List of most popular Panchatantra Stories in Hindi!

Panchatantra Story #1. सब पागल हैं |

सोने की बीट करने वाले पक्षी को घर में पाकर दूत परिवार खुशी से हम उठा था । एक लम्बे समय से गरीबी की भट्‌ठी में जलने वाले लोगों क्ते जब सोना ही सोना मिलने लगा तब…?

सोने की बीट करते वाला वह पक्षी जिस जंगल में रहता था । वहां पर मानव जाति के लोगों का उगना-जाना बहुत कम होता था, यही कारण था वह पक्षी लम्बे समय तक बचा रहा, परन्तु कब तक ? किसी एक व्यक्ति ने वहां से गुजरते समय सोने की बीटों को देखा, तो उसे यह समझने में देर न लगी कि अवश्य ही इस वृक्ष पर सोने की बीट करने वाला कोई पक्षी रहता है ।

उस व्यक्ति ने गांव में जाकर यह बात लोगों को बताई तो सोने का नाम सुनते ही उस गांव के शिकारी कालूराम के मुंह में पानी भर आया । उसने उर्स। समय अपना जाल उठाया और जंगल की ओर चल दिया । जंगल में पहुंचकर उसने सबसे पहले उस वृक्ष की तलाश की, जिसपर सोने की बीट करने वाला पक्षी रहता था ।

इस काम में उसे अधिक देर नहीं लगी । उसने दूर से चमकते सोने को देखकर यह अंदाजा लगा लिया कि यही वह वृक्ष हो सकता है, जिस पर सोने की बीट करने वाला पक्षी रहता होगा । उसने उस वृक्ष के पास पहुंचते ही अपना जाल फैला दिया । पक्षी को उस जाल में फंसते देर न लगी और शिकारी उसे पकड़कर खुशी से झूमता हुआ अपने घर ले आया ।

परिवार के लोगों ने जैसे ही सोने की बीट करने वाले पक्षी को अपने घर में देखा, तो सब के सब खुशी से नाचने लगे । उन्हें सब से अधिक खुशी तो इस बात की थी कि अब तो उनके अपने ही घर में सोना पैदा होने लगेगा । कुछ ही दिनों में वे सबसे अर्मार बन जाएंगे, उनकी गरीबी दूर हो जाएगी ।

हुआ भी यही, शिकारी पहले तो जंगल से सारा सोना उठाकर ले आया, फिर धीरे-धीरे और सोना भी जमा हो गया । इतना सोना देखकर शिकारी डरने लगा, उसे इस बात का डर था कि कहीं राजा के कानों तक यह खबर पहुंच गई कि मेरे पास इतना सोना जमा है, तो वह सोने के साथ-साथ उसकी जान भी ले सकता है ।

इसी डर के कारण शिकारी ने यह फैसला किया कि वह इस सोने की बीट करने वाले पक्षी को राजा को ही दे आएगा, क्योंकि अब उसके पास तो बहुत सोना जमा हो गया था, अब और सोने का करना भी क्या है । दूसरे ही दिन वह कालूराम शिकारी, उस सोने की बीट करने वाले पक्षी को लेकर राजा के दरबार में जा पहुंचा । उसने राजा के सामने उस पक्षी को पेश करते हुए कहा:

“महाराज, यह आपके लिए है ।” ”कालू के बच्चे, तुझे शर्म नहीं आती, इस प्रकार का भद्दा पक्षी हमें भेंट करते हुए, क्या तुम इतने पागल हो गए हो, जो यह भी नहीं जानते कि राजाओं को केवल सोना-चांदी ही भेंट दिया जाता है ।” ‘महाराज! यह पक्षी सोना ही है ।’

”तुम कहीं पागल तो नहीं हो गए हो, यह काला-कलूटा पक्षी सोना है ?”  ”महाराज, इसकी शक्ल मत देखो, असल में यह पक्षी सोने की बीट करता है ।” ”यह तुम क्या कह रहे हो ? क्या यह संभव है ?” ”हां महाराज, हाथ कंगन को आरसी क्या है, अभी थोड़ी देर में जब यह बीट करेगा तो आप अपनी आखों से देख लेना कि यह सोने की बीट करता है या नहीं ।”

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थोड़ी देर के पश्चात ही उस पक्षी ने राजा के सामने ही सोने की बीट कर दी तो राजा की हैरानी की कोई सीमा न रही । वह सोच में पड़ गया कि क्या ऐसा भी संभव हो सकता है ? उसी समय राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाया और उनसे कहा : ”देखो, यह सोने की बीट देने वाला पक्षी हमें इस शिकारी ने उपहार स्वरूप दिया है ।”

राजा की बात सुनकर महामंत्री हंसने लगे । ”मंत्रीजी, आप हंस क्यों रहे हैं ।” राजा ने उससे पूछा । ”महाराज ! मैं तो आपके भोलेपन पर हंस रहा हूं कि आपने एक शिकारी की बात पर विश्वास कर लिया ।” ”मगर इसने हमारी आखों के सामने बीट की है ।” “यदि यह बात मान ली जाए तो भी हमें एक बार सोचना पड़ेगा कि यह आदमी

कौन-सी चाल चलकर हमें सोने की बीट देने वाले पक्षी को उपहार स्वरूप देने आया है ।  भला के ऐसा पागल होगा जो सोने की बीट करने वाले पक्षी को अपने उगप दान देने के लिए चला आएगा ?” मंत्री की बात सुनकर राजा भी सोच में पड़ गया और मंत्री की ओर देखकर बोला:

”आप किसी हद तक ठीक ही कहते हैं, असल में मैं र्हो पागल हूं जो इस आदमी की बातों में आ गया । लगता है यह आदमी कोई षड्‌यंत्रकारी है, अब तो हमारे सामने एक ही रास्ता है कि इस पक्षी को आजाद कर दें ।” ”हां…हां महाराज…आप इस पक्षी को आजाद कर दें । न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी ।”

कालू उस मंत्री के मुंह की ओर देख रहा था, जिसने उसे संदेह की नजरों से देखा था । किसी ने सत्य ही कहा है कि गरीब के सोने को भी लोग मिट्टी ही समझते हैं । उसने तो सोचा था कि राजा सोने की बीट करने वाले पक्षी को पाकर बहुत खुश होगा ।

इसके बदले उसे इनाम देगा या अपने दरबार में नौकरी दे देगा । परन्तु-यहां तो सब कुछ उसके विचारों के विपरीत ही हो रहा था । भलाई के बदले में बुराई मिल रही थी । राजा को भड़काने वाला यह मंत्री मृर्ख ही तो है, जो राजा को यह सलाह दे रहा है कि इस पक्षी को ही मुक्त कर दिया जाए । उस बेचारे की बात सुनने वाला वहां कोई नहीं था । राजा तो केवल अपने मंत्रियों की ही बात सुनता था, तभी तो मैत्री कें कहने पर उस सोने की बीट देने वाले पक्षी को पिंजरे से निकाल दिया गया ।

वह पक्षी पिंजरे से निकलकर एक खिड़की पर जा बैठा और उन सबसे बोला, ”तुम सब के सब पागल हो तुम में से सबसे पहला पागल तो यह शिकारी है, जो सोना देने वाले पक्षी को राजा को भेंट करने चला आया । दूसरा पागल यह राजा है, जिसने सोना देने वाले पक्षी की बाबत मंत्री से सलाह ली । उन सबसे बड़ा पागल यह मंत्री है, जिसने सोना देने वाले पक्षी को छोड़ देने के लिए कहा ।”


Panchatantra Story #2. बुद्धि सबसे अचूक अस्त्र है |

”महातल इस तालाब में हमारा देवता वाई आता है  ”तालाब में चांद आएगा ?” हाथी ने आश्चर्य से उस खरगोश अई ओर देखकर पूछा । ”हां महाराज यदि आपको विश्वास नहीं आता तो आज रात अपनी आखों से देख लेना ।”

और खरगोश ने अपनी सूझबूझ से उस हावी को सचमुच तालाब में बाद के दर्शन कराकर अपनी बस्ती को बर्बाद होने से बचा लिया । वर्षा के न होने से पूरे देश में अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई थी । कुएं और तालाब सूखने लगे थे, रामपुर के जंगलों की तो हालत इतनी खराब हो गई थी कि पशु-पक्षी प्यास के मारे तड़प-तड़प कर मरने लगे थे ।

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इसी जंगल में हाथियों का एक परिवार बड़े से तालाब के पास रहता था । सूखा पड़ने के कारण वह तालाब भी सूखने लगा था । हाथियों को नहाने और पीने के लिए भी तो खुला पानी चाहिए था, उस सूखते तालाब में अब इतना पानी नहीं रह गया था ।

तालाब को सूखते देखकर हाथियों को बहुत चिंता होने लगी । उनके सरदार ने अपने साथियों को कहा, ”भैया ! मैं चाहता हूं कि अब हम इस जंगल को छोड्‌कर शामपुर के जंगल वाले तालाब के किनारे चले जाएं, क्योंकि अब इस तालाब में तो पानी रहा नहीं, यदि हम दो-चार दिन और यहां रहे तो हम प्यासे ही मर जाएंगे ।”

उसी शाम को हाथियों का सरदार कुछ अन्य हाथियों को लेकर शामपुर के जंगलों में पानी के तालाब को देखने गया । वहां पर रहने वाले खरगोशों ने जब परदेसी हाथियों को वहां पर आए देखा तो उनका माथा ठनका । वे सोचने लगे कि यदि यह हाथी इस जंगल में आ गए तो कुछ ही दिनों में पानी का यह तालाब भी सूख जाएगा ।

एक दिन ऐसा भी आएगा जब उन्हें पीने को भी पानी नहीं मिलेगा । प्यासे मरने से तो कहीं अच्छा है कि इन हाथियों के इस जंगल में आने से पहले ही हम यह जंगल छोड़कर कहीं और चले जाएं । खरगोशों का सरदार अपने साथियों की बातें सुनकर बोला, ”भाइयों, हम उन हाथियों से डरकर अपने बाप-दादा के बनाए घरों को छोड्‌कर क्यों चले जाएं, इससे तो कहीं अच्छा है कि हम अपनी बुद्धि से काम लेकर इन हाथियों को ही यहां आने से रोक दें । विद्वानों ने कहा भी है । युद्ध में कभी चतुराई भी काम दे जाती है ।”

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”मगर हम उन हाथियों का मुकाबला कैसे कर सकते हैं ?” ”समय की राजनीति बड़े से बड़े शत्रु को भी मात दे सकती है, अब हमें यह देखना है कि उस शत्रु से बचा कैसे जाए ?” ”आप ही बताएं महाराज, क्योंकि आप तो हमारे मुखिया हैं । हम तो मात्र प्रजा ही हैं ।”

”तुम ठीक कहते हो, मुखिया होने के नाते मैं ही तुम्हारी रक्षा की बात सोचूंगा इसके लिए केवल दो ही सदस्य मेरे साथ चलेंगे । युद्ध में पलड़ा उसी का भारी रहता है जिस में बात करने और राजनीति की शक्ति हो ।” यह बात कहकर खरगोशों के मुखिया ने अपने दो साथियों को साथ लेकर हाथी राजा के पास जाने का निर्णय कर लिया ।

खरगोश मुखिया ने गजराज को प्रणाम किया तो हाथी ने उससे पूछा, ”कहो दोस्त ! कैसे आना हुआ ?” ”हे जंगल के राजा, हम इस जंगल की खरगोश बिरादरी की उगेर से उगलकी सेवा में इसलिए हाजिर हुए हैं कि उगप लोग जिस तालाब पर आना चाहते हैं उस तालाब में हमारा देवता चांद रहता है ।

वैसे तो चांद हम सबका देवता है, यदि आप उस तालाब में जाकर पानी को गदा करेंगे तो हमारा देवता नाराज होकर हम सब का सर्वनाश कर देगा । ”क्या तुम सत्य कह रहे हो, खरगोश ?” ”महाराज, आपके सामने झूठ बोलकर मुझे मरना है, परन्तु फिर भी यदि आपको विश्वास नहीं, तो आज रात को स्वयं चलकर चांद देवता के दर्शन कर लेना इससे आपको पुण्य भी मिलेगा ।”

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”यदि ऐसी बात है तो आज रात को हम भगवान चांद के दर्शन अवश्य करेंगे और यदि तुम्हारी बात झूठ निकली तो तुम्हें इसका दण्ड दिया जाएगा ।” ”ठीक है, आज रात आप तालाब पर पधारें, आपको चांद देवता के दर्शन जरूर होंगे ।”

यह कहकर खरगोश उरपने साथियों के साथ वहां से वापस उग गया । पूर्णिमा की रात थी । आकाश पर चांद पूरे रूप के साथ चमक रहा था, हाथियों का सरदार अपने साथियों के साथ चांद देवता के दर्शन करने के लिए आया न्‌दुरना था । रात के समय चांद का पूर्ण प्रतिबिम्ब तालाब के, पानी में नजर आ रहा था ।

खरगोश ने हाथियों के सरदार से कहा, ”देखो महाराज ! इस तालाब के पानी के अंदर हमारे चांद देवता कैसे विश्राम कर रहे हैं ।” ”हां…हां…सचमुच हमारे चन्द्रदेव जलशैया पर लेटे हैं, धन्य है प्रभु धन्य हैं आप अब हम इस तालाब को कदापि अपवित्र नहीं करेंगे ।” हाथी ने छ उठाकर चांद को प्रणाम किया और अपने साथियों त्हो तादर लेकर वहां से वापस चला गया ।


Panchatantra Story #3. अधर्मी का फैसला |

”भैया! यह संसार बड़ा ही विचित्र ङ्के यह जीबन इन्द्रजाल के समान एक परिकर सा लगता है यदिर आप सदा सुख और शाति कहते हैं तो थर्म का पालन कर यह शरीर सदा नहीं रहता मौत सदा रहती है ।

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इसलिए धर्म का काम करो । वृक्षों से अधिक प्रिय तो उनके फल और फूल होते हैं । दूध से घी अच्छा ? दूसरों को दुख देना पाए है ।” अधर्मी व दुष्ट बिल्लै की ऐसी बातें सुनकर खरगोश क गौरैया उसका मुंह देखने लगे । कौआ जिस वृक्ष पर रहता था, ठीक उसी वृक्ष के तने में खोह बनाकर एक गौरैया रहता था ।

इन दोनों में बड़ी अच्छी मित्रता थी । दोनों ही मिलकर देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करते और ब्राह्मणों का आदर करते, खाली समय में नीति-ज्ञान की बाते करके समय का सदुपयोग करते, इसी प्रकार से उनका जीवन व्यतीत हो रहा था ।

एक दिन गौरैया के कुछ अन्य दोस्त आ गए और वह कौए को छोड़कर उनके साथ घूमने चला गया, रात होने तक भी गौरैया वापस नहीं आया । यह देख कौए को बहुत चिंता होने लगी । वह बार-बार यही सोच रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि उस बेचारे को किसी शिकारी ने मार डाला हो या वह किसी मुसीबत में फंस गई हो ।

वह बेचारा चिंता में डूबा रहा, किन्तु उसके मित्र का कहीं भी अता-पता नहीं था । इसी प्रकार इंतजार में कई दिन बीत गए । कौआ बेचारा हर रोज वृक्ष पर बैठा उसकी राह देखता रहता…लेकिन उसके हिस्से में केवल निराशा ही आती थी ।

एक दिन जब कौआ अपने दोस्त की प्रतीक्षा में बैठा उसकी खोह की ओर देख रहा था तो उसने देखा कि एक खरगोश उस खोह में से निकल रहा था । उसे देखकर कौए ने सोचा कि गौरैया तो उसे छोड़कर न जाने कहां चला गया, कौन जाने कि अब वह जीवित भी है या नहीं ।

बिना मित्र के जीवन सूना है । अत: इस खरगोश से दोस्ती कर लेनी चाहिए । गौरैया न सही यह खरगोश ही सही, कम से कम इस एकांत का दुःख तो मिट जाएगा । यही सोचकर कौए ने खरगोश से मित्रता कर ली । अब तो कौए का समय पहले से भी अच्छा व्यतीत होने लगा ।

सत्य बात तो यह र्थ। कि वह खरगोश की मित्रता पाकर गौरैया को पृलु ही चका था । एक दिन गौरैया भी वापस आ गया, कौए ने देखा, वह पहले से कहीं हृष्ट-पुष्ट होकर वापस आया था । जैसे ही वह अपनी खोह में जाने लगा तो वहां बैठे खरगोश को देखकर पूछा : ”भैया ! तुम मेरे घर में कैसे पुसे बैठे हो ?”

