List of Top 25 Stories of Tenali Raman in Hindi (Tenali Raman Ki Kahani)!
Story of Tenali Raman # 1. बुरे फंसे दरबारी |
महाराज कृष्णदेव राय की दिनचर्या थी कि वे सुबह-सुबह राज उद्यान में टहलने जाया करते थे और उस समय उनके साथ केवल तेनालीराम ही होते थे । इसी समय महाराज बहुत से गम्भीर निर्णय ले लिया करते थे, कई भविष्य की योजनाएं बना लिया करते थे, जिसकी खबर तेनालीराम को तो होती थी, किन्तु बाकी दरबारियों को कोई भी बात समय के साथ ही पता चलती थी ।
अत: कुछ दरबारियों ने सोचा कि महाराज के साथ तेनालीराम का घूमना बंद कराया जाए । अत: एक रात उन्होंने कुछ गायें लाकर राज उद्यान में छोड़ दीं । रात भर में गायों ने उद्यान को उजाड़कर रख दिया । अगले दिन महाराज भोर में अकेले ही वहां आए तो गायों को वहां चरता देख और उद्यान की उजड़ी हुई हालत देखकर वे आग-बबूला हो उठे ।
उन्होंने फौरन माली को तलब किया- ”ये गायें राज उद्यान में कैसे आईं ।” ”म…महाराज ।” सहमकर माली बोला- ”ये गायें तो तेनालीराम जी ने यहां छुड़वाई ओं ।” ”तेनालीराम ने?” महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ । इसी बीच अन्य दरबारी भी उद्यान में आ गए ।
मामले को समझते ही वे बोले- ”महाराज! दरअसल तेनालीराम को आप हर रोज अपने साथ घूमने के लिए बुला लेते हैं, इसी कारण क्रोधित होकर उसने ऐसा कदम उठाया होगा कि न उद्यान रहेगा, न आप घूमेंगे और न समय-असमय उन्हें बुलाएंगे ।”
महाराज को यह सुनकर बड़ा क्रोध आया । उन्होंने तुरन्त आदेश दिया कि उद्यान में हुए नुकसान के बदले तेनालीराम से पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं वसूली जाएं और इन गायों को राज्य की पशुशाला में भिजवा दिया जाए । दिन चढ़ते-चढ़ते ये खबर तेनालीराम तक भी जा पहुंची ।
तीन दिन तक वह दरबार में आए ही नहीं । तीन दिन बाद दरबार में आए । उनके साथ कुछ ग्वाले भी थे । तेनालीराम ने महाराज को प्रणाम किया और बोले: ”महाराज! मुझसे जुर्माना वसूल करने का आदेश देने से पहले आप कृपा कर इनकी बात सुन लें । उसके बाद ही मेरे बारे में कोई राय कायम करें ।”
”ठीक है ।” महाराज ग्वालों से मुखातिब हुए: ”क्या कहना चाहते हैं आप लोग ?” ”महाराज! आपके कुछ दरबारी हमसे हमारी गायें खरीदकर लाए थे, मगर उन्होंने आज चौथे दिन तक भी उन गायों की कीमत अदा नहीं की । हमारी महाराज से विनती है कि हमें हमारी गायों की कीमत दिलाई जाए ।”
राजा कृष्णदेव राय ने सारी बात की जांच की तो पता चला कि तेनालीराम को बदनाम करने के लिए दरबारियों ने यह चाल चली थी । महाराज ने हुक्म दिया कि जो पाच हजार स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना तेनालीराम को भरना था, वह जुर्माना अब गायों को खरीद कर लाने वाले दरबारी भरेंगे तथा गायों की कीमत भी वे ही चुकाएंगे । ये कार्य अविलम्ब आज ही हो । इस प्रकार तेनालीराम की बुद्धि से वे बेचारे एक बार फिर मात खा गए ।
Story of Tenali Raman # 2. कुबड़ा धोबी |
एक बार कोई दुष्ट व्यक्ति साधु का वेश बनाकर लोगों को अपने जाल में फंसाता और धतूरा आदि खिलाकर लूट लेता था । यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था । धतूरा खाकर कोई व्यक्ति मर जाता तो कोई पागल हो जाता था ।
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तेनालीराम को यह बात पता चली तो उन्हें बड़ा दुख हुआ । उन्होंने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को दण्ड अवश्य ही मिलना चाहिए । मगर एकाएक ही कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कोई सबूत नहीं था, यही कारण था कि वह सरेआम सीना-ताने सड़कों पर घूम रहा था ।
तेनालीराम को पता चला कि एक व्यक्ति आजकल पागल हुआ सड़कों पर घूम रहा है और वह उस साधु का ताजा-ताजा शिकार है । एक दिन तेनालीराम की नजर धतूरा खिलाने वाले उस धूर्त पर पड़ी तो वे उसके पास पहुंचे और बातों में उलझाकर उस पागल के पास ले गए ।
फिर मौका पाकर उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा । उस पागल ने आव देखा न ताव, उसके बाल पकड़कर उसका सिर एक-पत्थर से टकराना शुरू कर दिया । पागल तो वह था ही, अपने जुनून में उसने उसे तभी छोड़ा जब उसके प्राण पखेरू उड़ गए । मामला महाराज तक पहुंचा ।
उस दुष्ट के रिश्तेदारों ने तेनालीराम पर आरोप लगाया कि उसने जानबूझकर उस व्यक्ति को पागल से मरवा दिया । महारज ने पागल को तो पागलखाने में भिजवा दिया, मगर क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि उसे हाथी के पांव से कुचलवा दिया जाए क्योंकि इसने पागल का सहारा लेकर इस प्रकार एक व्यक्ति की हत्या की है ।
दो सिपाही उसी दिन शाम को तेनालीराम को जंगल में एक सुनसान स्थान पर ले गए और गरदन तक उसे धरती में गाड़कर हाथी लेने चले गए । सिपाहियों को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि एक कुबड़ा धोबी वहां आ पहुंचा : ”क्यों भई! यह क्या माजरा है ? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो ?”
”भाई! मैं भी कभी तुम्हारी तरह कुबड़ा था । पूरे दस वर्षों तक मैं इस कष्ट से दुखी रहा । जो देखता, वही मुझ पर हंसता और फलियां कसता था । यहां तक कि मेरी पत्नी भी मुझे अपमानित करती थी । आखिर एक दिन मुझे एक महात्मा मिले ।
उन्होंने मुझे बताया कि इस पवित्र स्थान पर गरदन तक धरती में धंसकर बिना एक भी शब्द बोले, औखें बंद किए खड़े हो जाओगे तो तुम्हारा सारा कष्ट दूर हो जाएगा । मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर जरा देखो तो सही फकि मे’रा कूबड़ दूर हुआ या नहीं ।”
यह सुनते ही धोबी जल्दी-जल्दी उसके चारों ओर की मिट्टी हटाने लगा । कुछ देर बाद जब तेनालीराम बाहर आया तो धोबी ने देखा कि उसकी पीठ पर तो कूबड़ का नामो-निशान भी नहीं है । वह बोला- ”मित्र! मैं भी वर्षों से कूबड़ के इस बोझ को अपनी पीठ पर लादे घूम रहा हूं । मैं भी अब इससे छुटकारा पाना चाहता हूं ।
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मेहरबानी करके मुझे भी यहीं गाड़ दो और मेरे ये कपड़े धोबी टोले में जाकर मेरी बीवी को दे देना । उसे यहां का पता बताकर कह देना कि मेराकल सुबह का नाश्ता वह यहीं ले आए । मेरे दोस्त! मैं जीवन भर तुम्हारा यह एहसान नहीं भूलूंगा ।
और हां, मेरी पत्नी को यह हरगिज न बताना कि कल तक मेरा यह कूबड़ ठीक हो जाएगा । मैं कल उसे हैरान होते देखना चाहता हूं ।” ”बहुत अच्छा ।” तेनालीराम ने कहा, फिर उसे गरदन तक धरती में गाड़ दिया और उसके कपड़ों की गठरी उठाकर धोबी टीले की ओर चलने को हुआ लेकिन जाने से पहले वह उसे यह हिदायत देना नहीं भूला था:
”अपनी आखें और मुंह बंद रखना मित्र । चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए यदि तुमने औखें खोलीं या मुंह से कोई आवाज निकाली तो तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी अएएर तुम्हारा यह कूबड़ भी बढ्कर दोगुना हो जाएगा ।”
”तुम चिन्ता मत करो मित्र । इस कूबड़ के कारण मैंने बड़े दुख उठाए हैं । इससे छुटकारा पाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं ।” धोबी ने उसे आश्वासन दिया ।इसके बाद तेनालीराम चलता बना । उधर, राजा के सिपाही जब उस स्थान पर हाथी को लेकर पहुंचे तो वहां तेनालीराम के स्थान दर किसी अन्य को देखकर चौंके और उससे पूछा- ”ऐ ! तू कौन है ? किसने तुझे इस खड्डे में गाड़ा है ।”
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धोबी कुछ न बोला । ”ओ मूर्ख! कुछ बोलता क्यों नहीं, यहां सजा प्राप्त एक आदमी गड़ा हुआ था और हम हाथी से उसका सिर कुचलवाने के लिए हाथी लेने गए थे । लगता है तू अपराधी का कोई रिश्तेदार है और तूने उसे भगा दिया है । खैर! कोई बात नहीं, हम तेरा ही सिर कुचलवा देते हैं ।”
यह सुनते ही धोबी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । जल्दी से उसने औखें खोलीं और बोला: ”नहीं-नहीं दरोगा जी, ऐसा जुल्म न करना : मैं किसी अपराधी का रिश्तेदार नहीं बल्कि कुबड़ा धोबी हूं । मैं तो अपना कूबड़ ठीक करने के लिए…।” इस प्रकार उसने उन्हें पूरी बात बता दी ।
”अरे मूर्ख! इस प्रकार भी भला किसी का कूबड़ ठीक होता है: तूने एक अपराधी की मदद करके उसे भगाया है, अब तुझे दण्ड मिलेगा ।” धोबी ने सोचा कि बुरे फंसे । मगर उसने अपना संयम नहीं खोया और कुछ सोचकर बोला: ”देखिए दरोगा जी! यदि आप मुझे दण्ड दिलवाएंगे तो दण्ड से आप भी नहीं बचेंगे ।
मृत्युदण्ड पाए उस खतरनाक अपराधी को आपको अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था । आपकी लापरवाही के कारण ही वह भाग निकला-जब महाराज को मैं ये बात समझा दूंगा तो दोषी मैं नहीं, आप माने जाएंगे ।” सिपाहियों को तुरन्त यह बात समझ आ गई, मगर अब करें भी तो क्या ?
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तभी उन्हें एक वृद्ध अपनी ओर आता दिखाई दिया । ”क्या बात है दरोगा जी-किस उलझन में फंसे हैं ।” दरोगा ने उस वृद्ध को जल्दी-जल्दी पूरी बात बताई तो वृद्ध बोला- ”आप व्यर्थ ही चिंतित हो रहे हैं । आप फौरन जाकर महाराज से कहें कि अपराधी को धरती निगल गई । बाकी कोई जिक्र आप लोग करना ही मत ।”
सिपाहियों की समझ में पूरी बात आ गई । वह वृद्ध और कोई नहीं तेनालीराम थे । उधर-किसी सूत्र से महाराज को उस व्यक्ति की हकीकत पता चल चुकी थी कि वह धूर्त और पाखण्डी था । महाराज का क्रोध भी अब चूंकि शान्त हो चुका था, इसलिए उन्हें तेनालीराम की बहुत याद आ रही थी और साथ ही दुख भी हो रहा था कि क्यों उन्होंने क्रोध में आकर ऐसा सख्त आदेश दिया ।
तभी वे दोनों सिपाही और वह बूढ़ा वहां हाजिर हुए तथा बताया कि महाराज अपराधी को धरती निगल गई । सुनते ही महाराज खुशी से उछल पड़े: ”वाह-वाह! हम समझ गए कि तेनालीराम अपनी बुद्धि से बच निकला है, ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है-तुम लोग हालांकि दण्ड के अधिकारी हो, किन्तु तेनालीराम के जीवित बचने की खुशी में हम तुम्हें अभयदान देते हैं, मगर शर्त यह है कि तुम्हें कल तक तेनालीराम को हमारे समक्ष हाजिर करना होगा, अन्यथा तुम्हें कठोर दण्ड दिया जाएगा ।”
”महाराज की जय हो ।” तभी सिपाहियों के साथ आए बूढ़े ने अपना वेश उतार दिया और बोला: ”तेनालीराम हाजिर है ।” ”ओह! तेनालीराम…।” महाराज ने उसे गले से लगा लिया: ”हम अपने फैसले पर बहुत पछता रहे थे ।” उनसे जलने वाले दरबारी एक बार फिर मन मारकर रह गए कि कमीना इस बार तो मृत्यु को ही धोखा देकर लौट आया ।
Story of Tenali Raman # 3. कर्ज का बोझ |
एक बार तेनालीराम की पत्नी बीमार पड गई तो तेनालीराम को उसके इलाज के लिए महाराज से हजार स्वर्ण मुद्राएं उधार लेनी पड़ी । खैर, उचित देखभाल और इलाज से उसकी पत्नी ठीक हो गई ।
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एक दिन महाराज ने तेनालीराम से कहा- ”तेनालीराम! अब हमारा कर्जा चुकाओ ।” तेनालीराम कर्ज की वह रकम देना नहीं चाहते थे । अत: हां-हूं और आज-कल करके बात को टाल रहे थे । एक बार महाराज ने उससे बड़ा ही सख्त तगादा कर दिया ।
महाराज जितना सख्त तगादा करते, तेनालीराम की कर्ज न देने की इच्छा दृढ़ होती जाती । एक दिन तेनालीराम ने सोचा कि राजा का कर्ज राजा के मुंह से ही माफ करवाऊंगा । दूसरे दिन ही महाराज के पास खबर आई की तेनालीराम बहुत सख्त बीमार हैं और अगर अंतिम समय में महाराज उसका चेहरा देखना चाहते हैं तो देख लें ।
महाराज फौरन उसके घर पहुंचे, देखा कि तेनालीराम बिस्तर पर पडे हैं और उनकी पत्नी और मां रो रही हैं । महाराज को देखते ही तेनाली की पत्नी बोली: ”महाराज यह बड़े कष्ट में हैं । इनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है । मगर कहते हैं कि जब तक मुझ पर राजा का उधार है, तब तक मेरे प्राण आसानी से नहीं निकलेंगे ।”
महाराज की आखें भर आईं । वे बोले: ”तेनालीराम! मुझे तुम्हारी मृत्यु का दुःख तो बहुत होगा । तुम्हारी कमी मेरे जीवन में कोई पूरी नहीं कर सकता, मगर मैं तुम्हें इस प्रकार कष्ट भोगते भी नहीं देख सकता-मैंने तुम्हारा कर्ज माफ किया तेनालीराम-सच तो यह है कि ये मुद्राएं मैं वापस लेना ही नहीं चाहता था, मैं तो कर्ज का तगादा कर-करके यह देखना चाहता था कि देखें इस कर्ज से तुम किस प्रकार मुक्ति पाते हो ।”
”फिर ठीक है महाराज!” तेनालीराम बिस्तर से उठ खड़े हुए । ”अरे…अरे तेनालीराम-तुम्हारी तबीयत…।” ”अब बिस्कूल ठीक है महाराज- दरअसल मैं तो आपके कर्ज के बोझ से मर रहा था, किन्तु अब जब आपने कर्ज माफ ही कर दिया है तो कैसा मरना-आप धन्य हैं महाराज, जो आपने मुझे असमय ही मरने से बचा लिया-मैं तो चाहता हूं कि मैं जन्म-जन्म आप जैसे कृपालु राजा की सेवा करता रहूं ।” ठगे हुए से महाराज उसका चेहरा देखते रह गए ।
Story of Tenali Raman # 4. रिवाज |
