List of Hindi stories (Panchtantra Ki Kahaniyans) with moral values!


Content:

  1. हितैषी की सीख मागो |
  2. दूरदर्शी बनो |
  3. एक और एक ग्यारह |
  4. कपटी पर न करें विश्वास |
  5. मूर्खों को उपदेश देना मूर्खता |
  6. लालच बुरी बला |
  7. करने से पहले सोचो |
  8. जैसे को तैसा |
  9. मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा |
  10. लोभ अंधा कर देता है |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

हितैषी की सीख मागो |

एक तालाब में कंबुग्रीव नाम का एक कछुआ रहता था । उसी तालाब में प्रतिदिन आने वाले दो हंस जिनका नाम संकट और विकट था उसके मित्र थे । तीनों में इतना स्नेह था कि रोज शाम होने तक तीनों मिलकर बड़े प्रेम से कथालाप किया करते थे ।

एक साल उस वन प्रदेश में वर्षा नहीं हुई । इस कारण सरोवर का पानी धीरे-धीरे सूखने लगा । यह स्थिति देखकर हंसों को कछुए के प्रति चिंता होने लगी । उन्होंने दुखी भाव से कछुए से कहा : ”मित्र यह सरोवर तो अब सूख चला है । अब तो इसमें थोड़ा-सा जल और कीचड़ ही बचा है । जल के अभाव में तुम्हारा जीवन कैसे बचेगा यह सोचकर हमें बहुत चिंता हो रही है ।”

कछुआ बोला : ”जल के अभाव में मेरा जीवित बच पाना संभव नहीं है । आप दोनों को मेरे बचने का कोई उपाय ढूंढना चाहिए । आपत्ति में धैर्य धारण करने से आपत्ति से छुटकारा मिल सकता है । ऐसे में मित्रों को भी आपत्ति से बचने का कोई मार्ग सुझाना चाहिए ।”

बहुत विचार के बाद यह निश्चय किया गया कि दोनों हंस जंगल से एक बांस की छड़ी लाएंगे । कछुआ उस छड़ी के मध्यभाग को मुख से पकडू लेगा । हंसों का काम होगा कि वे दोनों ओर से छड़ी को मजबूती से पकड़कर तालाब के किनारे तक उड़ते हुए पहुंचेंगे ।

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यह निश्चय होने के बाद दोनों हंसों ने कछुए से कहा-मित्र हम तुझे इस प्रकार उड़ाते हुए दूसरे तालाब तक ले जाएंगे किंतु एक बात का ध्यान रखना कहीं बीच में लकड़ी को मत छोड़ देना । नहीं तो तू मर जाएगा । कुछ भी हो पूरा मौन बनाए रखना । प्रलोभनों की ओर ध्यान न देना । यह तेरी परीक्षा का मौका है ।”

कछुए ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह इस दौरान बिस्कूल भी नहीं बोलेगा । तब योजनानुसार व्यवस्था करके वे तीनों आकाश मार्ग से उड़ चले । आकाश मार्ग से जाते समय कछुए ने नीचे झुककर उन नागरिकों को देखा जो गरदन उठाकर आकाश में हंसों के बीच किसी चक्राकार वस्तु को उड़ता देखकर कौतूहलवश शोर मचा रहे थे ।

उस शोर को सुनकर कन्दुग्रीव से रहा नहीं गया । वह बोल उठा : ”अरे ! यह शोर कैसा है ?” ज्योहि उसने अपना मुख खोला लकड़ी उसके मुख से छूट गई और वह ऊंचाई से नीचे आ गिरी । कछुआ जब नीचे गिरा तो लोगों ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।

यह कहानी सुनाकर टिटिहरी ने कहा : ”इसीलिए मैं कहती हूं कि अपने हितचिंतकों की राय पर न चलने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है । इसके अतिरिक्त वे बुद्धिमान सफल होते हैं जो बिना आई विपत्ति का पहले से ही उपाय सोचते हैं और वह भी उसी प्रकार सफल होते हैं जिनकी बुद्धि तत्काल अपनी रक्षा का उपाय सोच लेती है । पर ‘जो होगा, देखा जाएगा’ कहने वाले शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।”


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

दूरदर्शी बनो |

एक तालाब में तीन मछलियां रहती थीं । उनके नाम थे-अनागत विधाता प्रत्युत्पन्नमति और यद्यविष्य । एक दिन तालाब के पास से गुजर रहे मछुआरों ने उन्हें दिख लिया और सोचा इस तालाब में खूब मछलियां हैं ।

आज तक कभी इसमें जाल नहीं डाला है इसलिए यहां खूब मछलियां हाथ लगेंगी । उस दिन शाम अधिक हो गई थी खाने के लिए मछलियां भी पर्याप्त मिल चुकी थीं इसलिए अगले दिन सुबह ही वहां आने का निश्चय करके मछुआरे चले गए ।

अनागत विधाता नाम की मछली ने उनकी बात सुन कर अन्य मछलियों को बुलाया और कहा : ”आपने उन मछुआरों की बात सुन ही ली है । अब रातों रात ही हमें यह तालाब छोड़कर दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए । एक क्षण भी देर करना उचित नहीं ।”

प्रत्युत्पन्नमति ने भी उसकी बात का समर्थन किया । उसने कहा : ”परदेश में जाने का डर प्राय: सबको नपुंसक बना देता है । अपने ही कुएं का जल पिएंगे-यह कहकर जो लोग जन्मभर खारा पानी पीते हैं वे कायर होते हैं । स्वदेश का यह राग वही गाते हैं जिनकी कोई और गति नहीं होती ।”

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उन दोनों की बात सुनकर यद्‌भविष्य नाम की मछली हंस पड़ी । उसने कहा : ”किसी राह जाते आदमी के वचनमात्र से डरकर हम अपने पूर्वजों के देश को नहीं छोड़ सकते । देव अनुकूल होगा तो हम यहां भी सुरक्षित रहेंगे और प्रतिकूल होगा तो अन्यंत्र जाकर भी किसी के जाल में फंस जाएंगे ।

मैं तो नहीं जाती तुम्हें जाना हो तो जाओ ।” उसका आग्रह देखकर अनागत विधाता और प्रत्युत्पन्नमति दोनों सपरिवार पास के तालाब में चली गईं । यद्यविष्य अपने परिवार के साथ उसी तालाब में रही । अगले दिन सुबह मछुआरों ने उस तालाब में जाल फेंककर सब मछलियों को पकड़ लिया ।

यह कथा सुनाकर टिटिहरी ने कहा : ”इसीलिए मैंने कहा है कि जो लोग-जो होगा, देखा जाएगा या ‘समय आने पर देखेंगे’ की नीति पर अमल करते हैं अंतत: उनका विनाश ही हो जाता है ।”

यह सुनकर टिटिहरा बोला-तुम शायद मुझे यद्यविष्य मछली की तरह समझ रही  हो । मैं उसकी तरह निष्कर्म नहीं हूं । अब तुम मेरी बुद्धि का चमत्कार देखना मैं अपनी चोंच से इस विशाल समुद्र के जल को सोख लूंगा ।”

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टिटिहरी ने अपने पति को समझाते हुए कहा : ”विशाल समुद्र से लड़ना उचित नहीं है स्वामी । असमर्थ पुरुष का क्रोध स्वयं उसका ही विनाश कर देता है । दुश्मन के बल को जाने बिना उससे युद्ध करना मूर्खता है । आग की ओर बढ़ने वाला पतंगा स्वयं विनाश की ओर बढ़ता है ।”

टिटिहरा फिर भी अपनी चोंच से समुद्र को सुखा डालने की डींगे मारता रहा । तब टिटिहरी ने फिर उसे मना करते हुए कहा कि जिस समुद्र को गंगा-यमुना जैसी सैकड़ों नदियां निरंतर पानी से भर रही हैं उसे तू अपनी बूंदभर उठाने वाली चोंच से कैसे खाली कर देगा ?

