सार्थक या असार्थक पहल: महिला आरक्षण के संदर्श में (निबन्ध) |Necessary or Unnecessary Initiatives : Women’s Perspective in Hindi!

प्रस्तावना:

हमारे समाज में महिलाएं सदियों से घरों की चारदीवारी में कैद रही हैं, चलते दुनिया की तेज दौड़ में कदम से कदम मिलाकर चलने की उनकी शक्ति का हो चुका है । ऐसे में अत्यधिक आवश्यक हो जाता है कि उन्हें वे सभी विशेष सुविधाएं करायी जाएं, जिन्हें प्राप्त कर वे शक्ति एवं सामर्थ्य में पुरुषों के समकक्ष पहुँच जाएं । आरक्षण प्रस्ताव या विधेयक इसके प्रमाण हैं । इससे उन्हें अपनी कार्यक्षमता और योग्यता छपँ करने का सही अबसर मिलेगा ।

चिन्तनात्मक विकास:

यहाँ विचार के दो बिन्दु हमारे समक्ष हैं-एक समाज के और समग्र विकास का है, जिसमें महिलाओं को जन्म से ही व्यवक्या में अधिकार के पर वह सब उपलब्ध हो, जो उन्हें समाज में आधी-अधूरी नहीं, बल्कि पूरी भूमिका निभाने माहौल उपलब्ध कराये और दूसरा यह रास्ता है, जिसके अन्तर्गत निश्चित क्षेत्र, जाति, जैसे पैमानों के तहत एक थोपी हुई शर्तानुसार इधर-उधर से महिलाओं का चयन करके जबरन व्यवस्था में आरोपित करे ।

इन दोनों में से दूसरा रास्ता ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, और समाज से ज्यादा की मांग करने वाला है और ज्यादा कठिन है, लेकिन यह स्थायी वास्तविक रास्ता है । दूसरा रास्ता सीमित परिणाम देने वाला है, अप्राकृतिक प्रतिद्वंद्विता जन्म देने वाला हे, महिलाओं के विकास की दिशा को सीमाबद्ध करने वाला है और इस होने वाले महिला उत्थान को दुज्बी राजनीतिक की जकड़ में ले जाने वाला इसके सतही परिणाम प्रगतिपूर्ण दिख सकते हैं, लेकिन दूरगामी परिणाम नये सामाजिक संकटों का सूत्रपात भी कर सकते हैं ।

उपसंहार:

वस्तुत: महिलाओं का आरक्षण सम्बंधी मसला इस समय सामाजिक राजनीतिक अधिक है । वे अपने-अपने राजनीतिक आकाओं द्वारा तैयार किये गये अखाड़ों एक-दूसरे को पराजित करने की प्रतिद्वंद्विता में होंगी, समाज में मूलभूत बदलाव लाने के में नहीं । अत: यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महिलाओं को आरक्षण देने से समाज में असन्तुलन न उपजने पाये एवं विक्कोटक स्थिति उत्पन्न न हो जाये ।

प्रागैतिहासिक से लेकर अर्वाचीन भारत की मनीषा, मेधा, ऊर्जास्विता और शक्ति में आस्था रखने वाले देव पुरुषों को शायद यह बात भली न लगे, लेकिन क्रूर सच यही है कि समाज अपने मूल चरित्र में कायर और पलायनवादी समाज है । एक ऐसा समाज है, जो सामने खड़ी किसी समस्या या चुनौती का सीधा मुकाबला नहीं करना चाहता ।

यह हर प्रत्यक्ष मुठभेड़ से कन्नी काट जाता है और समस्या के निदान उपचार के लिए पतले तलाशने लगता है । आरक्षण का आविष्कार भी, चाहे वह जातियों के नाम पर हो, चाहे वह के झण्डे तले हो, या फिर महिलाओं के लिए हो, भारतीय चेतना की पलायनवादी प्रवृत्ति पर्याय है ।

जब हमें मूल समस्या के निराकरण के मूलगामी उपाय नहीं मिलते, मिलते हैं तो हम उन्हें आचरण में ढालने का साहस नहीं जुटा पाते तो हम आरक्षण जैसे तात्कालिक सामाजिक 163 की छतरी तले आ खड़े होते हैं । यहाँ चर्चा महिलाओं के लिए आरक्षण पर है ।

समाज में महिला अधिकारों की, पुरुष के साथ उसकी समानता की और मनुष्य समाज के हर क्षेत्र में उसकी भागीदारी की विश्वव्यापी चेतना के स्फुरण ने भारतीय समाज पर भी यह दबाव बनाया है कि वह भी इस दिशा में सक्रिय हों ।

