समाज में फैली अराजकता पर निबंध | Essay on Chaos in the Society in Hindi!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । प्रत्येक मनुष्य का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उस समाज से संबंध स्थापित हो जाता है जिसमें वह रहता है । दूसरे शब्दों में, मनुष्य ही परस्पर मिलकर समाज का गठन करते हैं ।
अर्थात् समाज के निर्माण में मनुष्य ही आधारभूत तत्व है । समाज का उत्थान या पतन उसमें रहने वाले मनुष्यों की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है । एक उन्नत समाज के गठन के लिए आवश्यक है कि उस समाज में रहने वाले व्यक्तियों का चरित्र एवं व्यक्तित्व उच्च कोटि का हो ।
वे समस्त नैतिक मूल्यों को आत्मसात् करते हों तथा वे ऐसे किसी भी कार्य में लिप्त न हों जो उनके समाज के गौरव व सम्मान का अहित करे । उत्तम चरित्र एवं महान व्यक्तित्व से परिपूरित मानवों से ही एक आदर्श समाज की परिकल्पना संभव हो सकती है ।
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आज के वातावरण में जिस प्रकार अराजकता घर करती जा रही है उसे देखते हुए एक आदर्श समाज का गठन परिकल्पना मात्र ही कही जा सकती है । वास्तविक रूप में समाज में व्याप्त अराजकता को दूर किए बिना ‘आदर्श एवं उत्तम समाज’ का गठन संभव नहीं है ।
समाज में व्याप्त अराजकता का प्रमुख कारण है मनुष्य की स्वार्थ-लोलुपता एवं असंतोष की प्रवृत्ति । भौतिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य इतना अधिक स्वार्थी बन गया है कि वह अपनी गौरवशाली परंपरा व संस्कृति को भुला बैठा है । बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा के युग में अधिकांश लोग संघर्ष करने से पूर्व ही अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं ।
फलस्वरूप उनके अंत:मन में समाहित उनकी हीन भावना उन्हें वह सब कुछ करने के लिए बाध्य करती है जिन्हें हम असामाजिक कृत्य का नाम देते हैं । वे अपना आत्मसंयम खो बैठते हैं । थोड़ी सी परेशानियों के सम्मुख वे घुटने टेक देते हैं । इन परिस्थितियों में वे जल्दी ही कुसंगति के चक्रव्यूह में उलझ जाते हैं जिसके फलस्वरूप उनमें मदिरापान, धूम्रपान, चोरी, डकैती, धोखाधडी आदि बुरी आदतें पड़ जाती हैं ।
मनुष्य में असंतोष की प्रवृत्ति के कारण वह कम समय में ही बहुत कुछ पा लेने की लालसा रखता है । जब यह लालसा अत्यधिक तीव्र हो उठती है और उसका स्वयं पर नियंत्रण कमजोर पड़ जाता है तब वह गलत रास्तों पर चल पड़ता है ।
उसके अंदर का विवेक शून्य हो उठता है जिसके चलते वह सही-गलत, न्याय-अन्याय एवं नैतिक-अनैतिक के भेद को जानने-समझने की शक्ति खो बैठता है । ऐसे व्यक्ति ही बुराइयों में लिप्त होते हैं तथा समाज को दूषित करते हैं । इन्हीं व्यक्तियों से समाज में अराजकता का विस्तार होता है ।
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आधुनिक समाज में अराजकता अनेक रूपों में विद्यमान है । छोटे बच्चे से लेकर युवा वर्ग तथा वयस्क सभीं वर्गों में अराजकता फैली हुई है । युवा मस्तिष्क इसकी चपेट में जल्दी आ जाता है । बच्चों में माता-पिता के प्रति स्नेह व आदर भाव कम हो रहा है । गुरुजन श्रद्धा के नहीं अपितु हास्य के पात्र बन गए हैं ।
हमारा युवा वर्ग हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहर व परंपराओं को समझने एवं उस पर गर्व करने के बजाए उसे तुच्छ दृष्टि से देखता है । विदेशी संस्कृति के प्रभाव से वह नैतिक मूल्यों की अवहेलना कर रहा है । नारी को जिस देश में ‘देवी’ का स्थान प्राप्त था, वही नारी अब भोग्या के रूप में देखी जाने लगी है । नारी की शर्म, शालीनता, धैर्य, सहनशीलता आदि गुणों को पिछड़ेपन की निशानी समझी जाने लगी है ।
छात्र आज बात-बात पर अपने गुरुओं का उपहास उड़ाने तथा कभी-कभी उनसे मारपीट पर भी उतर आने को शान का विषय समझने लगे हैं । युवाओं व वयस्कों में दिखावे व झूठी शान को ही संस्कृति का रूप समझा जाने लगा है । यह सभी कृत्य समाज में फैली अराजकता का ही परिणाम है ।
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समाज में व्याप्त चोरी, डकैती, लूटखसोट, हत्याएँ, महिलाओं से छेड़छाड़, रिश्वतखोरी आदि सभी अराजकता के ही रूप हैं । अराजकता फैलाने की प्रवृत्ति रखने वाले तत्व जब प्रमुख पदों पर आसीन होते हैं तब यह समूचे तंत्र को ही खोखला कर देते हैं । इन्हीं असामाजिक तत्वों के कारण ही समाज की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचता है।
स्वतंत्रता के पाँच दशकों में जिस गति से हमने भौतिक सफलताएँ अर्जित की हैं उसी गति से समाज प्रदूषित हो रहा है । अराजकता की जड़ें बहुत गहरे तक समाहित हो चुकी हैं जिसे दूर करना यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । इन परिस्थितियों में सभी जनों के सामूहिक प्रयास से ही इसे समाप्त किया जा सकता है ।
किसी एक व्यक्ति विशेष या वर्ग से नहीं अपितु समाज के समस्त वर्गों के लोगों को उसका विरोध करना होगा । जन-जन में इसके दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता लानी होगी । हमें उन्हें रोकने के नए उपाय खोजने होंगे तथा कानून के नियमों को और भी अधिक सख्त बनाना होगा ताकि इनसे भली-भाँति निपटा जा सके । सभी असामाजिक तत्वों का सामाजिक रूप से बहिष्कार भी इस दिशा में एक उत्तम उपाय बन सकता है ।
हमें किसी भी रूप में उन गतिविधियों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए जो समाज में अराजकता के विस्तार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सहयोग करती हैं । हमारे इस प्रयास में समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ, चलचित्र, दूरदर्शन एवं संचार के अन्य माध्यम भी प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं यदि इनका सकारात्मक दिशा में प्रयोग किया जा सके । तब वह दिन दूर नहीं जब हम एक सुसंस्कृत, उन्नत एवं गौरवशाली समाज का गठन कर सकेंगे ।
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” पोंछो अश्रु, उठो, द्रुत जाओ वन में नहीं, भुवन में । होओ खड़े असंख्य नरों की आशा बन जीवन में । ”