एक बार तेनालीराम और महाराज में बहस छिड़ गई कि लोग किसी की बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं या नहीं? तेनालीराम का कहना था कि लोगों को आसानी से बेवकूफ बनाकर अपनी बात मनवायी जा सकती है ।
महाराज का कहना था कि यह गलत है । लोग इतने मूर्ख नहीं कि किसी की बात पर भी आख मूंदकर विश्वास कर लें । महाराज ने कहा: ”तुम किसी से भी जो चाहो नहीं करवा सकते ।” ”क्षमा करें महाराज! मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं कि यदि आपमें योग्यता है तो आप सामने वाले से असम्भव से असम्भव कार्य भी करवा सकते हैं-बल्कि मै तो यहां तक कहूंगा कि यदि मैं चाहूं तो किसी से आप पर जूता भी फिंकवा सकता हूं ।”
”क्या कहा ?” महाराज ने आखें तरेरीं- ” हम तुम्हें चुनौती देते हैं तेनालीराम कि तुम ऐसा करके दिखाओ ।” ”मुझे आपकी चुनौती स्वीकार है महाराज!” तेनालीराम ने सिर झुकाया: ”किन्तु इसके लिए मुझे कुछ समय चाहिए ।” ”तुम जितना चाहो समय ले सकते हो ।” दृढ़ता से महाराज ने कहा ।
और उस दिन बात आई-गई हो गई । तेनालीराम और महाराज दोनों ही अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए । दो माह बाद महाराज कृष्णदेव राय ने कुर्ग प्रदेश के एक पहाड़ी सरदार की सुन्दर बेटी से अपना विवाह तय किया । पहाड़ी इलाके के सरदार को विवाह के समय महाराज के परिवार के रीति-रिवाजों का पता न था ।
उसने जब महाराज के सामने अपनी यह परेशानी रखी तो वे बोले: ”इस विषय में तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है-हमें केवल आपकी पुत्री चाहिए ।” परन्तु सरदार फिर भी न माना । वह अपनी इकलौती बेटी के विवाह में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखना चाहता था, अत: उसने चुपचाप तेनालीराम से सम्पर्क किया ।
तेनालीराम ने उसकी समस्या जानकर दिलासा दी कि आप चिन्ता न करें, मैं सभी रस्में अदा करवाने वहां उपस्थित रहूंगा । सरदार को बेहद प्रसन्नता हुई । मगर तेनालीराम ने उसे समझा दिया कि वह इसे बात का जिक्र किसी से न करे ।
तेनालीराम ने उससे कहा: ”महाराज कृष्णदेव राय के वंश में एक रिवाज यह भी है कि विवाह की सभी रस्में पूरी हो जाने पा दुल्हन अपने पांव से मखमल की जूती उतारकर सजा दा फेंकना बाद दूल्हा दुल्हन को अपने घर ले जाता है ।
मैं चाहता हूं कि लगे हाथों यह रस्म रस्म भी पूरी हो जाए, इसीलिए मैं गोवा के पुर्तगालियों से एक जोड़ा जूतियां भी ले आया हूं । पुर्तगालियों ने मुझे उनाग इ यह रिवाज तो यूरोप में भी है, लेकिन वहां चमड़े के जूते फेंके जाते हैं । हमारे यहां तो चमड़े की जुती की बात सोची भी नहीं जा सकती । हां, मखमल की जूती की बात कुछ और ही है । ”
”एक बार और सोच लें तेनालीराम जी-जूती तो जूती ही होती है, फिर चाहे वह मखमल को हो या चमड़े की । पत्नी द्वारा पति पर जूती फेंकना क्या उचित होगा?” सरदार ने शंकित लहजे में कहा: “हम तो बेटी वाले हैं, कहीं ऐसा न हो कि लेने के देने पड़ जाएं ।” ”देखिए साहब! विजय नगर के राजघराने में यह रस्म तो होती ही आई है ।
अब आप यदि इसे न करना चाहें तो कोई बात नहीं ।” ”नहीं-नहीं तेनालीराम जी! कोई भी रस्म अधूरी नहीं रहनी चाहिए यदि ऐसा हुआ तो ससुराल में बेटी को अपमानित होना पड़ सकता है । लाइए वह जूती मुझे दीजिए । मैं अपनी बेटी के विवाह में कोई कसर नहीं रखना चाहता ।”
विवाह की बाकी सभी रस्में पूरी हो चुकी थीं । महाराज को डोली की विदाई का इंतजार था । दुल्हन को बाहर लाकर दहेज के सामान के पास ही एक स्थान पर बैठा दिया गया था । अचानक दुल्हन ने अपने पांव से मखमल की जूती उतारी और मुस्कराते हुए महाराज पर फेंक मारी ।
महाराज की भृकुटि तन गई । वह क्रोध और अपमान से तिलमिलाकर उठना ही चाहते थे कि तभी पास बैठे तेनालीराम ने उनका हाथ दबा दिया और जल्दी से उनके कान के पास मुंह ले जाकर बोले: ”महाराज! क्रोध न करें और इन्हें क्षमा कर दें । ये सब मेरा किया धरा है ।”
”ओह!” महाराज को तुरन्त उस दिन की बात याद आ गई और वह मुस्करा दिए । फिर रानी की जूती उठाकर उनके करीब आए और जूती वापस दे दी । ”क्षमा करें महाराज! आपके वंश की रस्म अदा करने के लिए…।” ”कोई बात नहीं प्रिये-तेनालीराम हमें सब कुछ बता चुके हैं ।”
और फिर जब महल लौट आए तो तेनालीराम से मुखातिब होकर वे बोले: ”तुमने ठीक ही कहा था तेनालीराम-लोग किसी की भी बात पर विश्वास कर लेते हैं ।”
Story of Tenali Raman # 5. बाग की हवा दरबार में |
उन दिनों भीषण गर्मी पड़ रही थी । महाराज के दरबार तक में काफी उमस थी । सभी के शरीर पसीने से नहाए हुए थे । दरबारियों की तो कौन कहे, स्वयं महाराज पसीने से लथपथ थे । राजपुरोहित को कुछ ज्यादा ही गर्मी सता रही थी, अत: बोले: ”महाराज! सुबह-सवेरे की बाग की हवा कितनी शीतल और सुगंधित होती है ।
क्या ऐसी हवा दरबार में नहीं लायी जा सकती ?” ”वाह-वाह राजगुरु-गर्मी से छुटकारा पाने का उपाय तो उत्तम बताया है तुमने ।” महाराज खुश हो गए फिर दरबारियों से मुखातिब हुए: ”क्या आप लोगों में से कोई बाग की हवा दरबार में ला सकता हैं?” ‘राजगुरु ने भी क्या बकवास बात कही है ।’ सभी दरबारियों ने मन ही मन में सोचा और सिर झुका लिए ।
यह कार्य तो बिकुल असम्भव था । ”जो कोई भी बाग की हवा दरबार में लाएगा, उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं इनाम में दी जाएंगी ।” महाराज ने घोषणा की । इसी के साथ सभा बर्खास्त हो गई । सभी दरबारी सोच रहे थे कि यह कार्य तो बिस्कुल असम्भव है ।
कोई नहीं कर सकता । हवा कोई वाहन थोड़े ही है कि उसका रुख दरबार की ओर कर दिया जाए । एकत्रित करने वाली वस्तु भी नहीं कि सुबह एकत्रित कर लें और मनचाहे समय निकालकर प्रयोग कर लें । दूसरे दिन जब दरबारी सभा में आए तो सभी उत्सुकता से एक-दूसरे की ओर देखने लगे कि शायद कोई हवा लाया हो ।
उनकी सूरतें देखकर महाराज बोले: ”लगता है, हमारी ये इच्छा पूर्ण नहीं होगी ।” ”आप निराश क्यों होते हैं महाराज ।” तभी तेनालीराम अपने स्थान से उठकर बोले:’ “मेरे होते आपको तनिक भी निराश होने की आवश्यकता नहीं-मैं आपके लिए बाग की हवा को कैद करके ले आया हूं ।”
उसकी बात सुनकर महाराज सहित सभी दरबारी चौंक पड़े । महाराज ने पूछा: ”कहां है हवा ? उसे तुरन्त छोड़ो तेनालीराम ।” तेनालीराम को तो आज्ञा मिलने की देर थी, उसने फौरन बाहर खडे पांच व्यक्तियों को भीतर बुलाया और महाराज के गिर्द घेरा डलवा दिया । उनके हाथों में खस-खस और चमेली-गुलाब के फूलों से बने बड़े-बड़े पंखे थे जो इत्र जल आदि में भीगे हुए थे ।
तेनालीराम का इशारा पाते ही वे महाराज को पंखे झलने लगे । थोड़ी ही देर में पूरा दरबार महकने लगा । बड़े-बड़े पंखों की हवा होते ही महाराज को गर्मी से राहत मिली और उन्हें आनन्द आने लगा । मन ही मन में उन्होंने तेनालीराम की बुद्धि की सराहना की और बोले:
”तेनालीराम! तुम इंसान नहीं फरिश्ते हो-हर चीज हाजिर कर देते हो-इस राहत भरे कार्य के लिए हम तुम्हें एक नहीं, पांच हजार अशर्फियों का इनाम देने की घोषणा करते हैं तथा व्यवस्था मंत्री को आदेश दिया जाता है कि कल से दरबार में इसी प्रकार की हवा की व्यवस्था करे ।” ये पहला मौका था जब शत्रु-मित्र सभी दरबारियों ने तेनालीराम के सम्मान में तालियां बजाईं ।
Story of Tenali Raman # 6. बाढ़ पीड़ित फंड |
एक बार विजय नगर राज्य में भयंकर वर्षा हुई जिसके कारण पूरे राज्य में बाढ़ आ गई जिसने तबाही मचा डाली । अनेकों घर पानी में बह गए । हजारों पशु बाढ़ की भेंट चढ़ गए ।
इस विपदा की खबर राजा कृष्णदेव राय को मिली तो उन्होंने तुरन्त मंत्री को बुलाकर आदेश दिया: ”तुरन्त बाढ़ पीड़ितों की सहायता की जाए । उनकी चिकित्सा, खाने और रहने की व्यवस्था की जाए और इस कार्य के लिए जितने भी धन की आवश्यकता हो, वह राजकोष से अविलम्ब ले लिया जाए ।
नदी नालों पर पुल बनाएं जाएं तथा उसी प्रकार की और दूसरी व्यवस्था की जाए जिससे प्रजा को राहत मिले ।” मंत्री ने महाराज को आश्वासन दिया और राजकोष से तुरन्त भारी रकम निकलवाकर सहायता के कार्य में जुट गया । उस दिन के बाद से कई हफ्तों तक मंत्री जी राजधानी में दिखाई न दिए ।
महाराज व दूसरे लोग आश्वस्त थे कि मंत्री जी जोर-शोर से राहत कार्यों में जुटे हैं । उधर तेनालीराम भी अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं थे । करीब एक महीने बाद प्राकृतिक आपदा राहत मंत्री दरबार में पधारे और महाराज को राहत कार्य की रिपोर्ट देने लगे । अपने काम की उन्होंने खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा की ।
जब दरबार की कार्यवाही समाप्त हो गई तो सभी के जाने के बाद महाराज ने तेनालीराम से कहा: ”तेनालीराम! यह मंत्री काफी कर्मठ हैं । एक माह में ही बाढ़-पीड़ितों के दुख-दर्द दूर कर दिए ।” ”आप ठीक कहते हैं महाराज-क्यों न एक बार आप भी चलकर देख लें कि मंत्री जी ने कैसे और क्या-क्या प्रबंध किए हैं-प्रजा आपको अपने बीच देखेगी तो उनका काफी मनोबल बढ़ेगा ।”
”बात तो तुम्हारी ठीक है ।” महाराज ने फौरन सहमति दे दी । अगले ही दिन महाराज कृष्णदेव राय और तेनालीराम अपने-अपने घोड़ों पर सवार होकर बाढ़ग्रस्त क्षेत्र की ओर निकल गए । रास्ते में राजा का बाग था । उन्होंने देखा कि बाग के बहुत से कीमती वृक्ष कटे हुए हैं ।
”ये पेड़ किसने काटे हैं ।” ”महाराज! या तो तेज हवा से टूट गए होंगे या बाढ़ बहाकर ले गई होगी ।” चलते-चलते वे एक नाले पर जा पहुंचे । उस स्थान पर पुल के नाम पर कटे हुए पेड़ों के दो तने रखे थे । ”अरे! क्या इस मंत्री के बच्चे ने ऐसे ही पुल बनाए हैं । ये तने तो शाही बाग के पेड़ों के लगते हैं ।”
”महाराज! हो सकता है कि ये तने बाढ़ के पानी में बहकर स्वयं ही यहां आकर अटक गए हों । आगे चलिए आगे अवश्य ही मंत्री जी ने अच्छे पुलों का निर्माण कराया होगा ।” मगर सभी जगह वही हाल था । वे जैसे-तैसे एक गांव में जा पहुंचे । गांव का बहुत-सा भाग अभी खे पानी में डूबा हुआ था ।
जिस स्थान से बाढ़ का पानी निकल गया था, वहां गंदगी फैली थी । जगह-जगह मरे हुए जानवर सड़ रहे थे । जिसके कारण ऐसी दुर्गंध फैली हुई थी कि सांस लेना भी दूभर हो रहा था । लोग अभी तक पेड़ों पर मचान बनाकर रह रहे थे । खाने की कौन कहे, पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी ।
यह सब देखकर महाराज का खून खौल रहा था । उधर, तेनालीराम अलग आग में घी डाल रहे थे । ”देखिए महाराज! मंत्री जी ने इन लोगों को सदा के लिए पेड़ों पर बसा दिया है, अब चाहे कितनी भी बाढ़ आए इनका पांव भी गीला नहीं होगा । इससे बेहतर राहत कार्य और भला क्या हो सकता है ।”
“तेनालीराम-तुमने यहां लाकर हमारी औखें खोल दीं । इस मंत्री को हम ऐसा दण्ड देंगे कि जीवन भर याद रखेगा । चलो, तुरन्त वापस चलो ।” दूसरे दिन दरबार लगा, महाराज ने अपना आसन ग्रहण करते ही मंत्री को आड़े हाथों लिया और खूब फटकार लगाई, फिर बोले: ”राजकोष से जितना पैसा तुमने लिया है, अब उससे दोगुना तुम्हें इस कार्य पर खर्च करना होगा और इस काम में खर्च होने वाली एक-एक पाई का हिसाब तेनालीराम रखेंगे ।” महाराज का यह आदेश सुनते ही मंत्री महोदय का चेहरा लटक गया ।
Story of Tenali Raman # 7. उबासी की सजा |
एक दिन तेनालीराम को संदेश मिला कि रानी तिरुमलादेवी इस समय बड़े संकट में हैं और आपसे मिलना चाहती हैं । तेनालीराम तुरन्त रानी जी से मिलने गए । ”रानी जी! कैसे याद किया सेवक को ?” ”तेनालीराम जी! हम एक भारी मुसीबत में फंस गए हैं ।”
”मेरे होते आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें और मुझे बताएं कि क्या बात है ।” दिलासा पाकर रानी की औखें भर आईं । वे बोलीं: ”बात दरअसल ये है कि महाराज हमसे काफी नाराज हैं ।” ”किन्तु क्यों ? क्या हुआ था ?” ”एक दिन वह हमें अपना एक नाटक पढ़कर सुना रहे थे कि हमें उबासी आ गई, बस इसी बात पर महाराज नाराज होकर चले गए ।
तब से आज तक कई दिन हो गए हैं, महाराज ने इस तरफ का रुख ही नहीं किया । हालांकि इसमें मेरा कोई दोष नहीं था, फिर भी मैंने महाराज से माफी मांगी, पर महाराज पर कोई असर नहीं हुआ । अब तो तुम्हीं हमारी इस समस्या को हल कर सकते हो तेनालीराम ।”
”आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें । मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास करूँगा ।” महारानी को ढांढस बंधाकर तेनालीराम दरबार में जा पहुंचे । महाराज स्थ्य रेठे राज्य में चावल की खेती पर मंत्रियों से चर्चा कर रहे थे । ”चावल की उपज बढ़ाना बहुत आवश्यक है ।”
महाराज कह रहे थे: ”हमने बहुत प्रयत्न किए । हमारे प्रयत्नों से स्थिति में सुधार तो हुआ है, लेकिन समस्या पूरी तरह सुलझी नहीं है ।” ”महाराज!” तभी तेनालीराम ने चावल के बीजों में से एक-एक बीज उठाकर कहा: ”यदि इस किस्म का बीज बोया जाए तो इस साल उपज दुगनी-तिगुनी हो सकती है ।”