इस सोच के पीछे मूल दृष्टि यह है कि महिलाएं आदिम कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं से मुक्त होकर अपनी क्षमताओं और अपनी रचनात्मक ऊर्जाओं का इस्तेमाल एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए कर सकें, जिसमें वे स्वयं किसी भी प्रकार के उत्पीडन, अन्याय और शोषण से मुका हों ।

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ऐसा वास्तव में तमी संभव हो सकता है, जबकि हमारा समूचा सामाजिक विकास इसी सोच के समान्तर चले क्योंकि ऐसा करना एक रूढ़ समाज की औरत सम्बंधी परम्परागत मान्यताओं को सर के बल खडा कर देना है, समाज की नारी चेतना को पुरुष और नारी दोनों ही स्तरों पर पूरी तरह उलट देना है, इसलिए हमने उस व्यापक दबाव से बचने के लिए बीच में से एक रास्ता खोज निकाला है ।

यह रास्ता है महिलाओं के लिए ‘आरक्षण’ । यह भारतीय समाज में महिला सम्बंधी वैचारिक द्वंद्व की ऐसी ही परिणति है । महिलाओं के लिए आरक्षण समय की मांग है समाज में नारी को जो हक मिल जाने चाहिए थे, वे अभी तक उसे नहीं मिल पाए हैं ।

महिलाओं के लिए आरक्षण की बात तो सभी पार्टियां करती हैं परन्तु सच्चाई यह है कि महिलाओं की संख्या, संसद या अन्य संस्थाओं में घटती जा रही है । आज समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रष्टाचार जिस प्रकार से अपनी जड़ें जमाता जा रहा है, उस माहौल में महिलाओं को संसद, विधानसभाओं आदि में 33 प्रतिशत आरक्षण देने की खबर से महिलाओं में उम्मीद की किरणें उदित हुई हैं ।

पिछले करीब एक दशक से विभिन्न पार्टियों की महिला नेताओं और महिला हकों के हिमायतियों की यह कोशिश रही है कि प्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी हो । महिलाएं भी देश के उन अहम मसलों पर अपनी राय रख सकें, जिन मूसलों पर उसकी सोच भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि पुरुषों की है ।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बार-बार इस मांग के बाद भी पुरुषसत्तात्मक पार्टियों की उम्मीदवार सूचीयों में महिलाओं का कड़ा दस प्रतिशत से अधिक नहीं बढ प्राया । आखिर जब हर चुनाव में महिला मत हासिल करने के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का आश्वासन ही हाथ आया तो महिलाओं ने इन आश्वासनों को कानूनन हासिल करने के लिए जंग छेड़ी ।

नतीजतन पिछले चुनावों में हर पार्टी को अपने-अपने घोषणापत्र में प्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई हिमायत की वकालत करनी पड़ी । लेकिन सवाल यह भी है कि क्या महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की जरूरत थी ? संसद में महिलाओं त्धी तादाद बढ़ा कर क्या उन्हें उच्चस्तरीय निर्णय प्रक्रिया में शामिल करने का मकसद पूरा हो पाएगा ? क्या जागरूक महिलाओं के लिए राजनीति के दरवाजे खुल पाएंगे ?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हर राजनीतिक सोच रखने वाले व्यक्ति के भीतर कुलबुला रहे हैं । हमारे अभी तक के अनुमव बताते हैं कि महिलाओं का राजनीति में अधिकतर इस्तेमाल या तो खानापूर्ति के लिए हुआ है या प्रतीकात्मक रूप में ।

लेकिन पर्याप्त प्रतिनिधित्व के परिप्रेक्ष्य में क्या पर्याप्त अगुआई भी हो पाएगी ? इसके लिए राजनीतिक पार्टियों सहित महिला संगठनों को क्या तैयारी करनी होगी ? लेकिन इन सवालों की तह तक पहुंचने से पहले यह साफ करना जरूरी है कि महिलाओं को राजनीतिक गलियारों में पहुंचने के लिए आरक्षण का ही सहारा क्यो लेना पड़ा ।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हमारे देश में जागरूक, शिक्षित, तार्किक और विचारसंपन्न महिलाओं की कमी नहीं । इनमें अधिकतर महिलाएं अच्छी क्षमतावान विधायक या सांसद्र बनकर शहर, प्रदेश या देश से जुडी समस्याओं को हल करने में बेहतर भूमिका निभा सकती हैं यही नहीं, देश की मुख्य नीतियों जैसे आर्थिक नीति, जनसंख्या नीति आदि को भी निर्धारित करने में भी उनके विचार और अनुभव महत्वपूर्ण हो सकते हैं ।

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लेकिन मौजूदा ग्यारहवीं लोकसभा तक इन महिलाओ का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला संसद सदस्यों की गिनती इतनी कम रही कि उनकी सलाह या मशविरा बहुसंख्यक पुरुष सांसदों की बहसों-कुबहसी में कोई जगह नहीं बना पाया । दूसरे, अल्पसख्यक होने की वजह से महिला सांसदों के विचारों में भी ज्यादा वजन नहीं आ पाया ।

