नारी के प्रति हमारा कर्त्तव्य पर निबंध | Essay on Our Duty Towards Women in Hindi!

भारत में नारी की स्तुति प्राचीनकाल से की जाती रही है ”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता,” इत्यादि के रूप में । यहाँ तक कि असुरों पर विजय प्राप्त करने हेतु भी देवताओं को नारी की शरण में जाना पड़ा था और देवी दुर्गा ने ही असुरों का सहार किया था ।

विद्या की देवी महासरस्वती, धन की देवी महालक्ष्मी और दुष्टों का नाश करने वाली महाकाली की आराधना की जाती है । आधुनिक काल में भारत की आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने पर्दा-प्रथा का त्याग कर देश को स्वतंत्रता दिलाने हेतु बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया ।

आजाद भारत में महिलाओं को वोट देने का समान अधिकार दिया गया । हम सब जानते हैं कि आज की महिला जीवन के किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से पीछे नहीं है । सर्वत्र अपनी विजय पताका फहरा रही है । माता-पिता ने भी समयानुसार आकाश छूने की आजादी दे दी है ।

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यह तो है महिला की तस्वीरों का एक पहलू । अब जरा दूसरे पहलू पर भी दृष्टि डालें । आज भी महिला शोषण का शिकार हो रही है । आश्चर्य की बात तो यह है कि यह शोषण अनपढ़, गाँव की महिलाओं के साथ ही नहीं, पड़ी लिखी, ऊँचे-ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ भी जारी है । फिर चाहे वह यौन शोषण हो, समाज द्वारा किया गया शोषण हो, अंधविश्वास के कारण हो या पुरूषों द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के कारण हो, महिलाएँ इसे सहने को अभिशप्त है ।

वैज्ञानिक शोधों को नकारते हुए संतानहीनता का दोष उसे ही भोगना पड़ता है । विधवा नारी को दी जाने वाली प्रताड़ना भले ही पहले जैसी कठोर न हो, पर वह एक सामान्य नारी न रहकर अशुभ का सूचक बन जाती है, इसलिए शुभ कार्यो में उसकी उपस्थिति वर्जित है । हालाँकि अब इस सोच में परिवर्तन आने लगा है, पर यदि वह निःसंतान है, तो परिवार के कार्यो में हाथ बंटाने के सिवाय उसका महत्त्व नही आंका जाता .

जब शहरों में ही महिलाएँ अपने अधिकारों से वंचित है, तो गाँवो में तो उनका दुःख दर्द बांटने वाला कोई नहीं । उसे प्रताड़ित करने हेतु नंगा घुमाना, बलात्कार का शिकार होना, डायन घोषित होना, चरित्रहीनता का लांछन सहन करना, मानों उसकी नियति ही है, पर पत्नी अपने सहकर्मी पुरूष के साथ खुलकर बात भी नहीं कर सकती । उसका साथ संदेह निगाहों से देखा जाता है क्योंकि भारतीय समाज में पुरूषों को सब कुछ क्षमा है, महिला को नहीं । उसे अपनी सीमा का हमेशा ध्यान रखना है ।

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वैसे सीमा का ध्यान तो सभी को रखना चाहिए । अपने-अपने आचरण की लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए । यदि व्यक्ति स्वयं अपनी मर्यादा का ध्यान रखता है, तो उसके आचरण पर शका करने की हिम्मत किसी की नहीं हो सकती ।

महिलाओं को ‘वस्तु’ समझने की गलती न की जाए, जैसे महाभारत काल में द्रौपदी को वस्तु की तरह जुए की दाव पर लगा दिया गया था । आज भी टीवी पर दिखाए जा रहे एक सीरियल में भी एक नवविवाहित युवक अपनी पत्नी को दांव पर लगा देता है और हार जाने पर उसकी पत्नी दूसरे पुरूष के पास जाने को बाध्य होती है । वस्तुत: ऐसा होता नहीं हैं कि आज की पढ़ी-लिखी जागृत कोई भी महिला अपने पति के द्वारा इस प्रकार दांव पर लग जाएगी । इसकी अपेक्षा वह तलाक देना पसंद करेगी ।