”अच्छा-क्या इस किस्म का बीज इसी खाद में हो जाएगा ?” ”हां महाराज! किसी प्रकार का और दूसरा प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नहीं है किन्तु…।” ”किन्तु क्या तेनालीराम ।” ”इसे बोने, सींचने और काटने वाला व्यक्ति ऐसा हो जिसे जीवन में कभी उबासी न आई हो और न कभी आए ।”
”तेनालीराम! तुम्हारे जैसा मूर्ख मैंने आज तक नहीं देखा ।” महाराज चिढ़ से गए: ”क्या संसार में ऐसा कोई व्यक्ति है जिसे कभी उबासी न आई हो ।” ”ओह! क्षमा करें महाराज! मुझे नहीं मालूम था कि उबासी सभी को आती है: मैं ही क्या, महारानी जी भी यही समझती हैं कि उबासीदृआना बहुत बड़ा जुर्म है: मैं अभी जाकर महारानी जी को भी बताता हूं ।”
अब महाराज की समझ में पूरी बात आ गई । वे समझ गए कि हमें रास्ते पर लाने के लिए ही तेनालीराम ने ऐसा कहा है । वे बोले: ”मैं स्वयं जाकर महारानी को बता दूंगा ।” महाराज तुरन्त महल में जाकर रानी जी से मिले और उनके सभी शिकवे समाप्त कर दिए ।
Story of Tenali Raman # 8. आधा हिस्सा |
एक बार नृत्य और संगीत का एक प्रसिद्ध कलाकार विजय नगर में आया । महाराज ने रानियों के देखने के लिए नृत्य दिखाए जाने का विशेष प्रबंध किया और सभी को यह आदेश दे दिया कि तेनालीराम को इस सम्बंध में कुछ न बताया जाए ।
इधर, जब तेनालीराम को इस विशेष आयोजन का पता चला तो वे भी राजमहल की ओर चल दिए । किन्तु द्वारपाल ने उन्हें बाहर ही रोक लिया: ”महाराज की आज्ञा है कि आपको भीतर प्रवेश न दिया जाए । क्षमा करें ।”
”किन्तु मुझे पता चला है कि महाराज की ऐसी कोई आज्ञा नहीं है: देखो, तुम भीतर जाने दो । वहां से मुझे जो इनाम मिलेगा, उसमें से आधा तुम्हारा ।” तेनालीराम ने द्वारपाल को लालच दिया । पहले तो द्वारपाल हिचकिचाया, फिर सोचा, ‘यदि बैठे-बिठाए आधा इनाम मिल जाए तो क्या बुराई है ।’
”ठीक है, लेकिन ध्यान रहे, जो कुछ मिलेगा, उसका आधा हिस्सा मैं लूंगा ।” ”ठीक है वादा रहा ।” कहकर वह उस द्वार से भीतर आ गया । अब दूसरा द्वार पार करना था । वहां भी द्वारपाल ने उसे रोका । तब तेनालीराम बोला: ”देखो, मुझे भीतर जाने दो, जो कुछ भी मुझे मिलेगा, उसका आधा हिस्सा तो बाहर का द्वारपाल ले लेगा-बाकी आधा तुम ले लेना ।”
”क्या बाहर वाले द्वारपाल से ऐसी शर्त तय हुई है ?” ”हां भई, तभी तो यहां तक पहुंचा हूं ।” ”ठीक है-मगर अपने कौल से मुकरना मत ।” ”ये तेनालीराम का वादा है भाई-हमारे वादे पर तो महाराज भी विश्वास कर लेते हैं ।” इस प्रकार उसे तसल्ली देकर तेनालीराम भीतर आ गए ।
वहां नाटक मण्डली द्वारा नृत्य और संगीत के माध्यम से कृष्ण की बाल लीला का मंचन हो रहा था । माखन चोरी, गोपियों की छेड़छाड़, सभी कुछ गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा था । एक व्यक्ति कृष्ण बना था । अचानक तेनालीराम को न जाने क्या सूझा कि पास ही पड़ा एक डंडा उठाकर कृष्ण बने कलाकार के सिर पर दे मारा ।
दर्द के मारे कलाकार चिल्लाने लगा । ”अरे महाशय! कृष्ण ने तो गोपियों और ग्वालबालों से न जाने कितनी चोटें खाई और उफ तक भी की- आपको भी इस मामूली प्रहार पर नहीं चिल्लाना चाहिए ।” लेकिन कलाकार पर तेनालीराम की बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह अपना सिर थाम कर ददँ से चिल्लाता रहा ।
ये देखकर महाराज को क्रोध आ गया । उन्होंने तुरन्त एक पुलिस अधिकारी को बुलाकर कहा: ”हमसे लगातार प्रशंसा और उपहार पाकर इसका दिमाग खराब हो गया है । आज इसे कुछ और ही इनाम दिया जाए । हमारी आज्ञा है कि इनाम में इसे दो सौ कोई मोर जाएं ।”
पुलिस अधिकारी ने फौरन तेनालीराम को थाम लिया और चला यातनाग्रह की ओर । ”ठहरिए महाराज! महाराज ने मुझे जो इनाम दिया है वह सिर आखों पर । किन्तु मेरा इनाम कुछ अन्य लोगों को बांट दिया जाए ।” ”क्या मतलब?” महाराज ने भी उसकी बात सुन ली थी: ”कोतवाल साहब! इसे इधर लाओ ।” कोतवाल उसे महाराज के सम्मुख ले गया ।
”अरे मूर्ख! तुझे इनाम में दो सौ कोड़े प्राप्त हुए हैं ।” आश्चर्य से महाराज ने पूछा: ”क्या हमारे राज्य में ऐसा भी मूर्खकोई है जो यह इनाम लेना चाहेगा ?” ”इस प्रकार के दो व्यक्ति तो आपके राजदरबार में ही हैं महाराज!” तेनालीराम ने बताया: ”वे दोनों बाहर के द्वारपाल हैं ।
उन्होंने इसी शर्त पर मुझे अन्दर आने दिया था कि हमें जो कुछ भी पुरस्कार प्राप्त होगा, वे दोनों आधा-आधा बांट लेंगे ।” महाराज ने तुरन्त द्वारपालों को बुलवाया । पूछताछ में तेनालीराम की बात सच निकली । महाराज की आज्ञा से उन लालचियों को न केवल सौ-सौ कोड़े मारे गए बल्कि नौकरी से भी हटा दिया गया ।
”महाराज! हमें इन कलाकारों के साथ-साथ अपने दरबार और राज्य के लालची कलाकारों का भी नाटक-कभी-कभी देखना चाहिए ।” महाराज ने खुश होकर तेनालीराम की पीठ ठोंकी और अपनी बगल में बैठाया । कलाकार पुन: अपनी प्रस्तुति देने लगे ।
Story of Tenali Raman # 9. अपमान का बदला |
बात उन दिनों की है जब तेनालीराम का विजय नगर के राजदरबार से कोई लेना-देना नहीं था । उन दिनों वे सोचा करते थे कि किसी प्रकार महाराज तक अपनी पहुंच बनाई जाए । मगर ये आसान नहीं था । इसी अभिलाषा को लेकर उन्होंने राज-गुरु तक अपनी पहुंच बनाई और उनकी बहुत सेवा की, मगर राजगुरु भी अपने किस्म का अकेला ही घाघ था ।
वह तेनालीराम से अपने सारे काम करवा लेता, मगर राजमहल की बात आती तो टाल जाता । इससे तेनालीराम काफी उखड़ा हुआ था । वह उसकी फितरत समझ गया कि इसने कभी मुझे महाराज तक नहीं पहुंचने देना है । अत: एक दिन उसने उसे सबक सिखाने का मन बना लिया ।
एक बार राजगुरु नदी पर नहाने गया । किनारे पर जाकर उसने वस्त्र उतारे और पानी में उतर गया । तेनालीराम उसके पीछे-पीछे था । वह वृक्ष की ओट में छिप गया और जैसे ही राजगुरु ने नाक बंद करके पानी में गोता लगाया, वैसे ही उसने उसके कपड़े उठा लिए और जाकर पेड़ के पीछे छिप गया ।
कुछ देर बाद जब राजगुरु नहाकर किनारे की ओर बढ़ा तो अपने कपड़े वहां न पाकर ठिठक गया । ”अरे यह कौन है?” वह चिल्लाया: ”मेरे वस्त्र किसने उठाए हैं? ओह! रामलिंग…मैंने तुम्हें देख लिया है उस वृक्ष के पीछे…अरे भई मजाक छोड़ो और मेरे वस्त्र दो… देखो, मैं तुम्हें महाराज तक अवश्य पहुंचाऊंगा ।”
तेनालीराम का असली नाम रामलिंग ही था । बाद में अपनी ननिहाल तेनाली में होने के कारण वह तेनालीराम कहलाए क्योंकि बचपन से लेकर जवानी तक का उनका समय अपनी ननिहाल में ही बीता था । ”तुम झूठे हो राजगुरु! आज तक तुम मुझे झूठे दिलासे देते रहे हो ।” वह बाहर आ गया ।
”इस बार मैं पक्का वादा करता हूं ।” ”वादा करो कि तुम मुझे कंधे पर बैठाकर इसी समय राजमहल लेकर चलोगे ।” ”कंधे पर बैठाकर?” राजगुरु क्रोधित हो उठा: “तुम पागल तो नहीं हो गए रामलिंग ।” ”हां, तुम्हारे झूठे आश्वासन पा-पाकर पागल ही हो गया हूं । बोलो, मेरी शर्त मंजूर है तो बोलो, वरना मैं चला अपने रास्ते पर ।”
”अरे नहीं-नहीं-मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है ।” हथियार डालते हुए राजगुरु बोला: ”लाओ मेरे वस्त्र दो ।” तेनालीराम ने उसके वस्त्र दे दिए । राजगुरु ने बाहर आकर जल्दी-जल्दी वस्त्र पहने, फिर उसे अपने कंधों पर बैठाकर महल की ओर चल दिया ।
जब राजगुरु नगर में पहुंचा तो लोग यह विचित्र दृश्य देखकर हैरान रह गए । लड़के सीटियां और तालियां बजाते उनके पीछे-पीछे चलने लगे । चारों ओर शोर मच गया: ”राजगुरु का जुलूस-देखो राजगुरु का जुलूस ।” राजगुरु अपने आपको ऐसा अपमानित महसूस कर रहा था, जैसे भरे बाजार में वह नंगा चला जा रहा हो ।
धीरे-धीरे ये काफिला राजमहल के करीब पहुंच गया । महाराज अपने कक्ष में बैठे थे । शोर सुनकर वे बाहर बरामदे में आए फिर बुर्ज में आकर नीचे का नजारा देखने लगे । उन्होंने देखा कि राजगुरु एक व्यक्ति को कंधे पर उठाए लिए चले आ रहे हैं, लज्जा से उनका सिर झुका हुआ है और शरीर पसीने-पसीने हो रहा है । पीछे आते लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं और कंधे परं बैठा व्यक्ति हंस रहा है ।
राजगुरु का ऐसा अपमान देखकर महाराज को बेहद क्रोध आया । उन्होंने अपने दो अंगरक्षकों को आदेश दिया कि जो व्यक्ति दूसरे के कधों पर बैठा है, उसे नीचे गिरा दो और मुक्कों लातों से खूब पिटाई करके छोड़ दो । मगर दूसरे व्यक्ति को सम्मान सहित हमारे पास ले आओ ।
राजगुरु तो महाराज को नहीं देख पाया, मगर तेनालीराम ने देख लिया कि उनकी ओर इशारा करके महाराज अपने अंगरक्षकों से कुछ कह रहे हैं । बस तेनालीराम को समझते देर नहीं लगी कि दाल में कुछ काला है । वह झट राजगुरु के कंधे से उतरा और क्षमा मांगने लगा ।
क्षमा-याचना करके उसने राजगुरु को अपने कंधे पर उठा लिया और उनकी जय-जयकार करने लगा । तभी राजा के अंगरक्षक वहां आए । उन्होंने राजगुरु को तेनालीराम के कंधे से नीचे गिरा लिया और बुरी तरह उनकी पिटाई करने लगे । बेचारा राजगुरु पीड़ा अएएर अपमान से चीखने लगा । सैनिकों ने उसकी खूब पिटाई की, फिर तेनालीराम से बोले: ”आइए, आपको महाराज ने बुलाया है ।”
राजगुरु हैरान था कि यह सब क्या हुआ । अंगरक्षक तेनालीराम को लेकर महाराज के पास पहुंचे तो उसे देखकर महाराज भी बौखलाए: ”यह किसे ले आए । हमने कहा था कि ऊपर वाले की पिटाई करें और नीचे वाले को ले आएं ।” ”ये नीचे वाले ही हैं महाराज! वो पाजी इनके कंधों पर बैठा था ।”
”ओह! इसका मतलब यह व्यक्ति बहुत चालाक है । इसने पहले ही अंदाजा लगा लिया था कि क्या हो सकता है । इसे ले जाकर मौत के घाट उतार दो । इसने राजगुरु का अपमान किया है ।” क्रोधावेग में महाराज बोले जा रहे थे: ”और हां, इसके खून से सनी तलवार सरदार को दिखा देना ।”
उस समय तक वहां कुछ दरबारी भी आ गए थे । वे ऊपर से तो गंभीर थे, लेकिन मन ही मन में खुश हो रहे थे कि इस युवक ने राजगुरु की अच्छी दुर्गति की । जब सैनिक तेनालीराम को लेकर चले तो कुछ दरबारी खामोशी से उसके पीछे हो लिए । एक स्थान पर जाकर उन्होंने असली कारण पूछा तो उन्हें लगा कि तेनालीराम निर्दोष है ।
उसे किसी प्रकार राजदरबार में लाया जाए ताकि उन्हें राजगुरु और दूसरे बेइमान दरबारियों को सबक सिखाने का अवसर मिले । उन्होंने तेनालीराम से दोनों सैनिकों को दस-दस स्वर्ण मुद्राएं दिलवा कर और इस वादे के साथ उसे छुड़वा लिया कि वह शहर छोड़कर चला जाएगा ।
सिपाहियों ने तबेले में जाकर एक बकरे को हलाल करके अपनी खून से रंगी तलवारें सरदार को दिखा दीं । तेनालीराम को जहां जान बचने की खुशी थी, वहीं बीस स्वर्ण मुद्राओं के जाने का दुख भी था । मगर वह भी इस प्रकार चुप बैठने वाला नहीं था । उसने अपने घर जाकर अपनी मां और पत्नी को सिखा-पढ़ाकर महल में भेज दिया ।
दोनों सास-बहू महाराज के पास जाकर फूट-फूटकर रोने लगीं । ”क्या बात है ? तुम कौन हो और यहां आकर इस प्रकार क्यों रो रही हो ?” ”महाराज! एक छोटे से अपराध के, लिए आपने मेरे बेटे रामलिंग को मृत्युदण्ड दे दिया । उसके इस दुनिया से चले जाने के बाद अब मैं किसके सहारे जीऊंगी कौन होगा मेरे बुढ़ापेका सहारा ?” कहकर उसकी मां सिसक-सिसक कर रोने लगी ।
”और मेरे इन मासूम बच्चों का क्या होगा महाराज: मैं अबला इन बच्चों और इस बूढ़ी सास का पेट कैसे पालूंगी ।” महाराज को फौरन अपनी गलतीका एहसास हुआ कि उस छोटी सी भूल की उसे इतनी बड़ी सजा नहीं देनी चाहिए थी । अब हो भी क्या सकता था ।
उन्होंने आज्ञा दी : ”इन्हें हर माह दस स्वर्ण मुद्राएं दी जाएं जिससे ये अपना व बच्चों का पेट पाल सकें ।” दस स्वर्ण मुद्राएं तत्काल? लेकर दोनों सास-बहू घर पहुंचीं और तेनालीराम को पूरी बात बताई । तेनालीराम खूब हसा : “चलो, दस स्वर्ण मुद्राएं अगले माह मिल जाएंगी-हिसाब बराबर ।”
Story of Tenali Raman # 10. सबक |
एक बार विजय नगर में ऐसी भीषण गर्मी पड़ी कि नगर के सभी बाग-बगीचे सूख गए । नदियों और तालाबों का जल स्तर घट गया । तेनालीराम के घर के पिछवाड़े भी एक बड़ा बाग था, जो सूखता जा रहा था ? उसके बाग में एक कुआ था तो सही, मगर उसका पानी इतना नीचे चला गया था कि दो बाल्टी जल खींचने में ही नानी याद आ जाए ।
तेनालीराम को बाग की चिन्ता सताने लगी । एक शाम तेनालीराम अपने बेटे के साथ बाग का निरीक्षण कर रहा था और सोच रहा था कि सिंचाई के लिए मजदूर को लगाया जाए या नहीं, कि तभी उसकी नजर तीन-चार व्यक्तियों पर पड़ी जो सड़क के दूसरी पार एक वृक्ष के नीचे खड़े उसके मकान की ओर देख रहे थे । फिर एक-दूसरे से इशारे कर-करके वे कुछ कहने भी लगे ।
तेनालीराम को समझते देर नहीं लगी कि ये .धमार हैं और चोरी करने के इरादे से ही उसके मकान का मुआयना कर रहे हैं । तेनालीराम के मस्तिष्क में बाग की सिंचाई की तुरन्त एक युक्ति आ गई । उसने ऊंची आवाज में अपने पुत्र से कहा : ”बेटे! सूखे के दिन हैं ।