हालांकि पुरुष और महिलांओं के वोटों का प्रतिशत अंतर घट कर दस प्रतिशत तक पहुंच गया है, लेकिन प्रतिनिधित्व में यह अंतर बढता ही जा रहा है । इस अंतर को पाटने के लिए अभी तक सीधे तौर पर विभिन्न पार्टी नेताओं पर दबाव डाला जाता रहा कि वे अपने उम्मीदवारों में महिलाओं की सख्या बढ़ाएं । लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ ।

डेढ़ दशक से भी अधिक समय तक देश की प्रधानमंत्री एक महिला होने के बावजूद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं बड़ी तो महिला नेताओं को महसूस होने लगा कि कोई रास्ता निकालना होगा । जो महिला नेता आरक्षण की विरोधी थीं, उन्हें भी महसूस ध्या कि प्रतीकात्मक ‘संरक्षणवाद’ को खत्म करने के लिए आरक्षण के जरिए ही अधिक महिलाओं के लिए राजनीति के दरवाजे खोलने होंगे ।

जैसे कि दिल्ली महिला आयोग् की अध्यक्ष कमला मनकेकर का मत है कि पहले मैं भी मानती थी कि आरक्षण की जरूरत नह ? है क्योंकि गांधीजी कहा करते थे कि आरक्षण की मांग मत करो, उससे थोड़ा मिलेगा, वरन् सीमा अनत है ।

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लेकिन जब संविधान में समान अधिकार मिलने के बाद भी सामाजिक-आर्थित् ढांचे में महिलाओं का स्थान दोयम ही रहा तो लगा कि कोई रास्ता बनाना होगा ताकि महिला अपने को बराबरी के स्तर पर ला सकें । आरक्षण वही रास्ता है ।

कमला मनकेकर के मुताबित् राजनीति मे महिलाओं की भागीदारी बढाने के लिए आारक्षण एक समाधान है, लेकिन साथ वे इस बात पर भी जोर देती है कि यही एक समाधान नहीं । चुनाव से पहले राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा बुलाए गए महिला सांसदों के एक सम्मेलन कमला मनकेकर ने पहले औरतों के अंदर जागरूकता लाने और फिर आरक्षण की बात क पर जोर दिया था ।

उनका कहना था कि, लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण की मांग क से पहले पचायतों में महिलाओं को मिले आरक्षण का आकलन करना होगा । अगर राजनीति प्रवेश करने के बाद महिलाएं पति के मन मुताबिक काम करें या उन्हीं की जुबान में बात तो ऐसे आरक्षण का कोई लाभ नहीं ।

यह चिंता बहुत-सी महिला नेताओं की है । यह सवाल तिहत्तरवें संविधान संशोधन द्वारा पंचा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था के समय भी उठा था । कई महिला पक्षधरों का मानना है कि महिलाओं में शिक्षा, जागरूकता और आर्थिक आजादी लाए बिना उन्हे आजादी लाए बिना उन्हें आरक्षण के जरिए सत्ता के गलियारों में पहुंचाना उचित नहीं ।

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मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व मालिनी भट्‌टाचार्य ने भी सांसदों की बैठक में आरक्षण की मांग का विरोध करते हुए का कि एक तरफ आरक्षण की मांग और दूसरी तरफ समानता की बात करना परस्पर विरोधी है । मालिनी भट्‌टाचार्य के मुताबिक, आरक्षण राजनीति में महिलाओं के प्रवेश के लिए भले ही सहायक साबित हो लेकिन केवल आरक्षण के जरिए राजनीति और शासकीय प्रक्रियाओं में महिलाओं की स्थिति मजबूत नहीं हो सकती ।

लेकिन एक हिन्दी दैनिक की सम्पादक मृणाल पांडे का मानना है कि आरक्षण महिलाओ को हर दरवाजे तक पहुंचाने का रास्ता है । उच्च राजनीति और शासकीय प्रक्रियाओं से जुडने में यह महिलाओं के लिए सीढी का काम करेगा । जब सौ या उससे अधिक सख्या में महिलाए संसद में अपनी बात रखेंगी तो वह निश्चय ही प्रभावशाली होगी । यही सर्वोच्च राजनीति में उनकी वास्तविक जगह बनाएगी ।

लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आरक्षण की यह सीढ़ी केवल सुयोग्य और काबिल महिलाओ को ही राजनीति के शीर्ष स्थानों पर पहुंचाएंगी । यह सवाल भी अहम है और वह भी उस स्थिति मे जब किसी पार्टी संगठन में दस प्रतिशत भी सक्रिय महिला सदस्य न हों ।