टिटिहरा तब भी अपने हठ पर तुला रहा । तब टिटिहरी ने कहा : ”यदि तूने समुद्र को सुखाने की हठ ही कर ली है तो अन्य पक्षियों की भी सलाह लेकर काम कर । कई बार छोटे-छोटे प्राणी मिलकर अपने से बहुत बड़े जीव को हरा देते हैं जैसे चिड़िया कठफोड़े और मेंढक ने मिलकर हाथी को मार दिया था ।”


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

एक और एक ग्यारह |

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किसी जंगल में तमाल के एक वृक्ष पर एक चिड़िया और चिडा घोंसला बनाकर रहते थे । समय पाकर चिड़िया ने अण्डे दिए । परंतु एक दिन चिड़िया अपने अण्डों को गर्मी दे रही थी और चिड़ा दूसरी डाल पर बैठा उसे देख रहा था तो उसी समय एक हाथी वहां से निकला ।

धूप से बचने के लिए वह उसी वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए पहुंच गया जिस पर चिड़ा और चिड़िया ने अपना घोंसला बना रखा था । उस हाथी ने अपनी छ से पकड़कर वही शाखा तोड़ दी जिस पर चिड़ियों का घोंसला था । अण्डे जमीन पर गिरकर टूट गए ।

चिड़िया अपने अण्डों के टूटने से बहुत दुखी हो गई । उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा भी वहां आ गया । उसने शोकातुर चिड़ा-चिड़ी को धीरज बंधाने का बहुत यत्न किया किंतु उनका विलाप शांत नहीं हुआ । चिड़िया ने कहा : ”यदि तू हमारा सच्चा मित्र है तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर । उसको मारकर ही हमारे मन को शांति मिलेगी ।”

कठफोड़े ने कुछ सोचने के बाद कहा : ”यह काम हम दोनों का ही नहीं है । इसमें दूसरों से भी सहायता लेनी पड़ेगी । एक मक्खी मेरी मित्र है उसकी आवाज बड़ी सुरीली है उसे भी बुला लेता हूं ।” मक्खी ने भी जब कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी को मारने में उनका सहयोग करने को तैयार हो गई ।

किंतु उसने यह भी कहा कि यह काम हम तीन का ही नहीं हमें औरों की भी सहायता लेनी चाहिए । मेरा मित्र एक मेंढक है उसे भी बुला लाऊं । तीनों ने जाकर मेघनाद नाम के मेंढक को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई । मेंढक उनकी बात सुनकर मतवाले हाथी के विरुद्ध षड्‌यंत्र में शामिल हो गया ।

उसने कहा-जो उपाय मैं बतलाता हूं वैसा ही करो तो हाथी अवश्य मर जाएगा । पहले मक्खी हाथी के कानों में वीणा-सदृश मीठे स्वर का आलाप करे । हाथी उसे सुनकर इतना मस्त हो जाएगा कि आखें बंद कर लेगा । कठफोड़ा उसी समय हाथी की आखों को चोंच चुभो-चुभोकर फोड़ दे ।

अंधा होकर हाथी जब पानी की खोज में इधर-उधर भागेगा तो मैं एक गहरे गड्‌ढे के किनारे बैठकर आवाज करूंगा । मेरी आवाज से वह वहां तालाब होने का अनुमान करेगा और उधर ही आएगा । वहां आकर वह गड्‌ढे को तालाब समझकर उसमें उतर जायेगा ।

उस गड्‌ढे से निकलना उसकी शक्ति से बाहर होगा । देर तक भूखा-प्यासा रहकर वह वहीं मर जायेगा । अंत में मेंढक की बात मानकर सबने मिल-जुल कर हाथी को मार ही डाला । यह कथा सुनाकर टिटिहरी ने अपने पति से कहा : ”तभी तो मैं कहती हूं कि छोटे और निर्बल भी मिल-जुलकर बड़े-बड़े जानवर को मार सकते हैं ।”

टिटिहरा बोला : ”अच्छी बात है । मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुद्र को सुखाने का यत्न करूंगा ।” यह कहकर उसने बगुले सारस मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुखभरी कथा सुनाई । उन्होंने कहा : ”हम तो अशक्त हैं किंतु हमारा मित्र गरुड़ अवश्य इस संबंध में हमारी सहायता कर सकता है ।”

तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पास जाकर रोने और चिल्लाने लगे : ”गरुड़ महाराज आपके रहते हमारे पक्षीकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया । हम इसका बदला चाहते हैं ।  आज उसने टिटिहरी के अंडे नष्ट किए हैं कल वह दूसरे पक्षियों के अण्डों को बहा ले जाएगा ।

इस अत्याचार की रोकथाम होनी चाहिए अन्यथा सम्पूर्ण पक्षीकुल नष्ट हो जाएगा ।” गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया । उसी समय उसके पास भगवान् विष्णु का दूत आया । उस दूत द्वारा भगवान् विष्णु ने उसे सवारी के लिए बुलाया था ।

गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि वह विष्णु भगवान् को कह दे कि वह दूसरी सवारी का प्रबंध कर लें । दूत ने गरुड़ से क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई । दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान् विष्णु स्वयं गरुड़ के घर आए ।

वहां पहुंचने पर गरुड़ ने प्रणाम करके विनम्र शब्दों में कहा : ”भगवन ! आपके आश्रय का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अण्डों का अपहरण कर लिया है । इस तरह समुद्र ने मुझे भी अपमानित किया है । मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूं ।”

यह सुनकर भगवान् विष्णु बोले : ”तुम्हारा क्रोध युक्ति-युक्त है । समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था । चलो मैं अभी समुद्र से उन अण्डों को वापस लेकर टिटिहरी को दिला देता हूं । उसके बाद हमें अमरावती जाना है ।”

तब भगवान् विष्णु ने अपने धनुष पर आग्नेय बाण को चढ़ाकर समुद्र से कहा : ”दुष्ट अभी उन सभी अण्डों को वापस दे दे नहीं तो तुझे क्षणभर में सुखा दूंगा ।” भगवान् विष्णु के भय से समुद्र ने उसी समय टिटिहरी के अण्डे वापस कर दिए ।

दमनक ने इन कथाओं को सुनाने के बाद संजीवक से कहा : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि शत्रुओं का बल जानकर ही युद्ध के लिए तैयार होना चाहिए ।” दमनक की बात सुनकर संजीवक बोला : ”मित्र बात तो तुम्हारी ठीक है पर मैं यह कैसे मान लूं कि पिंगलक मुझसे रुष्ट है और मुझे मारना चाहता है क्योंकि अभी कल तक तो वह मेरे प्रति बहुत स्नेहभाव ही रखता आया है ।

उसकी दुष्टता का तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण हो तो कहो तभी मैं आत्मरक्षा के लिए उसे मारने का प्रबंध करूं ।” दमनक बोला : ”इसमें प्रमाण की क्या आवश्यकता है । यदि उसके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी औखें लाल हो जाएंगी भवें चढ़, जाएंगी और वह होंठों को चाटता हुआ तुम्हारी ओर कूर दृष्टि से देखेगा ।

अच्छा तो यह है कि तुम रातों रात चुपके से चले जाओ । आगे तुम्हारी इच्छा ।”  यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया । करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा : ”कहो दमनक ! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में ?”

दमनक बोला : ”मैंने तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था कर दिया आगे सफलता देव के अधीन है । पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो हमारा दोष नहीं ।” करटक बोला : ”तेरी क्या योजना है ? किस तरह नीतियुक्त काम किया है तूने ? मुझे भी बता ।”

दमनक बोला : ”मैंने झूठ बोलकर दोनों को एक-दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि वे भविष्य में कभी एक-दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे ।” यह सुनकर करटक बोला : ”यह तूने अच्छा नहीं किया मित्र! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है ।”

दमनक बोला : ”तुम नीतिशास्त्र की बात नहीं जानते करटक! इसीलिए इस प्रकार दुख व्यक्त कर रहे हो । शत्रु और रोग को कभी बढ़ने नहीं देना चाहिए । जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता वह शत्रु के बलवान हो जाने और रोग के बढ़ जाने पर अन्तत: उन्हीं के द्वारा मारा जाता है । संजीवक ने हमारा मंत्रीपद हथिया लिया था ।

पिंगलक उसी की सलाह से ही काम करने लगा था । वह हमारा शत्रु था । शत्रु को परास्त करने में धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता । आत्मरक्षा सबसे बड़ा धर्म है । स्वार्थ-साधन ही सबसे महान कार्य है । स्वार्थ-साधन करते हुए कपट-नीति से ही काम लेना चाहिए जैसे चतुरक नामक एक गीदड़ ने किया था ।”


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

कपटी पर न करें विश्वास |

किसी वन में वजदंष्ट्र नाम का एक शेर रहता था । उसके दो अनुचर थे-चतुरक नाम का एक सियार (गीदड़) और क्रकमुख नाम का एक भेड़िया । ये दोनों हर समय शेर के साथ रहते थे ।