”यह घर अब तुम्हारा नहीं है दोस्त, अब तो इस घर का मालिक मैं हूं । अब तुम यहां क्या करने आए हो ? क्या तुमने विद्वानों से नहीं सुना कि कुआ, तालाब, देवालय और वृक्षों को एक बार छोड़ करके उन पर अपना अधिकार फिर नहीं जमा सकते ।

दस वर्ष तक जिसने किसी जगह का भोग किया हो, उसका यह भोग प्रमाण हे कि वह जगह उसी की है, जो वहां रहता है, गवाह या लेख नहीं । यह नियम प्राणियों के लिए मुनियों ने बनाया है, परन्तु पशु-पक्षियों के विषय में यह कहा है, उनका अधिकार तब तक रहता है जब तक वे वहां पर रहते हैं ।”

खरगोश की बातें सुनकर गौरैया बोला, ”अरे भाई ! यदि तुम इन धार्मिक बातों पर विश्वास करते हो तो चलो चलकर किसी ज्ञानी से अपना निर्णय करवा लें ।” ”ठीक है चलो ।” खरगोश इतना कहकर उसके साथ चल पड़ा ताकि इस समस्या का कोई उचित समाधान निकल सके ।

दोनों को अपनी ओर आते देखकर एक मोटा-सा काला बिल्ला, जो नदिया किनारे बैठा हुआ था, एकदम से तीन टांगों पर खड़ा होकर वैरागियों का सा नाटक करने  लगा- “भाइयों ! यह संसार बेकार है, जीवन व्यर्थ है, इन्द्रजाल के समान यह परिवार है, सो धर्म को छोड़ करके और कोई मार्ग नहीं अपनाना चाहिए ।

ज्ञानियों ने कहा है : ”यह शरीर सदा नहीं रहता, मौत सदा रहती है, इसलिए धर्म का काम करो । वृक्षों से अधिक प्रिय तो उनके फल और फूल होते हैं । दूध से घी अच्छा, दूसरों को दुःख देना पाप है, मानव सेवा से बड़ा धर्म कोई नहीं ।” बिल्ले को इस प्रकार के उपदेश देते देखकर खरगोश ने गौरैया से कहा : ”भैया गौरैया ! यह तो कोई बड़ा ज्ञानी लगता है । चलो, इसी के पास चलकर अपना न्याय करवा लेते हैं ।”

”ठीक है बंधु, चलो ।” दोनों उस बिल्ले के पास पहुंच गए और उसके सामने खड़े हो हाथ जोड़कर बोले, ”हे पवित्र आत्मा ! हम आपसे न्याय करवाने आए हैं, आप धर्म को सामने रखकर हमारा न्याय करना, हम में से जो भी झूठा हो उसे अपना आहार बना लेना ।”

”देखो भैया ! मेरे सामने यह पाप की बात मत कहो, नरक में गिरने वाले रास्ते से मैं हट गया हूं अहिंसा को ही मैंने अपना धर्म मान लिया है । और आप लोग भी यह जान लो कि सज्जनों ने ही अहिंसा को धर्म मार्ग माना है, उन्होंने तो यह भी कहा है कि जू और खटमल की भी रक्षा करें, भैया जीव हत्या सबसे बड़ा पाप है, इसलिए मैंने किसी भी जीव को खाना छोड़ दिया है ।

अब तुम मुझ से डरो मत, इससे पहले कि तुम मुझसे कुछ कहो एक बात का ध्यान रखना कि मैं आ हूं । मैं दूर से आपकी आवाज नहीं सुन सकता । आपको जो कुछ भी कहना है, मेरे पास आकर कहो, कहा भी गया है कि लोग मन से, लोभ से, क्रोध से और डर से झूठ बोलते हैं, इसलिए बिना किसी डर के मेरे पास आ जाओ और अपनी बात कहो, ताकि मैं न्याय कर सकूं ।”

उस पापी बिल्ले ने अपनी बातों से उन पर ऐसा जादू किया कि वे दोनों निडर होकर उसके निकट आ गए । फिर क्या था । बिल्ले की चाल सफल रही, उन दोनों को अपने निकट पाकर वह एक साथ उनपर टूट पड़ा और देखते ही देखते दोनों को चट कर गया ।


Panchatantra Story #4. कौन है अपना |

जैसे ही सोने के सा वाला एक बड़ा पक्षी वहां आशु तो उसे देखकर सब की आखें फटी क्तई फटी रह गई । तभी उस तालाब के हसों ने उससे कहा, “आप इस तालाब में न रहें, क्योंकि हमने सोने के पंख देकर इसे खरीद लिया है ?”

राजा चिंतामणी कै महल के पीछे एक बहुत बड़ा तालाब था, जो सैनिकों के लिए ! सुरक्षित था । उस तालाब में बहुत से सुनहरी किस्म के हंस रहते थे । इनमें से हर एक हंस छ: मास के पश्चात् सोने का एक पंख छोड़ता था ।

एक बार वहां पर सोने जैसा बहुत बड़ा पक्षी आया । उसे देखते ही सारे हंस एकदम से बोल उठे : ”अरे भाई ! तुम हमारे बीच में नहीं रह सकते, क्योंकि हम हर छ: मास के पश्चात् एक-एक सोने का पंख राजा को देते हैं, इस तरह से हमने यह तालाब खरीद लिया है ।”

उन हंसों की बात सुन, सोने का पक्षी राजा के पास गया और जाकर बोला, ”महाराज वे हंस कहते हैं कि राजा हमारा क्या बिगाडू लेगा, यह तालाब हमारा खरीदा हुआ है । हम किसी और को इस तालाब में नहीं रहने देंगे वह घमंडी हंस सोचते हैं कि राजा को एक सोने का पंख देकर उन्होंने पूरे राज्य को ही खरीद लिया है ।

यह तो सभी पक्षियों के अधिकार का हनन है महाराज । आपके राज्य में यह अन्याय हो रहा है महाराज, इसलिए आप ही मेरा न्याय करें ।” राजा ने बड़े धैर्य से सोने के पक्षी से कहा, ”तुम चिंता मत करो, हम पूरा-पूरा न्याय करेंगे ।” उसी समय राजा ने अपने सैनिकों से कहा : “तुम लोग इसी समय जाकर उन हंसों को पकड़कर ले आओ । वे इतने घमंडी हो गए हैं । उन्हें इसका दण्ड दिया जाएगा । राजा का हुक्म सुनते ही सैनिक उसी समय तालाब की उगेर चल पड़े ।”

हंसों ने जैसे ही सैनिकों को अपनी ओर आते देखा तो उनमें से एक बूढ़े हंस ने उनसे कहा, ”दोस्तों, इस स्थान से अब भाग जाना ही उचित है उस पक्षी ने अवश्य ही हमारे खिलाफ राजा के कान भरे होंगे और अब हमें दण्डित किया जाएगा ।” बूढ़े हंस की बात मान कर सारे हँस वहां से उड़ गए । एक बुद्धिमान हंस ने सब की जान बचा दी ।


Panchatantra Story #5. अपने विवेक से काम लो |

बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती इतनी गहरी हो गई थी कि दोनों एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रहते दे परन्तु मगरमच्छ की पत्नी के कारण इन दोनों की दोस्ती के बीव स्वार्थ आ गया ।

जब बन्दर को पता चला कि मेरा यह मित्र इतना स्वार्थी हो गया है कि अपनी पत्नी के कहने में आकर मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है तब..? सागर के तट पर एक जामुन का पेड़ था, उसपर एक बंदर रहता था । उसका कोई न तो मित्र था, न ही कोई सगा-सम्बंधी, बस अकेला ही उस पेड़ पर अपना समय काटता और बैठा-बैठा सागर से उठती लहरों की आवाजें सुनता रहता ।

एक दिन एक मगरमच्छ सागर से निकलकर सागर के किनारे ठंडी-ठंडी रेत पर आकर लेट गया । बंदर भी अकेला बैठा था, उसने मगरमच्छ को देखा तो झट से उसे पुकारा और पूछा : ”मगर भैया, मुझसे दोस्ती करोगे ?” ”क्यों नहीं करेंगे । तुमसे दोस्ती करके तो लाभ ही होगा ।” ”कैसा लाभ भैया ?”

”इस प्रकार मुझे भी धरती पर पैदा होने वाले स्वादिष्ट फल खाने को मिलेंगे । बहुत आनन्द आ जाएगा ।” ”क्यों नहीं, देखो, सामने ही जामुनों का एक बाग है, मैं अपना पेट भी उन जामुनों से भरता हूं यदि तुम कहो तो मैं तुम्हारे लिए भी जामुन ले आया करूंगा ।”

”हां…हां…दोस्त, मैंने भी सुना है कि जामुन बहुत मीठा फल है । बस समझ लो कि आज से हम दोनों पक्के दोस्त हैं ।” यही से बंदर उघैर मगरमच्छ की दोस्ती शुरू हुई, बंदर अपने मित्र के लिए जामुन तो लाता ही था, परन्तु इसके साथ कभी आम, कभी खरबृजे, सेब भी ले आता, जिसे खाकर मगरमच्छ बहुत खुश रहता था ।

बहुत से फल मगरमच्छ अपनी पत्नी के लिए भी ले जाता । पत्नी उन फलों को खाकर बहुत खुश होती, ऐसे स्वादिष्ट फल सागर में कहां थे । एक दिन मगरमच्छ की पत्नी ने अपने पति से पूछा, ”प्राणनाथ ! तुम हर रोज इतने स्वादिष्ट फल कहां से लेकर आते हो ।”

‘बाहर सागर तट पर एक जामुन का पेड़ है, उस पर मेरा एक दोस्त बंदर रहता है, जो हर रोज मेरे लिए यह फल लेकर आता है ।’ ”बहुत अच्छा है तुम्हारा दोस्त ।” ”हां प्रिये, ऐसे दोस्त जीवन में बहुत कम ही मिलते है ।” ‘जो बंदर इतने अच्छे और स्वादिष्ट फल खाता है, उसके दिल को खाने में कितना आनन्द आएगा ।’

मगरमच्छ की पागल पत्नी के मन में न जाने कहाँ से ऐसी बुरी भावना पैदा हो गई कि उसने अपने पति से कहा : ”मैं तो अब तब ही जीवित रह सकती हूं प्रिय, जब मुझे बंदर का दिल खाने को मिलेगा ।” ”अरी भाग्यवान, यह तुम क्या कह रही हो । बंदर बेचारा तो बड़ा नेक प्राणी है । ऐसे प्राणी को मारना महापाप है ।”

”अपनी पत्नी की इच्छा पूरी न करना तो उससे भी बड़ा पाप है । अब मैं तो उस बंदर का दिल खाकर ही जीवित रहूंगी, नहीं तो प्राण त्याग दूंगी ।” “लेकिन मैं अपने मित्र का दिल कैसे निकाल कर ला सकता हूं । वह सागर में तो रहता नहीं, जो मैं अपनी ताकत से उसका वध करके उसका दिल निकाल लूं ।”

“देखो जी, बंदर तुम्हारा दोस्त है ?”  ”हां है ।” ”तो फिर उस दोस्त से जाकर कहो कि तुमने मुझे बहुत कुछ खिला-पिला दिया है, अब मैं अपने घर पर तुम्हारी दावत करना चाहता हूं । बंदर तुम्हारी बात मान ही लेगा । एक बार वह सागर के अंदर आ गया तो समझो कि अपना काम बन गया, फिर वह बचकर कहां जा सकता है ।”

अपनी पत्नी की योजना सुनकर मूर्ख मगरमच्छ बहुत खुश हुआ । दूसरे दिन संबदरह के। पास जाकर उसने कहा, “भैया आज मेरी पत्नी ने तुम्हें खाने की दावत दी है ।” ”मुझे ?” बंदर ने आश्चर्य से मगरमच्छ की ओर देखा । ”हां दोस्त ! उसने कहा है कि तुमने हमें बहुत स्वादिष्ट फल खिलाए हैं, अब हम भी तुम्हारी सेवा करना चाहते हैं, बस एक दिन के लिए आप हमारे घर चलिए ।”

”भाई मगर ! मैं सागर में कैसे जाऊंगा ?” ”मेरी पीठ पर बैठकर, मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बैठाकर ले जाऊंगा और पीठ पर बैठाकर वापस छोड़ जाऊंगा ।” बंदर ने मगरमच्छ की बात मान ली और उसकी पीठ पर बैठकर सागर में चला गया, मध्य सागर में पहुंचते ही मगरमच्छ ने जान लिया कि अब तो बंदर मेरे काबू में है ।

यह कहीं भाग तो सकता नहीं । अत: इसे सच्ची बात बता ही देनी चाहिए । यह सोचकर वह बोला : ”देखो भैया ! सत्य बात तो यह है कि मेरी पत्नी कहती है जब तुम्हारा दोस्त इतने मीठे और स्वादिष्ट फल खाता है तो उसका दिल तो और भी अधिक मीठा होगा ।

मैं उसका दिल खाना चाहती हूं । यदि ऐसा न हुआ तो मैं प्राण दे दूंगी । अत: अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए ही मुझे मित्र घात करना यह सुनकर बंदर को बहुत दुःख हुआ । वह समझ गया कि उसका मित्र मगर मूर्ख है जो मित्रता को छोड़कर पत्नी की अनीति की बात को महत्व दे रहा है ।

किन्तु अब किया भी क्या जा सकता है, अब तो मैं इस मगरमच्छ के जाल में फंस चुका हूं, इससे बचने का अब कोई रास्ता भी नजर नहीं आता । मौत…मौत ! बंदर को अपनी मौत सामने नजर आ रही थी, उसकी तेज खोपड़ी में अचानक ही बचने का एक सस्ता उग गया, उसने मगरमच्छ से कहा: ”रुक जाओ मित्र ।” ”क्यों क्या हुआ ?”

”देखो भाई!” बंदर बोला: ”यह तो मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है कि भाभी मेरा दिल खाना चाहती है । लेकिन तुम्हें यह बात मृउझे वहीं बतानी चाहिए थी ।”  ”क्यों मित्र! ऐसी क्या बात है ?” ”भैया! मैं अपना दिल वृक्ष पर ही छोड़ आया हूं तुम जरा वापस चलो तो उस दिल को साथ ले चलें, नहीं तो तुम्हारी पत्नी खाएगी क्या ?”