विभिन्न पार्टियों की महिला नेताओ की सोच है कि जब महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत सीटें पाने का भरोसा होगा तो बहुत-सी सुयोग्य महिला उम्मीदवार भी मिल जाएंगी । इस संदर्भ में कांग्रेस सांसद मारग्रेट अत्वा का कहना था कि जब भी हम महिलाओं के लिए अधिक सीटों की मांग करते हैं तो हमसे कहा जाता है क्यों तंग कर रही हो, जीतने वाली कौन है ? या महिलाएं हैं कहां ? लेकिन जितनी भी महिलाए आती हैं उनकी जीत का प्रतिशत अधिक ही रहता है ।

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ग्याहरवीं लोकसभा चुनाव का उदाहरण देते हुए उन्होने बताया कि 49 सीटें महिलाओं को दी गई थीं, उनमें से 16 यानी एक-तिहाई महिलाएं जीतीं, जबकि पुरुषों की जीत का प्रतिशत 25.6 था । इसलिए यह एक भ्रम है कि महिलाएं जीतती नहीं । जहां तक सुयोग्य और सक्रिय महिलाओं का सवाल है, बहुत-सी स्वायत संस्थाओं मे सक्रिय महिलाए हैं जो मौका मिलने पर आगे आएंगी ।

श्रीमती अल्पा के मुताबिक अक्सर महिलाओं को सीट देने के समय सौदेबाजी की जाती है जिसमें पुरुष नेताओं की पत्नियों या दूसरे सगे संबंधी भी शामिल रहते हैं । महिला उम्मीदवारों को दो चुनाव से अधिक मौके नहीं दिए जाते जबकि पुरुष हारने पर भी कई-कई बार चुनाव लड़ते हैं ।

काबिल महिलाओं के सवाल पर जनता दल की नेता प्रमिला दंडवते का मानना है कि हम प्रशिक्षण कार्यक्रम की बात कर रहे हैं । सभी पार्टियों को अपने स्तर पर सुयोग्य महिलाओं को आगे लाने के कार्यक्रम शुरू कर देने चाहिएं । उनके शब्दो में, महिलाओं को अभी से तैयारी में जुट जाना चाहिए क्योकि उन्हें अपनी योग्यता साबित करनी है जबकि पुरुष जन्म से ही योग्य माने जाते हैं ।

पंचायतों में आरक्षण को लेकर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि पंचायत चुनाव में जो महिलाएं चुनकर आ रही हैं वे अनपढ़ है । पंच महिलाएं अक्सर घूंघट निकाल कर अपने पतियों के इशारों पर काम करती हैं । उन्हें अपने इलाके की समस्याओं तक की जानकारी नहीं होती ।

वे जनप्रतिनिधित्व नियम तक का अर्थ नहीं जानती । इन हालात में लोकसभा-विधानसभा में उनकी गिनती बढ़ाना कहां तक उचित है । भले ही कुछ हद तक यह आरोप सही हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पंचायत में आकर ही महिलाओं ने अनपढ़ होते हुए भी सीधे-सीधे अपनी निर्णय लेने की शक्ति को पहचाना है ।

यह ठीक है कि वे बहुत से फैसले घूंघट में रहकर पुरुष सदस्यों के इशारों पर करती रही हों । लेकिन इन्हीं अनुभवों ने उनमें अपने बूते पर फैसले करने की इच्छा भी जगाई है । समाज सेविका आशा रमेश इन आरोपों की हकीकत उजागर करते हुए कहती हैं कि कर्नाटक के पंचायत राज में महिला आरक्षण के अनुभवों ने हमें सिखाया है कि महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने की यह काफी सार्थक पहल है ।

कर्नाटक की पंचायतों में जो महिलाएं शुरू में डम्मी उम्मीदवार का काम कर रही थी, आज उन्होंने खुद फैसले लेने शुरू कर दिए हैं । जो महिला पंच अपने पतियों के साथ चल कर कामकाज देखती थीं, वहीं आज ऐसे कानून लाने की मांग कर रही है जिससे उनके कामकाज में पतियों का हस्तक्षेप बंद हो सके ।

महिलाओं के लिए आरक्षण पर विचार करते समय सबसे पहला प्रश्न यही उठता है कि क्या इस तरह का आरक्षण आवश्यक है ? क्या बिना आरक्षण के प्रतिनिधि संस्थाओं और राजकीय सेवाओं में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व मिलना असंभव है ?