चोर-डाकू बहुत घूम रहे हैं । गहनों और अशर्फियों का वह संदूक घर में रखना ठीक नहीं-आओ, उस संदूक को उठाकर इस कुएं में डाल दें, ताकि कोई चुरा न सके । आखिर किसे पता चलेगा कि तेनालीराम का सारा धन इस कुएं में पड़ा है ।” यह बात तेनालीराम ने इतनी जोर से कही, जिससे दूर खड़े चोर भी स्पष्ट सुन लें ।
अपनी बात कहकर तेनालीराम ने बेटे का हाथ पकड़ा और मकान के भीतर चला गया । मन ही मन में वह कह रहा था: ‘आज इन चोरों को ढंग का कुछ काम करने का मौका मिलेगा । अपने बाग की सिंचाई भी हो जाएगी ।’ बाप-बेटे ने मिलकर एक सन्दूक में कंकर-पत्थर भरे और उसे उठीकर बाहर लाए फिर कुएं में फेंक दिया ।
‘छपाक’ की तेज आवाज के साथ ट्रंक पानी में चला गया । तेनालीराम फिर ऊंचे स्वर में बोला : ”अब हमारा धन सुरक्षित है ।” उधर घर के पिछवाड़े खड़े चोर मन ही मन मुस्कराए । ”लोग तो व्यर्थ ही तेनालीराम को चतुर कहते हैं । यह तो निरा मूर्ख है । इतना भी नहीं जानता कि दीवारों के भी कान होते हैं ।” एक चोर ने अपने साथी से कहा:
”आओ चलें, आज रात इसका सारा खजाना हमारे कब्जे में होगा ।” तेनालीराम अपने घर में चले गए और चोर अपने रास्ते । रात हुई । चोर आए और अपने काम में जुट गए । वे बाल्टी भर-भर कुएं से पानी निकलते और धरती पर उड़ेल देते । उधर, तेनालीराम और उसका पुत्र पानी को क्यारियों की और करने के लिए खुरपी से नालियां बनाने लगे ।
उन्हें पानी निकालते-निकालते सुबह के चार बज गए, तब कहीं जाकर संदूक का एक कोना दिखाई दिया । वस, फिर क्या था, उन्होंने कांटा डालकर संदूक बाहर खींचा और जल्दी से उसे खोला तो यह देखकर हक्के-बक्के रह गए कि उसमें पत्थर भरे थे ।
अब तो चोर सिर पर पैर रखकर भागे कि मूर्ख तो बन ही चुके हैं, अब कहीं पकड़े न जाएं । दूसरे दिन जब तेनालीराम ने यह बात महाराज को बताई तो वे खूब हंसे और बोले: ”कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मेहनत तो कोई करता है और फल कोई और ही खाता है ।”
Story of Tenali Raman # 11. तेनालीराम का न्याय |
एक बार नामदेव नामक एक व्यक्ति दरबार में आया और फरियाद की: ”अन्नदाता! मुझे न्याय चाहिए अन्नदाता-मेरे मालिक ने मेरे साथ विश्वासघात किया है ।” ”पहले तुम अपना परिचय दो और फिर बताओ कि क्या बात है ।” महाराज ने कहा ।
“मेरा नाम नामदेव है अन्नदाता-परसों सुबह मेरा मालिक अपने किसी काम से हवेली से निकला, चूंकि धूप बहुत तेज थी, इसलिए उसने कहा कि मैं छतरी लेकर उसके साथ चलूं । हम दोनों अभी पंचमुखी शिव मंदिर तक ही पहुंचे थे कि धूल भरी तेज आधी चलने लगी ।
हवा इतनी तेज थी कि छतरी तक संभालना भारी पड रहा था । मैंने मालिक से प्रार्थना की कि हम मंदिर के पिछवाड़े सायबान के नीचे रुक जाएं । मालिक ने मेरी बात मान ली और हम मंदिर के पिछवाड़े सायबान के नीचे जाकर खड़े हो गए ।”
”फिर…।” ”फिर महाराज, अचानक मेरी नजर सायबान के कोने में पड़ी लाल रंग की एक थैली पर पड़ी । मालिक से अनुमति लेकर मैंने उस पोटली को उठा लिया । खोला तो उसमें बेर के आकार के दो हीरे थे । महाराज! उन हीरों से हम दोनों की आखें चुंधिया गईं । हालांकि मंदिर में पाए जाने के कारण उन हीरों पर राज्य का अधिकार था किन्तु मेरे मालिक ने कहा कि रामदेव! तुम जुबान बंद रखने का वादा करो तो ये हीरे हम आपस में बांट लें ।”
”झूठ नहीं बोलूंगा महाराज! मेरे मन में भी लालच आ गया और मैंने मालिक की बात मान ली । मैं तो अपने ही मालिक की गुलामी से तंग आ चुका था, इसलिए सोचा कि उस हीरे को बेचकर कोई काम-धंधा कर लूंगा ।
मगर हवेली लौटकर मालिक ने मुझे मेरा हिस्सा देने से इन्कार कर दिया । मैं दो दिन तक उसे समझाता-बुझाता रहा, मगर वह टस से मस न हुआ, इसीलिए मुझे आपकी शरण में आना पड़ा है । हे महामहिम! आप तो साक्षात् धर्मराज हैं, अब आप ही मेरा न्याय कीजिए ।”
सम्राट कृष्णदेव राय ने तुरन्त नामदेव के मालिक को दरबार में बुलवाया और पूछताछ की तो मालिक बोला : ”महाराज! ये नामदेव एक नम्बर का बदमाश है, मक्कार है । महाराज! मेरे पास ईश्वर का दिया सब कुछ है ।
मैंने हीरे इसे देकर कहा कि जाओ, यह राज्य की सम्पत्ति है, इसे राजकोष में जमा करवा आओ, ये दोनों हीरे लेकर चला गया, फिर दो दिन बाद मैंने इससे रसीद मांगी तो ये आनाकानी करने लगा और मेरे धमकाने पर यहां चला आया-अब आपको इसने मालूम नहीं क्या कहानी गढ़कर सुनाई होगी ।”
”हूं ।” महाराज ने गहरी नजरों से देखा: ”क्या तुम सच कह रहे हो?” ”सोलह आने सच महाराज ।” “क्या वे हीरे तुमने इसे किसी के सामने दिए थे ।” ”मेरे तीन नौकर इस बात के गवाह हैं ।” गवाहों को पेश किया गया तो उन्होंने साफ-साफ स्वीकार किया कि मालिक ने हमारे सामने नामदेव को हीरे दिए थे ।
फिर महाराज ने उन सभी को वहां बैठने का आदेश दिया और स्वयं महामंत्री, सेनापति और तेनालीराम आदि के साथ विश्रामकक्ष में चले गए । ”आपकी इस मामले में क्या राय है मंत्री जी ?” ”मुझे तो नामदेव झूठ बोलता लग रहा है महाराज !” ”किन्तु हमें वो सच बोलता लग रहा है ।”
”मगर गवाहों पर भी गौर करें महाराज-गवाहों को कैसे झुठलाया जा सकता है ।” महाराज ने तेनालीराम की तरफ देखा : ”तुम क्या कहते हो तेनालीराम जी ?” ”महाराज! आप सब लोग उस पर्दे के पीछे बैठ जाएं तो राय दूं ।”
तेनालीराम की बात सुनकर महामंत्री और सेनापति दांत पीसने लगे, किन्तु महाराज को चुपचाप उठकर पर्दे के पीछे जाते देखकर उन्हें भी जाना पड़ा । अब एकांत पाकर तेनालीराम ने पहले गवाह को बुलाया: ”रामदेव को तुम्हारे मालिक ने हीरे तुम्हारे सामने दिए थे ?”
”जी हां ।” ”हीरे कैसे थे, किस रंग के थे और उनका आकार कैसा था-चित्र बनाकर समझाओ ।” तेनालीराम ने कागज कलम उसके सामने सरकाया तो वह सिटपिटा गया : ”हीरे लाल थैली में बंद थे, मैंने देखे नहीं थे ।” ”ठीक है, खामोशी से वहां खड़े हो जाओ ।” कहकर तेनालीराम ने दूसरे गवाह को बुलाया और उससे भी वैसे ही सवाल पूछे और चित्र बनानेके लिए कहा । दूसरे गवाह ने उल्टी-सीधी दो आकृतियां बनाकर रंग आदि बता दिए ।
फिर उसने तीसरे को बुलाया तो उसने कहा : ”हीरे भोजपत्र के कागज में लिपटे थे । आकृति और रंग तो मालूम नहीं ।” सभी गवाहों ने एक-दूसरे के सामने उत्तर दिए थे । अब उनके दिल जोर-जोर से धड़क रहे थे । तभी महाराज पर्दे के पीछे से निकले और क्रोधपूर्ण नजरों से उन्हें घूरने लगे ।
तीनों यह सोचकर कांप उठे कि उनका झूठ पकड़ा जा चुका है । इससे पहले कि महाराज कोई कठोर आज्ञा देते कि उन्होंने लपककर उनके पांव पकड़ लिए और गिड़गिड़ाते हुए बोले : ”हमें क्षमा कर दें महाराज! हम झूठी गवाही देने पर मजबूर थे । यदि हम ऐसा न करते तो वह मक्कार हमें नौकरी से निकाल देता ।”
अब सब कुछ साफ हो गया था । महाराज दरबार में आ गए । सिर झुकाए तीनों गवाह भी उनके पीछे-पीछे थे । नामदेव के मालिक के देवता कूच कर गए । महाराज ने आदेश दिया : ”इस धूर्त को गिरफ्तार करके इसके घर की तलाशी ली जाए ।”
हीरे बरामद हो गए । वे बड़े कीमती हीरे थे । महाराज ने हीरे तो जप्त किए ही, मालिक से दण्ड स्वरूप दस हजार स्वर्ण मुद्राएं नामदेव को दिलवाई तथा बीस हजार स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना भी मालिक पर किया । खुशी के मारे नामदेव दरबार में ही महाराज और तेनालीराम के जयकारे लगाने लगा । वास्तव में ही यह सब तेनालीराम की बुद्धि का कमाल था ।
Story of Tenali Raman # 12. रसगुल्ले की जड़ |
विजय नगर की समृद्धि का कारण वहां की व्यापार नीतियां थीं । हिन्दुस्तान में ही नहीं ईरान और बुखारा जैसे देशों से महाराज की व्यापार सन्धि थी । ऐसे ही व्यापार के सिलसिले में एक बार ईरान का व्यापारी मुबारक हुसैन विजय नगर की यात्रा पर आया ।
महाराज हष्णुदेव राय ने दिल खोलकर उसका स्वागत किया, फिर सम्मान सहित उसे राजमहल में ठहराया गया । कई सेवक उसकी सेवा में तैनात कर दिए गए । रात्रि भोजन के बाद एक दिन महाराज ने हुसैन के लिए चांदी की तश्तरी भरकर रसगुल्ले भेजे ।
महाराज इस इन्तजार में थे कि अभी सेवक वापस आकर कहेगा कि हुसैन को रसगुल्ले बड़े स्वादिष्ट लगे और उन्होंने इच्छा व्यक्त की है कि खाने के बाद उन्हें रोज रसगुल्ले भेजे जाएं । मगर सेवक वापस आया । रसगुल्लों से भरी तश्तरी उसके हाथों में थी । महाराज सहित सभी दरबारी उसकी सूरत देखने लगे ।
सेवक ने बताया : ”अन्नदाता! हुसैन ने एक भी रसगुल्ला नहीं खाया और यह कहकर वापस भेज दिया कि हमें रसगुल्लों की जड़ चाहिए ।” ”रसगुल्लों की जड़” महाराज एकाएक ही गम्भीर हो गए थे । अगले दिन दरबार में महाराज ने सभी दरबारियों के सामने अपनी समस्या रखी और बोले: ”कितने दुख की बात होगी यदि हम हुसैन की इच्छा पूरी न कर पाए ।
क्या आप लोगों में से कोई इस समस्या का समाधान कर सकता है ।” दरबारी तो इसी बात से हैरान थे कि आखिर रसगुल्लों की जड़ होती क्या है, वे भला समस्या का समाधान क्या करते । हिम्मत करके पुरोहित बोला : ”महाराज! ईरान में ऐसी कोई चीज होती होगी, मगर ये हिन्दुस्तान है ।
हमें उसे साफ-साफ बता देना चाहिए कि रसगुल्लों की कोई जड़ नहीं होती ।” ”कैसे नहीं होती जी ।” तभी तेनालीराम बोला: ”होती है और हमारे हिन्दुस्तान में ही होती है । कितने अफसोस की बात है कि सबसे अधिक रसगुल्ले खाने वाले पुरोहित जी को रसगुल्ले की जड़ का भी पता नहीं लगा ।”
राजपुरोहित किलसकर रह गए । महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम के चेहरे पर नजरें जमाकर कहा : ”तेनाली! हम हुसैन के सामने शर्मिन्दा नहीं होना चाहते : तुम इसी समय कहीं से भी रसगुल्लों की जड़ लाकर हुसैन के पास भेज दो ।”
तेनालीराम उठकर बोले : ”मैं अभी जाता हूं महाराज और रसगुल्ले की जड़ लेकर आता हूं ।” तेनालीराम चले गए और महाराज सहित सभी दरबारा उनको प्रतीक्षा में बैठे रहे । करीब एक घंटा बाद तेनालीराम वापस आया उसके हाथों में चांदी तश्तरी थी जिस पर कपड़ा ढका था । दरबारी हैरानी और उत्सुकता से उसे देखने लगे ।
”महाराज! रसगुल्ले की जड हाजिर है, फौरन मेहमान की सेवा में भेजी जाए ।” सारा दरबार हैरान था । सभी देखना चाहते थे कि ये क्या बला तेनालीराम उठा लाया जिसे रसगुल्ले की जड़ कह रहा है । उन्होंने उसे देखने की इच्छा जाहिर की, किन्तु तेनालीराम इंकार कर दिया : ”नहीं, पहले मेहमान, बाद में कोई और ।”
महाराज स्वयं रसगुल्लों की जड़ देखना चाहते थे । अत: उन्होंने एक मंत्री को आदेश दिया कि मेहमान को यहीं बुला लाएं । मंत्री स्वयं उसे लेने गया । हुसैन आ गया तो महाराज ने सेवक को इशारा किया । सेवक ने तेनालीराम के हाथ से तश्तरी लेकर मेहमान के आगे कर दी ।
”यह क्या है महाराज!” हुसैन ने पूछा । ”रसगुल्लों की जड़ ।” ”वाह-वाह!” चहककर फिरदौस ने तश्तरी पर से कपड़ा हटाया और उसमें रखी वस्तु को चखते हुए बोला: ”हिन्दुस्तान में यही वह चीज है जो ईरान में नहीं मिलती ।”
दरबारी फटी-फटी आखों से उस वस्तु को देख रहे थे । तश्तरी में छिले हुए गन्ने के छोटे-छोटे टुकड़े थे । और उस दिन सम्राट तेनालीराम से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपने गले की बेशकीमती माला उतारकर उसके गले में डाल दी । हुसैन ने भी खुश होकर उन्हें एक ईरानी कालीन भेंट किया ।
Story of Tenali Raman # 13. मैं मुर्गा बाकी मुर्गियां |
विजय नगर राज्य के वित्तीय नियमों के अनुसार व्यक्ति की व्यक्तिगत आय पर भी तन्यकर लगता था । जो जैसा ‘कर’ देता था, राज्य की ओर से उसे वैसी ही विशेष सुविधाएं दी जाती थीं । राजकीय प्रशस्ति में उसके नाम का उल्लेख होता था ।
तेनालीराम की आय की कोई सीमा ही नहीं थी क्योंकि अपनी प्रखर बुद्धि के कारण वह पुरस्कारों आदि से बहुत सा धन कमा लेता था । इसी कारण राजकीय प्रशस्ति में उसके नाम का जिक्र सबसे ऊपर होता था । प्रधानमंत्री, सेनापति या अन्य मंत्रियों के नामों का उल्लेख उसके बाद ही होता था ।
उसे सुविधाएं आदि भी इन सबसे अधिक मिलती थीं । यही कारण था कि बाकी सब लोग दिल ही दिल में उससे कुढ़ते थे । दरबार की कार्यवाही छ: दिन चलती थी । सातवें दिन महाराज बगीचों में बैठकर केवल दरबारियों की समस्याएं सुना करते थे ।
उस दिन भी वह खुले दरबार में बैठे दरबारियों की समस्याएं सुनकर उन पर अपने निर्णय दे रहे थे । आज तेनालीराम अनुपस्थित था । तभी एक मंत्री ने राज्य के आयकरदाताओं की प्रशस्ति सूची महाराज के सामने रखकर कहा: ”महाराज! इस सूची से स्पष्ट है कि तेनालीराम राज्य में सबसे अधिक आयकर देते हैं जबकि उनका वेतन हमसे कम है ।
सोचने की बात है महाराज कि इतना धन उनके पास आता कहां से है ।” ”यह तो मंत्रीजी ने बड़ी अच्छी बात उठाई है अन्नदाता ।” एक अन्य मंत्री बोला: ”दरबार के नियमों के अनुसार-दरबार से जुड़ा कोई भी सदस्य, जो दरबार से वेतन पाता है, वह अन्य किसी तरीके से आय नहीं कर सकता-फिर तेनालीराम की इस ऊपरी आय का स्रोत क्या है ?”