मगरमच्छ सागर में से बाहर आ गया और फिर जैसे ही वह किनारे पर पहुंचा वैसे ही बंदर छलांग लगाकर पेड़ पर चढ़ गया और मगरमच्छ से बोला, ”जा धोखेबाज  मित्र ! जा वापस चला जा, कहीं कोई प्राणी जिस्म से दिल अलग रखता है । तूने पत्नी के कहने में आकर मेरे साथ धोखा किया-आज से तेरी-मेरी दोस्ती खत्म ।”  इस प्रकार बंदर की जान बच गई । और मगरमच्छ अपना सा मुंह लेकर चला गया ।


Panchatantra Story #6. युद्ध और शांति |

”महाराज ? मेरे विचार में तो संधि करना उचित नहीं है, विद्वान कहते हैं कि-शत्रु स्वयं सुककर भी सन्धि करना वाहे तो भी सीय नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गर्म पानी आग सी ही तपिश देता है । लोभी और अथर्मी से तो भूल कर भी सथि नहीं करनी चाहिए ।”

राजा ने अपने पांवों मंत्री-सहयोगियों की राय ले ली ? मगर वे पांचों के पांचों अपनी अलग-अलग बोली बोल रहे के इनमें से किसकी बात माने किसकी न मा, कुछ समझ नहीं पा रहा था कागरज…। पाटलीपुत्र के बाहर चारों ओर घने जंगल थे, इस जंगल में एक युगों पुराना पेड़ था, जिसके ऊपर कौओं का राजा रहता था ।

उसी पेड़ के साथ थोड़ी दूरी पर एक और विशाल व प्राचीन पेड़ था ? उस पर उन्तुओं का राजा रहता था । इस जंगल के अधिकतर भाग पर उन दोनों का ही राज चलता था, इन दोनों राजाओं ने अपने : अपने वृक्षों के पास ही एक गुफा भी अपनी प्रजा के लिए अपने अधिकार में ले रखी थी, जिसका उपयोग युद्ध के समय अपनी सुरक्षा तथा प्रजा को बचाने के लिए करते थे ।

उल्लू राजा ने अपनी गुफा के बाहर पहरा देने वाले सैनिकों को आदेश दे रखे थे कि रात के समय यदि कोई भी कौआ अथवा उनके राज्य का और कोई भी प्राणी इस गुफा के बाहर मिल जाए तो उसे जान से मार डालो । ऐसा कई बार हो चुका था ।

बहुत से कौए इन उन्तुओं के हाथों मारे जा चुके थे, क्योंकि जो भी कौआ भूलकर भी उनके राज्य में चला जाता, उसे मौत का ही मुंह देखना पड़ता था । इस तरह से कौआ जाति बुरी तरह से मारी जाती रही । किन्तु समय के साथ कौआ जाति में जागृति आने लगी ।

वहां की नई पीढ़ी ने अपने राजा के पास जाकर कहा : ”महाराज ! आप अपनी प्रजा को इस प्रकार निर्दोष मारे जाते देखकर क्यों चुप बैठे हैं ?  क्यों नहीं उस उत्सुक पापी राजा से बात करते कि हमारे देश और हमारी जनता के साथ तुम बहुत अन्याय कर रहे हो ? हम कब तक ऐसे अन्याय सहन करते रहें ? हर चीज की एक सीमा होती है, उलू तो हर सीमा को पार कर चुके हैं ।”

कागराज ने अपने युवकों की बातों को बड़े ध्यान से सुना और फिर बड़े ही सोच-विचारकर राजा ने अपने विशेष सलाहकारों को बुलाया और उनके सामने उन्तुक राजा की ओर से किए जाने वाले सारे अत्याचारों की बात रखते हुए कहा:

”देखो मेरे मित्रों ! आज तक हमने इन उन्तुओं के सारे अत्याचार सहन किए । हमारी प्रजा के सैकड़ों निर्दोष प्राणी इन पापियों ने मार डाले । हम तब भी चुप रहे, परन्तु अब समय बदल चुका है । अब हमारी युवा पीढ़ी यह अत्याचार सहन करने के लिए तैयार नहीं है ।

यदि हमने होने वाले इन अत्याचारों को न रोका तो वह दिन दूर नहीं जब हमें अपने देश की इस युवा पीढ़ी के विद्रोह का सामना करना पड़ेगा । मित्रों, बुद्धिमान वही है जो समय की आवाज को सुने और समय के साथ बदलता रहे । मैं यह तो मानता हूं कि हमारा शत्रु शक्तिशाली और बड़ा ही भयंकर है ।

यदि हम उससे युद्ध की बात करेंगे तो वह हमारा नाश कर देगा । हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम रात को देख नहीं सकते और शत्रु के पास सबसे बड़ा हथियार यही है कि वह रात के समय देख सकता है, हमें यह भी पता नहीं कि उनकी गुफा कहां है ?

अब इन सब हालात को सामने रखते हुए हमें यह सोचना है कि हमें क्या करना चाहिए । हम उनसे युद्ध करें या शांति बनाए रखने के लिए संधि कर लें, या फिर कोई और रास्ता तलाश करें जिससे हमारी प्रजा का जीवन सुरक्षित रहे । इस मामले में मैं आप सभी की राय जानना चाहता हूं ।”

एक विद्वान सलाहकार ने अपने राजा की बातें सुनकर कहा : ”महाराज ! अपने अपने सलाहकारों को बुलाकर जो उनसे सलाह लेनी चाही है, यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी का काम है, बुद्धिमान राजा संकट के समय अपने विद्वानों से ही सलाह-मशविरा करते हैं, अब आप हममें से एक-एक को बुलाकर उसके विचार जान लें, फिर उन विचारों के आधार पर ही कोई फैसला करें ।

यही एक अच्छे राजा का धर्म है कि वह सबके विचार जानकर अपनी नीति तैयार करे । राजा के सामने मीठी-मीठी बातें करने वाले और उसे उचित सलाह न देने वाले विद्वान इस योग्य नहीं होते कि उन्हें दरबार में कोई उच्च स्थान दिया जाए ।”

यह सुनकर राजा ने एक-एक करके अपने विद्वानों को अपने पास बुलाकर उनसे उनके विचार जानने प्रारंभ किए । सबसे पहले मुख्यमंत्री को बुलाया गया तो उसने कहा,  ”देखो महाराज, मेरी नीति तो यही है कि बलवान से लड़ाई नहीं करनी चाहिए, विद्वानों का यह मत है कि- अपना जीवन बचाने के लिए शत्रु से संधि कर लेनी चाहिए, यदि आपका जीवन बच जाएगा तो आप जो भी चाहें कर सकते हैं बृहस्पति जी का मत तो यह है युद्ध में विजय संभव न हो तो बराबर के शत्रु से भी संधि कर लेनी चाहिए ।

साम, दाम, दंड और भेद के पश्चात ही युद्ध उचित होता है । शक्तिशाली शत्रु से तो युद्ध करना ही नहीं चाहिए, इसलिए मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि आप संधि कर लें ।” इसके पश्चात राजा ने दूसरे विद्वान को बुलाकर पूछा तो उसने उत्तर देते हुए कहा : ”महाराज, मेरे विचार में तो संधि करना ठीक नहीं है- विद्वानों ने कहा है कि शत्रु यदि स्वयं भी झुककर संधि करना चाहे तो भी उस से संधि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गर्म पानी भी आग सी ही तपिश देता है लोभी अधर्मी से तो भूलकर भी संधि नहीं करनी चाहिए, कगेंकि ऐसे लोग सबसे बड़े पापी होते हैं ।

पापी आदमी खोटा मित्र बनकर संधि भी तोड़ देता है, इसलिए ऐसे शत्रु से युद्ध ही करना चाहिए, मेरा विचार तो यही है कि हिम्मत और उत्साह से इन्सान बड़े से बड़े शत्रु को भी हरा देता है, शेर छोटा होने पर भी इतने बड़े हाथी को मार देता है, हाथी राजा नहीं बनता मगर शेर राजा होता है ।

जो शत्रु ताकत से न मारा जाए उसे छल से मारो, नीति से मारो…मैं तो आपको यही कह सकता हूँ ।” इसके पश्चात् कागराज ने तीसरे मंत्री को बुलाकर उसकी राय भी पूछी । ”महाराज! इसमें कोई संदेह नहीं कि वह पापी हम से बहुत शक्तिशाली है, इसलिए उससे न तो संधि करनी चाहिए न ही युद्ध करना चाहिए । उससे कुछ भी करना ठीक नहीं ।

विद्वानों का मत इस प्रकार है कि बलवान और सिद्धांतहीन शत्रु से बिना सोचे-समझे युद्ध या संधि नहीं करनी चाहिए । यदि शत्रु पर हमला करना हो तो चैत या कार्तिक मास में ही करना चाहिए । जब शत्रु किसी संकट में हो अथवा उसमें कोई कमी हो, उसी समय उस पर आक्रमण करना चाहिए ।

जो शत्रु के आने जाने के रास्ते तथा अन्न-जल भंडारों को जाने बिना हमला करता है, वह कभी जीत प्राप्त नहीं कर सकता ।” इसके पश्चात चौथे मंत्री को बुलाकर राजा ने पूछा, ”महोदय अब इस बारे में आप भी अपनी सलाह दें ।” ”महाराज, मुझे तो संधि, विग्रह, पलायन इन तीनों में से कुछ भी पसंद नहीं ।”

”तो फिर आपको क्या पसंद है ?” ”अपने ही देश में रहकर युद्ध करना, क्योंकि ज्ञानियों का मत है: स्थान पर स्थिर मगरमच्छ हाथी को श्री खींच लेता है, परन्तु वही भयंकर मगरमच्छ जब पानी से बाहर आता है तो कुत्ते से भी मारा जाता है ।

यदि आप किसी शक्तिशाली शत्रु से युद्ध करते हैं, तो अपने किले के अंदर रहकर ही उसे हरा सकते हैं यदि अपने को शत्रु के सामने हारते देखो तो सहायता के लिए अपने मित्रों को बुला लेना चाहिए । बस इससे अधिक मैं और कुछ नहीं कहूंगा ।”

उस मंत्री से सलाह लेने के, पश्चात राजा ने अपने पांचवें मंत्री को बुलाया और उससे पूछा कि आपकी क्या राय है ? ”महाराज, इन चारों की राय तो मुझे पता नहीं, मेरे विचार में तो युद्ध के समय हमें किसी न किसी की सहायता लेनी ही होगी, अपनी भूसी से अलग होकर चावल नहीं जामते, मेरे तो विचार में इस कार्य के लिए किसी मित्र का सहारा लेना जरूरी है ।”

राजा ने अपने पांचों मंत्री-सहयोगियों की राय ले ली, मगर वे पांचों के पांचों अपनी अलग-अलग बोली बोल रहे थे । इनमें से किसकी बात माने, किसकी छोड़े, कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कागराज । इस उलझन के समय में कागराज को एक पुराना आ कौआ याद आया जो अक्सर कष्ट के समय संकट के दिनों में काम आता था ।

उस समय उसने उस कौए को अपने पास बुलाया क्योंकि बुद्धिमान लोगों का मत है कि संकट के समय किसी से सलाह लेना कोई पाप नहीं । वह बूढ़ा कौआ आया तो कागराज ने उसका स्वागत करते हुए कहा : ”देखो ताऊ, आप सबसे अधिक अनुभवी हैं, वास्तव में अनुभवी ही ज्ञानी होता है और ज्ञानी ही संकट के समय साथ दे सकता है ।”

‘कागराज ! आप हुक्म करें कि मैं आपके किस काम आ सकता हूं ।’ तभी कागराज ने उस कौए को सारे हालात के बारे में बताया और साथ ही उन मंत्रियों की राय भी बताई और उससे पूछा कि अब इसके पश्चात् आपकी क्या राय है ? उस बूढ़े कौए ने कहा, ”महाराज ! जो कुछ इन मंत्रियों ने कहा है वह नीति-शास्त्र के अनुसार ठीक है ।

परन्तु बड़े-कुंडों का कहना है कि बलवान शत्रु के साथ सन्धि या विग्रह करके निश्चिन्त नहीं बैठना चाहिए, शत्रु के मन में विश्वास पैदा करके स्वयं विश्वास न करते हुए लालच मे फांसकर उसे आसानी से मारा जा सकता है ।”  ”मेरे बुजुर्गवार! मैं आपकी बातों को मानता हूं परन्तु दुःख की बात तो यह है कि हम उसका निवास स्थान तक नहीं जानते ।”

”यह काम तो आपके गुप्तचर कर सकते हैं, आखिर आप राजा हो, क्या यह नीति भी नहीं जानते कि शत्रु का पूरा-पूरा भेद आपके पास होना चाहिए । बड़ों का कहना है कि: ब्राह्मण शास्त्रों द्वारा देखते हैं । राजा गुप्तचरों द्वारा देखते हैं । जो राजा गुप्तचरों द्वारा अपने शत्रु की पूरी निगरानी रखता है, वह कभी भी हार नहीं सकता ।

”बुजुर्गवार! आप मुझे यह भी तो बताए कि गुप्तचरों को कैसे उनके पास भेजा जार ! और गुप्तचर कैसे हों ?” ”देखो कागराज आप मेरे बेटे समान हो, उगज मैं आपको नारद जी की नीति बताता हूं । उन्होंने शत्रु के लिए पन्द्रह नियम बनाए थे, जो राजा इन नियमों का पालन करते हैं वे सदा विजयी रहते हैं ।

यदि कोई राजा इन नियमों का पूरी तरह पालन करता है तो उसे सफल राजा तथा ज्ञानी माना जाता है । राजभाषा में इन्हें तीर्थ कहते हैं । शत्रु पक्ष के तीर्थ इस प्रकार हैं : 1. मंत्री 2. पुरोहित 3. सेनापति 4. युवराज 5. द्वारपाल 6. अन्तवर्शिक 7. प्रशास्ता 8. समाहर्ता 9. सन्नि 10. प्रदेष्टा  11. अश्वाध्यक्ष 12. सभाध्यक्ष 13. गजाध्यक्ष 14. कोषाध्यक्ष 15. दुर्गपाल 16. बलाध्यक्ष 17. सीमापाल 18. अन्य बड़े-बड़े अधिकारी । इन सब को तोड़कर शत्रु को वश में करना कठिन नहीं । स्वपक्ष के सदस्य इस प्रकार हैं : 1. रानी 2. राजमाता 3. राजपुरोहित 4. माली 5. शैटगपालक 6. गुप्तचराध्यक्ष 7. सांवरसरिक 8. भिष्क 9. कहारी 10. ताम्बू लवाहक 11. आचार्य 12. अंगरक्षक 13. स्थानचिंतक 14. छत्रकर 15. वेश्या ।

इन सबके साथ शत्रुता करके सदा नुकसान ही होता है । वैद्य, ज्योतिषी और आचार्य यह जैसे अपने पक्ष की बातों को जानते हैं, वैसे ही गुप्तचर सपेरों की भांति शत्रु पक्ष की बातों को जानते हैं ।”  इस बूढ़े और अनुभवी कौए की एक-एक बात को कागराज ने बड़े ध्यान से सुना और फिर सहसा पूछने लगा, ”अब आप मुझे यह तो बताओ कि इन उन्तुओं से हमारी शत्रुता का कारण क्या है ?”

”सुनो कागराज!” यह कहते हुए बूढे कौए ने यह कहानी शुरू की: एक समय की बात है हंस, तोता, बगुला, कोयल, चिड़िया, उन्तु तथा अन्य पक्षी एक साथ बैठे थे । उन सब पक्षियों ने मिलकर कहा कि हमारा राजा गरुड़ ‘है जो भगवान विष्णु का वाहन भी है और भक्त भी, परन्तु हम यह देख रहे हैं कि वह हमारी चिंता नहीं करता ।

जबकि विद्वानों ने कहा है कि शत्रु से तैरा प्रजा को रक्षा न करने वाले हर राजा को यमराज कहा जाना चाहिए जो राजा अपनी प्रजा का ख्याल नहीं रखता उसकी हालत उस नैया जैसी होती है जिसका खेवनहार कोई नहीं होता, वह इधर-उधर भटकती रहती है ।

प्राणी को चाहिए कि टूटी नाव की भांति सदा उपदेश देने वाले आचार्य, मूर्ख पुरोहित, रक्षा न करने वाला राजा, कड़वा बोलने वाली नारी, इन सबको छोडू दे । अत: विचार करके किसी दूसरे को राजा बनाया जाए । ”हां…हां…।” वहां बैठे सब पक्षियों ने अपनी सहमति प्रकट की ।

अब यह प्रश्न भी उठा कि नया राजा किसे बनाया जाए ? ‘उल्लू को राजा बना दें तो अच्छा रहेगा ।’ कोयल ने अपनी राय देते हुए कहा । सब पक्षी कोयल की वात से सहमत हो गए कि आज से हमारा राजा उन्तु होगा और हम अभी उलू का राजतिलक करते हैं । उन्तु के लिए उस समय राजगद्दी तैयार की गई ।

जैसे ही उल्लू की राजगद्दी को सजा-धजाकर रखा गया तो उधर से एक कौआ आ गया, सब पक्षियों ने सोचा कि हम सबमें चुस्त, चालाक और होशियार तो यह कौआ ही होता है । बड़ों ने कहा भी है इपुरुषों में नाई, पक्षियों में कौआ उगैर जानवरों मैं गीदड़ यह सब अति चालाक होते हैं ।

कौए ने उन लोगों के बीच में बैठते हुए कहा : ”अरे भाई लोगों, आज यहां क्या हो रहा है, जो आप लोग सिर से सिर जोड़े बैठे हैं ?” ”भाई कौए, असल में हम पक्षियों का कोई राजा नहीं है, इसलिए हम सबने मिलकर यह निर्णय किया है किउल्लू को अपना राजा बनाया जाए । अब तुम भी आ ही गए हो तो यह बताओ कि तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है?”