इन प्रश्नों के सही उत्तर पाने के लिए हमें इन क्षेत्रों में महिलाओ की वर्तमान स्थिति पर एक दृष्टि डालनी पड़ेगी । विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है । चद उदाहरणों से ही स्थिति की सत्यता को उजागर किया जा सकता 1978 में बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्पू और कश्मीर, केरल, मणिपुर, नागालैंड, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ, दादरा-नगर हवेली, दिल्ली, गोवा, लक्षद्वीप और पांडिचेरी की विधानसभाओं में या प्रतिनिधि संस्था में एक भी महिला विधायक नहीं थी । उस समय पूरे भारत में महिला विधायकों की संख्या कुल 30 थी ।

राजकीय सेवा में भी महिलाओं की भागीदारी न्यून रही है । सचिव स्तर के पुरुष अधिकारियों की संख्या जहां 75 है वहीं मात्र एक महिला को इस स्तर पर पहुंचने का श्रेय मिला है । इसी प्रकार अतिरिक्त सचिव स्तर के 293 पुरुष अधिकारी हैं वहीं मात्र 16 महिलाएं ही इस स्तर पर पहुंची । संयुक्त सचिव के मामले में भी महिलाएं काफी पिछड़ी हैं ।

जहां पुरुष संयुक्त, सचिव 1114 हुए हैं वहीं 57 महिला संयुक्त सचिव हुई हैं । इन आकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि महिलाओ की प्रगति की गति केंचुये से भी धीमी है । सक्रिय राजनीति में संलग्न महिलाओं की संख्या नगण्य नहीं है । बंगाल और महाराष्ट्र में मुख्य राजनीतिक दलों के पास अच्छी संख्या में महिला कार्यकर्ता हें । फिर भी लोकसभा और विधानसभाओं के द्वार उनके लिए लगभग बंद से रहे हैं ।

ममता बनर्जी, उमा भारती, फूलन देवी ऐसे अपवादों को छोड्‌कर जो भी महिलाएं लोकसभा या विधानसभा तक पहुंच पायी हैं वे सभी चोर दरवाजों से दाखिल हुई हैं- नेता-पति या नेता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी या पुत्री को उसके क्षेत्र में चुनाव के लिए खडा कर दिया जाता है ।

टिकट देने वाले दल का उद्‌देश्य किसी महिला को टिकट न देना रहा है । जब देने के लिए सरकारी नौकरियाँ होंगी नहीं, तब आरक्षण महिलाओं के जीवन में क्रान्तिकारी आर्थिक परिवर्तन कैसे लाएगा । यह बात हमारी समझ के बाहर है । इस समय आई.ए.एस. तथा प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी की केन्द्रीय सेवाओं में रिक्त स्थान कुल मिलाकर 732 हैं ।

इनमें यदि महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत नौकरियाँ दे भी दी जायें तो उससे भारतीय महिलाओं का आर्थिक उद्धार नहीं हो पाएगा । कुछ सुविधा-सम्पन्न महिलाओं की दो-चार सुविधाएं और बढ़ाना प्रतिनिधित्व का मौका देना नहीं अपितु नेता की मृत्यु के बाद जन्मी सहानुभूति की लहर का दलगत लाभ उठाना मात्र होता है ।

जो सहानुभूति की सीढी पर चढ़कर नहीं पहुंचती है वे परिवार की प्रतिष्ठा और वैभव के बल पर पहुंचती हैं । राजनीतिक दल वायदे कुछ भी करें चुनाव के वक्त महिलाओं को टिकट देने से सभी घबराते हैं । 1995 के बिहार विधानसभा के चुनाव के अवसर पर कांग्रेस ने 19, भाजपा ने 14 और जद ने कुल 5 महिला उम्मीदवारों को खड़ा किया था । आकांक्षा और क्षमता के बाद भी स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडने का साहस महिलाएं नहीं जुटा पाती हैं । उसके कुछ विशेष कारण हैं ।

दिन-प्रतिदिन बढती राजनीतिक हिंसा का सामना करने के साधन महिलाओं को उपलब्ध नहीं है । नागपुर की स्त्री अत्याचार विरोधी परिषद द्वारा आयोजित सम्मेलन में स्थानीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व करने वाली जो श महिलाएं एकत्रित हुई थी उनमें से 32 महिलाएं खुद हिंसात्मक हमलों का शिकार हुई थीं और 19 महिला उम्मीदवारों के कार्यकर्ताओं को विरोधी पक्ष के गुंडों ने गंभीर रूप से घायल कर दिया था ।

राजनीति में बढ़ती हिंसा ने राजनीति मे महिलाओं की भागीदारी पर नाकाबंदी-सी कर दी है । महिलाएं इसलिए भी चुनाव लडने से घबराती हैं क्योंकि उनके पुरुष प्रतिद्वद्वी चरित्र हनन के रामबाण को अपनाने से यदा-कदा ही चुकते है । निर्दोष होने पर भी इस कह के गंदे प्रचार का प्रतिवाद करना महिला उम्मीदवारों को कठिन हो जाता है ।