एक अन्य टीवी सीरियल ‘परिवार’ में एक पत्नी पैसों की खातिर अपने पति का सौदा अन्य स्त्री से कर देती है । दोनों सीरियल में पति-पत्नी इसे निभाते दिखाए जाते हैं । इस प्रकार के सीरियल परिवारों में किस मानसिकता का पाठ पड़ा रहे हैं? क्या भारत सरकार को इस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए कि सीरियल की भी सेन्सरशिप हो, जैसे फिल्मों की होती है । इस प्रकार के विचारों एवं दृश्यों पर सेन्सर की कैंची चलाई जाए और इसका दोषी भी उस मंत्रालय को माना जाए ।

आजकल आधुनिक नारी की पहचान उसके अधिक-से-अधिक निर्वस्त्र होने से आंकी जा रही है, उसकी बुद्धि के विकास से नहीं । नारी में माँ का रूप सर्वत्र श्रद्धा का पात्र माना जाता है । ‘जननी’ के रूप में वह ईश्वर तुल्य मानी जाती है, क्योंकि वह एक नवजीवन की रचना करती है । उसे अपनी ममता के आँचल में समेटे सारी कुरीतियों और बुराइयों से बचाने का प्रयास करती है । बचपन में उसमें संस्कार डालती है जो आजीवन उसके साथ रहते है । संस्कारविहीन व्यक्तित्व कैसा होता है, यह आज किसी से छुपा नहीं है ।

आधुनिकता के आकर्षण में कुछ माता-पिता अपने बच्चों को पुराण-पंथी नहीं बनाना चाहते । वे ‘आज के बच्चे हैं’ यह मानकर पहले जो संस्कारों की घुट्‌टी पिलाई जाती है वे उसे नही पिलाते और इसके परिणाम वे अपने जीवन में स्वयं भुगतते हैं । ‘माँ तो वह होती है जो बच्चों की मार खाकर भी सोचती है कि उससे बच्चे के हाथों में चोट तो नहीं आई? घर से निकाल दिए जाने पर भी कभी अपने बच्चे का बुरा नहीं सोचती, सब कुछ चुपचाप सहन करती है, पर इतना सहन करना भी ठीक नहीं ।

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पहले तो संस्कार न डालने की गलती से बच्चे माता-पिता का सम्मान नहीं करते फिर अपने बच्चों की बातों में आकर सबकुछ उनके नाम करने की गलती करते हैं, जिससे संस्कारविहीन बच्चें उसे अपने घर से ही निकाल देते हैं । व्यक्ति को अपने स्वाभिमान की रक्षा का ध्यान तो होना ही चाहिए ।

पत्नी को अर्द्धागिनी माना गया है । यहाँ तक कि उसके बिना कोई मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता । इसलिए श्रीराम को सीता की स्वर्ण मूर्ति बनवाकर यज्ञ हेतु अपने साथ रखनी पडी थी । गृहिणी के बिना घर नहीं होता । सच्ची पतिव्रता तो वह है, जो अपने पति की अच्छाईयों में उसका साथ दे और उसकी बुराइयों में उसका विरोध करें और उनमें छुटकारा दिलाने का कृत संकल्प हो ।

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परिवार में ‘बेटी’ और ‘बहन’ को भी सुख और दुःख का सामना करना पड़ता है । उन्हें भी कठिनाईयों से जूझना है । विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए । आजकल बेटों के दुर्व्यवहार से ग्रसित माँ-बाप की देखंभाल उनकी बेटियाँ करती हैं । बहनें भी ‘रक्षा बंधन’ बांधकर भले ही अपने भाईयों से रक्षा का आश्वासन लें, पर समय पडने पर अपने भाई को दूसरों के कुचक्रों से बचाने का प्रयास करें ।

नारी चाहे तो अपने परिवार को स्वर्ग बना सकती है या नरक । उसे यह ध्यान रखना है कि वह ही परिवार, समाज और देश का केन्द्र बिन्दु है । नैतिकता का परचम उसे ही फहराना है और बिगड़ते बच्चों, परिवारों को उसे ही सुधारना है ।

साथ ही अपने प्रति होने वाले अत्याचारों एवं अन्यायों के विरूद्ध एकजुट होकर आवाज उठानी है । अपनी शक्ति को पहचाना है और सुख, शांति पर निर्भर है । अत: यदि भविष्य उज्ज्वल करना हो, तो नारी का सम्मान करो ।

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