एक दिन शेर ने जंगल में बैठी एक गर्भिणी मादा ऊंट का शिकार किया । शेर ने ऊंटनी का पेट फाड़ा तो उसके अंदर ऊंट का एक छोटा-सा बच्चा निकला । शेर को उस बच्चे पर दया आ गई और वह उसे अपने साथ अपनी मांद पर ले आया । उसने बच्चे से कहा : ”अब तुझे मुझसे डरने की जरूरत नहीं । मैं तुझे नहीं मारूंगा । तू जंगल में आनंद के साथ विहार कर ।”

ऊंट के बच्चे के कान शंकु (कील) जैसे थे इसलिए शेर ने उसका नाम रख दिया-शंकुकर्ण । वह सिंह परिवार के साथ रहकर बड़ा होने लगा । एक क्षण के लिए भी शेर के अनुचरों के साथ कहीं बाहर नहीं जाता था । जब वह बड़ा हो गया तब भी वह सिंह परिवार के साथ घुला-मिला रहता था ।

एक दिन उस जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया । उससे शेर की जबरदस्त लड़ाई हुई । इस लड़ाई में शेर इतना घायल हो गया कि उसके लिए एक कदम आगे चलना भी भारी हो गया । उसने अपने साथियों से कहा कि तुम कोई ऐसा शिकार ले आओ जिसे मैं यहां बैठा-बैठा ही मार दूं ।

तीनों साथी शेर की आज्ञानुसार शिकार की तलाश करते रहे लेकिन बहुत यत्न करने पर भी कोई शिकार हाथ नहीं आया । चतुरक ने सोचा यदि शंकुकर्ण को मरवा दिया जाए तो कुछ दिन की निश्चिंतता हो जाए । किंतु शेर ने उसे अभय वचन दिया है कोई युक्ति ऐसी निकालनी चाहिए कि वह वचन-भंग किए बिना इसे मारने को तैयार हो जाए ।

अंत में चतुरक ने एक युक्ति सोच ली । वह शंकुकर्ण से बोला : ”शंकुकर्ण मैं तुझे एक बात तेरे लाभ की ही कहता हूं । स्वामी का भी इसमें कल्याण हो जाएगा । हमारा स्वामी शेर कई दिन से भूखा है उसे यदि तू अपना शरीर दे दे तो वह कुछ दिन बाद दुगुना होकर तुझे मिल जाएगा और शेर की भी तृप्ति हो जाएगी ।”

शंकुकर्ण बोला : ”मित्र शेर की तृप्ति में तो मेरी भी प्रसन्नता है । स्वामी को कह दो कि मैं इसके लिए तैयार हूं । किंतु इस सौदे में धर्म हमारा साक्षी होगा ।”  शंकुकर्ण मान गया तो वे तीनों शेर के पास गए । चतुरक ने कहा : ”स्वामी कोई भी जीव हाथ नहीं लगा ।

सूर्यास्त भी हो गया है अब तो एक ही उपाय है यदि आप शंकुकर्ण को इस शरीर के बदले दुगुना शरीर देना स्वीकार करें तो वह अपना शरीर उधार देने को तैयार है ।” शेर बोला : ”यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है । तुम धर्म को साक्षी मानकर इसके शरीर को ले सकते हो ।” शेर की स्वीकृति मिलते ही भेड़िये और सियार ने उस ऊंट के शरीर को चीर डाला ।

ऊंट के मर जाने के बाद शेर ने चतुरक से कहा : ”मैं नदी में स्नान करके आता हूं । तब तक तुम इस ऊंट के शरीर की रक्षा करना ।” शेर के जाने के बाद चतुरक ने सोचा : ”कोई युक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह अकेला ही ऊंट को खा सके ।” यह सोचकर उसने क्रकमुख से कहा : ”मित्र तू बहुत भूखा है, इसलिए तू शेर के आने से पहले ही इस ऊंट को खाना शुरू कर दे ।

मैं शेर के सामने तेरी निर्दोषता सिद्ध कर दूंगा चिंता न कर ।” चतुरक के कहने पर क्रकमुख शिकार पर टूट पड़ा । उसने अपने पैने दांतों से ऊंट का पेट फाड़ डाला और ऊंट का दिल निकाल कर खा गया । तभी चतुरक को शेर वापस आता दिखाई दिया ।

वह ऊंट के शरीर के पास पहुंचा । चतुरक और ककमुख उसे देखकर दूर जा बैठे । शेर ने शिकार पर निगाह डाली तो संदेह की दृष्टि से दोनों की ओर देखते हुए उससे  पूछा : ”ऊंट का दिल अपने स्थान पर नहीं है । बताओ किसने मेरे शिकार को झूठा किया ?”

यह सुनकर भेड़िया सियार की ओर देखने लगा । वह थर- थर कांप रहा था । चतुरक हंसकर बोला : ”अब मेरे मुंह की ओर क्या देख रहा है ? शिकार को जूठा करते समय तो मुझसे पूछा नहीं था । अब अपनी करनी का फल भोग ।”

सियार की बात सुनकर अपनी मृत्यु को निकट देख भेड़िया वहां से भाग निकला । सियार अपनी चतुराई पर मन ही मन मुस्कराने लगा । उधर जैसे ही सिंह ने ऊंट को खाना आरंभ किया तभी उसे दूर से ऊंटों का एक काफिला अपनी ओर आता दिखाई दिया ।

सबसे आगे वाले ऊंट के गले में घंटा बंधा हुआ था । उस घण्टे की ध्वनि सुनकर शेर ने चतुरक से पूछा : ”यह कैसी आवाज है । मैं तो इसे पहली बार ही सुन रहा हूं ।” इस पर चालाक गीदड़ ने कहा : ”स्वामी ! लगता है यमराज आपसे नाराज हो गए हैं ।

आपने धर्म को साक्षी मानकर इस ऊंट की हत्या करवा दी और फिर इसे दुगुने शरीर के साथ जिंदा भी नहीं किया ।  इसीलिए वे आपसे बेहद कुपित हैं । उन्होंने एक हजार ऊंटों को आपको मारने के लिए भेज दिया है । इसमें शंकुकर्ण के कई पूर्वज भी हैं ।

आगे वाले ऊंट के गले में घाटा बंधा हुआ है । यह उसी घंटे की आवाज सुनाई दे रही है । अब आपको अपनी जान बचानी है तो जल्दी से यहां से भाग जाइए ।” सियार की बात सुनकर शेर इतना डरा कि वह तत्काल सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ । इस तरह चतुरक को पूरे ऊंट का मांस खाने को मिल गया ।

यह कथा सुनाकर दमनक बोला : ”इसीलिए मैं तुम्हें कहता हूं कि स्वार्थ-साधन में छल अथवा बल जैसी भी युक्ति कारगर हो वैसी ही युक्ति से काम लेना चाहिए ।” उधर दमनक के जाने के बाद संजीवक ने विचार किया : ”मैंने यह अच्छा नहीं किया जो शाकाहारी जीव होने के बावजूद भी एक मांसाहारी जीव से मैत्री की ।

किंतु अब करूं भी तो क्या ? क्यों न पिंगलक की शरण में जाकर मैं फिर उससे मित्रता बढ़ाऊं दूसरी जगह अब मेरी गति भी कहां है ।”  यही सोचता हुआ वह धीरे-धीरे शेर के पास चल पड़ा । वहां जाकर उसने देखा कि पिंगलक के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव मौजूद थे जैसे कि दमनक ने बताए थे ।

पिंगलक को क्रोधित देखकर संजीवक आज उससे जरा दूर हटकर बिना प्रणाम किए ही बैठ गया । पिंगलक ने भी संजीवक के चेहरे पर वही भाव अंकित देखे जिनकी सूचना दमनक ने पहले ही उसे दे दी थी । अब उसने समय गंवाना उचित नहीं समझा । बिना चेतावनी दिए ही वह संजीवक पर टूट पड़ा ।

संजीवक इस अचानक आक्रमण के लिए तैयार न था । किंतु अब उसने देखा कि पिंगलक उसे फाड़ डालने के लिए तैयार है तो वह भी सींगों को तानकर अपनी रक्षा के लिए तैयार हो गया । दोनों को इस प्रकार एक-दूसरे के विरुद्ध भयंकरता से आक्रमण करते देखकर करटक ने कहा : ”दमनक तूने दो मित्रों को आपस में लड़वाकर अच्छा नहीं किया ।