महिलाएं राजनीतिक दलों और चुनाव में धन-दान करने वालों की कृपा का पात्र इस कारण भी नहीं बनती हैं क्योंकि पुरुषों की तरह से भ्रष्टाचार में साझेदार नहीं बन पाती हैं । जैन की हवाला डायरी में किसी महिला राजनेता का नाम नहीं है । बिहार के पशुपालन विभाग के घोटाले के साथ भी किसी महिला का नाम अभी तक नहीं जुड़ा है ।

राजकीय सेवाओं में महिलाओं की जो थोड़ी बहुत उपस्थिति है उसको उनकी प्रगति और प्रभाव का प्रमाण नहीं मान लेना चाहिए । आकड़ों से पता चल जाता है कि राजकीय सेवा में न केवल उन्हें उच्चतम पदो से लगभग वंचित रखा गया है, वरन् निर्णय लेने की प्रक्रिया के आसपास भी उन्हें फटकने नहीं दिया गया है ।

उद्योग, राजस्व, रक्षा मंत्रालय ऐसे महत्वपूर्ण विभागों में उन्हें हाशिये पर ही रखा गया हे । पुरुषों के दिमाग में महिलाओं की जो तस्वीर है उसी के अनुसार विभागों के साथ महिलाओं को विशेष प्रकार से जोड़ दिया गया है । वे विभाग हैं-समाज कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि । जहां रक्षा मंत्रालय में वे संख्या में मात्र 1.34 प्रतिशत हैं वहां स्वास्थ्य मंत्रालय में उनकी संख्या 23.09 प्रतिशत है ।

कई राज्यों में कुछ जिलों को भी महिला अफसरों का विशेष क्षेत्र बना दिया गया है । मध्य प्रदेश में देवास और केरल में तिरुवनंतपुरम आदि ऐसे ही जिले हैं न्यायतंत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अन्य राजकीय सेवाओं की तरह है ।

उच्चतम न्यायालय के 21 न्यायाधीशों में से केवल एक महिला को ही ऐसा सम्मान मिला है । उच्च न्यायालय के 419 न्यायाधीशों में से महिलाओं की संख्या 14 है । अभी तक दिये गये तथ्यों को यदि ध्यान में रखा जाये तो दो निष्कर्ष साफ निकलते हैं- एक, राजनीति और राजकीय सेवा दोनों ही में महिलाओं के साथ गहरे भेदभाव का बर्ताव हो रहा है ।

उनकी प्रतिमा को नकारकर पुरुषों क्ए मुकाबले में उन्हें दूसरे, तीसरे नहीं बल्कि चौथे दर्जे में रखा जा रहा है । दो, वर्तमान स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए आरक्षण अत्यंत आवश्यक और एकमात्र उपाय है । राजनीति के क्षेज् में आरक्षण से महिलाएं किस तरह एक सार्थक भूमिका निभा सकती हैं तथा समाज में किस तरा के बदलाव ला सकती हैं इसका कुछ अंदाजा पंचायत के स्तर पर किये गये आरक्षण से लगार जा सकता है ।

महाराष्ट्र के बिटरगांव की सर्व महिला पंचायत ने सारा दायित्व कुशलता के सा; निभाकर पुरुषों को चकित कर दिया । अशिक्षित महिला सदस्यों ने बिना झिझक स्थानीय विद्याल: के शिक्षकों से हिसाब-किताब रखना सीख लिया । उन्होंने जुऐबाजी को खत्म किया और शरा के अडुाएं पर कडी निगाह लगा दी ।

राजनीति में सीधे भागीदारी से महिलाओं में नेतृत्व की कला आयी और उनमें आत्मविश्वा का विकास हुआ । मध्य प्रदेश की दो जमात तक पढी हुई, जाति की कुम्हार विसहिन बाई ने चुने जाने पर चंद ही महीनों में गांव के विकास के लिए क्या-क्या कार्य करना आवश्यक लिया था ।

ऐसा होना कोई अचरज की बात नहीं है । ग्रामीण क्षेत्रों मे गाव की समस्याए में महिलाओं की निजी समस्याओं का ही बृहत् रूप है-समस्या चाहे पीने के पानी की या स्वास्थ्य केन्द्रों की । इन समस्याओं को समझने के लिए औपचारिक शिक्षा या शिक्षित शहरी का दिग्दर्शन आवश्यक नहीं है ।

पंचायतों में महिलाओं की सक्रियता हमें उनकी क्षमता के में आश्वस्त कराती है तथा यह विश्वास भी जगाती है कि यदि विधानसभा और लोकसभा आरक्षण लागू किया गया तो सभी सरकारे उन मसलों पर विचार करने के लिए बाध्य हो प्पु जिनका महिलाओ से सीधा सबध है । महिलाए अपने मसलों को खुद ही उठाएगी और ही उनका हल निकाल लेगी ।