उन पक्षियों की बात सुनकर कौआ हंसा और फिर बोला, ”अरे दोस्तों, यदि आपने किसी को राजा ही बनाना था तो-मोर, हंस या तोते में से किसी को राजा बनाते, क्या राजा चुना है…जिसे दिन में नजर भी नहीं जगता, शक्ल से भी बुरा हे, ऐसे राजा को राजगद्दी पर बैठाने से हमारी क्या शान होगी, फिर हमारा एक राजा गरुड़ भी तो है, भला ऐसे बुद्धिमान और ज्ञानी के होते हुए उन्तु को राजा बनाने की क्या जरूरत थी ? क्या आप यह भूल गए हैं कि गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है ।

गरुड़जी का नाम लेने से ही बड़े-बड़े प्राणी डर जाते हैं, उनका नाम लेने से ही हमारे अनेक काम निकल आते हैं, फिर हम उल्तू को राजा क्यों बनाए ?”  कौए की बात सुनकर सारे पक्षी कहने लगे कि यह तो बात ठीक है कहां…उल्लू और कहां गरुड़, नहीं…नहीं यह बात ठीक नहीं, हमारे लिए उन्तु राजा ठीक नहीं रहेगा, अब हम फिर से राजा का चुनाव करेंगे, यह कहते हुए सब पक्षी वहां से उठकर चले गए ।

उन सबके चले जाने के पश्चात् केवल उल्लु और उसकी पत्नी ही वहां पर बैठे रह गए थे । उल्लू बहुत उदास बैठा था, उसे सबसे अधिक दुःख तो इस बात का था कि इसका राजतिलक होते-होते रुक गया । उसका कारण वह कौआ था जो ऐन मौके पर न जाने कहां से आ टपका ।

कौआ-असल में यही कौआ उसका शत्रु है । एक-एक करके सारे पक्षी उड़ कर जा चुके थे, अब वहां अकेला कौआ बैठा था, दुःखी मन को शांत करने के लिए उल्लू ने कौए से कहा : ”अरे ओ दुष्ट काले कौए, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मुझे राजा नहीं बनने दिया ।

तुमने केवल मेरे साथ ही बुरा नहीं किया, बल्कि पूरी उल्लू जाति का अपमान किया है, आज से हमारी तुम्हारी शत्रुता शुरू होती है । यदि हम इस अपमान को भूल भी गए तो हमारी संतानें इसे कभी नहीं भूलेंगी, क्योंकि तलवार का घाव तो जैसे-तैसे भर जाएगा, मगर किसी के कहे बुरे शब्दों का जख्म कभी भी नहीं भर सकता ।”

”बस यही से हमारी और उल्लुओं की दुश्मनी शुरू हुई थी, जो अब तक चती आ रही है । अब क्या करना है, क्या नहीं, यह फैसला तो आप ही कर लें…।”  कागराज सोच में पड़ गए कि ऐसे में करें तो क्या करें ।


Panchatantra Story #7. पापी का विश्वास न करो |

मेंढकों का राजा अपने साथियो से झगड़ा करके जब अपने मित्र सापं के पास मदद मांगने पहुंचा, तो सांप को यह देखकर फत आश्चर्य हुआ कइ एक गैर जाति का प्राणी उससे मदद मांगने आया है । मगर क्यों ?क्यों? यही सोव रहा था नागराज?

‘यह अवश्य ही किसी स्वार्थवश मेरे पास आया है वरना आज तक इसे मेरी दोस्ती याद नहीं आई…देखते हैं यह क्या कहता है…शायद इसी में अपना ? भला हो जाए ।’ भवानीपुर गांव के बाहर एक बहुत पुराना कुआ था, उसमें मेंढकों का परिवार रहता था ।

इन मेंढकों का राजा नीलमणि मेंढक था, जिसका परिवार लम्बे समय से इन मेंढकों पर राज करता चला आ रहा था । एक बार नीलमणि का अपने मंत्री से किसी बात पर मतभेद हो गया । उस मंत्री ने उसके विरुद्ध विद्रोह करवा दिया, जिसके कारण नीलमणि अपना देश (कुआं) छोड़कर चला गया ।

जाते-जाते मेंढक राज ने अपने विरोधी मंत्रियों से कहा, सुनो धोखेबाजों, आज मैं इसी जल की कसम खाकर यह प्रतिज्ञा करके जा रहा हूं कि तुम लोगों ने मेरे साथ जौ गद्दारी की है, मैं एक दिन इसका बदला लेकर रहूंगा…मैं जा रहा हूं…जा रहा हूं…।”

”जाओ न…तुम्हें किसने रोका है, हम तो अपने देश में ही रहेंगे, मगर तुम जब बाहर जाकर धक्के खाओगे तब पता चलेगा कि अपना देश कैसा होता है ।”  ”यह तो समय ही बताएगा कि धक्के कौन खाता है, तुम पापी हो, स्वाथी हो, तुम्हें एक दिन इसकी सजा जरूर मिलेगी ।” क्रोध से भरा नीलमणि वहां से चला आया ।

उसे अब यह नहीं पता था कि मेरी मंजिल कहां है, देश और घर छोड़ने के पश्चात् ही पता चलता है कि अपना घर कैसा होता है । दुःख में ही प्राणी अपने-पराये के भेद जान सकता है । इसी दुःख में भटकते नीलमणि को अपने एक पुराने मित्र काले नाग की याद आई ।

अब तो और कोई सहारा भी नजर नहीं आ रहा था । अपने परिवार को एक अन्य कुएं में ठहराकर वह सीधा उस काले नाग के पास गया, उसके बिल के बाहर खड़े होकर उसने अपने मित्र को आवाज दी : ”भैया नागराज, मैं तुमसे मिलने आया हूं ।”

”कौन है ?” ”मैं तुम्हारा पुराना मित्र नीलमणि मेंढक हूं ।” ”अच्छा…अच्छा, आ रहा हूं नीलमणि…।” यह कहते हुए नागराज बाहर आ गया, उसने आते ही अपने पुराने मित्र को गले से लगाते हुए कहा, ”कहो नीलमणि, कैसे हो तुम ?” ”अच्छा नहीं हूं, हां मैं कुछ दिनों के लिए तुम्हारे पास रहने आया हूं ।”

”यह तो और भी खुशी की बात है । जरूर रहो, परन्तु ।” नागराज कुछ कहते-कहते रुक गया । ”नागराज, क्या तुम मुझे रखने में संकोच कर रहे हो ?” ”ऐसी बात नहीं नीलमणि, मगर मैं केवल इतना जरूर जानना चाहूंगा कि तुम किस कारण अपना देश छोड़ आए ।”

”नागराज! यदि तुम सत्य जानना चाहते हो तो सुनो, असल बात यह है कि मेरे मंत्रियों ने मेरे विरुद्ध षड्‌यंत्र रचकर मेरी जनता को मेरे खिलाफ विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया है ।  अब मैं तुम्हारे पास शरण लेने आया हूं और यहै भी चाहता हूं कि यदि तुम मेरी सहायता करो तो मेरा खोया हुआ राज्य मुझे फिर से वापस मिल जाएगा ।”

”क्या तुम अपना राज्य वापस लेने के लिए मेरी शरण में आए हो ?” ”हां मित्र! यदि तुम ऐसा कर दो, तो मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा ।”  ”ठीक है, यदि तुम मेरी शरण में आ ही गए हो, तो मैं भी पीछे हटने वाला नहीं हूं कहो, मुझे क्या करना होगा ?”

”मैं एक कुएं में रहता हूं यदि मेरा राज्य तुम मुझे वापस दिला दोगे तो मैं अपने पुराने देश में ही एक बढ़िया सा बिल तुम्हारे रहने के लिए तैयार करवा दूंगा, इस प्रकार हमारी मित्रता और मजबूत होगी ।” नाग उस मेंढक की सहायता करने के लिए तैयार हो गया, उसके तेज दिमाग में भी कोई नई योजना घूम रही थी ।

वह लम्बी बातें सोच रहा था, इस जंगल में अकेला रहकर वह तंग आ चुका था और बुढ़ापे ने भी उस पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर देदिया था ।  अत: उसकी इच्छा थी कि किसी तरह उसके खाने-पीने का पक्का प्रबंध हो जाए और उसे बुढ़ापे में इधर-उधर न भटकना पड़े ।

यही सोचकर सांप नीलमणि मेंढक की सहायता करने के लिए तैयार हो गया । सांप के साथ जैसे नीलमणि वापस अपने कुएं में आया, तो उसके मेंढक मंत्री सांप को देखकर वैसे ही डर गए, नीलमणि ने सांप से कहा, ”इन गद्दारों में से किसी एक को तुम आज खा लो, बाकी जो बचेंगे उन्हें बाद में खाते रहना । इनकी यही सजा है ।”

सांप ने एक मोटे से मेंढक मंत्री को मारकर खा लिया । फिर तो सारे मेंढक मंत्री डर गए और नीलमणि फिर से राजा बना, उसे अपना राज्य वापस मिला तो वह सांप का बहुत धन्यवाद करने लगा । अपने दिए वचन के अनुसार उसने कुएं में र्हो सांप के रहने के लिए एक पक्का बिल तैयार करवा दिया ।

सांप के लिए तो यह स्थान स्वर्ग से कम नहीं था । रहने के लिए पक्का बिल मिला, जिसमें किसी प्रकार का कोई भी डर नहीं था, क्योंकि कुएं में कोई भी शत्रु नहीं आ सकता था, इसलिए वह खूब खाता, खूब सोता । धीरे-धीरे नीलमणि के सारे शत्रु मेंढकों को सांप ने खा लिया ।

जब कोई भी शत्रु मेंढक बाकी न बचा तो नीलमणि ने सांप के पास जाकर कहा : ”दोस्त ! अब तो मेरे सारे शत्रु तुमने खा लिए अब तुम्हारे खाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं रहा ।” ”नीलमणि! तुम्हारे लिए मैं अपना देश छोड़ के उगया हू उगैर तुम हो कि यह कहते हो कि मेरे पास खिलाने को कुछ नहीं ।”

”नागराज यह मेरी मजबूरी है, मैंने जो वचन तुम्हें दिया था, वह पूरा कर दिया ।” ”देखो नीलमणि, कल से तुम अपनी प्रजा से एक मेंढक मेरे भोजन के लिए भेज दिया करो, वर्ना मैं तुम समेत सारे मेंढकों को आ जाऊंगा ।” सांप के इस भयंकर रूप को देखकर नीलमणि बेचारा सिर से पांव तक कांप गया ।

अब तो मरता क्या न करता वाली बात थी, उसने सांप के आगे अपना सिर झुका कर कहा : ”हे नागराज, मैं तो तुम्हें अपना मित्र मानकर यहां लाया था, लेकिन तुमने तो मेरी प्रजा को ही खाने का मन बना लिया ।” ”मैं तो तुम्हारा मित्र हूं मगर यह पापी पेट तो किसी का मित्र नहीं ।

यह तो खाने को मांगता है, मित्रता भी तो तभी चलती है जब पेट में भोजन जाए ।”  नीलमणि समझ चुका था कि उग्ब यह नाग सब कुछ भूलकर अपने असली रूप में सामने आ गया है, इससे तो कुछ भी कहना बेकार है । अब तो हर रोज एक मेंढक उस काले नाग का भोजन बन जाता था, काला नाग खूब खा रहा था, मौज मार रहा था, किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है तो कुएं भी खाली हो जाते हैं ।

एक-एक करके जब सारे मेंढक नागराज का शिकार हो गए तो अंत में केवल मेंढक राजा नीलमणि ही बचा था, नागराज ने कहा-आओ, तुम ही आज मेरा भोजन बन जाओ ।” ”लेकिन मैं तो तुम्हारा मित्र हूं मुझे तो छोड़ दो नागराज ।” ”भूख के आगे कोई दोस्ती नहीं होती नीलमणि…।” यह कहते हुए सांप ने मेंढक को भी खा लिया ।


Panchatantra Story #8. भोले-भाले फंस जाते हैं |

जड़ी शेर के पास उसके मित्र गीदड़ ने जाकर कहा : “महाराज अब तो भूखे मरने की नौबत आ गई है अब आप ही बताओ कि क्या करें ?” “गीदड़ भाई अपनी वालाकी से किसी सीधे-सादे जानवर से देर लाओ मैं इसी मुका में बैठे-बैठे उसका शइकार कर लुक ।”

”हां-हां महाराज यही ठीक है…भूखे मरना तो महापाप है ।” गीदड़ ने कहा । उसकी आंखों में लालच की चमक उभर आई । शेर और गीदड़ इन दोनों में बहुत पुरानी मित्रता चली आ रही थी । वैसे तो गीदड़ जैसा चालाक कोई जानवर नहीं क्योंकि वह सदा अपनी चालाकी, हेराफेरी और होशियारी से ही अपना पेट पालता है ।

वह कभी भूखा नहीं रहता, भले ही इसके लिए उसे किसी को कितना बड़ा धोखा क्यों न देना पड़े । ऐसा ही था यह गीदड़ जो शेर का मंत्री बना हुआ था । शेर का मंत्री होने का उसे यह लाभ हो रहा था कि छोटे-मोटे जानवर तो उससे वैसे ही डर जाते थे इसलिए उसे खाने को भी खूब मिलता था ।

एक बार एक जंगली हाथी और शेर का युद्ध हुआ । इस युद्ध में शेर जीत तो गया, मगर वह बुरी तरह से घायल हो गया, जिसका परिणाम यह निकला कि वह घायल हालत में मजबूर और बेबस सा अपनी गुफा में पड़ा रहता था, शिकार करने की हिम्मत उसमें नहीं रही ।

गीदड़ ने देखा यदि शेर और उसका यही हाल चलता रहा, तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी । अंत में दुःखी होकर वह शेर के पास गया और उससे बोला, ”महाराज, अब हमारा क्या होगा । यदि कुछ दिन और ऐसे ही चलता रहा तो हम दोनों ही भूखे मर जाएंगे ।”

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने भी महसूस किया कि यदि हमारी यही हालत चलती रही तौ मृग्व से ही मरना पड़ेगा, परन्तु अब करें भी तो क्या ? दोनों काफी देर तक सोचते रहे, भूख किसी भी प्राणी को कूछ से कुछ करने पर मजबूर कर देती है, यही हालत उस समय शेर की थी ।

जख्मी हालत में पड़े-पड़े बेचारे शेर की हालत तो खराब थी ही, इसके साथ भूख ने उसकी हालत और भी आधेक खराब कर दी थी…अंत में मजबूर होकर शेर ने गीदड़ से कहा : ”देखो मंत्री महोदय, तुम बहुत ही चतुर और होशियार हो, अब तुम जंगल में जाकर किसी भोले-भाले जानवर को अपनी बातों में फांसकर मेरे पास ले आओ, मैं उसे यही पर मारूंगा, फिर हम दोनों अपना पेट भर लेंगे ।

मैं जानता हूं एक शेर के लिए किसी भोले-भाले जानवर को धोखे से मारना पाप ही है, लेकिन भूख से तड़प कर मरना भी तो ठीक नहीं ।” ”हां…हां…महाराज, आप ठीक कहते हैं, भूख से मरना तो सबसे बड़ा पाप है, इसलिए मैं जा रहा हूं किसी न किसी भोले-भाले जानवर को अपने जाल में फांसकर लाऊंगा, आप उसे मारकर खुद भी खाएं, बाकी का मैं भी खा लूंगा ।”

”ठीक है मंत्रीजी, आप जल्दी से जाए ।” शेर ने गीदड़ को भेज दिया और खुद गुफा के अंदर जाकर लेट गया । गीदड़ बेचारा किसी भोले-भाले जानवर की तलाश में घूमता हूआ एक मक्का के खेत में जा पहुंचा, जहां पर एक गधा बड़े मजे से मक्का खा रहा था ।

गीदड़ ने उस गधे को फांसने के लिए नाटक शुरू किया, उसे यह पता था कि गधा बहुत ही सीधा-सादा जानवर है जो कभी किसी का बुरा नहीं सोचता, बल्कि अपनी पीठ पर बोझा ढो-ढो कर मालिक की सेवा करता है । ऐसा होते ही मालिक उसे घर से निकाल देता है । इस बेचारे से किसी को भी हमदर्दी नहीं ।