तुझे साम-नीति से काम लेना चाहिए था । सच तो यह है कि तेरे जैसे नीच स्वभाव का मंत्री कभी अपने स्वामी का कल्याण कर ही नहीं सकता । अब भी कोई उपाय है इन दोनों की लड़ाई बंद करवाने का तो कोशिश कर । तेरी सब प्रवृत्तियां केवल विनाशकारी ही हैं ।

जिस राज्य का तू मंत्री होगा वहां भद्र और सज्जन व्यक्ति कैसे निवास कर पाएंगे ? उपदेश भी उसी को दिया जाता है जो उसका पात्र हो । तेरे जैसे स्वार्थी व्यक्ति को तो उपदेश देना भी भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है । अब मैं तेरे साथ नहीं रहूंगा । क्योंकि यदि तेरे साथ रहा तो मुझे डर है कि कहीं मेरी हालत सूचीमुख चिड़िया की तरह न हो जाए ।” 


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

मूर्खों को उपदेश देना मूर्खता |

किसी पर्वतीय प्रदेश में वानरों का एक समूह निवास करता था । एक दिन हेमंत ऋतु के दिनों में वहां इतनी बर्फ पड़ी और ऐसी हिमवर्षा हुई कि बंदर सर्दी के मारे ठिठुर गए । कुछ बंदर लाल फलों को ही अग्नि-कण समझ कर उन्हें फूंक मार-मार सुलगाने की कोशिश करने लगे ।

वृक्ष के ऊपर अपने घोंसले में बैठा सूचीमुख नाम का एक पक्षी यह सब कुछ देख रहा था । उसने वानरों के इस वृथा प्रयास को देखकर कहा : ”लगता है तुम लोग निपट मूर्ख हो । अरे ये अग्निकण नहीं हैं यह तो एक प्रकार का फल है जिसका रंग ही सिर्फ लाल होता है ।

इनमें से अग्नि प्रज्वलित नहीं होती । इनसे ठण्ड नहीं मिटेगी । ठंड दूर करनी है तो किसी ऐसे स्थान की खोज करो जहां हवा न पहुंच सके । मेरी मानो तो किसी पर्वत-कंदरा में जाकर छिप जाओ । यह वर्षा अब रुकने वाली नहीं है ।”

उन वानरों में एक बूढ़ा वानर भी था । उसने कहा : ”अरे सूचीमुख तू इनको उपदेश मत दे । ये मूर्ख हैं तेरे उपदेश को नहीं मानेंगे उल्टा तुझे मार डालेंगे ।”  वह बूढ़ा वानर अभी ऐसा कह ही रहा था कि एक वानर उछलकर वृक्ष पर चढ़ गया । उसने सूचीमुख का घोंसला तोड़ डाला और सूचीमुख को पकड़कर उसके पंख उखाड़ दिए ।

बेचारा सूचीमुख वानरों को अच्छी सीख देने के कारण व्यर्थ ही अपने प्राण गंवा बैठा । यह कथा सुनाकर करटक ने दमनक से कहा : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि मूर्ख को उपदेश देना भी मूर्खता ही है । मूर्ख को उपदेश देकर हम उसे शांत नहीं करते बल्कि उसे और भी भड़काते हैं ।

कुपात्र को उपदेश देना विपत्ति को आमंत्रण देना होता है । किंतु तुझ पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा । तुझे शिक्षा देना भी व्यर्थ है । बुद्धिमान को दी हुई शिक्षा का ही फल मिलता है । मूर्ख को दी हुई शिक्षा का फल कई बार उलटा निकल आता है, जिस तरह पापबुद्धि नाम के मूर्ख पुत्र ने विद्वता के जोश में पिता की हत्या कर दी थी ।”


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

लालच बुरी बला |

किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे । दोनों दरिद्र थे । एक दिन दोनों ने विचार किया कि परदेश में जाकर धन कमाना चाहिए ताकि वृद्धावस्था में कोई कष्ट न हो ।

यही सोचकर दोनों धन कमाने के लिए परदेश चले गए । वहां उन्होंने पर्याप्त मात्रा में धन कमाया और उस धन को लेकर अपने नगर की ओर लौट पड़े । नगर के समीप एक वन में बैठकर दोनों ने विचार विमर्श किया । पापबुद्धि बोला : ”मित्र, इतने धन को हमें अपने बंधु-बांधवों के बीच नहीं ले जाना चाहिए ।

इसे देखकर उन्हें ईर्ष्या होगी । वे किसी न किसी बहाने इसे हमसे छीनने का प्रयास करेंगे ।” ”बात तो ठीक है तुम्हारी ।” धर्मबुद्धि ने सोचते हुए कहा: ”लेकिन यह धन हमने बड़ी मेहनत से कमाया है । अगर इसका उपयोग न करेंगे तो फिर इसे कमाने का क्या फायदा हुआ?”

पापबुद्धि बोला : ”मित्र इस विषय में मैंने सोच लिया है । हम यह धन साथ लेकर नहीं चलेंगे । फिलहाल इसे हम यहीं किसी जगह जमीन में गाड़ देते हैं । फिर अनुकूल परिस्थितियां देखते ही इसे जमीन से खोदकर अपने यहां ले जाएंगे और इसका सदुपयोग करेंगे ।”

पापबुद्धि की बात सुनकर धर्मबुद्धि मान गया । उन्होंने एक पेड़ के समीप जमीन में गड्‌ढा खोदा और अपना संचित धन उसमें गाड़कर अपने-अपने घर लौट गए । कुछ दिनों बाद पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर पहुंचा । उसने गड्‌ढे से सारा धन निकाल लिया और मिट्‌टी से गड्‌ढे को उसी तरह भर कर वापस अपने घर लौट आया ।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास पहुंचा और बोला : ”मित्र ! परिवार की आवश्यकताओं के लिए मुझे कुछ धन की आवश्यकता पड़ गई है । चलो चलकर अपने संचित धन में से कुछ धन निकाल लाएं ।” धर्मबुद्धि चलने को तैयार हो गया । दोनों मित्र उसी स्थान पर पहुंचे ।

जमीन खोदकर उन्होंने वह बर्तन निकाला जिसमें उनका धन रखघ हुआ था । लेकिन बर्तन तो खाली था । खाली बर्तन को देखकर पापबुद्धि सिर पीट-पीटकर रोने लगा । उसने धर्मबुद्धि पर आरोप लगाया कि उसी ने वह धन चुराया है । बात बहुत बढ़ गई ।

दोनों अदालत में धर्माधिकारी के सामने पेश हुए । वहां भी दोनों परस्पर आरोप-प्रत्यारोप करके एक-दूसरे को दोषी सिद्ध करने लगे । धर्माधिकारी ने जब सत्य जानने के लिए दिव्य परीक्षा का निर्णय दिया तो पापबुद्धि बोल पड़ा : ”यह उचित न्याय नहीं है ।

सर्वप्रथम लेखबद्ध प्रमाणों को देखना चाहिए । उसके अभाव में साक्षी ली जाती है और जब साक्षी भी न मिले तो फिर दिव्य परीक्षा ली जाती है। हमारे विवाद में वृक्ष देवता साक्षी हैं। वे इसका निर्णय कर देंगे ।”

पापबुद्धि की बात सुनकर धर्माधिकारी मान गया । उसने निर्णय दिया कि कल प्रात काल धर्मबुद्धि और पापबुद्धि के साथ वह स्वयं घटनास्थल पर जाकर देखेगा और वृक्ष देवता की गवाही के अनुसार अपना निर्णय देगा ।

न्यायालय से लौटकर पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा : ”पिताजी मैंने ही वह सारा धन चुराया है अब आप मेरी सहायता करें तो मैं बच सकता हूं अन्यथा धर्माधिकारी मुझे कारावास भेज देगा ।” पापबुद्धि का पिता पुत्रमोह में उसकी सहायता को तैयार हो गया ।

पापबुद्धि ने उसे अपनी योजना समझा दी । योजनानुसार उसका पिता वृक्ष के एक कोटर में जाकर बैठ गया । दूसरे दिन प्रात काल यथा समय पर पापबुद्धि धर्माधिकारी एवं अन्य राज्याधिकारियों के साथ धर्मबुद्धि को साथ लेकर उस स्थान पर पहुंच गया जहां धन गाड़ कर रखा गया था ।

वहां पहुंच कर पापबुद्धि ने जोर से आवाज लगाई : ”हे वन देवता ! आप इस वन में होने वाले समस्त कार्यकलापों को जानते हैं । यहां कौन आदमी क्या करता है यह आपकी दृष्टि में छिपा नहीं रहता । कृपया यह बता दीजिए कि यहां गाड़ा गया धन किसने चुराया है ? मैंने या धर्मबुद्धि ने ?”