राजपुरोहित भी भला ऐसे मौके पर कहां पीछे रहने वाला था, बोला : ”महाराज! दरबारी नियमों का पालन न करके अतिरिक्त धन कमाने के अपराध में उसे दण्ड मिलना ही चाहिए ।” बाकी बचे दरबारियों ने भी उनकी हां में हां मिलाई ।
महाराज के चेहरे पर गम्भीरता के भाव दिखाई देने लगे । मंत्री, सेनापति और पुरोहित ठीक कहते हैं, मगर इसके साथ ही महाराज ये भी जानते थे कि तेनालीराम की आय के साधन वे पुरस्कार हैं जो समय-समय पर उन्हें मिलते रहते हैं, किन्तु जिन कामों पर उसे पुरस्कार मिले हैं, वे काम भी तो उसके दरबारी कर्त्तव्यों में शामिल हैं और दरबारी कर्त्तव्यों का उसे निश्चित वेतन मिलता है ।
महाराज को मामला काफी उलझा हुआ लगा । सम्राट अपनी ओर से कोई तर्क इसलिए नहीं देना चाहते थे कि कहीं बाकी यबयैं ए न समझ लें कि वे तेनालीराम का पक्ष ले रहे हैं । अत: बोले : ”तेनालीराम को आने दें, तभी कोई निर्णय लिया जाएगा । आखिर आरोपी को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार है ।”
फिर एक सेवक को तेनालीराम के घर भेज दिया गया । कुछ ही देर बाद उन्होंने देखा कि कंधे पर एक बड़ा सा झोला लटकाए तेनालीराम सेवक के साथ चला आ रहा है । ”अन्नदाता की जय हो ।” ”तेनालीराम! आज तुम अभी तक कहां थे?”
”क्या बताऊं अन्नदाता!” रुआसी सी सूरत बनाकर तेनालीराम बोला: ”मैं तो बड़ी दुविधा में फंस गया हूं ।” कहकर उसने झोले में हाथ डाला और एक मोटा-ताजा मुर्गा बाहर निकाला । ”यह क्या-मुर्गा-इसे झोले में डाले कहां घूम रहे हो ?” ”महाराज! यही दुष्ट तो मेरी दुविधा का कारण है ।” दुखी स्वर में तेनालीराम ने
कहा : ”महाराज, आपकी दुआ से मेरे पास पन्द्रह मुर्गियां हैं और एक ये इकलौता मुर्गा है । कुल मिलाकर ये सोलह प्राणी हुए और एक छटांक प्रत्येक के हिसाब से मैं सोलह छटांक दाना रोजाना दड़बे में डालता हूं । मगर यह दुष्ट अकेला ही चार-पांच छटांक दाना गटक जाता है और मेरी मुर्गियां भूखी रह जाती हैं । महारत आप ही इसका फैसला करें और इस दुष्ट को सजा दें । ”
महाराज हंस पड़े : ”अरे भई तेनालीराम! इसमें भला इसका क्या दोष है । यह अधिक चुस्न-दुस्थ्य है इसलिए ये अपने हिस्से से चार-पांव गुना अधिक दाना खा जाता है, अपनी क्षमता के हिसाब से इम मिलना ही चाहिए । बल्कि दण्ड के अधिकारी तो तुम हो जो इसे इसकी शारीरिक क्षमता से कम देते हो ।”
महाराज की बात सुनकर सभी दरबारियों ने उनकी हां में हां मिलाई । तेनालीराम ने मुर्गे को वापस झोले में रख लिया । ”खैर! अब आप यह बताएं महाराज कि सेवक को कैसे याद किया?” महाराज ने उसे बैठने का संकेत किया, फिर आयकरदाताओं की सूची उसके सामने रखकर बोले: ”तेनालीराम! तुम प्रधानमंत्री, सेनापति और पुरोहित जी से कम वेतन पाते हो, मगर आयकर इन सबसे अधिक देते हो ।
हम जानना चाहते हैं कि तुम्हारी अतिरिक्त आय का स्रोत क्या है ?” तेनालीराम शान्त बैठा रहा । ”महाराज!” कुछ देर बाद शांत भाव से वह बोला: ”आप यूं समझें कि जैसे मेरे मुर्गे को होती है-समझ लें कि आपकी मुर्गियों में मैं अकेला मुर्गा हूं ।”
तेनालीराम की बात सुनकर न केवल महाराज बल्कि दरबारी गण भी हंस पड़े । मुर्गे की मिसाल देकर तेनालीराम ने सारी बात समाप्त कर दी थी । इसी के साथ सभा समाप्त हो गई । सभी के जाने के बाद महाराज ने तेनालीराम से पूछा : ”तुम्हें कैसे पता चला कि प्रधानमंत्री, सेनापति और पुरोहित ने तुम्हारे खिलाफ शिकायत की है जो तुम मुर्गा लिए चले आए ?” ”इस काम के लिए आपने अपने खास सेवक को जो भेजा था ।” महाराज मुस्कराकर रह गए ।
Story of Tenali Raman # 14. जाड़े की मिठाई
सर्दियों का मौसम था । महाराज, तेनालीराम और राजपुरोहित राजमहल के उद्यान में बैठे धूप सेंक रहे थे । अचानक महाराज बोले : ”सर्दियों का मौसम सबसे अच्छा होता है, खूब खाओ और सेहत बनाओ ।” खाने-पीने की बात सुनकर पुरोहित जी के मुंह में पानी आ गया ।
वे बोले : ”महाराज! सर्दियों में मेवा और मिठाई खाने का अपना अलग ही आनन्द है-वाह क्या मजा आता है ।” ”अच्छा बताओ ।” एकाएक महाराज ने पूछा: ”जाड़े की सबसे अच्छी मिठाई कौन सी है?” ”एक थोड़ी है महाराज! हलवा, माल-पुए पिस्ते की बर्फी ।” पुरोहित जी ने इस उम्मीद में ढेरों चीजें गिनवा दीं कि महाराज कुछ तो मंगवाएंगे ही ।
महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा : ”तुम बताओ तेनालीराम-तुम्हें जाड़े के मौसम की कौन सी मिठाई पसँद है ?” ”जो मिठाई मुझे पसंद है, वह यहां नहीं मिलती महाराज ।” ”फिर कहां मिलती है?” महाराज ने उत्सुकता से पूछा: ”और उस मिठाई का नाम क्या है?”
”नाम पूछकर क्या करेंगे महाराज: आप आज रात को मेरे साथ चलें तो वह बढ़िया मिठाई मैं आपको खिलवा भी सकता हूं ।” ”हम अवश्य चलेंगे ।” और फिर-रात होने पर वे साधारण वेश धारण करके तेनालीराम के साथ चल दिए ।
चलते-चलते तीनों एक गाँव में निकल आए । गांव पार करके खेत थे । ”अरे भई तेनालीराम! और कितनी दूर चलोगे?” ”बस महाराज! समझिए पहुँच ही गए । वो सामने देखिए अलाव जलाए कुछ लोग जहां बैठे हैं, वहीं मिलेगी वह मिठाई ।”
कुछ देर में वे वहाँ पहुँच गए जहाँ कुछ लोग अलाव जलाए बैठे हाथ ताप रहे थे । क्योंकि तीनों ने ही वेश बदला हुआ और ऊपर से अँधेरा था, इसलिए कोई उन्हे पहचान ही नहीं पाया । वे भी उन्हीं लोगों के साथ बैठकर हाथ तापने लगे ।
पास ही एक कोल था जिसमें गन्तीं की पिराई चल रही थी । तेनालीराम ने उन्हें बैठाया और कोल्ड की ओर चले गए । एक ओर बड़े-बड़े कढ़ाहों में रस पक रहा था । तेनालीराम ने किसान से बात की और तीन पत्तलों में गर्मा-गर्म गुड़ ले आए ।
”लो महाराज: खाओ मिठाई ।” तेनाली बोला: ”ये हें जाड़े को महाराज ने गर्मा-गर्म गुड खाया तो उन्हें बड़ा स्वादिष्ट लगा । ”वाह! ”वे बोले: ”यहां अंधेरे में ये मिठाई कहां से मिली ?” ”महाराज! ये हमारी धरती में पैदा होती है : क्यों पुरोहित जी! कैसी लगी गर्मा-गर्मा मिठाई ?”
राजपुरोहित ने भी कभी गर्म-गर्म बनता हुआ गुड नहीं खाया था । वे बोले : ”मिठाई तो वाकई बड़ी स्वादिष्ट है ।” ”ये गुड़ है महाराज ।” “गुड़?” महाराज चौके: ”ये कैसा गुड़ है भई-गर्मा-गर्म और स्वादिष्ट ।” ”ये गर्मा-गर्म है, इसलिए आपको और अधिक स्वादिष्ट लग रहा है ।
महाराज! वास्तव में सर्दियों की मेवा तो गर्मी है : ”रसगुल्ले बड़े स्वादिष्ट होते है, मगर सर्दियों में आपको इतने स्वादिष्ट नहीं लगेंगे ।” ”वाह तेनालीराम-मान गए ।” महाराज ने तेनालीराम की पीठ ठोंकी ।
Story of Tenali Raman # 15. रंगे हाथ पकड़े गए |
यह मुहावरा सदियों से चला आ रहा है : ”रंगे हाथों पकड़े जाना ।” आखिर ये मुहावरा कब और कैसे बना ? हमारा खयाल है कि इस घटना के बाद ही यह बना होगा-एक दिन दरबार की कार्यवाही चल रही थी कि नगर सेठ वहां उपस्थित होकर दुहाई देने लगा : ”महाराज! मैं मर गया…बरबाद हो गया-कल रात चोर मेरी तिजोरी का ताला तोड़कर सारा धन चुराकर ले गए । हाय…मैं लुट गया ।”
महाराज ने तुरन्त कोतवाल को तलब किया और इस घटना के बारे में पूछा । कोतवाल ने बताया : ”महाराज! हम कार्यवाही कर रहे हैं मगर चोरों का कोई सुराग नहीं मिला है ।” ”जैसे भी हो, वो शीघ्र ही पकड़ा जाना चाहिए ।” महाराज ने कोतवाल को हिदायत देकर सेठ से कहा : ”सेठ जी आप निश्चित रहे-शीघ्र ही चोर को पकड़ लिया जाएगा ।”
आश्वासन पाकर सेठ चला गया । उसी रात चोरों ने एक अन्य धनवान व्यक्ति के घर चोरी कर ली । पुलिस की लाख मुस्तैदी के बाद भी चोर पकड़े न जा सके । और उसके बाद तो जैसे वहां चोरियों की बाढ़ सी आ गई । कभी कहीं चोरी हो जाती कभी कहीं ।
सभी चोरियां अमीर-उमरावों के यहाँ हो रही थीं । हर बार चोर साफ बचकर निकल जाते । शिकायतें सुन-सुनकर महाराज परेशान हो उठे । उन्होंने एक दिन क्रोध में अपने दरबारियों को खूब लताड़ा : ”क्या आप लोग यहां हमारी शक्ल देखने के लिए बैठे हैं-क्या कोई भी दरबारी चोर को पकड़ने की युक्ति नहीं सुझा सकता ।”
सभी दरबारी चुप बैठे रहे । क्या करें ? जब कोतवाल जैसा अनुभवी व्यक्ति चोरों को नहीं पकड़ पा रहा तो कोई दरबारी भला कैसे पकड़ सकता था । किन्तु तेनालीराम को बात खटक गई । वह अपने स्थान से उठकर बोला : ” महाराज! मैं पकड़ेगा इस चोर को ।”
उसी दिन तेनालीराम शहर के प्रमुख जौहरी की दुकान पर गया । उससे कुछ बातें कीं, फिर अपने घर आ गया । अगले ही दिन जौहरी की ओर से एक प्रदर्शनी की मुनादी कराई गई जिसमें वह अपने सबसे कीमती आभूषणों और हीरों को प्रदर्शित करेगा । प्रदर्शनी लगी और लोग उसे देखने के लिए टूट पड़े ।
एक से बढ़कर एक कीमती हीरे और हीरों के आभूषण प्रदर्शित किए गए थे । रात को जौहरी ने सारे आभूषण व हीरे एक तिजोरी में बंद करके ताला लगा दिया जैसा कि होना ही था-रात को चोर आ धमके । ताला तोड़कर उन्होंने सारे आभूषण और हीरे एक थैली में भरे और चलते बने ।
इधर चोर दुकान से बाहर निकले, उधर जौहरी ने शोर मचा दिया । देखते ही देखते पूरे क्षेत्र में जाग हो गई । चोर माल इधर-उधर डालकर लोगों की भीड़ में शामिल हो गए । मगर तभी सिपाहियों की टुकड़ी के साथ तेनालीराम वहां पहुंच गए और सिपाहियों ने पूरे क्षेत्र की नाकेबंदी कर ली ।
तेनालीराम ने कहा : ”सब की तलाशी लेने की आवश्यकता नहीं है, जिनके हाथ और वस्त्र रंगे हुए हैं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए वे ही चोर हैं ।” और इस प्रकार आनन-फानन में चोर पकड़े गए । अगले दिन उन्हें दरबार में पेश किया गया । महाराज ने देखा कि चोरों के हाथ और वस्त्र लाल रंग में रंगे हुए हैं ।
”इनके हाथों पर ये रंग कैसा है तेनालीराम ।” ”महाराज! तिजोरी में माल रख ने से पहले उसे लाल रंग से रंगा गया था-इसी कारण इनके हाथ रंगे हुए हैं । इसी को कहते हैं, चोरी करते रंगे हाथों पकड़ना ।” ”वाह!” महाराज तेनालीराम की प्रशंसा किए बिना न रह सके, फिर उन्होंने चोरों को आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया ताकि वे जीवन में फिर कभी चोरी न कर सकें ।
Story of Tenali Raman # 16. अपराधी बकरी |
एक बार महाराज कृष्णदेव राय ने अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान सुनहरी फूलवाला एक पौधा देखा । वह फूल उन्हें इतना पसंद आया कि लौटते समय उसका एक पौधा वह अपने बगीचे के लिए भी ले आए ।
विजय नगर वापस आकर उन्होंने माली को बुलाया और सुनहरे फूल वाला पौधा उसे सौंपकर बोले : ”इसे बगीचे में हमारे शयन कक्ष की खिड़की के ठीक सामने रोप दो । ध्यान रहे, इसकी देखभाल तुम्हें अपनी जान की भांति करनी है । यदि पौधा नष्ट हुआ तो तुम भी अपने जीवन से हाथ धो-बैठोगे ।”
माली पौधा लेकर चला गया । फिर बड़ी ही सावधानी से उसने वह पौधा निश्चित स्थान पर रोप दिया । वह उसकी देखभाल भी बड़े मन से करता । नियमपूर्वक सींचता । महाराज कृष्णदेव भी सुबह- शाम उसे अपनी खिड़की से देखते । वे माली की मेहनत से संतुष्ट थे ।
महाराज को तो उस पौधे से इतना लगाव हो गया था कि यदि किसी दिन उसे देखे बिना वह दरबार मैं चले जाते तो उस दिन उनका मन उखड़ा-उखड़ सा रहता । राजकाज के किसी भी कार्य में जैसे उनका मन ही नहीं लगता । एक दिन:
महाराज सोकर उठे और आदत के अनुसार उन्होंने खिड़की खोली तो यह देखकर स्तब्ध रह गए कि पौधा अपने स्थान पर नहीं था । वह परेशान हो उठे । उन्होंने फौरन माली को तलब किया । भय से थर-थर कांपता माली उनके सामने आ गया ।
”पौधा कहां है?” महाराज ने गरजकर पूछा । ”म…महाराज! उसे तो मेरी बकरी चर गई ।” महाराज के क्रोध का ठिकाना न रहा । उनकी आखें सुर्ख हो गईं और आवेश में आकर उन्होंने माली को प्राण दण्ड दे दिया । सैनिकों ने माली को तुरन्त बंदी बना लिया ।