गीदड़ बड़े प्यार से उस गधे के पास गया और बड़ी नम्रता से बोला : ”बड़े भाई  राम-राम ।” ”राम-राम, भैया कहो, आज इधर कैसे आना हुआ ?” ‘बड़े भाई, क्या बताऊं…जंगल में अकेला हूं अपना कोई साथी तो है नहीं न ही कोई दोस्त है, अकेले पड़े-पड़े जब दिल अधिक उदास हो जाता है तो ऐसे ही घूमने चल देता हूं ।

इस आशा को लेकर कि भूले-भटके शायद कोई दोस्त मिल जाए ।’ ”क्या तुम भी अकेले ही रहते हो?” गधे ने पूछा । ”हां भैया, मैं तो अकेला ही रहता हूं । बस, दोस्त की तलाश में फिर रहा हूं । क्या तुम मुझे अपना दोस्त बना सकते हो ?” गीदड़ ने निकट आकर कहा, ”यदि तुम्हारे जैसा कोई सीधा-सादा मेरा मित्र बन जाए तो मुझसे भाग्यशाली और कौन होगा…।”

”यदि तुम्हारी खुशी इसी में है तो समझ न। कि आज से हम दोनों पक्के दोस्त हैं ।” गधा खुश होकर बोला, उस बेचारे को क्या पता था कि यह गीदड़ उसे अपनी चाल में फंसा रहा है, उसने चालाकी और हेराफेरी का जाल बुन रखा है, इस जाल में वह खुशी-खुशी फंस रहा था ।

उसका फंसने का कारण यह भी था कि वह भी अकेला ही था, जिस धोबी का काम करता था वह सुबह ही उसकी पीठ पर कपड़ों का गट्‌ठर लादकर ले आता, शाम को उन कपड़ों को लादकर ले जाता और खाने-पीने को देने के लिए उसके पास कुछ नहीं था, वह धोबी उसे छोड़ देता था ताकि वह अपने आप किसी खेत में जाकर पेट भर ले । यही दुःख था उसके मन में, जिसे वह किसी से कह भी नहीं सकता था ।

आज उसे पहला दोस्त मिला था गीदड़ जिसने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था । वह गीदड़ का दोस्त बना तो गीदड़ ने उसे आज के खाने की दावत दे दी, जिसे गधे ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया, उसके मन मैं तौ यह बात थी कि इस धोबी से उसका पीछा छूट जाए…यही कारण था कि वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल पड़ा ।

गीदड़ अपनी जगह खुश था कि उसने शिकार फांस लिया, और गधा अपनी जगह कि उसे एक दोस्त मिल गया । चलते-चलते दोनों उस गुफा के निकट पहुंच गए, जिसमें शेर पहले से ही अपने शिकार पर झपटने के लिए तैयार बैठा था । उसने दूर से ही गधे और गीदड़ को आते देख लिया था, वह समझ गया था गधा ही उसका शिकार बनेगा…मोटा ताजा गधा…जिसे देखकर शेर की भूख और भी बढ़ गई थी ।

जैसे ही गधा गुफा के पास आया तो शेर एकदम से बाहर निकल आया ताकि गधे का शिकार कर लूं…लेकिन गधा भी कुछ कम होशियार नहीं था, उसने जैसे ही शेर को अपनी ओर आते देखा तो एकदम तेजी से पीछे मुड़कर भाग खड़ा हुआ…गधा भाग गया तो शेर और गीदड़ को बहुत दुःख हुआ ।

हाथ में आया शिकार निकल गया तभी गीदड़ ने शेर से कहा : ”महाराज ! आपने यह क्या किया, जो हाथ में आया शिकार निकाल दिया ।” ”असल में मैं उस समय पूरी तरह से तैयार नहीं था, जख्मी होने के कारण मैं तेजी से भाग नहीं सका, अब किसी तरह से तुम उसे दुबारा ले आओ, मैं पहले से ही गुफा के बाहर छुपकर बैठूंगा, बस जैसे ही वह गुफा के करीब आएगा मैं पीछे से उसे दबोच लूंगा ।”

गीदड़ दूसरे दिन जैसे ही उस गधे के पास गया, तो उसने गीदड़ को देखकर मुंह फेर लिया । “बड़े भैया लगता है तुम हमसे नाराज हो गए हो ।” ”अरे काहे का भाई, किसका भाई, तुम तो अच्छे भाई हो, यदि मैं कल अपनी जान बचाकर न भागता तो अपना तो हो गया था कल्याण । अब तुम जाओ भैया…अपने लिए यही धोबी का घर अच्छा है ।”

”भैया तुम भी कितने भोले हो, क्या तुम्हें वह शेर नजर आया ? अरे मेरे भाई, वह शेर नहीं था बल्कि तुम्हारी होने वाली पत्नी गधी थी ।” ”यह तुम क्या कह रहे हो भैया ।” ”जो सत्य है, वह तो तुम्हारे गले में शादी का हार डालने आ रही थी, मगर तुम हो कि अपनी होने वाली पत्नी को छोड़कर ही भाग आए ।”

”अब कहां है वह गधी ।” ”उसी गुफा में बैठी रो रही है ।” ”क्यों रो रही है ।” ”तुम्हारे लिए, कहती है इतना सुन्दर पति मेरे लिए तुम ढूंढकर लाए, मगर वह बेवफा भाग गया, मैंने उसे वचन दिया है कि अब तुम्हारे पति को मनाकर लाऊंगा, वह मेरा भाई है, मुझे कभी इन्क्रार नहीं करेगा, अब चलो, नहीं तो वह बेचारी रो-रोकर मर जाएगी ।”

”नहीं…नहीं…ऐसा मत कहो भैया, मैं चलूंगा और उसी से विवाह करूंगा जो मेरी याद में बैठी रो रही है ।” भोला-भाला गधा एक बार फिर उस गीदड़ के जाल में फंस गया और शादी के लालच में कल वाली घटना को भूल गया…उसे कल वाला शेर गधी ही नजर आने लगा था ।

गीदड़ अपनी सफलता पर कितना खुश था । गधा तेजी से चला जा रहा था क्योंकि वह शीघ्र ही अपनी होने वाली पत्नी से मिलना चाहता था…। जैसे ही गधा गुफा के निकट पहुंचा । शेर ने उसे दबोच लिया और देखते ही देखते गधा धरती पर आ गिरा । उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया । फिर शेर और गीदड़ दोनों उसका मांस खाने लगे ।


Panchatantra Story #9. जान बची तो लाखों पाए |

जैसे ही गीदड़ ने भेड़िये को आते देखा तो उसका माथा ठनका…वह जानता था कि भेड़िया बहुत चालाक होता है यदि इसने मेरा शिकार खा लिया तो मैं भूखा पर जाऊंगा, इसलिए जैसे भी हो इसे यहां से भगाना ही होगा ।

और फिर चालाक गीदड़ ने अपनी बुद्धि से एक ऐसी चाल चली कि भेड़िया सिर पर पांव रखकर भाग खड़ा हुआ । बंगलूर के भयंकर जंगल इसलिए भी अधिक मशहूर हो गए थे क्योंकि वहां पर बड़े-बड़े जंगली जानवर रहते थे । कोई भी राहगीर इस रास्ते से नहीं जाता था ।

इन जंगली जानवरों के कारण लोगों को बहुत लम्बा रास्ता काटकर जंगल के दूसरी ओर जाना पड़ता था । एक प्रकार से इस जंगल पर जंगली जानवरों का पूरा अधिकार हो गया था । इन जंगली जानवरों में एक बूढ़ा गीदड़ भी था, जो बेचारा अकेला ही एक छोटी-सी गुफा में पड़ा रहता, बड़ा शिकार करने की हिम्मत तो उसमें थी नहीं ।

छोटा-मोटा कोई पशु-पक्षी उसे कहीं से मिल जाता तो उसे मारकर वह अपना पेट भर लेता । भोजन पेट में हो तो नींद भी खूब आती है, भूखा हो तो नींद कहां आएगी । सारा दिन वह घूमता ही रहता था, ताकि कहीं से भोजन का प्रबंध हो ।

एक दिन वह भूखा ही जंगल में टहल रहा था कि उसने एक स्थान पर हाथी को मरा पड़ा देखा । ”अहा…आज तो मजा आ गया…हाथी का मोटा-मोटा मांस खाने को मिलेगा और यह भोजन तो कई दिन तक चल सकता है, अब तो कई दिन खूब आराम से कटेंगे ।”

यही सोचकर खुशी-खुशी मरे हुए हाथी के पास गया, परन्तु उसे अपनी सारी खुशियां उस समय मिट्टी में मिलती नजर आई जब हाथी को खाने के लिए उसने उसके शरीर पर अपने दांत रखे । उसकी खाल तो पत्थर की तरह थी ।

उसे कैसे खाता, उसके दांत तो ऐसे फिसल कर रह गए जैसे पत्थर से फिसले हों । जबाड़े में दर्द भी होने लगा । गीदड़ उस हाथी के शव के पास ही छुपकर खड़ा हो गया । वह यह आशा लगाए हुए था कि कोई तेज दांतों वाला शेर या भेड़िया उधर आए और एक बार हाथी की मोटी खाल को उधेड़ डाले फिर तो वह इसे आराम से खा लेगा ।

थोड़ी देर के पश्चात् उस गीदड ने एक शेर को उधर आते देखा तो वह मन ही मन में बहुत खुश हुआ । अब उसे आशा थी कि शेर इस हाथी को फाड़कर खाएगा, वह कितना खा लेगा ? आखिर जो बचेगा उसके ही तो काम आएगा ।

जैसे ही शेर उसके निकट आया तो गीदड़ ने उसे प्रणाम किया और कहा : ”जंगल के राजा ! मैं आपके स्वागत के लिए खड़ा हूं इस शिकार की भी रक्षा कर रहा हूं जिस पर पहला अधिकार आप ही का है । जब तक आप इसका भोग न लगाएंगे, तब तक भला मैं कहां मुंह लगा सकता हूं ।”

“गीदड़, क्या तुम यह नहीं जानते कि हम जगल के राजा हैं, हम किसी के किए शिकार तथा मुर्दा जानवर को नहीं खाते, हम तो अपना शिकार खुद करके खाते हैं, समझे बुजदिल ।” यह कहकर शेर आगे निकल गया, उस बेचारे गीदड़ की सारी खुशियां एक बार फिर मिट्टी में मिल गई और वह भूखे का भूखा रह गया ।

”जा…जा…घमंडी कहीं का ।” गीदड़ ने पूणा से उस शेर की उगेर देखा, फिर वहीं पर खड़ा हो गया…फिर इन्तजार…थोड़ी देर के पश्चात् एक भेडिया उधर आ निकला । उसे देखते ही गीदड़ समझ गया था कि यह तो बहुत चतुर है, यदि इसने हाथी को खाना शुरू कर दिया तो अपने पूरे परिवार को बुला लाएगा, इस हाथ को भेड़िये खा जाएंगे तो वह भूखा रहेगा इसलिए जैसे भी हो, भेड़िये से इस हाथी को बचाना ही होगा ।

यही सोचकर गीदड़ उस भेड़िये के पास जाकर बोला, ”भैया, इस हाथी को देख रहे हो न?” ”हां, देख रहा हूं लगता है आज तो अपनी लाटरी लग गई है । इतना बड़ा हाथी खाने को मिले तो अपना पूरा परिवार कई दिन तक आनन्द लेगा ।” ”भैया मेरे! अब आनन्द लेने की बात तो भूल जाओ ।”

”ऐसा क्यों?” भेडिये ने आश्चर्य से गीदड़ की ओर देखा । ”इसलिए कि यह शिकार शेर का है, वह अभी-अभी इसे मारकर स्नान करने गया है, मुझे यह कह गया है कि मेरे आने तक इसका ख्याल रखना, कोई इसे खाने न पाए ।” भेड़िये ने जैसे ही यह सुना कि यह शिकार शेर का है और वह अभी आने ही वाला है, तो वह वहां से भाग खड़ा हुआ ।

”चलो, यह मुसीबत तो टली ।” गीदड़ अपने आप हंस दिया । भेड़िया तो वहां से चला गया, मगर उसके जाने के पश्चात एक चीता वहां आ निकला, गीदड़ को पता था कि चीते के दांत बहुत तेज होते है, इससे हाथी की सख्त खाल को कटवाकर अपना पेट भरा जा सकता है । चीते बेचारे तो सीधे होते हैं, जैसे भी कहूंगा यह मान जाएगा ।

गीदड़ ने बड़े उत्साह से उस चीते का स्वागत किया और हाथ जोड़कर बोला :  ”मामाजी को प्रणाम है, आपका बच्चा आपके स्वागत के लिए बेताब हो रहा है ।”  ”मेरा स्वागत और तुम…भांजे, आज तो जरूर दाल में कुछ काला है, जो तुम मेरे आगे हाथ जोड़े खड़े हो ।”

”मामा जी एसी कोई बात नहीं बस, सुबह-सुबह शेर ने इस हाथी का शिकार कर डाला, मुझे इसकी रक्षा के लिए खड़ा करके, स्वयं नहाने चले गए हैं । अब तुम आ ही गए हो तो मुझे अपने मामा की सेवा तो करनी ही होगी…अब आप चलकर इस हाथी के मांस से अपना पेट भरें ।

मैं इस ओर खड़ा शेर को देखता हूं जैसे ही शेर आएगा, तुम्हें बता दूंगा, तुम उसी समय भाग जाना ।” ”वाह…वाह…भांजे, क्या बात की है, मजा आ गया, आज तो खाने को खूब माल मिलेगा…भांजा हो तो तेरे जैसा…।” यह कहते ही चीता हाथी की खाल काटने लगा ।

गीदड़ की नजरें उसी पर टिकी हुई थीं, जैसे ही चीता खाल को उतार चुका गीदड़ ने शोर मचा दिया : ”शेर आ गया…शेर…मामा…शेर आ गया ।”  यह सुनते ही चीता डर के मारे भाग खड़ा हुआ । गीदड़ हंस दिया…और हाथी की ओर बढ़ा, अब तो रास्ता साफ हो चुका है । चीता, बेचारा कहता जा रहा था : ”जान बची तो लाखों पाए ।”


Panchatantra Story #10. झूठ मत बोलो |

“सच बोलो कि तुम कौन हो ? सच्चा सैनिक तो युद्ध क्य नाम सुनकर शेर की भाति दिखाई देने लगता है वह अपनी मुछों पर ताव देकर शत्रु पर हूट पड़ना कहता है और एक तुम हो कि युद्ध का नाम ही अपने लये हो ।”

”महाराज मुझसे भूल हुई- मुझे क्षमा कर दें- मैंने नौकरी पाने के लिए ही आपसे झूठ बोला था।” रामलाल कुम्हार के बेटे राजू के माथे पर बचपन में ही गधे से गिरकर गहरी चोट लग गई थी । उस चोट का निशान उसके माथे पर दूर से ही चमकता नजर आता था ।

जब राजू बड़ा हुआ तो उसने यह फैसला कर लिया कि मैं अपने पिता वाला धंधा नहीं करूंगा, मुझे यह मिट्टी के बर्तन बनाना, फिर उन्हें गधे पर लादकर बेचने जाना बिल्कुल पसंद नहीं । मैं तो शहर जाकर राजा की सेना में भर्ती हो जाऊंगा और सैनिक बनकर बड़े ठाट से रहूंगा ।

यह बात उसने अपने पिता से कही तो उसके पिता ने कहा, ”बेटा ! राजा तो केवल बहादुर कौमों को ही सेना में भर्ती करता है, कुम्हारों को तो बुजदिल समझकर सेना में भर्ती ही नहीं किया जाता ।” ”पिताजी, आप क्यों चिंता करते हैं, मैं राजा को यह बताऊंगा ही नहीं कि मैं जाति का कुम्हार हूं मैं तो उसे यह कहूंगा कि मैं बहादुर हूं..? वीर हूं ।”

”तो क्या तुम राजा के सामने झूठ बोलोगे ?” ”पिताजी, आदमी को अपना काम निकालने के लिए यदि झूठ बोलना पड़े और उसके बदले में उसे जीवन के सारे सुख मिलते हों तो यह झूठ पाप नहीं होता ।”  ”मगर राजा के सामने बोला हुआ झूठ तो अपराध है बेटे ।”

”उसे पता चलेगा तो न, पिताजी…।” यह कहता हुआ राजू वहां से बाहर निकल गया और तेजी से शहर की ओर जाने लगा । राजा सागर सिंह के दरबार में जाकर राजू ने प्रणाम किया और फिर दोनों हाथ जोड़कर बोला, ”महाराज, मैं एक गरीब और बेकार युवक हूं और आपकी सेना में भर्ती होने आया हूं ।”

राजा ने उसके माथे पर लगे चोट के निशान को देखकर यह सोचा कि यह चोट तो इसे किसी युद्ध में ही लगी होगी, शक्ल से भी यह लड़का किसी अच्छे घराने का लगता है, ऐसे वीर युवक को तो सेना में भर्ती कर ही लेना चाहिए, फिर भी राजा ने उससे पूछा: ”तुम्हारा नाम क्या है ?”