कोटर में छिपे पापबुद्धि के पिता ने यह सुनकर कोटर के अंदर से कहा : ”सज्जनों ! आप सब लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो! उस धन को धर्मबुद्धि ने ही चुराया है ।” एक वृक्ष से आती उस आवाज को सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए ।

सबको विश्वास हो गया कि धर्मबुद्धि ने ही यह पापकर्म किया है । पर धर्मबुद्धि समझ गया कि हकीकत क्या है उसने तत्काल कुछ घास-फूस इकट्‌ठा किये और कुछ सूखी लकड़ियां बीनकर उस कोटर के पास पहुंचा जहां से वनदेवता की आवाज सबने सुनी थी ।

उसने आग जलाई और उस कोटर में फेंक दी । कोटर के मुख पर रखे घासफूस ने तुरंत आग पकडू ली । जब अग्नि ज्यादा प्रज्वलित होने लगी तो कोटर में बैठा पापबुद्धि का पिता जलने लगा । कुछ देर तो वह अग्नि की ताप सहन करता रहा किंतु जब सहन करना मुश्किल हो गया तो वह अपना अधजला शरीर और फूटी आखें लेकर चीखता-चिल्लाता कोटर से बाहर निकल आया ।

उसे इस हालत में देखकर सभी को अचंभा होने लगा । धर्माधिकारी ने उससे पूछा : ”महाशय आप कौन हैं और आपकी यह दशा क्यों हुई ?” पापबुद्धि के पिता ने तब धर्माधिकारी के सामने सारी घटना ज्यों की त्यों कह सुनाई । तब सच्चाई जानकर धर्माधिकारी ने जो सजा धर्मबुद्धि के लिए नियुक्त की थी वह पापबुद्धि पर लागू कर उसे उसी वृक्ष पर लटकवा दिया ।

धर्मबुद्धि की प्रशंसा करते हुए धर्माधिकारी ने कहा : ”मनुष्य का यह धर्म है कि वह उपाय की चिंता के साथ अपाय की भी चिंता करे अन्यथा उसकी दशा वैसी ही होती है जो उन बगुलों की हुई थी जिन्हें नेवले ने मार दिया था ।”


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

करने से पहले सोचो |

किसी वन में बरगद का एक बहुत बड़ा पेड़ था । उस पेड़ पर अनेक बगुले निवास करते थे । बरगद की जड़ में एक काला नाग भी रहता था । मौका पाते ही वह वृक्ष पर चढ़ जाता और बगुलों के अण्डे-बच्चों को चट कर जाता था । इस प्रकार उस नाग का जीवन आनंद से व्यतीत हो रहा था । अपने बच्चों के मारे जाने से बगुले बहुत दुखी थे किंतु उनके पास कोई उपाय नहीं था ।

एक दिन वह नाग एक बगुले के बच्चों को खा गया । इससे वह बगुला बहुत दुखी और विरक्त होकर नदी के किनारे जा बैठा । उसकी आखों में आँसू भरे हुए थे । उसे इस प्रकार दुखमग्न देखकर एक केकड़े ने पानी से निकल कर उसे कहा : ”मामा क्या बात है ? आज रो क्यों रहे हो ?”

बगुले ने कहा : ”भैया बात यह है कि मेरे बच्चों को एक सांप बार-बार खा जाता है । कुछ उपाय नहीं सूझता किस प्रकार सांप का नाश किया जाए, तुम्हीं कोई उपाय बताओ ।” केकड़े ने मन में सोचा यह बगुला मेरा जन्मबैरी है ।

इसे ऐसा उपाय बताऊंगा कि जिससे सांप के नाश के साथ-साथ इसका भी नाश हो जाए । यह सोचकर वह बोला : ”मामा एक काम करो । मांस के कुछ टुकड़े लेकर नेवले के बिल के सामने डाल दो । इसके बाद बहुत-से टुकड़े उस बिल से शुरू करके सांप के बिल तक बिखेर दो ।

नेवला उन टुकड़ों को खाता-खाता सांप के बिल तक आ जाएगा और वहां सांप को भी देखकर उसे मार डालेगा ।” बगुले ने ऐसा ही किया । नेवले ने सांप तो खा लिया किंतु सांप के बाद उस वृक्ष पर रहने वाले बगुलों के अण्डों और बच्चों को भी खा गया । बगुले ने उपाय तो सोचा किंतु उसके अन्य दुष्परिणाम नहीं सोचे ।

अपनी मूर्खता का फल उसे मिल गया । पापबुद्धि ने भी उपाय तो सोचा किंतु अपाय नहीं सोचा ।” यह कथा सुनाकर करटक बोला : ”इसी तरह दमनक तूने भी तो उपाय किया किंतु अपाय की चिंता नहीं की । तू भी पापबुद्धि के समान ही मूर्ख है ।

तेरे जैसे पापबुद्धि के साथ रहना भी दोषपूर्ण है । आज से तू मेरे पास मत आना । जिस स्थान पर ऐसे अनर्थ हों वहां से दूर ही रहना चाहिए । जहां चूहे मन-भर की तराजू को खा सकते हैं । वहां यह भी संभव है कि चील बच्चे को उठाकर ले जाए ।”


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

जैसे को तैसा |

किसी नगर में जीर्णधन नाम का एक वैश्य रहता था । वह कभी धन-धान्य से सम्पन्न एक खुशहाल व्यक्ति था । किंतु फिर उसके भाग्य ने पलटा खाया । उसका सारा धन नष्ट हो गया और वह सर्वथा निर्धन हो गया ।

तब उसने विदेश जाकर धन कमाने की सोची । उसके पास उसके पुरखों के समय की लोहे की एक बहुत भारी व मजबूत तराजू थी । उसने उस तराजू को एक महाजन के यहां गिरवी रखा और उससे मिले धन को लेकर परदेश में व्यापार करने के लिए चला गया ।

विदेश में उसका भाग्य चमका । उसने देश-देशान्तरों का खूब भ्रमण किया और बहुत-सा धन कमाकर अपने नगर लौट आया । वह सीधा महाजन के पास पहुंचा और बोला : ”सेठ जी ! मेरी वह गिरवी रखी हुई तराजू मुझे वापस कर दो और अपने रुपए ले लो ।”

महाजन ने बड़ा अफसोस व्यक्त करते हुए कहा : ”मुझे अफसोस है भाई मैं तुम्हारी तराजू वापस करने में असमर्थ हूं । उसे तो चूहे खा गए ।” यह सुनकर वैश्य को बहुत क्रोध आया किंतु उस समय उसने अपने क्रोध को प्रकट नहीं किया ।

वह बोला : ”सेठ जी इसमें आपका क्या दोष ? जब तराजू को चूहों ने खा ही लिया तो आप कर भी क्या सकते हैं । यह संसार ही कुछ ऐसा है । यहां कोई वस्तु टिक नहीं पाती । अच्छा, मैं स्नान को जा रहा हूं । कृपा करके आप अपने पुत्र को मेरे साथ भेज दीजिए ।

मैं जब स्नान करूंगा तो वह नदी किनारे मेरे कपड़ों की रखवाली करता रहेगा ।” महाजन ने सोचा कि चलो ‘सस्ते में ही छूट गए ।’ अब वह लाजवाब तराजू मेरी हो जाएगी । ऐसा सोचकर उसने अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा : ”पुत्र धनदेव ये तुम्हारे चाचा जी स्नान के लिए नदी तट पर जा रहे हैं । तुम इनके लिए स्नान की सामग्री लेकर इनके साथ चले जाओ ।” 

पिता की आज्ञा मानकर धनदेव उस वैश्य के साथ चल पड़ा । वहां पहुंचकर जीर्णधन ने पहले स्नान किया फिर किसी तरह बहलाकर धनदेव को निकट बनी एक गुफा में बंद कर दिया । उसने गुफा का द्वार एक भारी शिला से बंद कर दिया और महाजन के पास लौट आया । उसे अकेला आते देख महाजन ने पूछा : ”तुम अकेले ही आए हो ? मेरा पुत्र कहां है ?”