आरक्षण से पुलिस तथा न्यायतत्र में महिलाओं की आवाज प्रभावशाली हो जाएगी । दहेज के स्त्रियों को जलाने वाले या बलात्कार के अपराधी महिला न्यायाधीशो की अदालत में पुरुष- के लाभ से वंचित हो जाएगे । तलाक तथा तलाक के बीच फसे बच्चें के सरक्षण के मसले भी महिला-पक्ष की ओर से देखा जा सकेगा ।

महिलाओं के लिए आरक्षण मांगने वाले संगठन था उनको आरक्षण देने वाले अभी तक दिये गये तर्कों को ही अपने निर्णय का आधार बनाते कितु महिलाओं को दिये जाने वाले आरक्षण में निहित सभी संभावनाएं सकारात्मक ही नहीं । नकारात्मक संभावनाएं भी अनेक हैं ।

लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाएं आएंगी । ठीक है, लेकिन किस तरह’ किसी दल के प्रतिनिधि के रूप मे या निर्दलीय सदस्य के रूप में ? अगर किसी दल से जुडी होंगी तो उनकी ताकत शाब्दिक प्रहार तक ही सिमट कर रह जाएगी ।

महिलाओं के लिए डि की हैसियत (कुछ भी ठोस) अर्जित कर पाना उनके लिए संभव नहीं हो पाएगा । कुछ ठोस डि करने के लिए वे राजनीतिक दलो की कृपा पर निर्भर होगी । राजनीतिक दलो। से जुडी अपने दलों के कार्यक्रम और नीतियों के विरुद्ध नहीं जा संकती हैं ।

भले ही उनमे से महिला-हित विरोधी हो । लगभग सभी महिला सगठन कॉमन सिविल कोड की मांग कर रहे ताकि मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न को रोका जा सके । संयुक्त मोर्चे मे शामिल कोई भी दल ल दिशा में कोई भी कदम उठाने को उत्सुक नहीं है ।

इसी तरह का दूसरा उदाहरण आध्र देश में महिलाओं द्वारा शराबबंदी की माग है । यदि इस तरह का कोई फैसला होता तो आरक्षण दरवाजे से आयी महिला विधायक या मंत्री अपने पद या दल से त्यागपत्र देगी ?महिलाओं को दिये जाने वाले आरक्षण विधानसभाओं और लोकसभा में महिलाओं की संख्या बढ़ाएगा, महिलाओं की समस्याओ का निदान नहीं करेगा । यदि लोकसभा और विधानसभा में ‘ओं के आने के बाद भी उनके सरोकार से जुडे प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं तब इस तरह आरक्षण का अर्थ क्या है ?

महिलाओं को आरक्षण क्यों दिया जाये ? राजनीतिक संगठन यदि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के लिए व्याकुल है तो सगठन के भीतर स्वय उन्हें क्यो नहीं देते ?  चुनाव में प्रभावशाली सख्या मे उन्हें अपना उम्मीदवार क्यो नहीं बनाते बढावा देने के लिये आरक्षण की आड क्यो ले रहे हैं ? वे ऐसा नहीं कर रहे है, इसका कारण ।

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आरक्षण के पीछे इन संगठनो का उददेश्य महिलाओ की भागीदारी बढाना नहीं अपितु अपने वर्चस्व का विस्तार करना है । एक खतरा और भी है । अगले चुनावों में सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले संगठन इस महिला-आरक्षण पर भी मंडल की चादर केलाने की कोशिश करेंगे । महिला आरक्षण में पिछडी जातियों की महिलाओं के हिस्से को अलग करने का प्रयास होगा ।

इनका अनुकरण दलित जातियों के संगठन भी करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । महिला आरक्षण के मंडलीकरण से ये संगठन आरक्षण को उस सीमा के पार ले जाएंगे जो उच्चतम न्यायालय ने निश्चित की है । संयुक्त मोर्चे की राजनीतिक उदारता का उद्‌देश्य और उसके पीछे छुपा रहस्य यही है । कुछ अपवादों को छोड़कर महिला-आरक्षण का कायाकल्प बहिन-भतीजीवाद में हो जाएगा ।

महिला आरक्षण प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मत्रियों के परिवार की महिलाओं के राजनीतिक मार्ग प्रशस्त करने के लिए सुलभ साधन साबित होगा । आरक्षण का अधिकांश लाभ शिक्षित महिलाओं तक सीमित होकर रह जाएगा । अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं को केन्द्र की ऊंची नौकरियों से कोई लेना-देना नहीं है ।

गाँव में ऐसी नौकरियाँ नहीं हैं जिन पर महिला आरक्षण के तहत वे अपना दावा ठोक सकें । प्रशासन में पदोन्नति या राजकीय सेवा के हर विभाग में महिलाओं के प्रवेश के लिए आरक्षण नहीं प्रशासन में आन्तरिक सुधार की आवश्यकता है ।

