब उन्हें इस तरह सबक सिखाया गया था । उल्लेखनीय है कि कँवर पाल सिंह के विरुद्ध छेड़खानी का आरोप भी सिद्ध हो चुका है ।

टेबल-टेनिस के राष्ट्रीय चैंपियन कमलेश मेहता के साथ चयनकर्ताओं ने भेदभाव किया था, जबकि पी.टी. उषा को पात्रता-स्तर न पाने के बावजूद एशियाड में भाग लेने का मौका दिया गया था । एक कप्तान और बल्लेबाज-गेंदबाज- क्षेत्ररक्षक के रूप में क्रिकेट खिलाड़ी सौरव गांगुली का प्रदर्शन शानदार रहा है; किंतु राजनीति के चलते उन्हें बहुत ही अपमान सहन करना पड़ा ।

कौन है इस भ्रष्ट आचरण के लिए जिम्मेदार ? फिल्म-जगत् में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है । फिल्म निर्माता, निर्देशक, गीतकार, गायक, अभिनेता, अभिनेत्री, संवाद लेखक सभी ने अश्लीलता का माहौल बना रखा है ।

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राबिन भट्‌ट, जावेद सिद्‌दीकी जैसे लोगों ने पटकथा-लेखन में विदेशी फिल्मों की नकल का दौर चलाया है । अन्दू मलिक और बप्पी लाहिड़ी ने पाश्चात्य संगीत की नकल की है ।

केतन मेहता, शेखर कपूर, डेविड धवन, के.पन्दू सुभाष घई आदि ने फिल्मों में अश्लीलता पेश कर समाज और संस्कृति को भ्रष्ट किया है । क्या ऐसी फिल्में बनाना भ्रष्ट आचरण नहीं है ? क्या सेंसर बोर्ड के लोग भ्रष्ट नहीं हैं, जो हिंसा-प्रधान, द्विअर्थी संवादों से परिपूर्ण अश्लील फिल्मों के प्रदर्शन की अनुमति देते हैं ।

मीडिया-जगत् में भी काफी भ्रष्टाचार है । पीत-पत्रकारिता इसी का नमूना है । खोजी पत्रकारिता के द्वारा गड़े मुरदों को उखाड़ा जाता है । साहित्य-जगत् में विभिन्न पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति चलती है । अपेक्षाकृत कम प्रतिभावान् लेखकों को सम्मानित कर अच्छे लेखकों को हतोत्साहित किया जाता है । ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ पर हर बार प्रश्नचिह्न लगते हैं ।

मैथिली भाषा के रचनाकारों ने आपस में एक अघोषित समझौता कर क्रमश: लाभ उठाकर साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली को धोखे में रखा है । गुप्त रक्षा दस्तावेजों को बेचना, इसरो जासूसी कांड में वैज्ञानिकों का संलग्न होना इत्यादि इस बात को प्रमाणित करते हैं कि हम सभी भ्रष्ट हैं ।

स्व. राजीव गांधी और नरसिम्हा राव ने भ्रष्टाचार होने की बात स्वीकार की थी । भ्रष्टाचार का मूल कारण लोगों का स्वार्थ और ओछी मानसिकता है । मनुष्य स्वभाव से ही बुरा होता है । वह ईर्ष्या-द्वेष, लोभ, छल-प्रपंच का शिकार है ।

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