”मूर्ख-लापरवाह-हमने कहा था कि उस पौधे की अपनी जान से भी अधिक हिफाजत करना: ऐसी हिफाजत की है-ले जाओ इसे हमारी नजरों के सामने से ।” सैनिक उसे लेकर कारागार की ओर चल दिए । थोड़ा दिन चढ़ते ही यह खबर पूरे राज्य में फैल गई कि राजमाली को मृत्युदण्ड दे दिया गया है ।
यह खबर माली की पत्नी तक भी पहुंची तो वह रोते-रोते राजदरबार में आई । किन्तु महाराज उस समय तक भी क्रोध में भरे बैठे थे, उन्होंने उसकी फरियाद सुनने से इकार कर दिया । अब वह अबला क्या करे ? किसी ने उसे तेनालीराम से मिलने की सलाह दी : ”तुम तुरन्त तेनालीराम के पास जाओ-यदि वे चाहेंगे तो तुम्हारे पति का बाल भी बांका नहीं होगा ।”
माली की पत्नी रोती-कलपती तेनालीराम के घर चल दी । वहां पहुंचकर उसने उन्हें सारी बात बताकर अपने पति के प्राणों की भीख मांगी । तेनालीराम ने सानना दी, फिर समझा-बुझाकर घर भेज दिया । अगले दिन सुबह-सुबह हम्फी में एक और हंगामा हुआ ।
माली की पत्नी बकरी को मजबूत रस्सी से बांधे नगर के हर चौराहे पर जाती…खूंटा गाड़कर उसे उससे बांधती, फिर हाथ में डंडा लेकर निर्दयता से उसकी पिटाई करती । बकरी अन्तर्नाद करती, इधर-उधर कूदती-फांदती । मगर मालिन का डंडा न रुकता ।
विजय नगर में पशुओं के प्रति निर्दयी व्यवहार पर प्रतिबंध था । लोग मालिन को रोकते कि वे ऐसा न करे, मगर वह किसी की न सुनती । वह तो जैसे पागल हो गई थी । उधर पिट-पिटकर बकरी भी अधमरी हो गई थी । उसके पांवों में खड़े रहने की भी शक्ति शेष न बची थी ।
कुछ लोगों ने बकरी की हालत से द्रवित होकर इसकी सूचना नगर कोतवाल को दे दी । कोतवाल सिपाहियों के साथ आया और बकरी सहित मालिन को पकड़कर ले गया । कोतवाल जानता था कि यह मसला माली के मृत्युदण्ड से जुड़ा है, अत: उसने मामले को राजदरबार में पेश करना ही उचित समझा ।
महाराज ने मालिन से पूछा : ”क्यों तुमने इस बेजुबान को इतनी बेरहमी से पीटा ।” ”अन्नदाता! जिस बकरी के कारण मैं विधवा होने वाली हूं-जिसके कारण मेरे बच्चे अनाथ होने वाले हैं-जिसने मेरे भरे-पूरे घर को उजाड़कर रख दिया हो, आप ही बताएं कि उस जीव के साथ मैं कैसा व्यवहार करूं ।”
”क्या मतलब?” उलझनपूर्ण लहजे में महाराज ने पूछा : ”इस निरीह पशु के कारण तुम विधवा हो रही हो । तुम्हारे बच्चे अनाथ हो रहे हैं-यह बात कुछ समझ में नहीं आई-विस्तार से बताओ ।” ”महाराज!” माली की पत्नी हाथ जोड़कर बोली : ”क्षमा करें, यह वही बकरी है जिसने आपका सुनहरी फूल वाला पौधा खाया है : अपराध इसने किया है, मगर सजा मेरे पति को मिल रही है-फूल इसने खाया और घर मेरा उजड़ रहा है ।
मांग मेरी सूनी हो रही है : अब आप ही बताएं कि आप जैसे न्यायशील राजा के राज्य में कोई इतना भयंकर अपराध करके भी सजा से बचा रहे, क्या यह उचित है : आखिर इसे इसके अपराध का दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं ?”
”ओह- ओह!” महाराज उसकी बात सुनकर सब कुछ समझ गए । मगर उनके चेहरे पर यह सोचकर आश्चर्य के चिन्ह उभर आए कि एक मामूली औरत इतनी बड़ी और सूझ-बूझ वाली बात कर रही है । ‘नहीं, इसके पीछे अवश्य ही किसी और का दिमाग है ।’
”हम तुम्हारे पति का दण्ड माफ करते हैं, किन्तु सच-सच बताओं कि यह सारा नाटक तुमने किसके कहने पर किया है ?” ”जी, तेनालीराम जी के ।” ”ओह तेनालीराम…तुम बड़े अजीब-अजीब तरीके अपनाकर हमारा ध्यान हमारे गलत निर्णयों की ओर आकर्षित करते हो ।” महाराज ने उसी समय तेनालीराम को पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार देने का ऐलान किया और उस निर्दोष माली की फांसी की सजा को भी स्थगित कर दिया ।
Story of Tenali Raman # 17. बैठो पीठ पर |
एक दिन महाराज कृष्णदेव राय की अंगूठी का बहुमूल्य हीरा महल में ही कहीं खो गया । महाराज बहुत परेशान हुए । उन्होंने तुरन्त महल के सेवकों और सैनिकों को हीरा खोने की बात बताई और आदेश दिया कि हीरा ढूंढने के लिए महल का कोना-कोना छान मारें ।
सैनिक-सेवक महल में हीरा तलाशने में जुट गए । वह हीरा महाराज को किसी पहुंचे हुए संत ने दिया था और कहा था कि जब तक यह हीरा तुम्हारे पास रहेगा, तुम शत्रुओं पर विन्धमाते रही, मगर आज हीरा खो गया तो महाराज के मस्तिष्क में तरह-तरह की शंकाएं उभरने लगीं ।
दोपहर तक जब हीरा न मिला तो उन्होंने बेचैन होकर घोषणा कर दी कि जो भी उस हीरे को ढूंढकर लाएगा, उसे मुंह मांगा पुरस्कार दिया जाएगा । महल में हीरे की खोज तो चल ही रही थी । संयोग से हीरा महल के जमादार को मिल गया ।
महाराज की तब कहीं जाकर सांस में सांस आई । उन्होंने जमादार से कहा : ”मांगो, क्या मांगते हो, हम तुम्हें मुंह मांगा इनाम देंगे ।” जमादार सोचने लगा कि क्या मांगे । उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया तो वह बोला : ”अन्नदाता! मुझे कल तक की मोहलत दें ।”
महाराज ने उसकी बात मान ली । उसी दिन मंत्री के दिमाग में एक खुराफात आई । उसने तुरन्त सेनापति को बुलाकर कहा : ”किसी भी तरह उस जमादार को फुसला-उसे कुछ धन देकर कहो कि कल वह सम्राट से तेनालीराम की पीठ पर बैठकर बाजार की सैर करने की इच्छा जाहिर करे ।
महाराज ने चूंकि मुंह मांगा इनाम देने की घोषणा की है, इसलिए इकार नहीं कर सकेंगे और इस प्रकार तेनालीराम का जुलूस निकलेगा ।” ”वाह-वाह, क्या बात कही है ।” सेनापति प्रसन्न हो उठा । उसने अपने कक्ष में जाकर तुरन्त जमादार को बुलाया ।
”तुम कल महाराज से क्या मांगोगे ?” ”समझ में नहीं आ रहा सेनापति जी कि क्या मांगू ।” सेनापति ने तुरन्त स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली उसकी ओर बढ़ा दी : ”ये लो, इसमें हजार स्वर्ण मुद्राएं हैं-तुम्हें महाराज से वही मांगना है जो हम कहें ।” ”क…क्या ?”
सेनापति ने उसे अपनी बात बताई । सुनकर जमादार डर गया । ”अगर हमारी बात नहीं मानोगे तो एक बात याद रखना कि जान से हाथ धो बैठोगे ।” भयभीत होकर जमादार ने हामी भर दी । दूसरे दिन महाराज ने उसे बुलाकर पूछा : ”बोलो, क्या मांगते हो ?” ”महाराज!” हाथ जोड़कर वह डरते-डरते बोला: ”मैं…मैं तेनालीराम जी की पीठ पर बैठकर बाजार घूमना चाहता हूं ।”
”क्या बकते हो?” महाराज दहाड़े: ”तुम होश में तो हो ।” ”मैं यही चाहता हूं महाराज ।” ”ठीक है, तुम जाओ और कल दरबार में हाजिर होना ।” महाराज क्या करते । वे वचन में बँधे हुए थे । मजबूरी थी, अत: मन मसोसकर उन्होंने तेनालीराम को बुलाया । महाराज ने सारी उलझन उन्हें बताई-फिर पूछा : ”हम तो बड़ी उलझन में फंस गए हैं तेनालीराम-तुम्हीं बताओ हम क्या करें ।”
”आप बिकुल, भी चिन्ता न करें महाराज!” तेनालीराम ने कहा: ”आपने क्या करना है, अब तो जो करना है, मैंने करना है । आप कल दरबार लगने दें-मैं सब ठीक कर दूंगा ।” दूसरे दिन दरबार लगा तो जमादार नए वस्त्र पहनकर दरबार में उपस्थित हुआ । वह गुमसुम था ।
तेनालीराम उठे और पूरे दरबार को सम्बोधित करके बोले : ”बन्धुओ! महाराज की अंगूठी का हीरा टूटने के एवज में जमादार ने मेरी पीठ पर बैठकर बाजार घूमने की इच्छा व्यक्त की है । मैं महाराज के वचन की लाज रखने के लिए इसे अपनी पीठ पर बैठाकर बाजार घुमाने ले जाऊँगा ।”
फिर वह जमादार से मुखातिब हुए : ”आओ, बैठो मेरी पीठ पर ।” सुनते ही जमादार आगे बढ़ा और तेनालीराम के गले में बाहें डालकर उनकी पीठ पर सवार होने लगा । ”ठहरो-ये क्या बेहूदगी है ।” तेनालीराम ने उसे डपटते हुए कहा: ”तुमने मेरी पीठ पर बैठकर सैर करने की बात कही थी-गले में हाथ डालने की नहीं-पीठ पर बैठो-बिना कुछ पकड़े ।”
क्षण भर में ही दरबार का माहौल बदल गया । मंत्री और सेनापति के दमकते चेहरे बुझ गए । जमादार अचकचाकर कभी महाराज की ओर देखता, कभी सेनापति की ओर । ”सोच क्या रहे हो-पीठ पर बैठते हो या नहीं ।” अचानक तेनालीराम ने कड़ककर पूछा ।
”बिना सहारे के पीठ पर कैसे बैठा जा सकता है ?” जमादार रुआंसा सा हो उठा । ”कैसे बैठा जा सकता है ? ये बात भी उससे पूछो जिसके कहने पर तुमने मेरी पीठ पर बैठकर सैर करने की बात कही थी ।” तेनालीराम गुर्राया ।
जमादार की नजर फौरन सेनापति की कुर्सी की ओर उठी । मगर वह वहां नहीं था । जमादार फूट-फूटकर रोने लगा, फिर लपककर उसने महाराज के पांव पकड़ लिए: ”मुझे क्षमा कर दें महाराज-मुझे जान से मारने की धमकी दी गई थी ।” कहते हुए उसने महाराज को पूरी बात बता दी ।
महाराज सेनापति की करतूत सुनकर आग-बबूला हो उठे- ”मंत्रीजी! हम पांच दिनों के लिए सेनापति को दरबार से मुअत्तल करते हैं । छठे दिन उन्हें दरबार में आकर पहले तेनालीराम से माफी मांगनी होगी, तभी वे अपना आसन ग्रहण कर सकते हैं ।” कहकर महाराज सिंहासन से उठ खड़े हुए जिसका अर्थ था कि दरबार की कार्यवाही समाप्त ।
Story of Tenali Raman # 18. दक्षिणा |
विजय नगर में एक अपाहिज और गरीब ब्राह्मण रहता था । चूंकि वह पैरों से अपाहिज था, इसलिए उसकी रोजी-रोटी का भी कोई ठिकाना न था । उसने कई बार महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में सहायता की गुहार की, किन्तु राजपुरोहित ने कभी उसकी बात को सिरे नहीं चढ़ने दिया । वह न जाने क्यों उससे जलता था ।
एक दिन किसी ने उसे सलाह दी कि तुम तेनालीराम के पास चले जाओ, वे तुम्हारे लिए अवश्य ही कुछ न कुछ करेंगे । तब साहस करके वह एक दिन तेनालीराम के पास जा पहुंचा और उसे पूरी बात बताई । तेनालीराम ने बड़ी गम्भीरता से उसकी बात सुनी । क्षणभर कुछ सोचा, फिर उसके कान में कोई बात कहकर उसे विदा कर दिया ।
उस दिन महाराज नर्मदा के दूसरे तट पर महर्षि आश्रम जाने वाले थे क्योंकि गुप्तचर की सूचना के अनुसार वहां कोई सिद्ध संत आने वाले थे । इस यात्रा पर तेनालीराम को भी जाना था । तेनालीराम इस यात्रा के लिए राजमहल जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि वह अपाहिज ब्राह्मण आ गया ।
उसे विदा करके तेनालीराम घर से निकले तो उन्हें याद आया कि यात्रा के लिए पानी का प्रबंध उन्हें ही करना है, क्योंकि उन दिनों गर्मी का मौसम था और भीषण गर्मी पड़ रही थी । अत: पानी का प्रबंध करते हुए तेनालीराम राजमहल जा पहुंचे । उनके जाते ही काफिला चल पड़ा । आश्रम की दूरी लगभग दस कोस थी ।
पांच-छ: कोस चलने के बाद महाराज ने पड़ाव डालने की आज्ञा दी । आमों के छायादार वृक्षों के नीचे पड़ाव डल गया । सभी ने हाथ-मुंह धोकर भोजन प्रारम्भ किया । अभी भोजन चल ही रहा था कि न जाने कैसे पानी की गोल (बड़ा ढोलनुमा घड़ा) लुढ़क गई और देखते ही देखते पीने का सारा पानी बह गया । अब?
सभी परेशान-सभी के हाथ-मुंह भोजन से सने थे । महाराज ने हुक्म दिया : ”फौरन पीने के पानी की तलाश की जाए ।” सारे सैनिक और दरबारी पानी की तलाश में इधर-उधर फैल गए । मगर वहां दूर-दूर तक पानी का नामी-निशान भी नहीं था ।
तभी एक दरबारी आकर बोला : ”महाराज! दक्षिण दिशा में एक कुटिया में ठंडे पानी से भरे छ: घड़े रखे हैं, किन्तु कुटिया खाली है ।” ”तो क्या हुआ?” प्यास से बेचैन एक मंत्री बोला: ”सम्राट के लिए पानी को कौन मना कर सकता है । अधिक होगा तो मूल्य चुका देंगे ।”
मंत्री की बात से सभी सहमत हो गए । वे सभी कुटिया पर गए और हाथ-मुंह धोकर पानी पीने ही लगे थे कि कुटिया का मालिक आ गया । पुरोहित ने उसे देखा तो चिढ़ गया । वह वही गरीब ब्राह्मण था जिसकी सहायता-याचना पर राजपुरोहित अड़ंगे लगाता था ।
वहां आकर वह हाथ जोड़कर राजदरबारियों को पानी पीते देखता रहा । जब सब पानी पी चुके तो मंत्री ने उस गरीब ब्राह्मण से कहा : ”हमें प्यास लगी थी, आसपास कहीं पानी न मिला तो तुम्हारा पानी पी लिया । इसका जो मूल्य चाहो ले लो । बोलो, क्या मूल्य लोगे ?”