”राजवीर सिंह ।” ”किस जाति के हो ।” “वीर…जाति का…।” राजा कुछ सोच में पड़ गया जैसे यह जाति उसकी समझ में न आई हो । ”हां…हां… महाराज, जैसे वीर हनुमान थे, बस हम भी वैसे ही वीर हैं ।”  राजा उस युवक से बहुत प्रभावित हुआ, उसने उसी समय राजू को सेना में भर्ती कर लिया ।

राजा से जो भी वेतन मिलता था, उसे वह अपने माता-पिता को भेज देता, उसके माता-पिता अपने बेटे की कमाई पर ऐश कर रहे थे, साथ ही पूरे गांव में उनका नाम भी हो गया था कि इनका बेटा सेना में है । एक बार किसी पड़ोसी राजा ने सागर सिंह के देश पर हमला कर दिया तो सागर सिंह ने भी अपनी सेना को युद्ध के आदेश दे दिए, यह तो उनके लिए बड़े दुःख की बात हुई कि राजा सागर सिंह की पहली सैनिक टुकड़ी बुरी तरह से हारकर वापस आई ।

ऐसे में राजा की नजर उस वीर पर पड़ी जो अपने को वीर हनुमान की नस्त का बताता था, उसी समय राजा ने उसे अपने पास बुलाया । राजू ने आते ही राजा को प्रणाम करके उनकी जय बुलाई और फिर पूछा, ”महाराज, आपने अपने दास को कैसे याद किया ?”

”राजवीर सिंह हमने आज देश पर आए संकट को देखते हुए तुम्हें बुलाया है, मैं यह चाहता हूं कि बढ़ते हुए शत्रु को रोकने के लिए तुम ही जाओ ।”  ”लेकिन मैं…।” ”देखो राजवीर! यह समय कुछ कहने का नहीं, बल्कि करने का है, बातों के लिए पूरी उम्र पड़ी है…तुम्हारे जैसे वीरों को तो युद्ध का नाम सुनते ही शेर बन जाना चाहिए, मुझे दुःख है कि तुम तो अभी मैं…मैं ही कर रहे हो ।”

“महाराज, आप कुछ भूल रहे हैं ।” ”क्या भूल रहा हूं मैं ।” ”यही कि मैं असल में वीर नहीं हूं ।” ”तुम वीर नहीं, जबकि तुमने हमसे कहा था कि मैं वीर हूं और हमारा सम्बंध वीर हनुमान के वंश से है ।” ”कहा था, परन्तु यह तो नहीं कहा था कि मैं अकेला युद्ध कर सकता हूं ।” राजा को उसके झूठ पर इतना क्रोध आया कि वह कड़क कर बोला, ”सच बोल, तू कौन है, तेरा सम्बंध किस वंश से है ।”

”महाराज, मुझसे भूल हो गई । आप मुझे क्षमा कर दें, मैंने नौकरी पाने के लिए आपके सामने झूठ बोला था ।” ”क्या कहा?” राजा का क्रोध पहले से भी कहीं अधिक तेज हो गया था, उनका चेहरा लाल सुर्ख हो गया, वह बार-बार उस युवक की ओर देख रहे थे, जिसके माथे की चोट के गहरे निशान से उन्होंने यह अंदाजा लगा लिया था कि यह कोई बहुत बहादुर होगा, परन्तु…आज इसके ढोल की पोल खुल गई ।

राजू भी जान चुका था कि उसने जो झूठ बोला था, उस एक झूठ को छुपाने के लिए उसे और कई झूठ बोलने पड़े वह पाप पर पाप करता चला गया, और उसका झूठ बोलना ही उसके लिए मुसीबत बन गया । वह राजा के पांव में गिरकर रोने लगा और बोला, ”मुझे माफ कर दो महाराज ।

मैं अपनी भूल के कारण ही यह झूठ बोलने पर मजबूर हुआ था…मुझे माफ कर दो महाराज ।” दयावान राजा के मन में उसे पांव में पड़े देखकर दया आ गई । राजा ने उससे  कहा : ”देखो राजवीर अब जो कुछ हुआ सो हुआ, एक बार तो हम तुम्हें छोड़ देते हैं परन्तु तुम्हें इसी समय हमारे राज्य को छोड्‌कर जाना होगा नहीं तो हम तुम्हें फांसी पर बढ़ा देंगे…।” मरता क्या न करता, अब तो जान बचाने का और कोई रास्ता ही नहीं बचा था, इसलिए राजू को इस राज्य को छोड्‌कर ही जाना पड़ा ।


Panchatantra Story #11. घमंडी का सिर नीचा |

”बेटे यह जंगल है, इसमें तरह-तरह के जानवर घूमते रहते हैं जिनमें तुम्हारी जाति के शत्रु भी है; इसलिए तुम सदा हमारे साध ही रहा करो ।”  लेकिन ऊंट के उस घमंडी बच्चे ने अपने मालिक की एक न सुनी और एक दिन…।

रतनगढ़ गांव में चन्दू नाम का एक बढ़ई रहता था, जो बचपन से ही कामचोर और सुस्त था, परन्तु वह सदा ही बड़ा आदमी बनने के सपने देखता रहता था । वह अमीर बनना चाहता था, बहुत सारा धन इकट्ठा करके मौज मारना चाहता था ।

इस धुन में अंधा होकर उसने एक दिन यह फैसला कर लिया कि मैं शहर जाऊंगा, वहीं पर जाकर अमीर आदमी बनूंगा । धनवान बनने की उमंग में चन्दू घर से निकल पड़ा, अभी वह रास्ते में हीं था कि उसने एक ऊंटनी को देखा, जिसके साथ एक बच्चा भी था । दोनों मां-बेटे बड़े मजे से जंगल में टहल रहे थे ।

ऊंटनी को अकेले देखकर चन्दू बहुत खुश हुआ, उसने सोचा अब तो बन गया काम…मिल गई ऊंटनी और उसका बच्चा भी…अब भला शहर जाकर मुझे क्या करना है ? अपना तो शहर यही है, अब इस ऊंटनी के बच्चे को पालकर वह काफी अमीर हो जाएगा । यही तो वह चाहता था ।

चन्दू खुशी-खुशी उस ऊंटनी को लेकर घर आ गया और ऊंटनी और उसवे बच्चे की सेवा करने लगा । थोड़े दिनों पश्चात उस ऊंटनी ने एक बच्चा और दे दिया ऊंटनी के बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे, इसके साथ-साथ उसकी आशाएं भी जवान होती जा रही थी ।

अब तो चन्दू लोगों का सामान लेकर शहर जाता, तीनों ऊंटों पर सामान लादता और किराये के रूप में अच्छा धन ले लेता । धीरे-धीरे वह अमीर होता गया । वह अपने घर में ही धन जमा कर रहा था । ऊंटों के आते ही चन्दू की दुनिया बदल गई, उनकी सेवा करने में उसे बहुत आनन्द आता ।

सुबह-शाम जंगल में ले जाकर उन्हें वृक्षों के पत्ते खिलाकर लाता । ऊंटनी का पहला बच्चा बहुत ही शरारती था । जंगल में जब भी वह जाता तो इधर-उधर छलांगें लगाता रहता । कभी उधर निकल जाता, कभी इधर, कभी भी चैन से नहीं खाता था ।

चन्दू ने उसे बहुत समंझाने का प्रयत्न किया । वह यही कहता रहता, ”बेटे यह जंगल है, इसमें तरह-तरह के जानवर आते-जाते हैं, जिनमें तुम्हारी जाति के शत्रु भी हैं, इसलिए तुम हमारे साथ ही रहा करो ।” लेकिन उस घमंडी बच्चे ने किसी की एक न सुनी, वह तो सदा अपनी मनमर्जी करता था । हालांकि चन्दू ने उसके गले में एक घंटा बांध रखा था, ताकि इस घंटे की आवाज को सुनकर उसे यह तो पता चल सके कि उसका ऊंट कहां है । एक दिन वह बच्चा उन्हें छोड्‌कर कहीं दूर निकल गया ।

पास ही एक तालाब था जिसका ठंडा पानी पीकर उसने बड़ा ही आनन्द लिया-जंगल का वह क्षेत्र उसे बहुत ही भाया, तालाब के किनारे की मजेदार हवा में उसका मन झूमने लगा, वह मस्ती में आकर नाचने लगा, गाने लगा, नाचना और गाना तो मन की खुशी की बात होती है । प्रकृति के साज पर ही यह गीत गाए जाते हैं और नृत्य किए जाते हैं ।

ऊंट के बच्चे के बस की बात नहीं थी, यह प्रकृति का खेल शा जिसकी पुन में वह गाने लगा था, नाचने लगा था…उसे क्या पता था कि जब वह नाचता है, गाता उहै, इसके साथ ही गले में बंधा घंटा भी बजने लगता है । एक दिन घंटे की आवाज सुनकर एक शेर उधर आ निकला, उसने सामने ऊंट के बच्चे को देखा और तुरन्त ही उसने उस ऊंट के बच्चे को पकड़कर मार डाला । चन्दू को जैसे ही पता चला कि उसका ऊंट मारा गया है, तो वह समझ गया है, तो वह समझ गया कि उसको उसके घमंड की सजा मिली है ।


Panchatantra Story #12. नारी हठ उचित नहीं |

”औरतों के कहने पर पुरुष क्या कुछ नहीं करते मैंने तो नारी पर्व में सिर ही युवाका है लोग तो न जाने क्या-क्या करते हैं ।” मंत्री की बात सुनकर राजा को समझते देर नहीं लगी कि इस प्रकार मंत्री उस पर व्यंग्य कस रहे हैं ?

राजा रामसिंह अपने समय का सबसे पराक्रमी राजा माना जाता था, उसका विशाल राज्य समुद्र तट तक फैला हुआ था, उसकी वीरता के चर्चे चारों ओर फैले हुए थे, लोगों का यह मत था कि राजा रामसिंह की इस सफलता के पीछे उसके मंत्री चन्द्रसेन का हाथ है । राजा अपने मंत्री का बहुत आदर करते थे अएए(र उसकी हर बात को मानते भी थे ।

एक दिन किसी बात को लेकर राजा अपनी रानी से नाराज हो गए, रानी ने भी राजा से बोलना बंद कर दिया, हालांकि राजा ने ‘रानी को फिर से मनाने की पूरी कोशिश की परन्तु रानी नहीं मानी । तब राजा ने बड़े प्यार से रानी को समझाया : ”देखो रानी, छोटी-छोटी बातों को लेकर नाराज नहीं हुआ करते, अब गुस्सा छोड़ो और मेरे साथ प्यार की बातें करो ।

मैं तुम्हारी हर बात को मानने के लिए तैयार हूं । तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा ।” ”क्या आप मेरी हर इच्छा पूरी करोगे ?”  “हां ।”  ”तो फिर ठीक है, आज आप मेरे घोड़े बन जाओ, मैं आप पर सवारी करूंगी और आप मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर इन महलों का चक्कर काटोगे ।”

”हां…हां…मैं तुम्हारी खुशी के लिए हर काम कर सकता हूं । यह तो बहुत छोटी सी बात है ।” इसी के साथ राजा घोड़ा बन गया, रानी उसकी पीठ पर सवार हो गई, राजा ने पूरे महलों का चक्कर काटकर उसे खुश कर दिया । दूसरी ओर राजा के मंत्री की पत्नी भी उससे नाराज हो गई थी, जब मंत्री ने उससे पूछा : ”तुम मुझसे क्यों नाराज हो और क्या चाहती हो ।”

”मैं चाहती हूं कि तुम अपना सिर मुंडवा दो ।” ”यह कौन सी बड़ी बात है प्रिये, यदि तुम इसी बात पर खुश होती हो तो लो, मैं अभी अपना सिर मुंडवा देता हूं । यदि राजा महारानी के लिए चौपाया बन सकते हैं तो क्या मैं तुम्हारे लिए सिर नहीं मुंडवा सकता ।”

यह कहकर मंत्री ने उसी समय अपने नौकर को भेजकर नाई को बुलवाया और उससे कहा, ”मेरा सिर मूड दिया जाए ।” ”मगर हजूर! यह आप क्या करवा रहे हैं ?” नाई बेचारे ने डरते-डरते आश्चर्य से कहा । ”मैं जो कहता हूं वही करो ।” मंत्री ने क्रोध भरे स्वर में नाई से कहा । नाई बेचारा डर गया, उसी समय उसने मंत्री जी के सिर को उस्तरे से साफ कर दिया ।

”क्यों प्रिये! अब तो खुश हो ?” ”हां, अब मैं खुश हूं ।” ”अब तो मुझसे नाराज न होओगी ?” ”नहीं, आपने मेरी बात मानकर मुझे खुश किया है, मैं आपको खुश कर दूंगी ।”  सुबह जैसे ही मंत्री राजदरबार में पहुंचे तो सभी दरबारीगण मुंह छिपाकर हंसने राजा ने भी उनके मुंडे हुए सिर को देखकर हैरान होते हुए पूछा, ”आपने पर्व की खुशी में अपना सिर मुंडवाया है ?”

मंत्री जी हंस कर बोले : ”औरतों के कहने पर पुरुष क्या कुछ नहीं करते, मैंने तो नारी पर्व में ही सिर मुंडवाया है ।” मंत्री की बात सुन राजा समझ गया कि इस प्रकार मंत्री उस पर व्यंग्य कस रहे हैं कि राजा होकर मैं मात्र एक नारी को खुश करने के लिए चौपाया बन गया और अपने पद की गरिमा का ख्याल भी न रखा । अत: मन ही मन राजा बहुत शर्मिन्दा हुआ ।


Panchatantra Story #13. विश्वासघात की सजा |

”अरी ओ विश्वासघातिनी! मैं तो लालव में अपना भोजन यश बैठी और इससे मैंने सबक लिया एएनगर द्व तो अपना मान-सम्मान और गरिमा सब कुछ यक बैठी है । तू प्रायश्चित करके भी अपनी वह गरिमा नहीं पा सकती वह चोर अब कभी वापस नहीं आएगा और वह किद्यन अपने घर में रखेगा नहीं तू हमेशा भटकती रहेंगी-तेरे विश्वासधात की यही सजा है ।”

बीजापुर एक ऐसा नगर था जहां की जमीन काफी उपजाऊ थी, इसलिए वहां के लोगों का जीवन भी काफी सुखी था । घनाभाई किसान की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई, तो उसने अपना घर बसाने के लिए पास ही के गांव की एक लड़की से शादी कर ली ।

घनाभाई की नई पत्नी बहुत सुन्दर और जवान थी, जबकि घनाभाई की जवानी ढल रही थी, फिर उसे अपने खेतों में काम करने से फुरसत भी नहीं मिलती थी । उसकी पत्नी राधा अकेली बैठी भी क्या करती, जवानी की आयु में अकेलापन तो हर एक को डसने को आता है ।

एक दिन एक चोर उनके घर में चोरी करने आया, मगर राधा को देखकर वह चोरी करना भूल गया, उसे यदि कुछ याद रहा तो राधा का चांद सा मुखडा, जिसे देखते ही वह अपनी सुध-बुध खो बैठा । राधा ने देखा, वह चोर सुन्दर और जवान था, उस युवक को देखते ही राधा के एकांत के सारे दुःख सामने आकर खड़े हो गए ।

चोर का नाम मोती था । उसने राधा को फांस कर उसका धन साफ करने की योजना बनाई । इस प्रकार एक तीर से दो शिकार करने वाली बात उस चोर के मन में आई तो उसने राधा से प्रेम का नाटक शुरू कर दिया ।