आरक्षण से वे बाधाएं कदापि समाप्त नहीं होंगी जितका स्वरूप वास्तव में प्रशासकीय है । आरक्षण देकर महिलाओं को सुविधापूर्ण ढंग से कई खानों में बांट दिया जाएगा-शहरी, ग्रामीण, अगड़ी-पिछड़ी, शिक्षित-अशिक्षित । इनके साथ ही सामुदायिक खाने भी होंगे । टुकडो-टुकडों में बंटी महिलाओं में अपने अस्तित्व की सामूहिक चेतना कभी नहीं आ पाएगी ।

अपनी सच्ची शक्ति का उन्हें सही आभास भी नहीं हो पाएगा । राजकीय सेवाओं मे आरक्षण एक मृगमरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं है । आर्थिक उदारीकरण के बाद से सरकारी नौकरियों को घटाया जा रहा है, उनकी संख्या में वृद्धि नहीं की जाएगी । बस इतना भर ही होगा ।

आरक्षण के नकारात्मक पक्षों को ध्यान में रखते हुये यही तर्कसंगत और उचित लगता है कि राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए आरक्षण केवल गाव और जिले के स्तर तक ही सीमित रखना चाहिए । जमीन से जुडी राजनीति में जमीन से जुडी महिलाएं ईमानदार एव सच्ची होगी । संसद या विधानसभा में प्रवेश की आकांक्षा रखने वाली महिलाओं को अपनी जमीन खुद बनानी चाहिए ।

इस जमीन का आधार उनके द्वारा की गयी जनसेवा होगी । आरक्षण से मिला वरदान नहीं । शिक्षित-महत्वाकाक्षी महिलाए राजनीति के बहाने सत्ता में हिस्सेदारी के लिए कुलबुला रही हैं । महिला संगठनो में बैठी ये महिलाएं परिष्कृत अंग्रेजी में राजनीति में भागेदारी अर्थात् आरक्षण की मांग अक्सर दुहराती रहती हैं ।

सत्ता की आकाक्षा रखना या राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी होना कोई पाप नहीं है । आपत्तिजनक केवल यह है कि इस वर्ग की महिलाएं भारतीय राजनीति की ऊबड-खाबड जमीन से अपने पैरों को बचाती ससद या विधानसभा तक घुसपैठियों की शैली से पहुंचना चाहती है ।

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इसलिए आवश्यकता आरक्षण की नहीं ऐसा वातावरण बनाने की है जो सभी राजनीतिक दल को महिलाओ को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए बाध्य कर सके । यदि ऐसा किया जा सके तो महिलाओं की संख्या इन सस्थाओं मे केवल एक-तिहाई तक सीमित नहीं रहेगी । यह बढकर चाली या पैंतालीस प्रतिशत भी हो सकती है ।

राजनीतिक दल जब चुनाव के टिकट बाटने मे उदारा और उन्हे जिताने का यथासभव प्रयास करेगे तो महिलाएं स्वत: राजनीति में उतरने के प्रोत्साहित हो जाएगी । आरक्षण की वकालत करके राजनीतिक सगठन महिलाओ के प्रति अपने तायित्व से मुँह चुरा रहे हैं ।

उनको भी ऐसा मार्ग सुहाता है जहाँ बिना विशेष यत्न के संसद या विधानसभा में उनके सदस्यों की संख्या बढ़ जाये । महिलाओं के लिए आरक्षण में उन्हें एक ऐसे मार्ग की झलक मिल रही हे । आरक्षण महिलाओं को शिखर तक पहुँचाने वाली कमंद नहीं है ।

इसके पीछे कई राजनीतिक चाले हैं । जो महिलाएं पानी ढोने के लिए प्रतिदिन कोस दो कोस की यात्राएं तय करती हैं, जिनकी सुबह रसोई के ईंधन के लिए लकड़ी बीनते या कड़े थापते शाम में बदल जाती है, जिनकी नित्य क्रियाएं खुले मैदानों में होती हैं, जो शिशु को जन्म देने की प्रक्रिया में मृत्यु की गोद में चली जाती हैं, उन्हें कुंआ चाहिए, उन्हें आधुनिक ईंधन, अस्पताल, शिक्षा चाहिए ।

उन्हें आरक्षण नहीं चाहिए । आरक्षण के पास उनकी इन समस्याओं का कोई हल नहीं है फिर भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाएगा । महिलाएं आरक्षण पाकर गदगद होंगी । किन्तु जिन महिलाओं को आरक्षण दिया जाएगा और जिन्हें आरक्षण मिलेगा, वे दूसरे संसार की महिलाएं होंगी । महिला आरक्षण की जगह अगर इसका नाम बदलकर कुछ और नाम रख दिया जाये तो ज्यादा ईमानदारी की बात होगी ।

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