गरीब ब्राह्मण कुछ बोलता, उससे पहले ही राजपुरोहित बोल पड़ा : ”इससे क्या पूछना, दो-चार टके दे दें ।” गरीब ब्राह्मण हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से महाराज कृष्णदेव राय से बोला : ”नहीं महाराज! मैं पानी का मूल्य नहीं चाहता । हां, पानी को प्रसाद समझकर आप इस गरीब ब्राह्मण को कुछ दक्षिणा देना चाहें तो आशीर्वाद देकर स्वीकार कर लूंगा ।”
महाराज ने मुस्कराकर तेनालीराम की ओर देखा, तब तेनालीराम ने कहा : ”यह गरीब ब्राह्मण ठीक ही कहता है महाराज । इस संकट की घड़ी में पानी का मिलना भगवान का प्रसाद मिलने के समान ही है । अत: प्रसाद की दक्षिणा भी राजकुल के अनुरूप ही होनी चाहिए ।”
महाराज ने तुरन्त अपने गले से मणिमाला उतारकर गरीब ब्राह्मण को दे दी । पुरोहित कसमसाकर रह गया । मंद मुस्कान होंठों पर बिखेरे तेनालीराम राजपुरोहित को कुढ़ते देखकर आनन्दित हो रहे थे ।
Story of Tenali Raman # 19. भैरव-छी |
एक बार किसी मुस्लिम रियासत का सुक्का नामक एक पहलवान विजय नगर में आ घुसा । वह सुबह-शाम नगर के मुख्य चौराहों पर लंगोट घुमाता और जब भीड़ इकट्ठी हो जाती तो ललकार कर कहता : ”है कोई विजय नगर में ऐसा जो सुक्का पहलवान से दो-दो हाथ करे-जीते तो सुक्का से गुलामी कराए, हारे तो सुक्का का गुलाम बने-है कोई ?”
सुक्का पहलवान, पहलवान क्या हाथी था । उसका भयंकर डील-डील और मजबूत पुरजे देखकर विजय नगर के किसी पहलवान की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उसकी चुनौती स्वीकार करे । जब कई दिन गुजर गए तो बात महाराज कृष्णदेव राय के कानों तक पहुंची । वे कुछ विचलित हो उठे ।
उन्होंने तुरन्त सेनापति को बुलाकर पूछा : ”क्या हमारे राज्य में ऐसा कोई पहलवान नहीं जो सुनका पहलवान का गरूर तोड़ सके ? राज्य की व्यायामशालाओं पर जो लाखों रुपया प्रति वर्ष खर्च होता है, वह व्यर्थ है क्या ?” सेनापति सिर झुकाए खड़ा रहा ।
वह बोलता भी क्या, वह तो स्वयं सुक्का पहलवान की शक्ति देख चुका था । वह पक्की ईंटों को दोनों हाथों से गाजर-मूली की तरह तोड़ देता था । पत्थर को नीबू की तरह मुट्ठी में मसल देता था । मजबूत से मजबूत दीवार में भी कंधे की ठोकर मार दे तो उसे धराशायी कर दे । ऐसा बली था ।
सेनापति को खामोश देखकर वे बोले : ”ये राज्य की प्रतिष्ठा का प्रश्न है । तुरन्त राजदरबारियों को मंत्रणा के लिए बुलाया जाए ।” राजदरबारियों की आपात बैठक हुई, मगर कोई ठोस परिणाम न निकल सका । राज्य में कोई ऐसा पहलवान नहीं था जो सुनका को हरा देता ।
”फिर क्या करें?” महाराज ने सभी दरबारियों के समक्ष निराशापूर्ण स्वर में कहा: ”क्या हार मान लें । उसे दरबार में बुलाकर उपहार आदि देकर सम्मानपूर्वक विदा करें कि तुम जैसा कोई पहलवान हमारे राज्य में नहीं ।” सारे दरबारी चुप ।
बल्कि महाराज की बात सुनकर अपना सिर और झुका लिया, मानो उनके निर्णय पर अपनी मौन स्वीकृति दै रहे हों । लेकिन तभी तेनालीराम बोला : ”नहीं महाराज! ऐसा नहीं होगा ।” आशापूर्ण नजरों से महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा । ”कौन लड़ेगा उससे…?”
”मैं लडुंगा ।” सीना ठोककर तेनालीराम ने कहा । ”रहने दो तेनालीराम ।” व्यंग्य से मुस्कराकर राजपुरोहित ने कहा: ”वह तुम्हारी चटनी बना देगा ।” ”हां तेनालीराम! यह मजाक की बात नहीं है ।” महाराज ने कहा : ”कहां सुनका पहलवान जैसा हाथी और कहां तुम-दुबले-पतले । कोई और उपाय सोचो ताकि इज्जत बच जाए ।”
”और कोई उपाय नहीं है ।” तेनालीराम ने कहा: ”कम से कम लोग ये तो नहीं कहेंगे कि विजय नगर में सुक्का की ललकार सुनकर कोई सामने नहीं आया । आप ऐलान करवा दें महाराज: आज से एक सप्ताह बाद मैं उससे जोर आजमाऊंगा ।” महाराज सोच में पड़ गए । फिर विवश होकर उन्हें स्वीकृति देनी ही पड़ी ।
मंत्री, सेनापति और पुरोहित मन ही मन बहुत खुश हुए कि चलो, तेनालीराम ने अपनी मौत को स्वयं ही दावत दे ली । अब इसका किस्सा तो खत्म ही समझो । और-अगले ही दिन विजय नगर में यह समाचार फैल गया कि तेनालीराम ने सुक्का पहलवान की चुनौती कुबूल कर ली है ।
सुनने वाले चकित रह गए । तेनालीराम के हितैषियों में तो घबराहट फैल गई । कुछ लोगों को तो सम्राट पर क्रोध भी आया कि इस बेमेल जोड़ी को उन्होंने अपनी स्वीकृति कैसे दे दी । कुछ लोग तेनालीराम को समझाने उसके घर भी गए ।
मगर वह घर पर मिला ही नहीं । पांचवें दिन विजय नगर में एक अफवाह और फैली कि तेनालीराम कृष्णा नदी के किनारे बने भैरव मंदिर में भैरव की साधना कर रहा है । यह अफवाह सुक्का ने भी सुनी तो वह कुछ डर खा गया । उसने सुन रखा था कि भैरव अथाह शक्ति वाले देवता हैं और जिस पर मेहरबान हो जाएं उसके दुश्मनों को रसातल में मिला देते हैं ।
बस, यह बात मन में आते ही उसे ढेरों आशंकाओं ने घेर लिया । उसके मन में आया कि जाकर देखा जाए कि तेनालीराम कैसी साधना कर रहा है । वह उसी रात लुकता-छिपता मंदिर जा पहुंचा । वहां जाकर उसने जो नजारा देखा, उस्ने देखकर उसके पसीने छूट गए ।
उसने देखा कि साक्षात् भैरव तेनालीराम को गोद में बैठाकर अपने हाथों से कुछ जड़ी-बूटी खिलाते हुए कह रहे थे : ”ले बेटा, खा, ये भैरव बूटी है । इसे खाने से तू ऐसी शक्ति का स्वामी बन जाएगा कि पहाड़ भी तेरे स्पर्श से थर्राने लगेगा-यदि तू किसी को ठोकर मार देगा तो सैकड़ों योजन दूर जाकर गिरेगा ।”
ये देखकर सुक्का पहलवान उल्टे पांव वहां से दौड़ लिया । वह अपने ठिकाने पर आया, अपना बोरिया-बिस्तर लपेटा और उसी क्षण विजय नगर से कूच कर गया । सातवें दिन जब सैनिक सुक्का पहलवान को बुलाने उसके ठिकाने पर गए तो पता चला कि वह तो दो दिन पहले ही विजय नगर से रफूचक्कर हो गया है ।
महाराज ने हैरत से तेनालीराम की ओर देखा तो उसने उन्हें पूरी बात बताई और कहा : ”महाराज! यदि अपने से अधिक शक्तिशाली को शिकस्त देनी हो तो ताकत से अधिक अक्ल से काम लेना चाहिए ।” महाराज ने भावावेश में तेनालीराम को सीने से लगा लिया और बोले : ”हमें तुम्हारी बुद्धि पर गर्व है तेनालीराम-तुम रत्न हो हमारे दरबार के ।”
Story of Tenali Raman # 20. शिल्पी की अद्भुत मांग |
जब महाराज कृष्णदेव राय पड़ोसी राज्य उड़ीसा पर विजय प्राप्त करके लौटे तो पूरे विजय नगर में हर्ष की लहर दौड़ गई । महाराज ने पूरे राज्य में विजयोत्सव मनाने का ऐलान कर दिया ।
दरबार में रोज ही नए-नए कलाकार आकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके महाराज से उपहार प्राप्त करते । महाराज के मन में आया कि इम अवसर पर विजय-स्तम्भ की स्थापना करवानी चाहिए । फौरन एक शिल्पी को ये कार्य सौंपा गया ।
जब विजय-स्तम्भ बनकर पूरा हुआ तो उसकी शोभा देखते ही बनती थी । शिल्प कला की वह अनूठी ही मिसाल था । जब विजय स्तम्भ बनकर पूरा हो गया तो महाराज ने प्रधान शिल्पी को दरबार में बुलाकर पारिश्रमिक देकर कहा : ”इसके अतिरिक्त तुम्हारी कला से प्रसन्न होकर हम तुम्हें और भी कुछ देना चाहते हैं, जो चाहो, सो मांग लो ।”
”अन्नदाता!” सिर झुकाकर प्रधान शिल्पी बोला: ”आपने मेरी कला की इतनी अधिक प्रशंसा की है कि अब मांगने को कुछ भी शेष नहीं बचा । बस, आपकी कृपा बनी रहे, मेरी यही अभिलाषा है ।” ”नहीं-नहीं-कुछ तो मांगना ही होगा ।” महाराज ने हठ पकड़ ली ।
दरबारी शिल्पी को समझाकर बोले : ”अरे भई! जब महाराज अपनी खुशी से तुम्हे पुरस्कार देना चाहते हैं, तो इकार क्यों करते हो-जो जी चाहे मांग लो, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते ।” मगर शिल्पकार बड़ा ही स्वाभिमानी था । पारिश्रमिक के अतिरिक्त और कुछ भी लेना उसके स्वभाव के विपरीत था । किन्तु सम्राट भी जिद पर अड़े थे ।
आज तेनालीराम उपस्थित नहीं थे, जो मामले का आसानी से निपटारा होता । जब शिल्पकार ने देखा कि महाराज मान ही नहीं रहे हैं तो उसने अपने औजारों का थैला खाली करके महाराज की ओर बढ़ा दिया और बोला : ”महाराज! यदि कुछ देना चाहते हैं तो मेरा यह थैला संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तुसे भरदे ।”
महाराज ने उसकी बात सुनकर मंत्री और फिर सेनापति की ओर देखा । सेनापति ने राजपुरोहित की ओर देखा । राजपुरोहित कुर्सी पर बैठे, सिर झुकाए अपने हाथ का नाखून कुतर रहे थे । पूरे राजदरबार पर नजरें घुमाने के बाद महाराज एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर रह गए ।
क्या दें इसे ? कौन सी चीज दुनिया में सबसे अनमोल है ? अचानक उन्होंने पूछा : ”क्या तुम्हारे थैले को हीरे-जवाहरातों से भर दिया जाए ?” ”हीरे-जवाहरातों से बहुमूल्य भी कोई वस्तु हो सकती है महाराज !” अब तो महाराज को क्रोध सा आने लगा । मगर वे क्रोध करते कैसे । उन्होंने स्वयं ही तो शिल्पकार से जिद की थी ।
अचानक महाराज को तेनालीराम की याद आई । उन्होंने तुरन्त एक सेवक को तेनालीराम को बुलाने भेजा । कुछ देर बाद ही तेनालीराम दरबार में हाजिर था । रास्ते में उसने सेवक से सारी बात मालूम कर ली थी कि क्या बात है और महाराज ने क्यों बुलाया है ।
तेनालीराम के आते ही महाराज ने पूछा : “तेनालीराम! संसार में सबसे बहुमूल्य वस्तु कौन सी है ?” ”यह लेने वाले पर निर्भर करता है महाराज!” कहकर तेनालीराम ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर पूछा: ”यहां किसे चाहिए संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु?”
”मुझे ।” शिल्पकार ने अपना झोला उठाकर कहा: ”मुझे चाहिए संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु ।” ”मिल जाएगी-झोला मेरे पास लाओ ।” शिल्पकार तेनालीराम की ओर बढ़ने लगा । हाल में गहरा सन्नाटा छा गया । सबकी सांसें जैसे रुक सी गई थीं । वे जानना और देखना चाहते थे कि संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु क्या है ।
तेनालीराम ने शिल्पी के हाथ से झोला लेकर उसका मुंह खोला और तीन-चार बार तेजी से ऊपर नीचे किया । फिर उसका मुंह बांधकर शिल्पकार को देकर बोला : ”लो, मैंने इसमें संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु भर दी है ।” शिल्पकार प्रसन्न हो उठा । उसने झोला उठाकर महाराज को प्रणाम किया और दरबार से चला गया ।
महाराज सहित सभी दरबारी हक्के-बक्के से थे कि तेनालीराम ने उसे ऐसी क्या चीज दी है जो वह इस कदर खुश होकर गया है । उसके जाते ही महाराज ने पूछा : ”तुमने झोले में तो कोई वस्तु भरी ही नहीं थी, फिर शिल्पकार चला कैसे गया ?”