गांव की वह नादान औरत उस चालबाज बदमाश की बातों में आकर अपना सारा धन इकट्ठा करके उसके साथ भागने के लिए तैयार हो गई । दो दिन के पश्चात् ही वे दोनों उस गांव से भाग खड़े हुए । चलते-चलते उनके रास्ते में एक नदी आई, उस नदी को पार करना सरल नहीं था, वह अकेला होता तो कब का नदी पार कर जाता ।

उसे यह भी डर था कि यदि उन्होंने नदी पार करने में देर कर दी तो हो सकता है कि गांव वाले भागकर उनके पीछे आ जाएं और उन्हें पकडू लें । चोर की नजर बार-बार राधा के जेवरों पर जा रही थी, इतने सारे जेवर और चांदी के सिक्के…वाह इतना सारा धन तो उसे आज तक कहीं से नहीं मिला था ।

दूसरे ही क्षण उसे ख्याल आया कि यदि उसने इस नारी के कारण देर कर दी तो धन भी जाएगा, नारी भी जाएगी और मिलेगी जेल या फांसी । चोर ने सोचा कि इस विवाहित नारी का उसने क्या करना है, यदि वह सारा धन लेकर दूसरे देश चला जाए तो एक नहीं अनेक सुन्दर लड्‌कियां उसके आगे-पीछे घूमने लगेंगी, फिर क्यों न इस मुसीबत को छोड्‌कर वह धन लेकर भाग जाए ।

फिर ऐसी नारी का क्या भरोसा जो अपने पति को छोड़ सकती है, वह कल को उसे भी छोड़ सकती है । यही सोचकर उसने राधा से कहा, ”देखो प्रिये ! इस नदी को पार करना इतना सरल नहीं है, तुम यही पर बैठो, मैं किसी नाव का प्रबंध करके आता हूं ।

हां, इस सारे धन और अपने जेवरों को तुम मुझे दे दो, नदी के किनारे अकसर चोर-डाकू आते रहते हैं, तुम्हें अकेली बैठी देखकर कोई भी हाथ साफ कर सकता है ।”  राधा बेचारी सीधी औरत थी, उस बेचारी ने अपने सारे जेवर तथा सारा धन उस चोर को दे दिया ।

मोतीलाल को तो जैसे खजाना मिल गया हो । वह तो खजाना लेकर वहां से भागा और कुछ दूर जाकर तुरन्त एक नाव को किराये पर ले लिया और इस प्रकार नदिया पार करके दूसरे देश चला गया । राधा बेचारी दुख की मारी अकेली बैठी उसका इन्तजार ही करती रही ।

उसी बीच एक गीदड़ी मुंह में मांस का टुकड़ा लेकर वहां आ पहुंची और नदिया किनारे बैठ गई । उसके मुंह में मांस का टुकड़ा देखकर एक मछली पानी से निकलकर किनारे पर बैठ गई, गीदड़ी मांस का टुकड़ा घास पर रखकर उस मछली की ओर दौड़ी-उसी बीच एक गिद्ध उड़ता हुआ आया और मांस के टुकड़े को लेकर चलता बना ।

मछली छलांग लगाकर पानी में दौड़ गई, गीदड़ी जो मछली खाने चली थी, अपने मुंह का मांस भी गंवा बैठी, वाह रे नसीब, पल भर में ही सब कुछ खो गया । राधा ने जब गीदड़ी को अपनी आपबीती सुनाई, तो गीदड़ी ने हंसते हुए कहा:

”हे नारी-जितनी मैं चालाक हूं उससे कहीं अधिक तू चालाक है, परन्तु तेरा यार अथवा पति इन दोनों में से एक भी तो तेरा नहीं रहा । अरी ओ विश्वासघातिनी ! मैं तो लालच में अपना भोजन गवां बैठी, मगर तू तो अपना मान-सम्मान और गरिमा सब कुछ गवां बैठी है । तू प्रायश्चित करके भी अपनी वह गरिमा नहीं पा सकती ।

वह चोर अब कभी वापस नहीं आएगा और वह किसान तुझे अपने घर में रखेगा नहीं, तू हमेशा भटकती रहेगी । तेरे विश्वासघात की यही सजा है ।” राधा अपने किए पर काफी लज्जित हुई । उसकी आखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे ।


Panchatantra Story #14. सच्चे प्राणियों की ईश्वर रक्षा करता है |

इतना सोना-वादा और नकद रुपये देखकर पंडित गंगाधर की ऑंखें फट गई थीं । धनवान बनने के सपने एक-एक करके उसकी आखों के सामने घूमने लगे…वह उस धन को पाने के लिए पागल सा हो रहा था ।

किन्तु होनी को कुछ और ही मंजूर था । उसने गंगाधर के मन में ऐसी भावना जगा दी कि…? पंडित गंगाधर एक ऐसा चोर था जो खुशी से नहीं बल्कि अपनी गरीबी से तंग आकर चोर बन गया था । कोई चोर यदि अपने नाम के साथ पंडित का शब्द लगा ले तो वास्तव में यह बहुत बुरा लगता है, परन्तु भाग्य का लिखा कब टलता है ।

उस बेचारे गंगाधर के साथ यही हुआ । एक बार उसने शहर में बाहर से आए चार ब्राह्मणों को देखा जो बहुत ही धनी व्यापारी थे, बाहर से लाया माल बेचकर उन्होंने बहुत सा धन इकट्‌ठा कर लिया था, गंगाधर की तेज नजरों से उनका धन छुप नहीं सका ।

वैसे भी चोर की नजर धन पर ही जाकर टिकती है । गंगाधर ने जब उनके पास इतना धन देखा तो वह सोचने लगा यह सारा धन उसके पास आ जाए तो वह कितना बड़ा धनवान बन जाएगा, इतना धन पाने के पश्चात तो उसे कोई चोरी करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी ।

बस यही सोचकर गंगाधर उन चारों ब्राह्मण व्यापारियों के पास पहुंचा और जाकर उनके पास ही बैठ गया । ”अरे भैया! तुम कौन हो जो हमारे साथ आकर बैठ गए हो ?” ”अरे वाह पंडित जी, वाह, आप भी कैसे पंडित हो जो अपने जात-भाई को भी नहीं पहचानते, देख नहीं रहे हो कि मैं भी ब्राह्मण हूं…।”

यह कहते हुए गंगाधर ने उन्हें गीता के श्लोक सुनाने शुरू कर दिए । बेचारे पंडित उस ब्राह्मण के मुख से धर्मज्ञान की बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और चारों कहने लगे : ”वाह…वाह…पंडित जी आप तो बहुत बड़े ज्ञानी हैं, हम तो बहुत भाग्यशाली हैं जो आप जैसा विद्वान हमें मिल गया ।”

‘अजी मैं तो ईश्वर का सेवक हूं एक गरीब ब्राह्मण के पास विद्या और धर्म ज्ञान के सिवा और हो ही क्या सकता है ? मैं तो आप जैसे लोगों के साथ रहना चाहता हूं जो ब्राह्मण का सम्मान करें ।’  ”हे ब्राह्मण देव ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो हम भी पीछे नहीं हटेंगे, हम आपको अपने साथ ले चलेंगे ।”

”धन्यवाद महाराज ! मुझे आप जैसे सज्जनों से यही आशा थी, मुझे यह पता था कि ब्राह्मण ही ब्राह्मण के काम आएगा ।” ”हां…हां…गंगाधर जी, आप किसी प्रकार की चिंता मत करो, हम आपको गरीब नहीं रहने देंगे ।”

गंगाधर जो चाहता था, वह हो रहा था, अब वह उन चारों ब्राह्मणों के साथ चल रहा था । राह चलते-चलते जब वे पांचों एक गांव के निकट पहुंचे, तो वहां कुछ ठगों को यह संदेह हो गया कि इन ब्राह्मणों के पास बहुत सा धन है ।

फिर क्या था, वे सब के सब लाठियां लेकर आ गए और उन्हें घेर कर बोले : ”अरे ब्राह्मणों ! हमें पता चल चुका है कि तुम ब्राह्मण के वेश में व्यापारी ही, तुम्हारे पास बहुत धन है, अब यह धन चुपचाप स्वेच्छा से हमें दे दो, नहीं तो हम तुम्हें मारकर यह सारा धन छीन लेंगे ।”

उन चोरों की बातें सुनकर गंगाधर ने सोचा अब तो भैया चोरों को मोर पड़ गए, मैं तो इनसे धन बटोरने आया था मगर अब मिलेंगी मौत…लेकिन यह बेचारे ब्राह्मण क्यों मारे जाएं, उसने जो पाप किए हैं यदि वह इन ब्राह्मणों की जान बचा ले तो वह सारे पाप धुल जाएंगे ।

उसी समय गंगाधर उठकर बोला, ”देखो भाइयों ! यदि आप हम गरीब ब्राह्मणों को मारना ही चाहते हो तो सबसे पहले मुझे मार डालो ।” चोरों ने उसी समय गंगाधर को मार डाला फिर उसकी जेबी की तलाशी ली तो उस फक्कड़ के पास क्या मिलना था ।

”अरे ! इसके पास तो कुछ भी नहीं मिला-हमने तो बेकार में ब्रह्महत्या की । यह हमारी भूल थी कि इनके पास बहुत धन है ।”  चोरों का सरदार बोला : ”जाओ । तुम सभी जाओ .हम तो इस ब्राह्मण को मारकर पछता रहे हैं ।” चारों ब्राह्मण वहां से तेजी के साथ निकल भागे उस चोर ब्राह्मण ने अपना जीवन देकर उन्हें बचा लिया ।


Panchatantra Story #15.  जब गधा गाता है |

गीदड़ ने यधे से कहा : “भैया ! क्या तुम हर रोज जल ही खाते रहते हो…अरे पास के खेत में इतने खरबूजे हैं कि हम खाते-खाते थक जाएंगे पर खरबूझे खत्म नहीं होंये । चलो, वहीं चलकर मौज से खरबूजे खाते हैं, छोड़ा इस धास को ?”

“खरबूजे…अहा ।” गधे के मुंह में पानी मर आया । दोनों ने भरपेट खरबूजे खाये – मगर कहते हैं कि जब किसी भूखे को भरपेट खाना मिल जाए तो उसे अनीति सूझने लगती है । ऐसी ही अनीति गधे को सूझी तो …?

रामू धोबी के पास एक बड़ा ही सुन्दर गधा था, जिसका नाम ही उसने सुन्दर रख दिया था । दिन भर वह उससे खूब काम लेता था, शाम को खुला छोड़ देता ताकि वह जंगल में तथा खेतों में जाकर हरी-हरी घास खाकर अपना पेट भर सके ।

ईश्वर ने कुछ ऐसे भी जानवर बनाए हैं जो मालिक के सबसे अधिक वफादार होते हैं । मालिक का दिन-रात काम करते हैं परन्तु उससे खाना तक नहीं मांगते, उनमें सबसे प्रमुख इस गधे का ही नाम आता है । सुन्दर गधा शाम के समय अपनी उराजादी से खाता-पीता, घूमता ।

वह बेचारा इस क्षेत्र में अकेला ही था, कोई संगी-साथी भी नहीं था, जिससे बात कर लेता । कभी-कभी उसके मन से आवाज उठती : ”काश ! अपना भी कोई दोस्त होता ।”  परन्तु ऐसा भाग्य तो हर एक का नहीं होता कि उसकी हार्दिक भावनाएं पूरी हो सकें फिर भी आशा के सहारे प्राणी जीवित रहते हैं ।

यही हाल इस गधे का था, उसे आशा थी कि कभी न कभी तो उसका कोई मित्र आएगा, जिसके साथ बैठकर वह अपने मन की बातें कर सकेगा । अचानक एक दिन जंगल से एक गीदड़ निकलकर इन खेतों की ओर चला आया । उसने सामने ही एक गधे को घास चरते देखा तो मन मे बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि वह भी अकेला घूमते-घूमते तंग आ गया था ।

उसे भी एक मित्र की तलाश थी, गधे के बारे में उसे यह तो पता था कि इससे सच्चा मित्र और कोई नहीं । यह तो एक ऐसा जानवर है जो असली दरवेश है, इससे मित्रता करके कोई नुकसान होने वाला नहीं है । गीदड़ ने आगे बढ़कर उस गधे से कहा, ‘बड़े भाई, प्रणाम ।’

”प्रणाम ।” गधे ने उस गीदड़ की ओर बड़े ध्यान से देखा और सोच में पड़ गया कि मुझ जैसे बदनसीब को प्रणाम करने वाला कौन हो सकता है । ‘बड़े भैया, क्या सोच रहे हो, क्या हमारे साथ दोस्ती नहीं करोगे ?’ ”क्यों नहीं…क्यों नहीं भैया, मैं तो आज बहुत ही खुश हूं किए इस क्षेत्र में मुझे राम-राम कहने वाला तो कोई मिला, नहीं अपना तो हाल यह था कि इस घास और खेती से ही राम-राम कर लेते थे ।”

गधे की बात सुनकर गीदड़ को हंसी उग गई, उसे हंसता देखकर गधा भी हंसने लगा…? बस यही से उनकी मित्रता शुरू हो गई थी । दूसरे दिन दोनों मित्र फिर वहीं मिले तो उस समय गधा घास खा रहा था गीदड़ ने अपने मित्र से कहा, ‘बड़े भैया ! यह क्या तुम हर रोज घास ही खाते रहते हो ?’

”भाई, अपने को पेट ही तो भरना है । यह घास ही तो अपना साथी है ।”  ”भाई, तुम मेरे मित्र हो, उगज मैं तुम्हें बढ़िया खाना खिलाऊंगा । देखो, कुछ र्ही दूर एक खेत मेँ बढ़िया खरबूजे हैं, उन खरबूजों को खाकर हम दोनों भाई आनन्द लेंगे ।”

“खरबूजे…अहा…।” गधे के मुंह में पानी भर आया, कभी एक बार उसके मालिक ने उसे किसी त्योहार पर एक खरबूजा खिलाया था । कितना मजेदार था, एकदम स्वादिष्ट…ने यह गीदड़ उसे खरबूजे खिलाने के लिए ले जा रहा है ।

गधा उसी समय अपने दोस्त गीदड़ के साथ खरबूजों के खेत में चला गया, दोनों मित्रों ने बड़े आनन्द से खरबृजे खाये । साथ-साथ बातें भी करते रहे । गधा कुछ अधिक ही खुश हो गया था, वैसे भी प्राणी की यह आदत है कि वह खुश होकर खूब नाचता है, घूमता है ।

कभी-कभी गाने भी लग जाता है, यही हाल उस गधे का हुआ । जब उसका पेट अधिक भर गया तो वह भी नाचता हुआ गाना गाने लगा । गीदड़ ने गधे की ढींचू-ढींबू की आवाजें सुनी तो उससे बोला, ”भैया, इस तरह शोर न करो-खेत का मालिक आ गया तो अनर्थ हो जाएगा ।”

”भाई मैं शोर नहीं कर रहा…राग गा रहा हूं, राग…तुम जंगल के रहने वाले लोग राग विद्या को क्या जानो, गीत तो जीवन का अंग है । जब भी प्राणी का पेट भर जाता है तो वह नाचता है, गाता है, झूमता है । भाई, ‘आज तो मैं बहुत खुश हूं मेरा मन करता है कि मैं गाता ही चला जाऊं ।’

”बस…बस…बड़े भैया, अब इस गाने को यही पर बंद कर दो, क्योंकि तुम बेसुरे गीत गा रहे हो । ऐसे गीत सुनकर किसान की नींद खुल जाएगी वह आते ही हम दोनों का बाजा बजा देगा ।” ”भाई गीदड़ तुम वास्तव में ही बुजदिल हो ।”

“में बुजदिल नहीं, मौके को देखकर चलता हूं किसी ज्ञानी ने कहा है बेवक्त की रागिनी अच्छी नहीं होती ।” ”अरे भाई, तुम सात स्वर, इक्कीस मूछना, उनचास ताल, नवरस, छत्तीस राग, चालीस भाव आदि, यह सारे पच्चीस गानों के भेद प्राचीन काल से चले आ रहे हैं । यह गीत विद्या ही इस संसार में सबसे उत्तम है ।”