जीर्णधन ने शोकग्रस्त चेहरा बनाते हुए उत्तर दिया : ”मुझे अफसोस है सेठ जी आपके पुत्र को तो नदी किनारे से एक बाज उठाकर ले गया है ।” वैश्य की बात सुनकर महाजन भड़क उठा । बोला : ”क्या बकते हो ? बाज भी कहीं लड़के को उठाकर ले जा सकता है ? मेरे लड़के को लाकर दो नहीं तो मैं न्यायालय में जाऊंगा ।”

वैश्य ने उत्तर दिया : ”जब लोहे की तराजू को चूहे खा सकते हैं तो लड़के को भी बाज उठाकर ले जा सकता है । यदि अपने लड़के की वापसी चाहते हो तो पहले मेरा तराजू मुझे लौटा दो ।” महाजन को अपना पुत्र चाहिए था और वैश्य को अपना तराजू । दोनों न्यायालय पहुंचे ।

पहले महाजन ने ही अभियोग लगाते हुए न्यायाधीश से कहा : ”महोदय इस वैश्य ने मेरा पुत्र चुरा लिया है । इससे मेरा पुत्र दिलवाया जाए ।” न्यायाधीश ने जब प्रश्नभरी दृष्टि से जीर्णधन की ओर देखा तो उसने कहा : ”महोदय मैं क्या करूं ।

इसके पुत्र को तो मेरे देखते ही देखते एक बाज उठाकर ले गया है । अब मैं इसके पुत्र को कहां से लाकर दूं ?” न्यायाधीश बोले : ”हम इस बात पर बिल्लकुल विश्वास नहीं कर सकते कि इसके बेटे को बाज उठाकर ले गया । यह एक असंभव बात है ।”

यह सुनकर वैश्य बोला : ”तो श्रीमान ! मेरी प्रार्थना पर भी ध्यान दिया जाए ।  जहां पर एक मन भारी लोहे के तराजू को चूहे खा सकते हैं वहां क्या महाजन के पुत्र को बाज उठाकर नहीं ले जा सकता ?” न्यायाधीश ने उलझन भरी दृष्टि से वैश्य की ओर देखते हुए कहा : ”तुम यह क्या कह रहे हो ?”

तब वैश्य जीर्णधन ने आदि से लेकर अंत तक सारा किस्सा उन्हें सुना दिया । सारी बातें सुनकर न्यायाधीश ने महाजन को तुरंत उसकी तराजू लौटाने का आदेश दिया । तराजू मिलने पर वैश्य ने भी महाजन का पुत्र लौटा दिया ।

यह कथा सुनकर करटक ने दमनक से कहा : ”जहां इस प्रकार की अपूर्व घटना घट सकती है वहां दूसरे प्रकार की घटना भी घट सकती है तुमने संजीवक की खुशी से क्षुब्ध होकर यह प्रपंच किया है । अपने स्वभाव के कारण तुमने संजीवक की निंदा की ।

उसकी निंदा करते हुए और अपने स्वामी का हित चाहते हुए भी एक तरह से उसका अहित ही किया है । विद्वानों ने यह कहा है कि विद्वान व्यक्ति यदि शत्रु हो तो भी अच्छा है किंतु अपना हित करने वाला व्यक्ति यदि मूर्ख हो तो भी ठीक नहीं होता । चोर होते हुए भी एक पंडित ने चार ब्राह्मणों की रक्षा की थी ।”


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा |

किसी नगर में एक विद्वान ब्राह्मण रहता था । विद्वान होते हुए भी अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारण वह चोरी किया करता था । एक बार उसने नगर में चार अपरिचित ब्राह्मणों को अनेक प्रकार की चीजें बेचते हुए देखा ।

उनको ऐसा करते देख उस ब्राह्मण ने अपने मन में सोचा : ‘ये लोग तो खूब धन कमा रहे हैं । इनको ठगने का कोई उपाय करना चाहिए ।’ यही सोचकर वह उन चारों ब्राह्मणों के पास पहुंचा और उनसे बड़ी मीठी-मीठी और नीतिपूर्ण बातें करने लगा ।

अपने मीठे व्यवहार से शीघ्र ही उस ब्राह्मण ने उन चारों का विश्वास प्राप्त कर लिया । किसी समझदार व्यक्ति ने ठीक ही कहा है कि कुल्टा स्त्री ही अधिक लज्जा करने का ढोंग रचती है । खारा जल स्वच्छ जल की अपेक्षा अधिक ठंडा रहता है ।

पाखंडी व्यक्ति अधिक विवेकी होता है और जो धूर्त व्यक्ति होता है वही अधिक प्रिय बोलता है ।  एक दिन उन ब्राह्मणों ने अपना सारा सामान बेच लिया । उस धन से उन्होंने सोना और रत्न आदि खरीद लिए और वापस अपने देश जाने की तैयारी करने लगे । खरीदे हुए रत्न आदि को उन्होंने अपनी जंघाओं (जांघ) के मध्य छिपा लिया ।

धूर्त ब्राह्मण ने उन सबको ऐसा करते देखा तो इतने दिन की गई उनकी सेवा पर अब उसे अफसोस होने लगा । उसने मन ही मन सोचा : ‘लगता है मेरी सारी सेवा और परिश्रम व्यर्थ ही चला गया । अभी तक तो कुछ भी हाथ नहीं लगा । अब यदि ये लोग चले गए तो मैं हाथ मलते ही रह जाऊंगा ।’

तब उसने निर्णय किया कि मैं भी इनके साथ जाऊंगा । रास्ते में इन्हें विष देकर मार डालूंगा और इनके सारे रत्न और स्वर्ण को हथियाकर चम्पत हो जाऊंगा । तब उस धूर्त ने उन ब्राह्मणों से उसे भी साथ चलने की प्रार्थना की । ब्राह्मण उसकी सेवा और मृदु व्यवहार से प्रसन्न थे ।

अत: उन्होंने सहर्ष उसे अपने साथ चलने की आज्ञा दे दी । चारों ब्राह्मण उस धूर्त को साथ लेकर अपने नगर के लिए चल गड़े । कुछ दूर जाने पर मार्ग पर किरातों (भीलों) का एक गांव आया । उस गांव का नाम था पल्लीपुर। जब वे पांचों पल्लीपुर से होकर गुजरे तो उनको देखकर कौओं ने जो-जोर से चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया । कौए कह रहे थे : ”अरे भीलों ! दौड़ी-दौड़ी । इन व्यक्तियों के पास सवा लाख का धन है । इन्हें मार डालो और इनका धन छीन लो ।”

अपने प्रशिक्षित कौओं को ऐसा करते देख तत्काल सारे भील इकट्‌ठे हो गए । उन्होंने ब्राह्मणों को पकड़ लिया और ब्राह्मणों की तलाशी करने लगे । ब्राह्मणों ने जब इसका विरोध किया तो वे उनकी बड़ी बेरहमी से पिटाई करने लगे ।

भीलों ने जबरदस्ती उन पांचों के वस्त्र उतरवाए किंतु ब्राह्मणों द्वारा छिपाया गया धन उन्हें फिर भी नहीं मिला । यह देखकर भीलों ने ब्राह्मणों से कहा : ”हमारे गांव के कौओं ने आज तक जो भी संकेत दिए हैं, वे कभी असत्य साबित नहीं हुए ।

धन तुम लोगों के पास अवश्य ही मौजूद हैं । अब तुम उस धन को स्वेच्छा से हमें दे दो तो हम तुमसे कुछ नहीं कहेंगे और तुम्हें सही सलामत चले जाने देंगे और यदि तुमने धन देने में आना कानी की तो तुम्हें मार डालेंगे । फिर हम तुम्हारा अंग-अंग चीरेंगे और उसमें छिपाए धन को निकाल लेंगे ।”

उस धूर्त ब्राह्मण ने जब भीलों की यह बात सुनी तो पहले तो वह कुछ घबरा गया लेकिन फिर सोचने लगा : ‘भील पहले तो इन चारों को मारेंगे फिर मेरी भी बारी आएगी ही । अत: किसी प्रकार अपने प्राण देकर इनके प्राण बचाए जा सकें तो क्या हानि है ? इससे पहले कि ये भील इन ब्राह्मणों को मारें क्यों न मैं ही सबसे पहले इन्हें अपना शरीर प्रस्तुत कर दूं ।

जब ये मुझे मारकर मेरे शरीर को चीरेंगे तो मेरे शरीर में इन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा । तब ये लोग समझ जायेंगे कि इस बार कौओं ने गलत संकेत दिया है । तब ये लोग इन ब्राह्मणों को छोड़ देंगे इस प्रकार इन चारों ब्राह्मणों के प्राण बच जाएंगे ।’