”कृपानिधान!” तेनालीराम हाथ जोड़कर बोला: ”आपने देखा नहीं, मैंने उसके झोले में हवा भरी थी । हवा संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु है । उसके बिना संसार में कुछ संभव नहीं । उसके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता-न आग जले, न पानी बने ।
किसी कलाकार के लिए तो हवा का महत्त्व और भी अधिक है । कलाकार की कला को हवा न दी जाए तो कला और कलाकार दोनों ही दम तोड़ दें ।” ”वाह !” महाराज ने तेनालीराम की पीठ थपथपाई और अपने गले की बहुमूल्य माला उतार कर तेनालीराम के गले में डाल दी ।
Story of Tenali Raman # 21. भगवान का संदेश |
एक बार महाराज कृष्णदेव राय के मन में एक विशाल शिवालय बनवाने की इच्छा उपजी । उन्होंने मंत्री को बुलाकर आदेश दिया कि शिवालय के लिए कोई उपयुक्त स्थान खोजा जाए ।
इसके लिए मंत्री ने नगर के समीपवर्ती जंगल के एक भूखण्ड को चुना । तुरन्त ही उस स्थान की सफाई का कार्य प्रारम्भ हो गया । जब उस स्थान की सफाई की जाने लगी तो वहां किसी पुराने शिवालय के खण्डहर मिले, जिनकी खुदाई करने पर वहां से भगवान शंकर की सोने की एक आदमकद प्रतिमा मिली ।
सोने की उस ठोस मूर्ति को देखकर मंत्री के मन में लालच आ गया और उसने उसे उठवाकर चुपचाप अपने घर पहुंचवा दिया । वहां खुदाई करने वाले मजदूरों में तेनालीराम के आदमी भी थे । उन्होंने इस बात की इत्तिला तुरन्त ही तेनालीराम को दे दी । सुनकर तेनालीराम चुप रहा और मौके का इन्तजार करने लगा ।
उधर भूमि पूजन के बाद शिवालय का निर्माण कार्य शुरू हो गया । एक दिन दरबार लगा हुआ था, तभी महाराज ने एकाएक दरबारियों से पूछा कि भगवान की कैसी मूर्ति बनवायी जाए ? दरबारी अपनी-अपनी राय देने लगे । महाराज कुछ तय नहीं कर पाए और बात दूसरे दिन के लिए टल गई ।
दूसरे दिन जब दरबार लगा तो दरबार में एक जटाजूट धारी संन्यासी ने प्रवेश किया । महाराज ने सिंहासन से उठकर उनका स्वागत कर सम्मान सहित आसन दिया । “राजन !” सिंहासन पर न बैठकर संन्यासी बोले : ”मैं आपकी चिन्ता का निवारण करने भगवान शिव के आदेश पर यहां उपस्थित हुआ हूं और आपके लिए उनका संदेश लाया हूं ।”
”भगवान शिव का संदेश…।” महाराज रोमांचित से हो उठे: ”यथाशीघ्र बताएं ऋषिवर-कक्षा संदेश भेजा है भगवान शिव ने ?” ”राजन! मंदिर के लिए भगवान शंकर ने स्वयं अपनी स्वर्ण निर्मित आदमकद प्रतिमा भेज दी है और इस समय वह मंत्रीजी के घर पर रखी है । उसे वहां से उठवाकर मंदिर में प्रतिष्ठित कर दो ।”
”बम-बम भोले । ” कहकर साधु चला गया । महाराज ने मंत्री की ओर देखा, मंत्री तो पहले ही हकबकाया सा था कि उस साधु को प्रतिमा की बात कैसे पता चली? मगर अब चूंकि पोल खुल चुकी थी, अत: उसने स्वीकार किया कि प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई थी ।
तभी महाराज को कुछ ध्यान आया और उन्होंने दरबार में चारों तरफ नजर दौड़ाई, तेनालीराम वहां कहीं नहीं था । थोड़ी देर ही गुजरी थी कि तेनालीराम वहां आ गया । उसे देखकर सभी हंस पड़े । एक सभासद बोले : ”महाराज! शायद यही थे वे साधु बाबा । कपड़े ओर जटा तो उतार आए मगर कंठीमाला उतारनी भूल गए ।” एक बार फिर हंसी का ठहाका गूंजा । ”अब मंदिर निर्माण का कार्य तेनालीराम की देख-रेख में होगा ।” महाराज ने घोषणा की ।
Story of Tenali Raman # 22. कुएं का विवाह |
एक बार महाराज कृष्णदेव राय और तेनालीराम में किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई और तेनालीराम रूठकर कहीं चले गए । शुरू-शुरू में तो महाराज ने क्रोध में कोई ध्यान नहीं दिया, मगर जब आठ-दस दिन गुजर गए तो महाराज को बड़ा अजीब सा लगने लगा ।
उनका मन उदास हो गया । उन्हें कुछ चिन्ता भी हुई । उन्होंने तुरन्त सेवकों को उनकी खोज में भेजा । उन्होंने आसपास का पूरा क्षेत्र छान मारा, मगर तेनालीराम का कहीं पता न चला । महाराज सोचने लगे कि क्या करें ? अचानक उनके मस्तिष्क में एक युक्ति आई ।
उन्होंने आसपास और दूर-दराज के सभी गांवों में मुनादी करा दी कि महाराज अपने राजकीय कुएं का विवाह रचा रहे हैं अत: गांव के सभी मुखिया अपने-अपने गांव के कुओं को लेकर राजधानी पहुंचें, जो भी मुखिया इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे दण्ड स्वरूप बीस हजार स्वर्ण मुद्राएं जुर्माना देनी होंगी ।
यह ऐलान सुनकर सभी हैरान रह गए । भला कुएं भी कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं । कैसा पागलपन है । कहीं महाराज के दिमाग में कोई खराबी तो नहीं आ गई । जिस गांव में तेनालीराम भेष बदलकर रह रहा था, वहां भी यह घोषणा सुनाई दी । उस गांव का मुखिया भी काफी परेशान हुआ ।
तेनालीराम इस बात को सुनकर समझ गए कि उसे खोजने के लिए ही महाराज ने यह चाल चली है । उसने मुखिया को बुलाकर कहा : ”मुखिया जी, आप बिकुल चिन्ता न करें, आपने मुझे अपने गांव में आश्रय दिया है, अत: आपके इस उपकार का बदला मैं अवश्य ही चुकाऊंगा ।
मैं आपको एक तरकीब बताता हूं । आप आसपास के गांवों के मुखियाओं को एकत्रित करके राजधानी की ओर प्रस्थान करें ।” मुखिया ने आस-पास के गांवों के चार-पांच मुखिया एकत्रित किए और सभी राजधानी की ओर चल दिए । तेनालीराम उनके साथ ही था ।
राजधानी के बाहर पहुंचकर वे एक स्थान पर रुक गए । उनमें से एक को तेनालीराम ने मुखिया का संदेश लेकर राजदरबार में भेजा । वह व्यक्ति दरबार में पहुंचा और तेनालीराम के बताए अनुसार बोला : ”महाराज! हमारे गांव के कुएं विवाह में शामिल होने के लिए राजधानी के बाहर डेरा डाले हुए हैं । आप कृपा करके राजकीय कुएं को उनकी अगवानी के लिए भेजें ।”
महाराज उसकी बात सुनते ही उछल पड़े । उन्हें समझते देर नहीं लगी कि ये तेनालीराम की सूझबूझ है । उन्होंने तुरन्त पूछा : ”सच-सच बताओ कि तुम्हें ये युक्ति किसने बताई है ?” “महाराज ! कुछ दिन पहले हमारे गांव में एक परदेशी आकर ठहरा है, उसी ने हमें ये तरकीब बताई है ।”
”कहां है वह ?” ”मुखिया जी के साथ राजधानी के बाहर ही ठहरा हुआ है ।” महाराज स्वयं रथ पर चढ़कर राजधानी से बाहर गए और बड़ी धूमधाम से तेनालीराम को दरबार में वापस लाए । फिर गांव वालों को भी पुरस्कार देकर विदा किया ।
Story of Tenali Raman # 23. लालच नहीं स्वामी भक्ति |
एक बार महाराज कृष्णदेव राय ने किसी बात से प्रसन्न होकर तेनालीराम को परातभर स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं और साथ ही यह भी कह दिया कि तेनालीराम स्वयं इन स्वर्ण मुद्राओं से भरी परात को उठाकर दरबार से लेकर जाएंगे ।
स्वर्ण मुद्राओं से भरी वह परात काफी भारी थी । दरबारी मन ही मन हंस रहे थे कि आज बेचारे तेनालीराम का जुलूस निकलेगा, क्योंकि स्वर्ण मुद्राओं से भरी परात वह किसी भी सूरत में उठा नहीं पाएगा । तेनालीराम ने कोशिश की, मगर वह उस परात को हिला भी न पाया ।
अचानक उसे एक युक्ति सूझी, उसने अपनी पगड़ी खोलकर फर्श पर बिछाई और जितनी स्वर्ण मुद्राएं उसमें आ सकती थीं, भरकर उसकी एक पोटली बना ली । बाकी मुद्राएं उसने अपने कुर्ते की जेबों में भर लीं । फिर पोटली को उसने झोली की भांति पीठ पर लादा और परात उठाकर सिर पर रखी और बाहर की ओर चल दिया ।
उसकी सूझ-बूझ देखकर सभी दरबारी चकित रह गए । वे तो सोच रहे थे कि तेनालीराम का मजाक उड़ाएंगे, मगर हुआ उल्टा ही । तभी महाराज ने ताली बजाकर ‘वाह-वाह’ कहते हुए उसकी सूझबूझ की प्रशंसा की, उनका अभिनंदन करने के लिए जैसे ही तेनालीराम घूमा, वैसे ही उसकी जेब थोड़ी सी उधड़ गई और कुछ मुद्राएं बिखर गईं ।
तेनालीराम ने गठरी और परात एक ओर रखी तथा बैठकर स्वर्ण मुद्राएं उठाने लगा । ”कितना लालची है ।” अचानक पुरोहित ने चुटकी ली: ”एक परात स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं, फिर भी दो-चार के लिए परेशान हो रहा है ।” दरबारी भी मजा लेने लगे । कोई कहता : ”अरे देखो, एक उधर भी है, उधर कुर्सी के नीचे-उधर देखो, अपनी दाईं तरफ ।”
इसी प्रकार उससे जलने वाले दरबारी उसे नचा रहे थे । तभी मंत्री ने महाराज से फुसफुसाकर कहा : ”ऐसा लालची आदमी मनैं अपने जीवन में नहीं देखा ।” महाराज को भी दो-चार मुद्राओं के लिए तेनालीराम का इस प्रकार नाचना अच्छा न लगा । दरबारियों द्वारा उसका मजाक उड़ाते देख महाराज का मूड उखड़ सा गया और तनिक चिढ़कर वे बोले:
”अब बस भी करो तेनालीराम! इतना लालच भी अच्छा नहीं होता । क्या तुम्हें परातभर मुद्राओं में सन्तोष नहीं हुआ जो दो-चार मुद्राओं के लिए इतने व्याकुल हो रहे हो ।” ”बात वो नहीं है अन्नदाता जो सब लोग समझ रहे हैं ।” तेनालीराम हाथ जोड़कर बोला : ”दरअसल इन सभी स्वर्ण मुद्राओं पर आपका चित्र और नाम अंकित है : मैं नहीं चाहता कि ये किसी की ठोकरों में आएं या झाडख से बुहारी जाएं ।”
तेनालीराम का ये उत्तर मजाक उड़ाने वाले दरबारियों के गाल पर तमाचे की तरह जाकर लगा और अगले ही पल पूरे दरबार में सन्नाटा छा गया । महाराज पहले तो गम्भीर हुए मगर फिर एकाएक ही मुस्करा उठे और बोले : ”तेनालीराम की स्वामीभक्ति अद्भुत है । इन्हें एक परांत भर स्वर्ण मुद्राएं और दी जाएं तथा दोनों परातों की स्वर्ण मुद्राएं सावधानीपूर्वक इनके घर पहुंचाई जाएं ।”
Story of Tenali Raman # 24. मुंह न दिखाना |
एक बार महाराज कृष्णदेव राय किसी बात को लेकर तेनालीराम से नाराज हो गए । क्रोध में उन्होंने तेनालीराम से कह दिया कि कल दरबार में अपना मुंह मत दिखाना, यदि ऐसा किया तो भरे दरबार में कोई लगवाए जाएंगे ।
उस समय तो तेनालीराम चला गया । दूसरे दिन जब महाराज दरबार की ओर बढ़ रहे थे तभी एक चुगलखोर राजदरबारी ने उन्हें रास्ते में ही ये कहकर भड़का दिया कि तेनालीराम आपके आदेश के विरुद्ध दरबार में उपस्थित है और तरह-तरह की हरकतें करके सबको हंसा रहा है ।
बस, यह सुनते ही महाराज आग-बबूला हो गए : ”उसकी इतनी जुर्रत…।” ”बड़ा ही ढीठ है महाराज…।” उनके साथ-साथ चलते हुए चुगलखोर दरबारी बोला: ”आपने साफ-साफ कहा था कि दरबार में कोड़े पड़ेंगे, इसकी भी उसने कोई परवाह नहीं की: अब तो महाराज के हुक्य की भी अवहेलना करने लगा है ।”
जैसे-जैसे वह भड़काता जा रहा था, वैसे-वैसे महाराज के कदमों में तेजी आती जा रही थी । वे दरबार में पहुंचे । देखा कि सिर पर मिट्टी का एक घड़ा ओढ़े वह तरह-तरह की हरकतें कर रहा है । घड़े पर चारों ओर कुछ न कुछ बना हुआ था, कहीं जानवरों के मुंह, कहीं कुछ-कहीं कुछ । ”तेनालीराम! ये क्या बेहूदगी है ।”
क्रोध से थर-थर कांपते हुए महाराज बोले : ”तुमने हमारी आज्ञा का उल्लंघन किया है । दण्डस्वरूप कोड़े खाने को तैयार हो जाओ ।” ”मैंने कौन सी आपकी आज्ञा नहीं मानी महाराज?” घड़े में मुंह छिपाए-छिपाए ही तेनालीराम बोला: ”आपने कहा था कि कल मैं दरबार में अपना मुंह न दिखाऊं-क्या आपको मेरा मुंह दिख रहा है ।
हे भगवान! कहीं कुम्हार ने फूटा घड़ा तो नहीं दे दिया ।” यह सुनते ही महाराज की हंसी छूट गई । वे बोले : ”सच है, विदूषकों और पागलों पर नाराज होने का कोई भी लाभ नहीं: अब इस घड़े को हटाकर सीधी तरह अपना आसन ग्रहण करो ।”
Story of Tenali Raman # 25. शिकारी झाड़ियां |
ढलती हुई ठंड का सुहाना मौसम था । राजा कृष्णदेव राय वन-विहार के लिए नगर से बाहर डेरा डाले हुए थे । ऐसा हर वर्ष होता था । महाराज के साथ में कुछ दरबारी और सैनिक भी आए हुए थे ।
पूरे खेमे में खुशी का माहौल था । कभी गीत-संगीत की महफिल जमती तो कभी किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता । इसी प्रकार आमोद-प्रमोद में कई दिन गुजर गए । एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों से बोले : “वन-विहार को आए हैं तो शिकार जरूर करेंगे ।”
तुरंत शिकार की तैयारियां होने लगीं । कुछ देर बाद पूरा लाव-लश्कर शिकार के लिए निकल पड़ा । सभी अपने-अपने घोड़ों पर सवार थे । तेनालीराम भी जब उन सबके साथ चलने लगा तो एक मंत्री बोला : ”महाराज, तेनालीराम को साथ ले जाकर क्या करेंगे । यह तो अब बूढ़े हो गए हैं, इन्हें यहीं रहने दिया जाए ।
हमारे साथ चलेंगे तो बेचारे थक जाएंगे ।” मंत्री की बात सुनकर सारे दरबारी हंस पड़े लेकिन तेनालीराम चूंकि राजा के स्नेही थे, इसलिए उन्होंने तेनालीराम को भी अपने साथ ले लिया । थोड़ी देर का सफर तय करके सब लोग जंगल के बीचों-बीच पहुंच गए ।
तभी राजा कृष्णदेव राय को एक हष्ट-पुष्ट हिरन दिखाई दिया । राजा उसका पीछा करने लगे । सभी दरबारी भी उनके पीछे थे । पीछा करते-करते वे घने जंगल में पहुंच गए राजा घनी झाड़ियों के बीच बढ़ते जा रहे थे ।
एक जगह पर आकर उन्हें हिरन अपने बहुत ही पास दिखाई दिया तो उन्होंने निशाना साधा । घोड़ा अभी भी दौड़ता जा रहा था और महाराज कमान पर चढ़ा तीर छोड़ने ही वाले कि अचानक तेनालीराम जोर से चिल्लाया : ”रुक जाइए महाराज, इसके आगे जाना ठीक नहीं ।”
ADVERTISEMENTS:
राजा कृष्णदेव राय ने फौरन घोड़ा रोका । इतने में हिरन उनकी पहुंच से बाहर निकल गया । तेनालीराम के कारण हिरन को हाथ से निकलते देख महाराज को बहुत गुस्सा आया । वह तेनालीराम पर बरस पड़े, ”तेनालीराम! तुम्हारी वजह से हाथ में आया शिकार निकल गया ।”
मगर अचानक ही उन्हें कुछ याद आया और मंत्री से मुखातिब होकर वे बोले: ”मंत्री जी, इस पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखें तभी कुछ कहूंगा या बताऊंगा ।” मंत्रीजी पेड़ पर चढ़े तो उन्होंने एक विचित्र ही नजारा देखा । हिरन जंगली झाड़ियों के बीच फंसा जोर-जोर से चीख और उछल रहा था ।
उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था । ऐसा लगता था जैसे जंगली झाड़ियों ने उसे अपने पास खींच लिया हो । वह भरपूर जोर लगाकर झाड़ियों के चंगुल से छूटने की कोशिश कर रहा था । आखिरकार बड़ी मुश्किल से वह अपने आपको उन झाड़ियों से छुड़ाकर भाग लिया ।
मंत्री ने पेड़ से उतरकर यह सारी बात राजा को बताई । राजा यह सब सुनकर हैरान रह गए और बोले: ”तेनालीराम, यह सब क्या है ?” ”महाराज, यहां से आगे खतरनाक नरभक्षी झाड़ियां हैं । जिनके कांटे शरीर में चुभकर प्राणियों का खून पीने लगते हैं ।
जो जीव इनकी पकड़ में आया-वह अधमरा होकर ही इनसे छूटा । पेड़ से मंत्रीजी ने स्वयं हिरन का हश्र देख लिया, इसलिए मैंने आपको रोका था ।” अब राजा कृष्णदेव राय ने गर्व से मंत्री और दरबारियों की ओर देखा और कहा, ”देखा, तुम लोगों ने, तेनालीराम को साथ लाना क्यों जरूरी था ?” मंत्री और सारे दरबारी अपना-सा मुंह लेकर रह गए और एक दूसरे की ओर ताकने लगे ।