“देखो भाई, यदि तुम अपनी जिद पर अड़े रहोगे, तो मैं खेत से बाहर किनारे पर खड़ा इसे सुनता रहूंगा । इस गाने के लिए मैं अपनी जान को खतरे में नहीं डाल सकता ।”  यह कहते हुए गीदड़ उस खेत से बाहर जाकर खड़ा हो गया, परन्तु गधा तो अपनी पुन में मस्त था ।

खरबूजे खाकर उसका पेट भर हमन था तो गाने गाता फिर रहा था । गधे का गाना सुनकर किसकी ओख न खुले ? खेत के मालिक की उगम भी खुल गई तो उसने देखा गधा उसके खेत में पुस उगया है और पके हुए खरबूजों को खाकर खेत को भी उजाड़ दिया है ।

उसने झट से अपनी लाठी उठाई और उस गधे पर लट्ठ बरसाने शुरू किए, गधा अपना गाना भूलकर बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर भागा, उसके शरीर के कई भागों से खून निकल रहा था । रास्ते में खड़े गीदड़ ने उससे कहा : ”क्यों भैया ! आया गाने का आनन्द…।”  “भैया गाने की बात छोड़ो अपने तो शरीर के सारे तार टूट गए हैं, स्वर इस खून में डूब गए हैं ।”


Panchatantra Story #16. बड़ों की बात मानो |

साधु जी ने उन कर युवकों से कहा : “देखो बेटा, इस संसार में बिना परिश्रम के कुछ नहीं मिलता, ब्राह्मण के घर जन्म लेने से यह मत सोचो कि तुम्हें जीवन भर आराम से खाना खाने को मिलेगा ।”

”नहीं…नहीं…” ”ऐसा कभी भी मत सोच…काम ही सब से बड़ी पूजा है ।” चार ब्राह्मण युवक गांव सीतापुर में रहते थे । यह चारों बड़े गरीब थे, गांव में ब्राह्मणों के बच्चों के लिए काम भी क्या हो सकता था, बेकार रहकर निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलता ।

इन चारों युवकों ने एक रात बैठे-बैठे अपने भविष्य के बारे में बड़ी गंभीरता से सोचना शुरू किया कि हम लोग कब तक ऐसे पागलों को तरह मारे-मारे फिरते रहेंगे, कब तक अपने मां-बाप पर बोझ बने रहेंगे ? हमें शहर जाकर कोई काम करना चाहिए । एक युवक ने उन सबसे कहा ।

”हां…हा…चेतराम…तुम ठीक कहते हो, अब हम शहर चलकर कोई काम करेंगे, इस गांव में रहकर हमारा जीवन बेकार हो रहा है ।” चारों मित्रों ने मिलकर जब यह फैसला कर लिया, तो दूसरे दिन सुबह ही वे लोग शहर की ओर चल पड़े ।

रास्ता लम्बा था, इसलिए शहर पहुंचने से पूर्व ही उन्हें रात हो गई, रात को तो चलना उचित नहीं था, इसलिए वे एक साघु की कुटिया में रात काटने चले गए । वह साधु बहुत आ था, न जाने कितने वर्षों से वहां बैठा तपस्या कर रहा था, उसने उन युवकों को देखकर कहा : ”बेटा, तुम लोग भूले-भटके इस जंगल में कैसे उग गए, क्या तुम्हें पता नहीं कि यह जंगल बड़ा भयंकर है ?”

‘महाराज ! बेकारी से अधिक तो यह जंगल भयंकर नहीं हो सकता ? हम घर में भी खाली रहकर क्या कर सकते थे, ब्राह्मणों की संतान के लिए इन गांवों में रखा ही क्या है ? दानपात्र लेकर दूसरों की दया पर जीवित रहो ।’

साधु ने उन चारों युवकों को बड़े ध्यान से देखते हुए कहा, ”बच्चों ! यह बात मत भूली कि इस संसार में बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलता ।” चारों युवकों ने उस महात्मा के चरणों में बैठकर पूछा : ”हे महात्मन ! आप जैसे ज्ञानी का मिलना ही हमारे लिए किसी खजाने से कम नहीं, अब आप ही बताओ कि हम क्या करें ?”

”जो मैं कहूंगा, क्या वह आप कर सकोगे ?” “हां महाराज ! हम जरूर करेंगे, बस एक बार आप हमें अपना आशीर्वाद दे दें ।” ”ठीक है बेटे, यह चार मोमबत्तियां मैं तुम्हें दे रहा हूं इनमें से एक-एक चारों अपने हाथ में ले लो ।” उन चारों युवकों ने एक-एक मोमबत्ती अपने हाथ में ले ली और साधु से पूछने लगे : ”अब हमें क्या करना है महाराज ?”

”इन चारों मोमबत्तियों को लेकर तुम चारों हिमालय पर्वत पर चढ़ना शुरू करो ।  जिस युवक की मोमबत्ती जिस स्थान पर अपने आप गिर जाए तो उस स्थान को खोदना शुरू कर दो ।  वहां पर तुम्हें धन का एक खजाना मिलेगा । उस खजाने को लेकर तुम मेरे पास वापस उग जाओ, बस इससे आगे मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा ।”

साधु की बात मानकर वे चारों युवक अपनी-अपनी मोमबत्तियां लेकर हिमालय पर्वत पर चढ़ने लगे, वे चारों अपने-अपने दिलों में बहुत खुश थे, क्योंकि उन्हें साधु की कृपा से बहुत बड़ा खजाना मिलने वाला था, उस खजाने को पाकर उनकी गरीबी सदा के लिए दूर हो जाएगी ।

वे सारी आयु मौज लेंगे, गाव वाले भी देखते रह जाएंगे । सपने भविष्य के हजारों रंगीन सपने उनकी आखों के सामने नाच रहे थे, इन सपनों के साथ-साथ वे आगे बढ़ते जा रहे थे । जैसे ही वे पर्वत की एक ऊंची चोटी पर पहुंचे, तो उनमें से एक के हाथ में से मोमबत्ती गिर गई ।

”लो भाई, हो गया कल्याण अपना काम शुरू करो ।” उन चारों ने मिलकर उस पर्वत की खुदाई शुरू कर दी जैसे ही उन्होंने उस पर्वत को खोदा तो तांबे का खजाना निकला । ”अरे यार यह तो तांवा है, इस तांबे को ले जाकर हम क्या करेंगे ?”

”जल्दी मत कर हीरा, अभी तो खजाना मिलना शुरू हुआ है, धैर्य रखेगा तो कुछ और भी मिलेगा ।” रामपाल ने उसे डांटने के अंदाज में कहा । साथ ही वे सबके सब फिर खोदने लग गए-इस बार चांदी मिल गई । ”वाह…वाह…अब तो चांदी भी मिल गई चलो अब और खोदो, शायद अब सोना भी मिल जाएगा, फिर हीरे मिलेंगे ।”

”सब कछ मिलेगा सा! ने आशीर्वाद दिया है, अब किसी चीन की कमी नहीं रहेगी…अब हमें इससे भी आगे के पहाड़ों पर जाना चाहिए अभी तो हमारे पास दो मोमबत्तियां और हैं…आगे हमें बहुत धन मिल सकता हैं ।” चेतराम और रामपाल ने उन दोनों युवकों की ओर देखकर कहा, ”देखो दोस्तों साधुजी ने हमें इस खजाने की ही बात बोली थी, यह तो हमारा भाग्य है कि हमें तांबा और चांदी मिल गई है, अब अधिक लालच करने का क्या लाभ है ।

उन दोनों युवकों ने अपने साथियों की बात न मानी और दो मोमबत्तियां लेकर आगे बढ़ने लगे । चेतराम और रामपाल वहीं से वापस आ गए । अब केवल दो युवक हीरा और मोती आगे बढ़ रहे थे, धन के लोभ में वे अंधे हो चुके थे ।

जैसे ही वह एक ऊंचे पर्वत पर पहुंचे तो तीसरे के हाथ से मोमबत्ती गिर पड़ी, उस स्थान को खोदते-खोदते वे नीचे तक पहुंचे तो वहां से उन्हें सोने का खजाना मिला… ”वाह…वाह…हमें सोना मिला, हमारे दोनों साथी भी कितने पागल निकले जो सोना छोड़कर ही भाग गए । अब हम उन्हें इसमें से हिलना नहीं देंगे ।”

हीरा ने मोती से कहा, ”चल भाई, अब हम भी वापस चलते हैं, हमें हमारा खजाना मिल गया ।” तभी मोती बोला, ”भैया, अभी तो चौथी मोमबत्ती बाकी है…हमें और आगे चलना चाहिए हो सकता है उस खजाने में हमें हीरे-मोती मिल जाएं ।”

”न भाई, अब मैं उगैर आगे नहीं जाऊंगा, अपने लिए इतना सोना ही काफी है । तुम चाहो तो आगे जाओ, मैं तो चला ।” ”ठीक है, अब मैं खजाना लेकर ही जाऊंगा ।” मोती नामक चौथा युवक जो बहुत लालची था आगे बढ़ने लगा ।

अपने तीनों साथियों को छोड़कर वह अकेला मोमबत्ती लिए पहाड़ पर चढ रहा था । आगे चलकर उसने देखा कि एक आदमी पहाड़ी पर खड़ा था, उसके माथे पर हीरा चमक रहा था । ‘उरे वाह…मिल गया…मिल गया…हीरों का खजाना मिल गया…।’

जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा, तो उस आदमी के माथे पर लगा हीरा चक्कर का रूप धारण करके घूमता हुआ उसके माथे पर आकर लगा । डर के मारे उसका सारा शरीर कांपने लगा । ”अरे यह क्या ? आपने मुझे इस तरह से क्यों मारा…इन हीरों को पाने के लिए तो मैं आया हूं ।” ‘ओ मूर्ख, लालची इन्सान !

तूने साधु जी का कहना नहीं माना, फिर अपने मित्रों का भी कहना नहीं माना, एक दिन मैंने भी यही भूल की थी और लालच में अंधा होकर इस खजाने को पाने के लिए चला आया था ।  इस जादू के चक्कर को मैंने भी हीरा समझा था, इसने मुझे इस प्रकार जकड़ लिया कि मैं आज तक मुक्त नहीं हो सका, लेकिन आज मैं मुक्त होकर जा रहा हूं क्योंकि मेरे स्थान पर अब तुम इसके बंदी बनोगे ।’

”लेकिन भैया मुझे…।” ”तुम्हें तो अब वही आकर बचाएगा जो मेरी और तुम्हारी तरह अक्ल का अंधा और लोभी होगा ।” ”क्या मैं अब वापस नहीं जा पाऊंगा ?” ”नहीं ।” ”ऐसा क्यों मेरे दोस्त…तुम क्यों मुझे फंसाकर जा रहे हो ?”

”हर लालची इन्सान का अंत यहीं पर आकर होता है…इन्तजार करो किसी ऐसे ही लोभी का जो तुम्हारी और मेरी तरह अंधा होकर चला आए ।” यह कहकर वह पुरुष अपने स्थान पर चला गया लेकिन उसे बंदी बनाकर छोड़ गया ।


Panchatantra Story #17. बुद्धिमान से सलाह लो |

”भूत जी मैं तो गरीब जुलाहा हूं । अकेला होने के कारण अधिक काम नहीं कर सकता मैं कहता हूं कि आप दो की जगह चार बाजू दे दें तो मैं अपने लिए अधिक धन कमा सकूंगा।”

रामू जुलाहा उस समय बहुत निराश हो गया था, जब उसका सारा ताना-बाना उलझ गया । यही नहीं उसकी खड़ी की लकड़ियां तक टूट गईं । दुःखी होकर उसने अपनी कुल्हाड़ी उठाई और सीधा जंगल की ओर चला गया ।

जंगल में एक बड़ा पुराना भूत रहता था, उस भूत ने जैसे ही रामू को उस वृक्ष के नीचे खड़े देखा, जिस पर वह रहता था, तो समझ गया कि यह आदमी इस वृक्ष को काटेगा, तभी भूत ने उससे कहा : ”देखो रामू ! इस वृक्ष को मत काटना, क्योंकि इस पर मेरा घर है ।”

जुलाहा भूत की उम्रवाज सुनकर रुक गया और बोला : ”भैया ! यदि यह आपका घर है तो मैं अपने लिए कोई और पेड़ देख लेता हूं…।” भूत ने जुलाहे के मुख से जैसे ही यह फैसला सुना, तो वह बहुत खुश हुआ कि इस भले आदमी ने उसकी बात मान ली है । उसने जुलाहे से कहा, ”मैं तुमसे बहुत खुश हुआ, अब तुम जौ भी वरदान चाहो ले सकते हो ।”

”भैया भूत, मुझे आपसे क्या मांगना चाहिए, यह मैं अपने मित्रों तथा भाइयों से पूछकर आता हूं ।” ”ठीक है, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूं जब वापस आओ तो मुझे आवाज दे देना ।” ”बहुत अच्छा!” यह कहकर जुलाहा तेजी से वापस चल दिया ।

रास्ते में उसका एक पुराना मित्र मिला जो गांव का नाई था, उसने उसे इस प्रकार जाते हुए देखकर पूछा, ”रामू भाई, क्या बात है, इस तरह क्यों भागे जा रहे हो ?” तभी रामू ने उस नाई को अपनी सारी बात बताई और उससे पूछा कि अब मुझे उस भूत से क्या मांगना चाहिए ।

ADVERTISEMENTS:

”अरे यार, किसी देश का राजपाट मांग लो, कोई खजाना मांग लो और क्या मांगना है तुमने ।” ”देख यार, तेरी बात तो ठीक है, मगर मैं एक बार अपनी पत्नी से पूछकर आता हूँ…तभी उससे कुछ मांगूगा ।” “रामू, तुम तो पागल हो । अरे उस औरत से क्या पूछने जा रहे हो जिसने कभी घर से बाहर पांव ही नहीं रखा, उसने तो केवल घर में चलती खड्डी ही देखी है ।”

”कुछ भी हो भाई, आखिर वह मेरी पत्नी तो है न ?” यह कहते हुए रामू घर पहुंच गया, उसने अपनी पत्नी को सारी बात सुनाने के पश्चात् पूछा, ”कि अब तुम ही बताओ कि हमें उससे क्या मांगना चाहिए ।”  ”प्राणनाथ ! हमें तो परिश्रम करके ही रोटी खानी है, उस भूत से यही मांगो कि हमारे घर में दो नई खड़ी लगा दे और तुम्हें दो की जगह चार बाजू दे दे, एक की जगह दो सिर लगा दे, इससे तुम हर रोज दोगुना काम कर लोगे, हमारी आमदनी भी बढ़ जाएगी ।”

रामू ने उस नाई की बात न मानकर पत्नी की बात को ही उचित समझा । एक जुलाहे की सोच कहां बदल सकती है, उसको तो खड़ी का ही धंधा करना है । वह वापस भूत के पास गया और उससे बोला, “देखो भूत जी, में तो एक गरीब जुलाहा हूं अकेले होने के कारण अधिक काम नहीं कर सकता, मेरी तो यही इच्छा है कि आप मुझे एक सिर और दो बाजू और दे दें, ताकि मैं दो आदमियों का काम अकेला ही कर सझूं साथ ही दो नई खड़ी मेरे घर लगा दो ।”

”ठीक है, मैं तुम्हें यह सब कुछ दे देता हूं ।” जुलाहे ने देखा वहीं खड़े-खड़े उसके चार हाथ हो गए हैं, सिर भी दो हो गए हैं । वह खुशी से नाच उठा, वह उग्ब पहले से दुगना काम कर लेगा दो आदमियों का काम अकेला ही करेगा, इस तरह से वह एक वर्ष के अंदर धनवान बन जाएगा । खुशी से घूमता हुआ यह विचित्र शक्ल वाला रामू अपने घर की ओर भागा जा रहा था ।

गांव के बाहर कुछ लोगों ने जैसे ही दो सिर वाले आदमी को देखा, तो हैरान होकर एक दूसरे से कहने लगे, ”अरे यह तो कोई भूत लगता है, दो मुंह…चार बाहें हैं ।” भूत…भूत…भूत…भूत… पलभर में चारों ओर यही शोर उठ गया, गांव के लोग लाठियां लेकर घरों से निकल पड़े…सबने मिलकर जलाहे को इतना मारा कि बेचारा मर ही गया ।

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