यही सब सोचकर उसने भीलों से कहा : ”अरे भीलों यदि तुम्हारा ऐसा ही इरादा है तो पहले मुझे मारकर अपनी तसल्ली कर लो ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि तुम्हारे कौओं ने इस बार तुम्हें गलत संकेत दिया है ।” तब उन भीलों ने उस ब्राह्मण को मारकर उसका अंग-अंग चीर डाला किंतु कहीं कुछ न मिला ।

यह देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि इन ब्राह्मणों के पास कुछ भी नहीं है । अत: उन्होंने उन चारों को मुक्त कर दिया । यह कथा सुनाकर करटक बोला : ”इसीलिए मैं कहता था कि यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपना शत्रु है तो भी वह मूर्ख मित्र से अच्छा ही होता है ।

किसी मूर्ख व्यक्ति को अपना मित्र बनाना तो सरासर नासमझी का ही काम होता है ।” जब करटक और दमनक के बीच इस तरह का वार्तालाप चल रहा था तो इस बीच पिंगलक और संजीवक के मध्य जीवन और मौत का संघष चल रहा था । अंत में पिंगलक ने अपने नाखूनों और दांतों की सहायता से संजीवक को धराशायी कर ही दिया ।

संजीवक के मर जाने के बाद पिंगलक जब कुछ स्वस्थ-सा महसूस करने लगा तो उसे अपने किए पर बहुत पश्चात्ताप होने लगा । वह अपने मन में सोचने लगा कि उसने संजीवक के साथ बहुत बड़ा मित्रघात किया है । आज तक मैंने अपनी सभा में हमेशा उसकी प्रशंसा की थी अब मैं सभासदों को क्या समझाऊंगा ।

उसकी यह दशा भांपकर दमनक उसके पास पहुंचा और उसे अनेक प्रकार की नीतियुक्त बातें समझाने लगा । उसने कहा : ”स्वामी ! एक शाकाहारी बैल का वध करके आप दुखी क्यों हो रहे हो ? यह बैल तो आपसे द्रोह करता था । चाहे पिता हो या भाई पुत्र हो या पत्नी इनमें से यदि कोई भी द्रोह करे तो उसका वध करने में कोई पाप नहीं है ।

राजा को कभी भावुक नहीं होना चाहिए । राजनीति बहुत ही कठोर होती है । विद्वान लोग कभी किसी की मृत्यु पर शोक नहीं करते । अत: भावुकता छोड़ो और शोक त्याग कर अपने राजकाज पूरे करें ।” दमनक के इस प्रकार समझाने पर पिंगलक ने संजीवक की मृत्यु का शोक त्याग दिया और दमनक को अपना मुख्यमंत्री बना कर फिर से अपने राज्य का संचालन करने लगा ।


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

लोभ अंधा कर देता है |

दक्षिण के किसी जनपद में महिलारोप्य नाम का एक नगर था । उस नगर से थोड़ी दूरी पर बरगद का एक विशाल वृक्ष था । उसके फल अनेक पक्षी खाते थे । वृक्ष के कोटरों में अनेक छोटे-छोटे जीव-जन्तु रहते थे । दूर से आने वाले थके-हारे यात्री उस वृक्ष की छाया में विश्राम करते थे ।

उस वृक्ष की एक शाखा पर घोंसला बनाकर एक कौआ भी रहता था जिसका नाम था-लघुपतनक । एक दिन की बात है जब वह कौआ अपने भोजन की तलाश में उड़ता हुआ नगर की ओर जा रहा था तभी उसे दूर से एक कुर स्वभाव का व्यक्ति हाथ में जाल लिए सामने से आता दिखाई दिया ।

उसे देखकर कौआ अपने मन में सोचने लगा कि यदि यमदूत आज हमारे वट वृक्ष की ओर चला गया तो न जाने क्या अनर्थ हो । पक्षी बचेंगे भी या नहीं । यह सोचकर कौवे ने अपने भोजन की चिंता छोड़ दी और तत्काल अपने वृक्ष की ओर लौट पड़ा ।

वहां जाकर उसने सभी पक्षियों को इकट्‌ठा किया और उनसे कहा : ”मित्रों ! एक दुष्ट बहेलिया इसी वृक्ष की ओर चला आ रहा है । उसके हाथों में जाल और चावलों की एक पोटली है । यदि उसने यहां आकर चावल नीचे बिखेरकर अपना जाल फैलाया तो समझ लेना कि वह तुम लोगों को फंसाना चाहता है ।

मेरा परामर्श है कि इस स्थिति में कोई पक्षी उस जाल के नजदीक तक न फटके अन्यथा मौत आते देर नहीं लगेगी ।”  कौआ अभी अपने साथियों को यह सब समझा ही रहा था कि तब तक बहेलिया भी वहां पहुंच गया और उस वृक्ष के नीचे खड़ा होकर वृक्ष के ऊपर की ओर देखने लगा ।

कुछ क्षण बाद ही उसने अपना जाल फैलाया और उस पर चावल के दाने बिखेर दिए । ऐसा करके वह वहां से हट गया और एक वृक्ष के पीछे छिप कर बैठ गया । किंतु उस वृक्ष पर रहने वाले पक्षियों को तो कौआ पहले ही सावधान कर चुका था ।

अत: एक भी पक्षी नीचे नहीं उतरा । सब अपनी-अपनी जगह बैठकर शांत भाव से नीचे की ओर देखते रहे । किंतु इस बीच कबूतरों का एक झुण्ड कहीं से उड़ता हुआ वहां आ पहुंचा । उस झुण्ड का मुखिया चित्रग्रीव नामक एक कबूतर था ।

यद्यपि लघुपतनक ने उनको बार-बार सावधान किया किंतु वे भूख से इतने व्याकुल थे कि उन्होंने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया और जमीन पर बिखरे चावलों के दानों पर टूट पड़े । बहेलिए ने जब सारे कबूतरों को जाल में फंसा देखा तो उसकी बांछें खिल गईं । वह मन ही मन खुश होता हुआ डण्डा लिए जाल की ओर चल पड़ा ।

यह देखकर सारे कबूतर भयभीत हो गए । उस समय उस झुण्ड के नायक चित्रग्रीव ने समझदारी से काम लिया । उसने कबूतरों को समझाया : ‘मित्रों, बहेलिए को देखकर डरो मत । बुद्धि और साहस से काम लो । सम्मिलित प्रयास करो और इस जाल को लेकर उड़ चलो । बहेलिए से बच गए तो आगे चलकर इस जाल से मुक्त होने का कोई उपाय ढूंढ लेंगे ।’

अपने नायक की ऐसी साहस भरी बातें सुनकर कबूतरों को भी जोश आ गया । सबने अपनी शक्ति-भर पूरा जोर लगाया और जाल लेकर उड़ गए । बहेलिए ने कबूतरों को जाल लिए इस प्रकार उड़ते देखा तो वह हतप्रभ रह गया फिर डण्डा लेकर उनके पीछे दौड़ पड़ा ।

वह सोच रहा था कि अभी तो इन कबूतरों में शक्ति भी है और एकता भी । बाद में जब ये थक जाएंगे और जाल के साथ नीचे आ गिरेंगे तो इन्हें आसानी से पकड़ लूंगा । बरगद के वृक्ष पर बैठा लघुपतनक नाम का वह कौआ यह सब देख रहा था ।

देखते ही देखते कबूतर बहेलिए का जाल लेकर उसकी नजरों से ओझल हो गए । तब वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा : ‘सबकुछ भाग्य से ही मिलता है । जो भाग्य में लिखा होता है वह बिना प्रयास के ही मिल जाता है और यदि भाग्य अनुकूल न हो तो हाथ आई वस्तु भी नष्ट हो जाती है ।

आज मेरा भाग्य विपरीत है तभी तो कबूतरों का मांस मिलना तो दूर मेरा जाल भी हाथ से निकल गया ।’ उधर चित्रग्रीव ने जब देखा कि बहेलिए का अब कोई भय नहीं रहा तो उसने अपने साथियों से कहा : ”मित्रों ! बहेलिया बहुत पीछे रह गया है अब उसका कोई डर नहीं है ।

अब तुम पूर्व दिशा की ओर चलो । वहां हिरण्यक नाम का एक चूहा रहता है जो मेरा मित्र है । विपत्ति में मित्र ही मित्र के काम आता है । वह इस जाल को काट देगा और हम सब बंधनमुक्त हो जाएंगे ।” तदनुसार सारे कबूतर हिरण्यक चूहे के बिल के समीप जा पहुंचे ।

हिरण्यक अपने बिल में निर्भय होकर निवास करता था । उसने बिल में अपने घुसने और बाहर निकलने के लिए कई रास्ते बना रखे थे ।  विपत्ति आने पर वह उन्हीं रास्तों में से किसी एक में होकर सुरक्षित बाहर निकल जाता था । चित्रग्रीव ने हिरण्यक के बिल के पास जाकर ऊंचे स्वर में कहा : ”मित्र हिरण्यक मैं चित्रग्रीव हूं ।

कबूतरों कूा मुखिया । मैं भारी मुसीबत में हूं । तुम मेरे मित्र हो । बाहर आकर मेरी मदद करो ।” मित्र का स्वर पहचान कर हिरण्यक अपने बिल से बाहर निकल आया । अपने परम मित्र चित्रग्रीव से मिलकर उसने भारी प्रसन्नता जाहिर की किंतु साथियों सहित उसे जाल में फंसा देखकर वह चिंतित हो गया । उसने पूछा : ”मित्र ! यह कैसे हो गया ?”

चित्रग्रीव बोला : ”मित्र जीभ के लालच में हम इस जाल में फंस गए तुम हमें इससे मुक्त करा दो ।” हिरण्यक बोला : ”मित्र इतने बड़े जाल को एक साथ काटने की मुझमें शक्ति नहीं है । पहले मैं तुम्हारे बंधन काट देता हूं फिर धीरे-धीरे विश्राम लेकर तुम्हारे साथियों के बंधन काटूंगा ।”

जैसे ही हिरण्यक अपने मित्र चित्रग्रीव के बंधन काटने को हुआ चित्रग्रीव ने कहा:  ‘नहीं मित्र, तुम पहले मेरे साथियों को बंधनमुक्त करो सबके पश्चात् ही मेरे बंधन काटना ।’ यह सुनकर हिरण्यक को बहुत आश्चर्य हुआ । वह बोला : ”तुम सबके मुखिया हो । पहले अपने बंधन कटवाओ बाद में साथियों के कटवाना ।”

इस पर चित्रग्रीव ने कहा : ”ये मेरे आश्रित हैं । अपना घर-बार छोड्‌कर मुझ पर भरोसा करके मेरे साथ आए हैं । इसलिए मेरा धर्म है कि पहले इनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखूं । अपने अनुचरों में पैदा किया हुआ विश्वास बडे से बड़े संकट में रक्षा करता है ।”

अपने मित्र की ऐसी बातें सुनकर हिरण्यक बहुत प्रसन्न हुआ । वह जाल को काटने में जुट गया । देखते ही देखते उसने अपने पैने दांतों से सारा जाल कुतर डाला । सभी कबूतर बंधनमुक्त हो गए । फिर वह अपने मित्र चित्रग्रीव से बोला : ”मित्र अब तुम आजाद हो अपने घर जाओ । कोई विपत्ति पड़े तो मुझे अवश्य याद कर लेना ।”

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अपने मित्र का आभार व्यक्त करके तब चित्रग्रीव अपने साथियों को लेकर वहां से उड़ गया । लघुपतनक ने एक वृक्ष की शाखा पर बैठे-बैठे यह सारा दृश्य देखा । वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता से बहुत प्रभावित हुआ ।

उसने मन ही मन सोचा यह चूहा बहुत सज्जन और गुणी है । इसे अपना मित्र बनाना चाहिए । ऐसा विचार कर वह वृक्ष से उतरा और हिरण्यक के बिल के पास जाकर चित्रग्रीव की तरह मीठी वाणी से बोला : ”मित्र हिरण्यक बाहर आओ ।”

हिरण्यक ने सोचा अब क्या हो गया । क्या कोई कबूतर जाल में फंसा रह गया है जो अपने बंधन काटने के लिए मुझे बुला रहा है । उसने बिल के अंदर से ही पूछा:  ”महाशय! आप कौन हैं ?” लघुपतनक बोला : ”मित्र मैं लघुपतनक नामक कौआ हूं ।” चित्रग्रीव के बंधनों को काटते देखकर मुझे तुमसे प्रेम हो गया है ।

मैं तुमसे मित्रता करना चाहता हूं ।” हिरण्यक बोला : ”मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता । तुम भोक्ता हो और मैं तुम्हारा भोजन हूं । मेरी तुम्हारी मित्रता संभव ही नहीं है । विरुद्ध स्वभाववालों की मित्रता नहीं हो सकती । इसलिए आप यहां से चले जाएं ।”

लघुपतनक ने उसे बार-बार विश्वास दिलाया किंतु हिरण्यक बिल से बाहर आने को तैयार नहीं हुआ । इस पर लघुपतनक बोला : ”ठीक है मित्र, यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है तो अपने बिल में ही छिपे रहो । मैं बिल के बाहर ही बैठकर तुमसे बातें कर लिया करूंगा ।”

लघुपतनक का यह आग्रह हिरण्यक ने स्वीकार कर लिया । तब से वे दोनों मित्र बन गए । धीरे-धीरे उनकी मित्रता बढ़ती गई और फिर एक ऐसी स्थिति आ पहुंची जब उन्हें एक-दूसरे को देखे बिना चैन नहीं पड़ता था ।

एक दिन लघुपतनक आखों में औसू भरकर हिरण्यक से बोला : ”मित्र इस देश में अन्न का अकाल पड़ गया है । लोग भूखे मर रहे हैं । वे पशु-पक्षियों को पकड़कर उनको अनलर आहार बना रहे हैं ।  मेरे अनेक साथी मारे जा चुके हैं । ऐसी हालत में कभी भी मेरी बारी आ सकती है । इसलिए मैंने यह देश छोड़ने का निश्चय कर लिया है ।”

हिरण्यक ने आशंकित स्वर में पूछा : ”देश छोड़कर कहां जाओगे ?”  लघुपतनक बोला : ”दक्षिण दिशा में एक सरोवर है । वहां मंथरक नाम का एक कछुआ रहता है । तुम्हारी तरह वह भी मेरा घनिष्ट मित्र है । उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न व मांस आदि अवश्य मिल जाएगा ।”

हिरण्यक बोला : “यदि ऐसी बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा । मुझे भी यहां बहुत कष्ट है ।” लघुपतनक बोला : “तुम्हें यहां क्या कष्ट है जरा मैं भी तो सुनूं ?” हिरण्यक बोला : ”यह एक लम्बी कहानी है मित्र । वहीं जाकर सारी कहानी विस्तृत रूप से बताऊंगा ।”

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लघुपतनक ने प्रसन्नता से उसका आग्रह स्वीकार कर लिया । हिरण्यक उसकी पीठ पर सवार हो गया । दोनों आकाश मार्ग से उड़ते हुए तालाब के किनारे जा पहुंचे । मंथरक ने अपने मित्र को पहले तो पहचाना ही नहीं । वह डरकर पानी में घुस गया ।

लेकिन जब लघुपतनक हिरण्यक को पीठ से उतारकर जोर-जोर से मंथरक को आवाज लगाने लगा । तब उसने जल से थोड़ी गर्दन ऊपर निकाली । फिर जैसे ही उसने अपने मित्र लघुपतनक को पहचाना प्रसन्नता प्रकट करता हुआ जल से बाहर आकर मित्र से गले मिला । तब तक हिरण्यक भी उसके पास पहुंच गया । उसने मंथरक को प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया ।

”अच्छा यह तो बताओ मित्र कि यह चूहा कौन है ? तुम्हारा भोजन होते हुए भी तुम इसे अपनी पीठ पर लादकर यहां तक कैसे लाए ?” मंथरक ने पूछा । ”मित्र यह हिरण्यक नाम का चूहा है और मेरा अभिन्न मित्र है । यह बहुत ही गुणी है । अपने किसी दुख से दुखी होकर मेरे साथ यहां चला आया है ।

इसे अपने देश से वैराग्य हो गया है ।” लघुपतनक ने बताया । मंथरक ने पूछा: ”उस वैराग्य का कोई कारण तो होगा?” लघुपतनक बोला : ”यह बात मैंने भी पूछी थी तो यह बोला वहीं चलकर बताऊंगा ।” फिर वह हिरण्यक से बोला : ”मित्र हिरण्यक अब तुम अपने वैराग्य का कारण बता दो ।”

लघुपतनक की बात सुनकर हिरण्यक ने कहा : ”आप दोनों ही मेरे वैराग्य का कारण जानना चाहते हैं तो फिर सुनिए वह कारण जिसके कारण मुझे यहां आने पर विवश होना पड़ा ।” इतना कहकर हिरण्यक ने उन्हें यह कथा सुनाई ।


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